करेंसी, कमोडिटी और सरकारी सिक्योरिटीज – Varsity by Zerodha https://zerodha.com/varsity/module/करेंसी-कमोडिटी-और-सरकारी/ Markets, Trading, and Investing Simplified. Mon, 27 Apr 2020 05:23:30 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.4.5 सरकारी/गवर्नमेंट सिक्योरिटीज https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a8%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%b0/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a8%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%b0/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:54:18 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7505 19.1 – एक नई शुरूआत एक नई और बहुत अच्छी बात हुई है, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) ने RBI के साथ मिलकर पिछले दिनों रिटेल इन्वेस्टर के लिए गवर्नमेंट सिक्योरिटीज में, खासतौर पर लॉन्ग डेटेड बॉन्ड्स और ट्रेजरी बिल (T-Bills) में, निवेश करने का रास्ता खोल दिया है।  पहले इन प्रॉडक्ट में केवल बैंक या […]

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19.1 – एक नई शुरूआत

एक नई और बहुत अच्छी बात हुई है, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) ने RBI के साथ मिलकर पिछले दिनों रिटेल इन्वेस्टर के लिए गवर्नमेंट सिक्योरिटीज में, खासतौर पर लॉन्ग डेटेड बॉन्ड्स और ट्रेजरी बिल (T-Bills) में, निवेश करने का रास्ता खोल दिया है। 

पहले इन प्रॉडक्ट में केवल बैंक या बड़े वित्तीय संस्थान ही निवेश कर सकते थे। लेकिन अब हम भी इनमें निवेश कर सकते हैं और गारंटी के साथ मिलने वाले आकर्षक रिटर्न का फायदा ले सकते हैं। लेकिन क्योंकि यह नए वित्तीय प्रोडक्ट हैं (कम से कम रिटेल इन्वेस्टर के लिए), इसलिए इनमें निवेश के पहले इनको समझना और इनके बारे में जानना जरूरी है, तभी आप इनका पूरा फायदा उठा सकते हैं। इसीलिए हमने इनसे जुड़े हुए सारे सवालों को एक FAQ- Frequently Asked Questions के तौर पर नीचे रखा है, जिससे आपको इनसे जुड़ी सारी जरूरी जानकारी मिल सके। 

इसको पढ़िए और नीचे अपने कमेंट लिखिए

19.2 – गवर्नमेंट सिक्योरिटीज (G-Sec) पर FAQs

 

मैं किस चीज में निवेश कर रहा हूं? 

आप भारत सरकार द्वारा जारी बॉन्ड और ट्रेजरी बिल में निवेश कर रहे हैं। चूंकि यह भारत सरकार से समर्थित प्रोडक्ट हैं इसलिए इनमें निवेश लगभग रिस्क फ्री (risk-free) है, मतलब पैसे डूबने की उम्मीद ना के बराबर है। सरकार द्वारा दी जाने वाली गारंटी को सॉवरिन गारंटी (Sovereign Guarantee) भी कहते हैं। 

बॉन्ड और ट्रेजरी बिल (T-Bills) क्या होते हैं? 

मुझे और आपको जब पैसे की जरूरत होती है तो हम कर्ज लेने के लिए बैंक के पास जाते हैं। कर्ज के बदले हम बैंक को यह वादा करते हैं कि हम उन्हें लगातार ब्याज(इंटरेस्ट) का भुगतान करते रहेंगे और एक निश्चित समय के बाद इस पैसे (मूलधन) को वापस कर देंगे। यह एक आम तरीका है जिसमें ब्याज और मूलधन बैंक को वापस किया जाता है। 

ठीक इसी तरह से, भारत सरकार को भी सड़कें बनाने, पुल बनाने, बांध और अस्पताल आदि बनाने के लिए पैसे की जरूरत पड़ती है। जब उनके पास पैसे की कमी होती है तो वो कर्ज लेने के लिए अपने बैंक के पास जाते हैं। उनका बैंक है- RBI। सरकार के इस कर्ज को RBI बॉन्ड या ट्रेजरी बिल के रूप में नीलाम करता है। जिसे आप और मैं खरीद सकते हैं। तो एक तरह से, सरकार जो कर्ज ले रही है, उस कर्ज का एक हिस्सा आप सरकार को दे रहे हैं। इस कर्ज के बदले भारत सरकार हर कुछ समय पर एक निश्चित ब्याज आपको देने का वादा करती है और एक तय समय के बाद आपका मूलधन आपको वापस करती है। 

वो कर्ज जिसे भारत सरकार 1 साल के अंदर वापस करती है उसे ट्रेजरी बिल या t-bill कहा जाता है। ऐसा कर्ज जिसे सरकार कई सालों के बाद वापस करना चाहती है उसे बॉन्ड्स कहा जाता है।

मुझे क्या चुनना चाहिए ट्रेजरी बिल या बॉन्ड?  

अगर आप अपने पूंजी को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो दोनों ही अच्छे निवेश हैं। इन दोनों के बीच में आपको कौन सा चुनना चाहिए उसके लिए कुछ चीजों पर नजर डालनी होगी।

वह कौन सी चीजें हैं जिनको देखना चाहिए? पहले T-Bills के बारे में बताइए 

T-Bills यानी ट्रेजरी बिल के तीन प्रकार होते हैं जो अलग-अलग अवधि के होते हैं-  91 दिन, 182 दिन और 364 दिन। T-Bills में इंटरेस्ट यानी ब्याज अलग से नहीं बताया जाता। वास्तव में T-Bills और बॉन्ड के बीच का यही सबसे बड़ा अंतर है। T-Bills को उनकी वास्तविक कीमत (यानी PAR कीमत) से डिस्काउंट यानी छूट पर जारी किया जाता है और एक्सपायरी के समय आपको उनकी वास्तविक कीमत मिलती है।

यह समझने में थोड़ा मुश्किल लग रहा है क्या आप किसी उदाहरण से समझा सकते हैं? 

मान लीजिए 91 दिन का T-Bill है। अब मान लीजिए कि इसकी वास्तविक कीमत (इसे PAR कीमत भी कहते हैं) 100 है। अब यह T-Bill आपको PAR कीमत से डिस्काउंट पर मिलेगा। मान लीजिए ये आपको 97 पर मिलता है। अब 91 दिनों के बाद मैच्योरिटी पर आपको इसके बदले में 100 वापस मिलेंगे और आप इस पर 3 की कमाई कर रहे होंगे। इसको इस तरह से समझिए कि मान लीजिए आप ने एक अच्छा स्टॉक 97 पर खरीदा और 91 दिनों के बाद उसे 100 पर बेच दिया। यहां अंतर सिर्फ यह है कि यह एक गारंटी वाला सौदा है।

क्या T-Bill के बारे में मुझे और कुछ जानना चाहिए? 

नहीं, इसके अलावा कोई और ऐसी जरूरी चीज नहीं है। आपको सिर्फ यही याद रखना है कि T-Bills आपको PAR कीमत से एक डिस्काउंट पर जारी होता है और मैच्योरिटी पर उसकी पूरी कीमत मिलती है। अगर आप तकनीकी तौर पर और जानकारी जुटाना चाहते हैं, तो आपको इस निवेश की कमाई यानी यील्ड (yield) के बारे में पता कर सकते हैं। 

जरूर, मुझे मुझे तकनीकी जानकारी भी चाहिए 

यील्ड (yield) वास्तविक तौर पर आपके निवेश पर मिलने वाली सालाना कमाई है। हर निवेश की कमाई वार्षिक यानी सालाना कमाई के तौर पर नापी जाती है। तो,अगर आपने 91 दिनों में 3 की कमाई की है तो आप इस दर पर पूरे साल में कितनी कमाई कर रहे हैं। 

इसे पता करने का फार्मूला यह है 

यील्ड = [डिस्काउंट कीमत]/[ बॉन्ड कीमत] * [365/ मैच्योरिटी के लिए दिन]

Yield = [Discount Value]/[Bond Price] * [365/number of days to maturity]

= [3/97]*[365/91]

= 0.0309*4.010989

=12.4052%

तो दूसरे शब्दों में कहें तो, टी-बिल (T Bill) आपको 12.4052% की कमाई करके दे रहा है। लेकिन आपने इसको सिर्फ 91 दिनों के लिए रखा है इसलिए आपकी कमाई उस हिसाब से हो रही है।

आमतौर पर 91 दिन की T-Bills की कमाई करीब 6% से 7.5% प्रतिशत के बीच में होती है, यील्ड जितना ज्यादा होती है उतना अच्छा माना जाता है 

T-Bills की मैच्योरिटी पर क्या होता है? 

मैच्योरिटी पर सरकार आपके डीमैट एकाउंट से T-Bills खुद ही निकाल लेती है, इसे एक्सटिंग्वश्मेंट ऑफ सिक्योरिटी(Extinguishment of securities) कहा जाता है और उसके बाद जितने सिक्योरिटीज आपके पास हैं उसके हिसाब से पैसे डीमैट एकाउंट से जुड़े आपके बैंक एकाउंट में डाल दिए जाते हैं। 

T-Bills से जुड़ी हुई जानकारी इतनी ही है या कुछ और भी जानना चाहिए?

जी नहीं, आपको और कुछ जानने की जरूरत नहीं है

ठीक है, अब मुझे बॉन्ड के बारे में बताइए 

बॉन्ड और टी बिल से दो मामलों में अलग होते हैं। पहला, बॉन्ड की मैच्योरिटी का समय लंबा होता है और दूसरा, उसमें आपको साल में दो बार ब्याज मिलता है। 

क्या मुझे एक उदाहरण से समझा सकते हैं?  

सरकार के द्वारा जारी होने वाले हर बॉन्ड का एक अलग नाम या एक पहचान चिन्ह (symbol) होता है, इस पहचान में वह सारी जानकारी होती है जो आपको चाहिए। उदाहरण के तौर पर एक पहचान पर नजर डालिए – 740GS2035A इसका मतलब क्या है देखिए- 

वार्षिक ब्याज दर – 7.40% 

प्रकार – गवर्नमेंट सिक्योरिटीज (GS

मैच्योरिटी – 2035 

इश्यू (Issue) – A का मतलब है कि यह नया इश्यू है (अभी आपको इसके बारे में जानने की जरूरत नहीं है। बस यह याद रखिए कि यह नाम देने का NSE का अपना अपना तरीका है) 

यह बॉन्ड 2035 में एक्सपायर हो रहा है यानी आज से 17 साल बाद (अभी मैं 2018 में इसे लिख रहा हूं)। अगर आप इस बॉन्ड में निवेश करते हैं तो 2035 तक आपको हर साल 7.4% का ब्याज मिलेगा। ध्यान रखें कि यह ब्याज आपको छमाही तौर पर मिलेगा, मतलब आपको 3.7% ब्याज हर साल में 2 बार मिलेगा और मैच्योरिटी पर आपको आपका मूलधन वापस मिल जाएगा।

कुछ और गवर्नमेंट सिक्योरिटीज के सिंबल नीचे दिखाए गए हैं

पहचान वार्षिक ब्याज छमाही ब्याज मैच्योरिटी # मैच्योरिटी में बचे साल
662GS2051 6.62% 3.31% 2051 33
668GS2031 6.68% 3.34% 2031 13
737GS2023 7.37% 3.68% 2023 5

क्या आप मुझे एक उदाहरण से समझा सकते हैं कि अगर मैं बॉन्ड में निवेश करूं तो मैं कितना कमा लूंगा? 

ठीक है, लेकिन इसके बारे में जानने के पहले एक और जरूरी चीज आपको जाननी चाहिए। 

हर बॉन्ड की एक पार(PAR) वैल्यू यानी वास्तविक कीमत होती है। मान लीजिए वह कीमत 100 है। जब आप बॉन्ड में निवेश करते हैं तो आप या तो डिस्काउंट पर करते हैं (जैसे 98,97) या वास्तविक कीमत पर करते हैं (100) या फिर आप प्रीमियम पर करते हैं (जैसे 101,102)। आप किस कीमत पर निवेश करेंगे यह एक प्रक्रिया पर निर्भर करता है जिसे नीलामी (Auction) कहा जाता है। यह क्या होता है यह हम बाद में बताएंगे, लेकिन अभी आपको यह जानना है कि आप बॉन्ड में वास्तविक कीमत पर, डिस्काउंट पर या प्रीमियम पर निवेश कर सकते हैं। 

अब मान लीजिए कि आपने 700GS2020 (7% ब्याज और 2020 में मैच्योरिटी यानी अबसे 2 साल बाद) बॉन्ड में डिस्काउंट पर यानी 98.4 पर निवेश किया। मान लीजिए कि आपने ऐसे 150 बॉन्ड खरीदे हैं। इसलिए आपको कुल रकम देनी पड़ेगी

150*98.4

= Rs. 14,760/-

जिस समय आपने निवेश किया उस समय से आपके लिए ब्याज शुरू हो जाता है। ब्याज आपको बॉन्ड के फेस वैल्यू पर मिलता है। तो आपकी कमाई कुछ इस तरह से होगी- 

समय अवधि ब्याज कैश फ्लो टिप्पणी
0 – 6 महीने 3.5% 3.5% * 100 * 150 = Rs.525 छमाही ब्याज
6 महीने  – 1 साल 3.5% 3.5% * 100 * 150 = Rs.525 छमाही ब्याज
1 – 1.5 साल 3.5% 3.5% * 100 * 150 = Rs.525 छमाही ब्याज
1.5 – 2 साल 3.5% 3.5% * 100 * 150 = Rs.525 छमाही ब्याज
मैच्योरिटी पर (2 साल बाद) मूलधन वापस वास्तविक कीमत (Par कीमत) पर 150 * 100 = 15,000 अतिरिक्त Rs.240

तो 14760 के निवेश पर आप की कमाई होगी 

525 + 525 + 525 + 525 + 15,000

= 2100 + 15,000

Rs.17,100/-

अगर आप पूरी गणना करें तो आपके लिए यील्ड करीब 7.88% होगी। RBI यील्ड की गणना को यहां बहुत अच्छे से समझाया है। calculation of yield 

मैंने यील्ड टू मैच्योरिटी (Yield to Maturity) का काफी नाम सुना है, क्या यह वही है? 

जी नहीं, यह थोड़ा अलग है। यील्ड टू मैच्योरिटी (Yield to Maturity) यानी YTM की गणना थोड़ा मुश्किल है। YTM की गणना में यह माना जाता है कि आपको जो ब्याज मिल रहा है उसे आपने वापस उसी तरह के बॉन्ड में वापस निवेश कर दिया है, जिसकी वजह से आपको उस ब्याज पर भी ब्याज मिलेगा। बॉन्ड के ट्रेडर्स और इंस्टिट्यूशनल निवेशक हमेशा सिर्फ YTM ही देखते हैं क्योंकि यही वह तरीका है जिससे वह दो अलग-अलग बॉन्ड के बीच कमाई की तुलना करते हैं। 

यह लगभग वैसा ही है जैसे अगर आप अपने स्टॉक से मिलने वाले डिविडेंड को वापस उसी स्टॉक में निवेश कर दें। 

अब हमें ब्याज के भुगतान के बारे में बताएं यह हमें कैसे मिलता है? 

ब्याज सीधे-सीधे आपके उस बैंक अकाउंट में आ जाता है जो आपके डीमैट अकाउंट से जुड़ा हुआ है, ठीक उसी तरीके से जैसे आपको कंपनी के शेयरों का डिविडेंड अपने आप मिल जाता है। 

क्या आप इस नीलामी की प्रक्रिया के बारे में मुझे कुछ बता सकते हैं? 

कुछ समय पहले तक G-Sec बॉन्ड और T-Bills में निवेश सिर्फ बैंकों और बड़े वित्तीय संस्थानों के लिए खुला हुआ था और इसमें निवेश की न्यूनतम रकम 5 करोड़ थी। लेकिन हाल ही में NSE और RBI ने इसे रिटेल निवेशकों के लिए भी खोल दिया है और उनके लिए न्यूनतम निवेश की रकम को 10,000 कर दिया है।

लेकिन बॉन्ड के लिए आपको क्या कीमत देनी पड़ेगी, यह अभी भी बड़े बैंक और बड़े वित्तीय संस्थान ही तय करते हैं। ये सब RBI के नीलामी प्लेटफॉर्म पर अपने बिड डालते हैं और RBI उसके आधार पर बॉन्ड की कीमत तय करता है। तो नीलामी एक तरह से वह प्रक्रिया है जिसमें बॉन्ड की कीमत तय होती है। इसे बॉन्ड का वेटेड एवरेज प्राइस (Weighted Average Price) कहा जाता है। 

तो क्या मैं बॉन्ड खरीदने के लिए वेटेड एवरेज प्राइस देता हूं? 

हां और नहीं।

अपना ऑर्डर देते समय आप थोड़ा ज्यादा कीमत देते हैं, इसे अमाउंट पेयबल (Amount Payable) कहा जाता है। एक बार जब सारे ऑर्डर आ जाते हैं तब फिर नीलामी की प्रक्रिया शुरू होती है और RBI तय करता है कि weighted average कीमत क्या होगी? अमाउंट पेयबल और weighted average कीमत के बीच के अंतर की रकम आपके बैंक अकाउंट में अगले दिन दे दी जाती है। 

कहा जाता है कि गवर्नमेंट सिक्योरिटी में निवेश बैंक के FD से ज्यादा बेहतर होता है, ऐसा क्यों होता है?

इसकी कई वजहें हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह यह है कि G-Sec पर यील्ड FD से बेहतर होता है। इन दोनों के यील्ड की एक तुलना नीचे दिखाई गई है- 

91 दिन 184 दिन 364 दिन 1 साल 2 साल 3 साल 5 साल 10 साल
FD (यील्ड) 6.00 6.03 6.38 6.42 6.47 6.53 6.40 6.42
GSec (यील्ड) 6.02 6.20 6.41 6.45 6.80 7.05 7.33 7.34

*Source: Average interest paid by major PSU Banks

 

बेहतर यील्ड के अलावा कुछ और चीजें भी हैं जो G-Sec को ज्यादा आकर्षक बनाती हैं – 

  • बैंक FD के मुकाबले G-Sec ज्यादा सुरक्षित माना जाता है क्योंकि इसके पीछे भारत सरकार होती है।
  • इसमें रिटर्न और प्रिंसिपल (मूलधन) दोनों पर गारंटी होती है।
  • FD की तरह यहां पर TDS नहीं कटता है। 
  • मैच्योरिटी की तारीख लंबी होने की वजह से सरकारी सिक्योरिटी (G-Sec) में आपको लंबे समय के लिए ज्यादा आकर्षक ब्याज मिलता रहता है। 
  • इसको आप लोन के बदले कोलैटरल के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • G-Sec को आप सेकेंडरी बाजार में भी बेच सकते हैं।

आप जैसे भी देखें G-Sec ङर तरीके से बैंक FD के मुकाबले ज्यादा बेहतर निवेश है। 

इसको सेकेंडरी बाजार में बेच सकते हैं, इसका क्या मतलब है? 

ये एकदम वैसे ही काम करता है जैसे आप शेयर को खरीदे या बेचते हैं। 

मान लीजिए आपने 740GS2035A में निवेश किया। अब आप अगले 17 साल तक यानी 2035 तक हर छह महीने में इस पर 3.7का ब्याज पा सकते हैं। 

लेकिन कुछ साल बाद आपको लगता है कि अब आप इस बॉन्ड को और ज्यादा समय तक अपने पास नहीं रखना चाहते हैं, अब ऐसे में आप इस बॉन्ड को सेकेंडरी बाजार में बेच सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे आप शेयरों को नेशनल स्टॉक एक्सचेंज पर बेचते हैं। 

आप बेचने खरीदने के लिए इस पोस्ट को देख सकते हैं जिसमें G-Sec के ट्रेडिंग पर सवाल और जवाब हैं। selling G-Sec in the secondary market

क्या इसके अलावा मुझे कुछ और जानने की जरूरत है?

इस पूरी चीज को आप उस तरह से देख सकते हैं जैसे आप किसी IPO के लिए एप्लीकेशन डालते हैं और उसके बाद वो स्टॉक एक्सचेंज पर लिस्ट होता है। ये एकदम वैसा ही है, नीलामी की प्रक्रिया किसी IPO की तरह है और एक बार उसका बिडिंग हो जाने पर बॉन्ड (या टी बिल) एक्सचेंज पर लिस्ट हो जाता है। लिस्ट होने के बाद, आप जब चाहे बॉन्ड को बेच सकते हैं और आप चाहे तो उस की ट्रेडिंग भी कर सकते हैं। 

निवेश की कम से कम सीमा 10,000 है और इसके मल्टीपल यानी गुणक में आप दो करोड़ रुपए तक का निवेश कर सकते हैं। आप ऑर्डर तब डालते हैं जब नया ऑक्शन होता है (ठीक उसी तरह जैसे IPO में होता है)। लेकिन अच्छी बात यह है कि RBI इस नीलामी की तारीख की घोषणा पहले से कर देता है और यह सबको पता होता है कि ये कब होने वाला है। 

आने वाले टी बिल का कैलेंडर

Here is the calendar for the upcoming t-bills auctions.

आने वाले बॉन्ड का कैलेंडरHere is the calendar for the upcoming bond auctions.

RBI ने अब तक जितने भी बॉन्ड जारी किए हैं उसकी जानकारी इस लिंक में है –  link of all the bonds that have been issued by RBI । आप इसमें नाम, कूपन रेट और मैच्योरिटी पर ध्यान दें

टैक्स से जुड़ी बातें, जो जाननी चाहिए 

बॉन्ड – आपको जब ब्याज से आमदनी होती है तो वह आपके बैंक अकाउंट में आ जाती है। इसे इनकम फ्रॉम अदर सोर्स (Income From other sources) यानी अन्य स्रोतों से होने वाली आय के तौर पर देखा जाता है और इस पर आपको अपने इनकम टैक्स स्लैब के हिसाब से टैक्स देना होता है। अगर बॉन्ड की कीमत में बढ़ोत्तरी होती है तो इसे कैपिटल गेन माना जाता है। लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन पर या तो सीधे 10% या फिर 20%  इंडेक्सेशन के साथ टैक्स लगता है और शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन टैक्स इनक स्लैब रेट के हिसाब से लगता है। 

टी बिल – आप इसे डिस्काउंट पर खरीदते हैं और PAR कीमत पर बेचते हैं। इसलिए इसमें जो बढ़ोतरी मिलती है उसे शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन माना जाता है और उस पर आपके टैक्स स्लैब के हिसाब से टैक्स लगता है। 

G-Sec में होने वाले गेन को लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन तब माना जाता है जब आपने 3 साल से ज्यादा समय तक उसको अपने पास रखा है, नहीं तो उसे शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन माना जाता है।

अगर मैं अपना ऑर्डर डाल दूं तो मुझे एलॉटमेंट होने की कितनी संभावना है? 

सरकारी या गवर्नमेंट सिक्योरिटीज एक निश्चित रकम के लिए ही जारी की जाती है और इसलिए अगर ज्यादा बिड आ जाएं तो एलॉटमेंट की कोई गारंटी नहीं होती। लेकिन अगर आपको एलॉटमेंट नहीं होता है तो आप अगले हफ्ते फिर से कोशिश कर सकते हैं। RBI हर महीने में कई बार इन्हें जारी करता है

अच्छा अब निवेश कैसे करें?

https://coin.zerodha.com/gsec

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क्रॉस करेंसी पेयर https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%89%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a4%b0/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%89%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a4%b0/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:53:29 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7503 18.1 – फॉरेक्स का किंग  भारत के बाहर, जिस मार्केट में सबसे अधिक ट्रेड होता है वो है – फॉरेक्स फ्यूचर्स मार्केट। रिटेल से लेकर इंस्टिट्यूशनल ट्रेडर तक– हर कोई फॉरेक्स फ्यूचर मार्केट में ट्रेडिंग करता है। अगर आप इस मार्केट को करीब से देखेंगे तो आपको समझ में आएगा कि जिन करेंसी पेयर में […]

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18.1 – फॉरेक्स का किंग 

भारत के बाहर, जिस मार्केट में सबसे अधिक ट्रेड होता है वो है – फॉरेक्स फ्यूचर्स मार्केट। रिटेल से लेकर इंस्टिट्यूशनल ट्रेडर तकहर कोई फॉरेक्स फ्यूचर मार्केट में ट्रेडिंग करता है। अगर आप इस मार्केट को करीब से देखेंगे तो आपको समझ में आएगा कि जिन करेंसी पेयर में सबसे ज्यादा फ्यूचर ट्रेड होता है वो हैं – 

  1. यूरो और डॉलर के बीच – EUR USD
  2. जीबीपी और यूएस डॉलर के बीच – GBP USD, इसे केबल भी कहते हैं।
  3. यूएस डॉलर और जापानी येन के बीच – USD JPY

अभी कुछ समय पहले तक, अगर आप भारत से इन इंटरनेशनल करेंसी पेयर में ट्रेड करना चाहते तो आपको विदेश में किसी ब्रोकर के यहां अपना अकाउंट खोलना पड़ता। आमतौर पर ऐसे ब्रोकर आपको साइप्रस पर या आइल ऑफ मैन (Isle of Man) जैसी जगहों पर मिलते, फिर आपको अपने पैसे उस ब्रोकर के अकाउंट में वायर ट्रांसफर करने होते और उसके बाद वह जो रेट बताता उसके आधार पर आप ट्रेड कर पाते। इस पूरी प्रक्रिया को रेगुलेट यानी नियंत्रित करने वाला कोई ढांचा नहीं था। इसलिए इस पूरे ट्रेड को संदेहास्पद माना जाता था।

लेकिन अब इस सबकी जरूरत नहीं है, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज ने इन इंटरनेशनल करेंसी पेयर के लिए एक ढांचा तैयार कर दिया है और क्रॉस करेंसी फ्यूचर और ऑप्शन की एक्सचेंज पर ट्रेडिंग के लिए अनुमति दे दी है। 

ऊपर बताए गए सभी करेंसी फ्यूचर अब NSE पर ट्रेड के लिए उपलब्ध हैं। मैं इस अध्याय में कोशिश करूंगा कि आपको इसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी दे सकूं और यह बता सकूं कि इनके कॉन्ट्रैक्ट किस तरह से स्ट्रक्चर किए गए/बने होते हैं, जिससे आप इन में आसानी से ट्रेड कर सकें। 

यहां एक जानकारी आपको और दे दूं, BIS के एक सर्वे के मुताबिक इंटरनेशनल यानी अंतरराष्ट्रीय फॉरेक्स बाजार में होने वाले 88% ट्रेड में एक तरफ यूएस डॉलर ही होता है। 50 परसेंट ट्रेड EUR USD, GBP USD और USD JPY के बीच होते हैं। तो, अब आपको अंदाज लग गया होगा कि यह कॉन्ट्रैक्ट कितने बड़े होते हैं। 

आइए आगे बढ़ने के पहले कुछ जरूरी जानकारी देख लेते हैं। 

जब आप किसी करेंसी पेयर को देखते हैं जैसे EUR USD, तो पहली करेंसी को बेस करेंसी कहते हैं और दूसरी करेंसी को क्वोट करेंसी (Quote Currency) कहते हैं। करेंसी के पेयर का क्वोट (Quote) हमेशा क्वोट करेंसी में किया जाता है। 

उदाहरण के तौर पर अगर आप EUR USD की कीमत 1.23421 देख रहे हैं, तो इसका मतलब है कि एक यूरो 1.23421 यूएस डॉलर के बराबर है। 

इस टेबल पर नजर डालिए

करेंसी पेयर बेस करेंसी क्वोट करेंसी
EUR USD EUR USD
GBP USD GBP USD
USD JPY USD JPY

अब एक आम ऑर्डर बुक पर नजर डालते हैं, मान लीजिए कि करेंसी पेयर है कि EUR USD

बिड कीमत (जिस कीमत पर आप खरीदेंगे) आस्क कीमत (जिस कीमत पर आप बेचेंगे )
1.2431 1.2429
1.2429 1.2427
1.2425 1.2222
1.2420 1.2418
1.2418 1.2416

तो अगर आप EUR USD को खरीदना चाहते हैं तो इसका मतलब है कि आपको एक यूरो के लिए 1.2431 यूएस डॉलर देने होंगे। इसी तरह अगर आप बेचना चाहते हैं तो आपको एक यूरो को 1.2429 यूएस डॉलर पर बेचना होगा। 

18.2 – फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट 

NSE ने इन सभी अंतर्राष्ट्रीय करेंसी पर फ्यूचर और ऑप्शन दोनों को शुरू किया है। लेकिन मुझे लगता है कि ऑप्शन को जोर पकड़ने में अभी समय लगेगा, लेकिन नियर मंथ फ्यूचर में काफी ट्रेडर्स तुरन्त आकर्षित होंगे। 

सबसे अच्छी बात यह है कि इन तीनों करेंसी पेयर के लिए लॉट साइज को बेस करेंसी के 1000 यूनिट ही रखा गया है। लॉट साइज कैसे तय हुए हैं इस पर एक नजर डालिए – 

करेंसी पेयर बेस करेंसी क्वोट करेंसी लॉट साइज
EUR USD EUR USD 1000 EUR
GBP USD GBP USD 1000 GBP
USD JPY USD JPY 1000 USD

यहां लॉट साइज को याद रखना जरूरी है। आप आगे कुछ समय बाद समझ पाएंगे कि क्यों!

EUR USD/GBP USD के ट्रेड के लिए एक्सचेंज पर टिक/पिप 0.0001 और USD JPY के लिए 0.01 है। 

ट्रेड करने के लिए 12 महीने के अलग-अलग मासिक कॉन्ट्रैक्ट होंगे। मौजूदा मंथ यानी नियर मंथ का कॉन्ट्रैक्ट महीने के अंतिम ट्रेडिंग दिन के 2 दिन पहले एक्सपायर होगा।

18.3 – एक फ्यूचर ट्रेड

करेंसी कॉन्ट्रैक्ट का नफा नुकसान यानी प्रॉफिट लॉस हमेशा क्वोट करेंसी में दिखाया जाएगा, भारतीय रूपए यानी INR में नहीं, जैसा कि आमतौर पर इक्विटी, कमोडिटी या भारत में ट्रेड होने वाली करेंसी में होता है। इसको तीनों करेंसी के कॉन्ट्रैक्ट के उदाहरण के जरिए समझते हैं 

पोजीशन के प्रॉफिट और लॉस को रेफरेंस रेट (RBI इसे हर दिन 12.30 बजे जारी करता है) के हिसाब से भारतीय रुपए में बदला जाता है। EUR USD और GBP USD के P&L को USD INR के रेट के आधार पर और USD JPY के P&L को JPY INR के रेट के आधार पर भारतीय रूपए में बदला जाता है।

कैरी फॉरवर्ड पोजीशन के लिए जिस मॉर्क टू मार्केट सेटलमेंट का इस्तेमाल किया जाता है, उसमें उस दिन की सेटलमेंट कीमत (दिन के ट्रेड के अंतिम आधे घंटे की औसत वेटेड (Weighted) कीमत) को आधार बनाया जाता है। 

18.4 – ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट

इनके ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट USD INR के उस ऑप्शन की तरह ही होते हैं जो एक्सचेंज पर पहले से ट्रेड होते हैं। इनके कॉन्ट्रैक्ट की जानकारी इस तरह से है – 

ऑप्शन एक्सपायरी स्टाइल –  यूरोपियन 

प्रीमियम – प्रीमियम को क्वोट करेंसी में क्वोट किया जाता है। (GBP USD के लिए USD में और USD JPY के लिए JPY में)

कॉन्ट्रैक्ट साइकिल (Cycle) – यहां पर 3 मंथली यानी मासिक और 3 क्वार्टरली यानी तिमाही कॉन्ट्रैक्ट होंगे। 3 महीने तक के लगातार मासिक कॉन्ट्रैक्ट के बाद हर तीसरे महीने एक तिमाही का कॉन्ट्रैक्ट आएगा। 

उपलब्ध स्ट्राइक – 12 इन द मनी –In the money, 12 आउट ऑफ द मनी– Out of the money और एक नियर द मनी -Near The Money ऑप्शन होता है। इस तरह से करीब 25 स्ट्राइक मौजूद होती हैं जिनमें से आप अपने लिए सही स्ट्राइक को चुन सकते हैं।

अंडरलाइंग यूरो यूएस डॉलर पॉउंडयूएस डॉलर यूएस डॉलरजापानी येन
स्ट्राइक प्राइस इन्टरवल 0.005 0.005 0.50

18.5 – एक्सपायरी 

मौजूदा यानी नियर मंथ के कॉन्ट्रैक्ट महीने के अंतिम कारोबारी दिन यानी लास्ट ट्रेडिंग दिन के 2 दिन पहले दोपहर में 12:30 बजे एक्सपायर होते हैं। इनका सेटलमेंट हमेशा फाइनल सेटलमेंट कीमत पर किया जाता है। 

आइए देखते हैं कि फाइनल सेटलमेंट कीमत कैसे निकाली जाती है। उस पेयर के लिए क्रॉस करेंसी रेट को निकालने के लिए उस करेंसी के INR वाले रेफरेंस रेट का इस्तेमाल किया जाता है।

करेंसी पेयर USDINR EURINR GBPINR JPYINR
RBI रेफरेंस रेट 65.2261 79.5041 89.7055 0.6107

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को फाइनल सेटलमेंट कीमत पर मार्क टू मार्केट किया जाएगा और इनको T+2 पर केस में सेटल किया जाएगा।

सभी इन-द-मनी कॉन्ट्रैक्ट की इंट्रिन्सिक वैल्यू को फाइनल सेटलमेंट कीमत के आधार पर निकाला जाता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं – 

GBPUSD की फाइनल सेटलमेंट कीमत  1.3753
पुट स्ट्राइक कीमत 1.3760
प्रति कॉन्ट्रैक्ट एक्सरसाइज की रकम (USD) 0.7
12.30 PM पर USD का RBI रेफरेंस रेट  65.2261
कॉन्ट्रैक्ट के एक्सरसाइज की रकम (INR) 45.65827

 18.6 – मार्जिन 

ट्रेड होने वाले हर कॉन्ट्रैक्ट के लिए शुरूआती (initial) मार्जिन 2% और एक्सट्रीम लॉस मार्जिन 1% का होगा। मार्जिन को भारतीय रुपए में ब्लॉक किया जाएगा लेकिन करेंसी का ट्रेड क्वोट करेंसी (USD या JPY) में होगा। ब्लॉक की गयी मार्जिन को क्वोट करेंसी में बदला जाएगा। दोपहर 2 बजे के पहले किए गए हर ट्रेड के लिए मार्जिन पिछले दिन के रेफरेंस रेट के आधार पर तय होगी और 2 बजे के बाद के ट्रेड पर उस दिन का रेफरेंस रेट इस्तेमाल होगा।

18.7 – कैलेंडर स्प्रेड 

एक एक्सपायरी महीने की फ्यूचर्स पोजीशन को हेज करके ऑफसेट करने के लिए बनाई गई किसी दूसरे एक्सपायरी महीने की पोजीशन को कैलेंडर स्प्रेड कहते हैं। इसको हमने इस अध्याय में विस्तार से समझाया है। स्प्रेड के लिए मार्जिन कितनी ब्लॉक होगी इसे एक्सचेंज तय करता है और ये हैं- 

स्प्रेड की अवधि मार्जिन
1 महीना 1500
2 महीना 1800
3 महीना 2100
4 महीना 2400

 इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. क्रॉस करेंसी पेयर को पहली बार NSE पर ट्रेड करने की इजाजत दी जा रही है।
  2. EUR/USD के लिए लॉट साइज $1000, GBP/USD के लिए £1000 और USD/JPY के लिए $1,000 होगी।
  3. सभी पेयर की ट्रेडिंग क्वोट करेंसी में होगी लेकिन सेटलमेंट भारतीय रूपए में होगा।
  4. डेली और फाइनल M2M सेटलमेंट RBI रेफरेंस रेट के आधार पर होगा।
  5. नियर मंथ का कॉन्ट्रैक्ट महीने के अंतिम ट्रेडिंग दिन के दो दिन पहले 12.30 बजे एक्सपायर होगा।

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कमोडिटी ऑप्शन https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%91%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b6%e0%a4%a8/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%91%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b6%e0%a4%a8/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:52:06 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7501 17.1 – अंतत: कमोडिटी ऑप्शन कमोडिटी में मेरा पहला ट्रेड काली मिर्च फ्यूचर का था, 2005 के अंत में किसी समय या 2006 की शुरुआत में। उसके बाद से, मैं लगातार कमोडिटी बाजार और कमोडिटी एक्सचेंज पर नजर रखे हुए हूं। MCX ने इस दौरान कमोडिटी बाजार को बढ़ाने के लिए काफी काम किया है। […]

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17.1 – अंतत: कमोडिटी ऑप्शन

कमोडिटी में मेरा पहला ट्रेड काली मिर्च फ्यूचर का था, 2005 के अंत में किसी समय या 2006 की शुरुआत में। उसके बाद से, मैं लगातार कमोडिटी बाजार और कमोडिटी एक्सचेंज पर नजर रखे हुए हूं। MCX ने इस दौरान कमोडिटी बाजार को बढ़ाने के लिए काफी काम किया है। नए कॉन्ट्रैक्ट जारी हुए, बाजार में कारोबार बढ़ा और लिक्विडिटी भी। अगर मुझे ठीक से याद है तो करीब 2009 में किसी समय कमोडिटी मार्केट में भी ऑप्शन ट्रेडिंग शुरू करने की कोशिश की गई थी। जिसे सुनकर मैं काफी खुश हो गया था और मुझे लगा कि ऑप्शन ट्रेडिंग का एक नया अवसर मिलेगा। 

लेकिन दुर्भाग्यवश यह कोशिश पूरी नहीं हो पाई और कमोडिटी मार्केट में ऑप्शन ट्रेडिंग नहीं शुरू हो सकी। उसके बाद से कई बार इस पर चर्चा हुई लेकिन यह हमेशा एक अफवाह बनकर ही रह गया। 

लेकिन लगता है अब कमोडिटी बाजार में ऑप्शन ट्रेडिंग शुरू हो सकेगी। जून 2017 में सेबी ने कमोडिटी ऑप्शन के लिए मंजूरी दे दी है।

आप इस समाचार को यहां पढ़ सकते हैं  here.

इसके बाद से ही कमोडिटी एक्सचेंज इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि कमोडिटी ऑप्शन के लिए एक ढांचा तैयार किया जा सके और ट्रेडिंग जल्दी से जल्दी शुरू हो सके। इसीलिए मुझे यह जरूरी लगा कि आपको बता दिया जाए कि कमोडिटी ऑप्शन बाजार में आपको किस तरह की ट्रेडिंग की उम्मीद करनी चाहिए। 

जो लोग ऑप्शन ट्रेडिंग के बारे में नहीं जानते हैं मेरी उनको सलाह यह होगी कि ऑप्शन पर हमारे मॉड्यूल को आप यहां पढ़ें। 

फ्यूचर्स की तरह ही ऑप्शन के सिद्धांत भी कमोडिटी के लिए भी वैसे ही रहेंगे। आपको बस इसके बारे में कुछ जरूरी बातें जाननी होगी और इस अध्याय में उन्हीं बातों को बताया जाएगा।

17.2 – ब्लैक 76 

कमोडिटी ऑप्शंस में जो सबसे जरूरी बात आपको जाननी चाहिए वह यह है कि कमोडिटी के ऑप्शन फ्यूचर्स के ऑप्शन होते हैं स्पॉट मार्केट के ऑप्शन नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, अगर आप शेयर बाजार में बायोकॉन का कॉल ऑप्शन खरीदेंगे तो इस ऑप्शन के लिए अंडरलाइंग होगा बायोकॉन की स्पॉट कीमत, इसी तरह से अगर आप निफ़्टी ऑप्शन खरीदते हैं तो उसका अंडरलाइंग निफ्टी की स्पॉट कीमत होगी। लेकिन अगर आप कच्चे तेल यानी क्रूड ऑयल का ऑप्शन खरीदेंगे तो यहां पर अंडरलाइंग क्रूड ऑयल की स्पॉट कीमत नहीं होगी, क्योंकि आपको पता ही है कि क्रूड आयल का यानी कच्चे तेल का यहां पर कोई स्पॉट बाजार नहीं है। वास्तव में हमारे यहां किसी भी कमोडिटी का स्पॉट बाजार नहीं है लेकिन सारी कमोडिटी का फ्यूचर बाजार बहुत अच्छे से चलता है। इसलिए कमोडिटी ऑप्शन हमेशा कमोडिटी फ्यूचर पर आधारित होते हैं। 

तो अगर आपको क्रूड ऑयल का ऑप्शन खरीदना है तो आपको याद रखना होगा कि 

  1. इस क्रूड ऑयल ऑप्शन का अंडरलाइंग क्रूड ऑयल की फ्यूचर कीमत है 
  2. क्रूड ऑयल फ्यूचर का अंडरलाइंग है NYMEX (नायमैक्स) पर क्रूड ऑयल की कीमत 

तो इस तरह से इसे एक डेरिवेटिव का डेरिवेटिव माना जा सकता है। लेकिन ट्रेड करने वाले के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है इसलिए आप पर इसका कोई असर नहीं पड़ना चाहिए। इस ऑप्शन में और स्पॉट बाजार के अंडरलाइंग वाले ऑप्शन में केवल एक तकनीकी अंतर है, और वह है प्रीमियम निकालने का तरीका। आम तरीके के ऑप्शन के लिए प्रीमियम ब्लैक एंड स्कॉल्स मॉडल (Black & Scholes model) से निकाला जाता है जबकि इस तरह के कमोडिटी ऑप्शन में ब्लैक 76 नाम के एक मॉडल का इस्तेमाल किया जाता है। 

इन दोनों मॉडल के बीच में अंतर बस ये है कि दोनो में कंटीन्यूअस कंपाउंडेड रिस्क फ्री रेट (continuous compounded risk free rate) को अलग-अलग तरह से देखा जाता है। मैं यहां पर इसके विस्तार में नहीं जा रहा हूं। लेकिन ये याद रखिए कि आपको कई तरीके के ऑनलाइन ब्लैक एंड स्कॉल्स कैलकुलेटर मिलेंगे लेकिन अगर आपने उसमें कमोडिटी के आंकड़े भी डाले और प्रीमियम और ग्रीक्स निकालना चाहा तो भी आपको सही परिणाम नहीं मिलेगा, क्योंकि ये वहां काम नहीं करता।

17.3 – कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारी 

हमें अभी तक यह नहीं पता है कि एक्सचेंज इस तरह के ऑप्शन के लिए किस तरह का ढांचा बनाएंगे। लेकिन मैंने एक आदर्श ढांचा बनाने की कोशिश की है और मुझे उम्मीद है कि एक्सचेंज जो ढांचा बनाएंगे वह इससे बहुत अलग नहीं होगा। 

शुरुआत में एक्सचेंज केवल सोने का यानी गोल्ड ऑप्शन शुरू कर सकते हैं, फिर और धीरे-धीरे करके बाकी दूसरी कमोडिटी के ऑप्शन भी शुरू किए जाएंगे। ऑप्शन कैसे होंगे – 

ऑप्शन का प्रकार – कॉल और पुट 

लॉट साइज – क्योंकि यह ऑप्शन फ्यूचर पर आधारित हैं इसलिए इनका लॉट साइज फ्यूचर के लॉट साइज की तरह होगा 

ऑर्डर के प्रकार – हर तरह के ऑर्डर के लिए अनुमति होगी (IOC,SL,SLM, रेगुलर और लिमिट) 

एक्सरसाइज का स्टाइल – उम्मीद है कि ऑप्शन यूरोपियन होंगे 

मार्जिन – ऑप्शन बेचने (राइटिंग) के लिए एक्सपोजर मार्जिन + SPAN देना होगा जबकि ऑप्शन खरीदने के लिए पूरा प्रीमियम अदा करना होगा। डेविलमेंट मार्जिन (Devilment Margin) नाम की एक नई चीज भी आएगी जिस पर मैं आगे चर्चा करूंगा।

अंतिम ट्रेडिंग दिन (सोना/ गोल्ड के लिए) – अंतिम टेंडर दिन के 3 दिन पहले 

स्ट्राइक – एक ऐट द मनी स्ट्राइक (एटीएम/ATM) के अलावा 15 स्ट्राइक उसके ऊपर और 15 स्ट्राइक उसके नीचे। इस तरह से एक सीरीज में कुल 31 स्ट्राइक होंगी।

इसके बाद कुछ बदलाव मिलेंगे। इक्विटी में ऑप्शन ट्रेड करने वाले ट्रेडर एक खास तरीके की ऑप्शन मनीनेस प्रक्रिया के तहत काम करते हैं-  

  1. एट द मनी (ATM) ऑप्शन – ये तब होता है जब स्ट्राइक स्पॉट के आसपास होती है। किसी भी सीरीज में केवल एक स्ट्राइक को ही ATM माना जाता है 
  2. इन द मनी (ITM) –  ATM के नीचे के सभी कॉल ऑप्शन स्ट्राइक और ATM के ऊपर के सभी पुट ऑप्शन स्ट्राइक ITM ऑप्शन माने जाते हैं 
  3. आउट ऑफ द मनी (OTM) – ATM के ऊपर के सभी कॉल ऑप्शन स्ट्राइक और ATM के नीचे के सभी पुट ऑप्शन स्ट्राइक को OTM ऑप्शन माना जाता है 

लेकिन कमोडिटी के मनीनेस में एक नया नाम सामने आएगा क्लोज टू मनी (CTM), यह इस तरह से काम करेगा – 

  1. ATM- सेटलमेंट कीमत के सबसे करीब की स्ट्राइक को ATM माना जाएगा 
  2. CTM – ATM से दो स्ट्राइक नीचे और ATM से दो स्ट्राइक ऊपर को CTM माना जाएगा 
  3. OTM और ITM इक्विटी के जैसे ही होंगे 

सेटलमेंट – फ्यूचर बाजार के M2M सेटेलमेंट के लिए एक्सचेंज उस दिन उस कमोडिटी के सेटेलमेंट कीमत को यानी डेली सेटेलमेंट प्राइस (DSP) को आधार मानता है। इसीलिए एक्सपायरी के दिन के कमोडिटी के DSP को ऑप्शन सीरीज के लिए भी आधार माना जाएगा। 

एक बार देखते हैं कि सेटलमेंट काम कैसे करता है। इस उदाहरण पर नजर डालिए – मान लीजिए किसी कमोडिटी का DSP 100 है और मान लीजिए कि इस कमोडिटी में हर 10 प्वाइंट पर एक स्ट्राइक है यानी स्ट्राइक इंटरवल 10 का है। इस स्थिति में इसकी स्ट्राइक की मनीनेस को देखते हैं –

  1.  ATM = 100
  2. CTM = 80, 90, 100, 110 और 120, ध्यान दें कि यहां हमने ATM के नीचे की दो स्ट्राइक और ऊपर की दो स्ट्राइक को शामिल किया है। 
  3. OTM = 100 के ऊपर के सभी कॉल ऑप्शन और 100 के नीचे के सभी पुट ऑप्शन OTM माने जाएंगे इसलिए इनकी कोई कीमत नहीं होगी ये वर्थलेस होंगे। 
  4. ITM = 100 के नीचे के सभी कॉल ऑप्शन (CTM वाले 80 और 90 के स्ट्राइक भी शामिल हैं) ITM होंगे, इसी तरीके से 100 के ऊपर के सभी पुट ऑप्शन (जिसमें 110 और 120 के CTM भी शामिल हैं) वह भी ITM होंगे

लॉन्ग ऑप्शन वाले वह सभी लोग जो CTM हैं, उनको एक खास तरीके का निर्देश देना होगा जिसे एक्सप्लिसिट इंस्ट्रक्शन (Explicit Instruction) कहा जाएगा, जिसके आधार पर ऑप्शन, फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में बदल जाएगा। फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में यह बदलाव स्ट्राइक पर होगा। उदाहरण के लिए अगर मैं 80 कॉल ऑप्शन होल्ड कर रहा हूं तब मेरे एक्सप्लिसिट इंस्ट्रक्शन पर मेरा कॉल ऑप्शन 80 पर लॉन्ग फ्यूचर पोजीशन में बदल जाएगा। मुझे लगता है कि यह एक्सप्लिसिट इंस्ट्रक्शन ट्रेडिंग टर्मिनल के जरिए दिया जाएगा। 

यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर आपने एक्सप्लिसिट इंस्ट्रक्शन नहीं दिया है ताकि आपका CTM ऑप्शन फ्यूचर में बदल जाए तो फिर आप का ऑप्शन वर्थलेस हो जाएगा। 

CTM के अलावा और सभी ITM ऑप्शन अपने आप सेटल हो जाएंगे। आपको यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि ऑप्शन बाजार में सेटलमेंट का मतलब होता है कि वह ऑप्शन अपने आप फ्यूचर पोजीशन में बदल जाते हैं। अगर आप कोई ऐसी पोजीशन होल्ड कर रहे हैं जो CTM नहीं है, ITM ऑप्शन है और आप यह नहीं चाहते हैं कि वह अपने आप सेटल हो जाए तब आपको कॉन्ट्रेरी इंस्ट्रक्शन (Contrary Instruction) देना होगा। अगर आपने ऐसा नहीं किया तो कॉन्ट्रैक्ट अपने आप सेटल हो जाएगा, मतलब फ्यूचर में बदल जाएगा। 

ऐसे में, आपके दिमाग में एक सवाल उठ सकता है कि ITM ऑप्शन को एक्सरसाइज क्यों नहीं करेंगे? 

ऐसा तब होता है जब ITM ऑप्शन को एक्सरसाइज करने के समय पर आपको जितना टैक्स और दूसरे शुल्क देना पड़े उसकी वजह से आपको कुछ भी पैसा ना मिल रहा हो, ऐसी स्थिति में आपके लिए बेहतर यही है कि आप अपना ITM ऑप्शन एक्सरसाइज नहीं करें और तब आप कॉन्ट्रेरी इंस्ट्रक्शन देंगे जिसके आधार पर आपका ITM ऑप्शन एक्सरसाइज नहीं किया जाएगा।

17.4 – ऑप्शन का फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में बदलाव 

तो मान लीजिए कि आपके पास ITM ऑप्शन (CTM सहित) है और एक्सपायरी पर यह फ्यूचर की पोजीशन में बदल जाएगा। हम सबको पता है कि फ्यूचर की पोजीशन के लिए आपको ब्रोकर के पास मार्जिन जमा करना होता है, तो यह कैसे होगा? मतलब ये कि जब मैं ऑप्शन पर लॉन्ग जाता हूं तो मुझे सिर्फ प्रीमियम देना होता है, मतलब जब मैं ऑप्शन खरीद रहा होता हूं तो मैं उसके साथ अलग से मार्जिन नहीं देता हूं क्योंकि मैं यह उम्मीद कर नहीं करता हूं कि मेरा ऑप्शन, फ्यूचर पोजीशन में बदल जाएगा। 

ऐसी स्थिति से बचने के लिए एक अलग तरह की प्रक्रिया है जिसे डिवॉल्वमेंट मार्जिन (Devolvement margin) कहा जाता है। यहां पर क्या होगा और कैसे होगा मैं आपको बताता हूं –

  1. कमोडिटी ऑप्शन की एक्सपायरी फ्यूचर ऑप्शन के पहले टेंडर तारीख के कुछ दिन पहले होती है। इसका मतलब यह है कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के एक्सपायर होने और ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट के एक्सपायर होने के बीच में कुछ दिनों का अंतर होगा।
  2. ऑप्शन के एक्सपायर होने के कुछ दिन पहले एक्सचेंज एक जांच करेगा जिसे व्हाट इफ सेनारियो (What If Scenario) कहते हैं और उसके आधार पर एक सेंसटिविटी रिपोर्ट (Sensitivity Report) बनाएगा जिससे यह पता चलेगा कि कौन सी स्ट्राइक हैं जो ITM या CTM हो सकती हैं। 
  3. एक बार इन ऑप्शन की पहचान हो जाए तो एक्सचेंज की तरफ से इन सभी ऑप्शन के लिए एक डिवॉल्वमेंट मार्जिन तय कर दिया जाएगा, जिसका मतलब है कि इसके बाद ये पता चल जाएगा कि आपको अपने अकाउंट में मार्जिन के लिए कितने पैसे रखने होंगे, जिससे यह पोजीशन फ्यूचर में कैरी फॉरवर्ड हो सके। इस मार्जिन की आधी रकम एक्सपायरी के 1 दिन पहले और बाकी बची हुई आधी रकम एक्सपायरी के दिन अकाउंट में होनी चाहिए तभी यह पोजीशन फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में बदलेगी।

        उदाहरण के तौर पर, गोल्ड ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट की एक्सपायरी 28 नवंबर 2017 को है और फ्यूचर का कॉन्ट्रैक्ट 5 दिसंबर को एक्सपायर हो रहा है। तो ऐसे में, मार्जिन की आधी रकम 27 नवंबर को और बाकी आधी रकम 28 नवंबर को जमा करनी होगी।

  1. अगर आप एक डीप ITM ऑप्शन होल्ड कर रहे हैं तो इससे होने वाले मुनाफे का एक हिस्सा आपकी मार्जिन की रकम के तौर पर रख लिया जाएगा।
  2. तो आपकी पोजीशन जितनी ज्यादा डीप होगी, आपके लिए अलग से मार्जिन की जरूरत उतनी ही कम होगी। इसका ये भी मतलब है कि CTM ऑप्शन के लिए मार्जिन की जरूरत ज्यादा होगी।
  3. सीधे शब्दों में कहें तो, अगर आप कमोडिटी ऑप्शन होल्ड कर रहे हैं और इसके ITM एक्सपायर होने की संभावना है और आप इसे एक्सपायरी तक रखना चाहते हैं तो आपको एक्सपायरी के पहले मार्जिन की रकम का इंतजाम करना होगा।
  4. ये रकम कितनी होगी, ये कमोडिटी, उसकी एक्सपायरी और टेंडर की तारीख के आधार पर तय होगा।

ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट कैसे प्यूचर में बदलता है इस पर एक नजर डालिए

ऑप्शन पोजीशन बदलाव के बाद
लॉन्ग कॉल लॉन्ग फ्यूचर्स
शॉर्ट कॉल शॉर्ट फ्यूचर्स
लॉन्ग पुट शॉर्ट फ्यूचर्स
शॉर्ट  पुट लॉन्ग फ्यूचर्स

 मुझे उम्मीद है कि जब भी ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट जारी होंगे तब हमें ये ढाँचा ज्यादा अच्छे से समझ आएगा। और जानकारी मिलने पर मैं इस अध्याय को अपडेट करूंगा।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. कमोडिटी ऑप्शन में अंडरलाइंग के तौर पर कमोडिटी का फ्यूचर होगा।
  2. इसके प्रीमियम और ग्रीक्स को निकालने के लिए ब्लैक एंड स्कॉल्स कैलकुलेटर काम नहीं आएगा।
  3. इसकी गणना के लिए ब्लैक 76 मॉडल का इस्तेमाल करना होगा।
  4. ऑप्शन एक्सरसाइज करने पर ये ऑप्शन फ्यूचर की पोजीशन में बदल जाएगा। 
  5. ATM से दो स्ट्राइक नीचे और दो स्ट्राइक ऊपर CTM होगा।
  6. अगर किसी CTM स्ट्राइक वाले ने एक्सप्लिसिट इंस्ट्रक्शन नहीं दिया तो ऑप्शन वर्थलेस हो जाएगा।
  7. ITM ऑप्शन को होल्ड करने वाले को अगर ऑप्शन एकसरसाइज नहीं करना हो तो उसे कॉन्ट्रेरी इंस्ट्रक्शन (Contrary Instruction) देना होगा। आप ऐसा तब करेंगे जब आपको पता हो कि टैक्स और शुल्कों की वजह से आपको कोई मुनाफा नहीं होने वाला है।

 

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नैचुरल गैस https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a8%e0%a5%88%e0%a4%9a%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a4%b2-%e0%a4%97%e0%a5%88%e0%a4%b8/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a8%e0%a5%88%e0%a4%9a%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a4%b2-%e0%a4%97%e0%a5%88%e0%a4%b8/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:50:44 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7499 16.1 – इतिहास और पृष्ठभूमि  हम इस अध्याय में नैचुरल गैस के बारे में चर्चा करेंगे, हमेशा की तरह हम इस बार भी हम पृष्ठभूमि को जानेंगे, थोड़ा इतिहास समझेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसको कैसे निकाला जाता है।  नैचुरल गैस अपने आप से पैदा होने वाली एक हाइड्रोकार्बन गैस का मिश्रण […]

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16.1 – इतिहास और पृष्ठभूमि 

हम इस अध्याय में नैचुरल गैस के बारे में चर्चा करेंगे, हमेशा की तरह हम इस बार भी हम पृष्ठभूमि को जानेंगे, थोड़ा इतिहास समझेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि इसको कैसे निकाला जाता है। 

नैचुरल गैस अपने आप से पैदा होने वाली एक हाइड्रोकार्बन गैस का मिश्रण है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में इसका काफी इस्तेमाल होता है, जैसे बिजली बनाने के लिए, चीजों को गर्म करने के लिए और खाना पकाने के लिए। इसके अलावा नैचुरल गैस का इस्तेमाल खाद बनाने के लिए और प्लास्टिक उद्योग में भी होता है। 

ऐसा कहा जाता है कि ईसा पूर्व 1000 BC में प्राचीन ग्रीस के माउंट पैरनासस पर्वत पर जमीन से नैचुरल गैस निकल आई और उसने आग पकड़ ली, वहां ज्वाला निकलने लगी। ग्रीक लोगों ने इस जगह को ओरेकल ऑफ डेल्फी (Oracle at Delphi) का नाम दिया और वहां पर एक मंदिर बना दिया। अगर आपको आश्चर्य हो रहा है कि जमीन से नैचुरल गैस खुद अपने आप कैसे निकल आई तो नीचे के चित्र में देखिए जहां पर गैस अपने आप निकली है और उसमें आग लगी हुई है। 

चीन में लोगों को ईसा पूर्व करीब 500 BC में नैचुरल गैस मिली। उन लोगों ने इसका बेहतर इस्तेमाल किया। चीन के लोगों ने बांस को एक पाइपलाइन की तरह इस्तेमाल किया। वो बांस के जरिए गैस को दूसरी जगह तक ले गए जहां पर उससे समुद्र के पानी को उबाला जाता था और उसे पीने लायक बनाया जाता था। 

नैचुरल गैस का व्यवसायिक तौर पर पहला इस्तेमाल ग्रेट ब्रिटेन में 1785 के आसपास हुआ। ब्रिटेन में नैचुरल गैस का इस्तेमाल करके सड़कों और घरों को रौशन किया जाता था। 

अब तक आपको समझ में आ गया होगा कि नैचुरल गैस जमीन के नीचे होती है। अब सवाल ये है कि नैचुरल गैस वहाँ क्यों और कैसे होती है।

अब से लाखों साल पहले जब पेड़ पौधे और जानवरों के मृत्यु के बाद जमीन में दबते गए, तो वक्त के साथ ये लगातार नीचे जाते गए। उनके जीवाश्म से ही कोयला, तेल और नैचुरल गैस जैसी चीजें बनी। इस पूरी प्रक्रिया में लाखों साल लग गए। कुछ स्थानों पर नैचुरल गैस जमीन की दरारों के जरिए नीचे से निकल आई जबकि दूसरी कुछ जगहों पर यह छेद वाले पत्थरों के जरिए बाहर आ गई। अपने प्राकृतिक रूप में नैचुरल गैस में ना कोई रंग होता है, ना कोई गंध होती है और ना ही इसका कोई स्वाद होता है। यह अपने आप में यह एक खतरनाक स्थिति है – कल्पना कीजिए कि नैचुरल गैस कहीं से लीक हो और फैलने लगे और किसी को भी इसका पता ना चले कि वहां के वातावरण में नैचुरल गैस फैल रही है, यह काफी खतरनाक स्थिति हो सकती है। इसीलिए नैचुरल गैस का उत्पादन करने वाले लोगों ने इसमें मरकैप्टन (Mercaptan) नाम का एक पदार्थ मिलाया जिसकी वजह से नैचुरल गैस में एक तीखी गंध आने लगी और इसके लीक होने पर इसकी पहचान करना आसान हो गया।

नैचुरल गैस की तलाश लगभग वैसे ही की जाती है जैसे कच्चे तेल की तलाश की जाती है। जियोलॉजिस्ट यानी भूगर्भ वैज्ञानिक उन जगहों का पता लगाते हैं जहां पर नैचुरल गैस हो सकती है। कई बार यह जगह जमीन पर होती है और कभी-कभी समुद्र में गहरे पानी के बीच में भी हो सकती हैं। वैज्ञानिक इसके बाद एक सीस्मिक सर्वे (seismic survey) करते हैं जिससे यह पता चलता है कि किस जगह पर खुदाई करके नैचुरल गैस निकालने की संभावना सबसे ज्यादा है। अगर किसी जगह यह संभावना दिखती है तो वहां पर पहले एक छोटा सा कुआं खोदकर इसकी जांच और गहराई से की जाती है। अगर उसके बाद यह लगा कि इस जगह नैचुरल गैस को निकालने से आर्थिक तौर पर फायदा हो सकता है तो फिर वहां पर ज्यादा खुदाई करके नैचुरल गैस निकालने का काम किया जाता है। 

भारत दुनिया का 7वां सबसे बड़ा नैचुरल गैस का उत्पादक है। पूरी दुनिया के कुल उत्पादन का 2.5% नैचुरल गैस भारत से निकलता है। भारत में पैदा होने वाले नैचुरल गैस का इस्तेमाल बिजली बनाने के लिए, उद्योगों के ईंधन के तौर पर और एलपीजी (LPG) के तौर पर होता है। नैचुरल गैस उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा खाद उद्योग में कच्चे माल के तौर पर काम भी आता है। 

नैचुरल गैस के उत्पादन और इस्तेमाल पर ये चर्चा काफी लंबी चल सकती है लेकिन हम नैचुरल गैस में शॉर्ट टर्म ट्रेडिंग करना चाहते हैं इसलिए इससे अधिक चर्चा की जरूरत शायद नहीं है।  

आगे हम नैचुरल गैस के कॉन्ट्रैक्ट के बारे में बात करेंगे। लेकिन नैचुरल गैस पर कोई भी चर्चा तब तक अधूरी है जब तक हम अमरंथ नैचुरल गैस गैंबल (Amarant Natural Gas gamble) के बारे में चर्चा ना करें।

16.2 – अमरंथ नैचुरल गैस गैंबल

सन 2000 में अमेरिका में एक हेज फंड की शुरुआत की गई जिसका नाम था अमरंथ एडवाइजर्स। यह फंड अमेरिका के कनेटिकट (Connecticut) में ग्रीनविच नाम की जगह से चलता था। यह फंड बहुत सारे काम करता था और हेज फंड रणनीति बनाता था जैसे कन्वर्टिबल बॉन्ड, मर्जर आर्बिट्राज, लेवरेज्ड ऐसेट्स और एनर्जी ट्रेडिंग। सन 2006 के मध्य में यह कंपनी करीब 9 बिलियन डॉलर की हो चुकी थी। इसमें कंपनी का वह मुनाफा भी शामिल था जो वापस इस फंड में डाल दिया गया था। इस तरह से अमरंथ अमेरिका के सबसे बड़े हेज फंड में से एक बन चुका था। 

अमरंथ के एनर्जी ट्रेडिंग डेस्क में कामकाज तब बढ़ा जब उन्होंने ब्रायन हंटर नाम के एक बहुत जाने-माने ट्रेडर को अपने यहां काम पर रखा। हंटर को इसके पहले काफी लोकप्रियता मिल चुकी थी जब वो डॉयशे बैंक (Deutsche Bank) में नैचुरल गैस के लिए एनर्जी ट्रेडिंग की रणनीति बनाता था। ऐसा माना जाता है कि वहां पर उसे कई मिलियन डॉलर का वार्षिक बोनस मिलता था। उसने जब अमरंथ के एनर्जी डेस्क के मुखिया के तौर पर काम करना शुरू किया तो भी उसकी सफलता जारी रही। यहां आ कर भी उसने नैचुरल गैस में ही ट्रेडिंग करना जारी रखा। हंटर की वजह से अमरंथ को काफी मुनाफा हुआ, सन 2006 के अप्रैल तक अमरंथ को करीब 2 बिलियन डॉलर का मुनाफा हो चुका था। अमरंथ के ग्राहक और वहां का मैनेजमेंट हंटर के ट्रेडिंग के तरीकों से काफी खुश था।

यहां पर मैं यह बता दूं कि भले ही नैचुरल गैस एक अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी है, लेकिन इसमें खेल करना काफी आसान है। कोई भी ठीक-ठाक से आकार वाला हेज फंड आसानी के साथ कुछ हजार कॉन्ट्रैक्ट की पोजीशन ले सकता है और बाजार पर कब्जा कर सकता है। अमरंथ तब तक नैचुरल गैस के बाजार में काम करने वाले दुनिया के सबसे बड़े हेज फंड में से एक बन गया था।

खैर, 6 अप्रैल 2006 के बाद जो हुआ उस पर नजर डालते हैं- 

  1. हंटर को दिखा कि अमेरिका में नैचुरल गैस की जरूरत से ज्यादा इन्वेंटरी है जिसकी वजह से नैचुरल गैस की कीमतें अमेरिका में नीचे जा सकती हैं।
  2. नैचुरल गैस की इन्वेंटरी को कच्चे तेल के इन्वेंटरी की तरह सप्लाई डिमांड के बीच के अंतर को भरने के लिए आसानी से एक जगह से दूसरी जगह नहीं पहुंचाया जा सकता।
  3. हंटर को यह भी उम्मीद थी कि अमेरिका में आने वाली सर्दियां काफी भारी होंगी (या फिर एक चक्रवात आएगा) जिसकी वजह से इसकी सप्लाई पर असर पड़ेगा और नैचुरल गैस की कीमतें ऊपर जाएंगी।
  4. ऐसा माना जाता है कि जब 2005 में अमेरिका में कैटरीना और रीटा नाम के चक्रवात आए थे तो हंटर ने काफी मुनाफा कमाया था। 
  5. इन स्थितियों का फायदा उठाने के लिए हंटर ने एक रणनीति बनाई। इसके लिए उसने कई तरह के कॉन्ट्रैक्ट का इस्तेमाल किया। यह एक बहुत ही ज्यादा लेवरेज वाली सट्टा पोजीशन थी। 
  6. लेकिन हंटर और अमरंथ की योजना के मुताबिक कुछ नहीं हुआ, चक्रवात आने की संभावना कम हो गई और नैचुरल गैस की सप्लाई बढ़ गई। 
  7. ऐसे में नैचुरल गैस के बुल्स ने अपनी पोजीशन छोड़नी शुरू कर दी और नैचुरल गैस की कीमत नीचे गिर गई। इसकी कीमत ने 5.5 डॉलर के मनोवैज्ञानिक सपोर्ट को भी तोड़ दिया।
  8. इसके बाद बाजार में जोरदार बिकवाली आई और नैचुरल गैस की कीमत एक ही दिन में 20% नीचे गिर गई। 
  9. अमरंथ को काफी नुकसान उठाना पड़ा लेकिन हंटर को अभी भी भरोसा था और बाजार में उसकी इज्जत अभी भी थी। ऐसे में, अमरंथ ने बाजार से पैसे उधार पर लिए और अपनी पोजीशन को दोगुना कर दिया। 
  10. उनकी लेवरेज एक के मुकाबले आठ तक पहुंच गई, मतलब अगर उनकी पूंजी का $1 लगा था तो उसके सामने उन्होंने बाजार $8 की उधार ली हुई पूंजी लगा रखी थी। 
  11. लेकिन इसके बावजूद नैचुरल गैस की कीमतों में गिरावट रुकी नहीं, गिरावट चलती रही और इस वजह से अमरंथ में भी गिरावट आई। 
  12. अंत में अमरंथ को अपनी पोजीशन को छोड़ना पड़ा और 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा जो इतिहास में किसी भी हेज फंड के सबसे बड़े नुकसान में से एक था। 

अमरंथ की इस कहानी से जो सबसे बड़ी सीख मिलती है वह फिर से वही है कि रिस्क मैनेजमेंट कितना महत्वपूर्ण है। रिस्क मैनेजमेंट आपके ट्रेडिंग के हर फैसले से बहुत ज्यादा जरूरी होता है और उन सब से ऊपर होता है। 

रिस्क की इज्जत कीजिए और रिस्क आप की इज्जत करेगा। अगर आपने उसकी इज्जत नहीं की तो यह आपके लिए नुकसानदायक होगा।

इसी वजह से हम अगला मॉड्यूल रिस्क और उससे जुड़े ट्रेडिंग पर करेंगे। 

अब नैचुरल गैस के कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं

16.3 – कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारी

अब नैचुरल गैस के कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियों पर एक नजर डालते हैं। 

कीमत -प्राइस कोट (Price Quote) – रूपया प्रति मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिटRupee per Million British Thermal Unit (mmBtu) 

लॉट साइज – 1250 mmBtu

टिक साइज – 0.10 

प्रति टिक P&L 125

एक्सपायरी – महीने की 25 तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10,000 mmBtu

फरवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे नैचुरल गैस के कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं

यहां पर कीमत 217.3 प्रति mmBtu दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 1250 * 217.3

Rs.271,625/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 40,644 रुपये है, यानी NRML ट्रेड का मार्जिन करीब 15% है (शायद बाजार में सबसे अधिक) जबकि MIS मार्जिन 20,322 रुपया है यानी MIS पोजीशन का करीब 7 %

कॉन्ट्रैक्ट जारी करने और एक्सपायरी के तर्क सीधे-सादे हैं, नीचे के टेबल को देखिए

हर चौथे महीने एक नया कॉन्ट्रैक्ट जारी किया जाता है उदाहरण के तौर पर जनवरी 2017 का कॉन्ट्रैक्ट अक्टूबर 2016 में जारी हुआ था और यह 25 जनवरी 2017 को एक्सपायर होगा। 

यहां पर एक और बात जो आपको गौर करनी चाहिए वह यह है कि भले ही नैचुरल गैस एक अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी है पर भारत में इसकी स्पॉट कीमत घरेलू बाजार में इसकी डिमांड और सप्लाई पर निर्भर करती है। लेकिन MCX पर इसका फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट लगभग वैसे ही काम करता है जैसे NYMEX पर लिस्ट किया हुआ नैचुरल गैस का कॉन्ट्रैक्ट। 

नीचे के चित्र पर नजर डालिए

इस चित्र में आपको नैचुरल गैस का MCX का कॉन्ट्रैक्ट NYMEX के कॉन्ट्रैक्ट के साथ दिखाई दे रहा है, आप देख सकते हैं कि दोनों फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट एक तरीके से चलते हैं। NYMEX पर नैचुरल गैस की कीमतों पर जिन चीजों का असर पड़ता है, उन्हीं चीजों का असर MCX नैचुरल गैस फ्यूचर पर भी पड़ता है। 

  • नैचुरल गैस का इन्वेंटरी डाटा/डेटा – इन्वेंटरी में बढ़त से कीमत नीचे जाती हैं जबकि इन्वेंटरी कम होने पर फ्यूचर की कीमत ऊपर जाती है।
  • अमेरिका में मौसम की स्थिति- नैचुरल गैस का सबसे बड़ा बाजार अमेरिका है इसलिए अमेरिकी मौसम की स्थिति बहुत ज्यादा मायने रखती है। अमेरिका में कड़ाके की सर्दी पड़ने पर नैचुरल गैस की खपत बढ़ जाती है क्योंकि लोग नैचुरल गैस को अपने घर को गर्म रखने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस वजह से इन्वेंटरी काफी तेजी से कम होती है और कीमतें बढ़ जाती हैं।
  • अमेरिका में चक्रवात- चक्रवात से मौसम पर तो असर पड़ता ही है यह नैचुरल गैस इन्वेंटरी पर भी असर डालता है। इसीलिए अगर आप किसी चक्रवात को अमेरिकी तट की ओर बढ़ते देखें तो नैचुरल गैस पर लॉन्ग जाने की सोचें, नहीं तो कम से कम नैचुरल गैस के कॉन्ट्रैक्ट को शार्ट तो ना ही करें।
  • कच्चे तेल की कीमत- नैचुरल गैस ना सिर्फ एक ज्यादा साफ सुथरा इंधन है बल्कि यह कच्चे तेल के मुकाबले सस्ता भी है। ऐतिहासिक तौर पर यह दोनों कॉन्ट्रैक्ट एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। वैसे पिछले कुछ समय में यह साथ-साथ नहीं चल रहे हैं। आप यहां इसे देख सकते हैं।  Check this!  

अगली बार जब आप नैचुरल गैस में ट्रेड करें तो देख लें कि अमेरिका में मौसम कैसा है। 

इसके साथ ही नैचुरल गैस का ये अध्याय खत्म होता है। और साथ ही करेंसी और कमोडिटी पर हमारा मॉड्यूल भी।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. नैचुरल गैस प्रकृति में अपने आप बनती और मिलती है, यह जमीन के नीचे मिलती है। 
  2. नैचुरल गैस का इस्तेमाल प्राचीन काल से हो रहा है।
  3. नैचुरल गैस का मुख्य इस्तेमाल बिजली बनाने, गर्म करने और खाना पकाने के लिए होता है। 
  4. भारत दुनिया का सातवां सबसे बड़ा नैचुरल गैस उत्पादक है।
  5. नैचुरल गैस का लॉट साइज 1250 mmBtu है इसका प्राइस कोट 100 mmBtu का है। 
  6. नैचुरल गैस प्रति टिक P&L 125 प्रति टिक है। 
  7. MCX पर नैचुरल गैस के फ्यूचर की कीमत और NYMEX पर नैचुरल गैस के फ्यूचर की कीमत एक जैसे ही चलती है।

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इलायची और मेंथा ऑयल https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%87%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%9a%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%91%e0%a4%af%e0%a4%b2/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%87%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%9a%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%91%e0%a4%af%e0%a4%b2/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:49:13 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7497 15.1 – मॉनसून का असर एक समय था, जब मैं ICICI डायरेक्ट के जरिए शेयरों की ट्रेडिंग करता था। उसी समय MCX ने अपना कामकाज शुरू किया था और ICICI डायरेक्ट उनके पहले कुछ ब्रोकर में से एक था। MCX काफी जोर-शोर से अपने प्रचार-प्रसार में लगा था और कोशिश कर रहा था कि बाजार […]

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15.1 – मॉनसून का असर

एक समय था, जब मैं ICICI डायरेक्ट के जरिए शेयरों की ट्रेडिंग करता था। उसी समय MCX ने अपना कामकाज शुरू किया था और ICICI डायरेक्ट उनके पहले कुछ ब्रोकर में से एक था। MCX काफी जोर-शोर से अपने प्रचार-प्रसार में लगा था और कोशिश कर रहा था कि बाजार से जुड़े लोग उनके बारे में जान जाएं, जिससे उनके एक्सचेंज पर कारोबार बढ़ सके। मैं भी उस समय बाजार के मौकों को समझ रहा था और यह जानने की कोशिश कर रहा था कि भारत में कितने तरीके की ट्रेडिंग हो सकती है। कुछ जाँच पड़ताल के बाद मुझे लगा कि मैं कमोडिटी जैसे ऐसेट क्लास में ज्यादा अच्छे से  ट्रेडिंग कर सकता हूं। 

कमोडिटी में ट्रेडिंग शुरू करने के लिए अपने ब्रोकर के पास मैंने सारे कागजात जमा कर दिए और अपना ट्रेडिंग अकाउंट खोलने को कहा। मैं बेंगलुरु से MCX पर ट्रेडिंग अकाउंट खोलने वाले पहले कुछ लोगों में से एक था। MCX पर अकाउंट खोलने में मुझे 12 दिन लग गए। 

फिर एक दिन मेरे ब्रोकर का फोन आया और उसने बताया कि मैं अगले दिन से MCX पर ट्रेडिंग कर सकता हूं। मैं इतना अधिक उत्तेजित था कि मैंने ट्रेडिंग शुरू के लिए एक दिन की छुट्टी ले ली। 

मैंने अपने सबसे पहला कमोडिटी ट्रेड काली मिर्च के फ्यूचर (Pepper Futures) में किया। मैंने काली मिर्च को क्यों चुना यह तो मुझे याद नहीं है लेकिन मैंने काली मिर्च को ही चुना।

तो मैंने काली मिर्च में लॉन्ग ट्रेड किया। मैंने 10 लॉट खरीदे (शायद वो एक मिट्रिक टन का कॉन्ट्रैक्ट था)। कीमत मुझे पूरी तरह से याद नहीं है लेकिन यह करीब 7500 प्रति क्विंटल थी। मैंने अपने ट्रेडिंग अकाउंट के सारे पैसे इस सौदे पर लगा दिए। 

इसके बाद वही हुआ जो आमतौर पर हमेशा होता है, काली मिर्च अगले 2 दिनों में अपने 52 हफ्तों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई। मैंने और पैसे लगाए, लेकिन काली मिर्च नीचे गिरती रही और धीरे-धीरे मैंने अपने सारे पैसे इस पर लगा दिए। 

निराश हो कर मैंने यह पता करने की कोशिश की कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। तब मुझे पता चला कि कोच्चि के आसपास अच्छा मॉनसून होने की संभावना थी जिसकी वजह से काली मिर्च की फसल काफी अच्छा होने की उम्मीद थी जिसकी वजह से कीमतें गिर रही थीं। 

अब जा कर मुझे समझ में आया कि किसी भी एग्री कमोडिटी में ट्रेडिंग करने के पहले हमें मॉनसून और उस फसल पर मॉनसून के असर को समझना जरूरी होता है। मेरे लिए यह समझना काफी महंगा पड़ा। इसीलिए मुझे वह दिन आज तक याद है।

इसी वजह से हम शुरूआत में कुछ समय इस विषय को समझने में लगाएंगे ताकि कोई भी व्यक्ति वो गलती ना दोहराए जो मैंने की थी। 

यहां पर आपको यह भी बता दूं कि जब मेरा ट्रेडिंग अकाउंट खाली हो गया था और कमोडिटी के पहले सौदे में मैंने अपने हाथ जलाए उसके बाद काली मिर्च का फ्यूचर तेजी से ऊपर भागा और 12500 प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था।

15.2 – बारिश को समझिए 

भारतीय अर्थव्यवस्था की कृषि पर निर्भरता अब पहले के मुकाबले कम हो गई है। कुछ दशकों पहले तक भारत की GDP का 30% कृषि से आता था। लेकिन अब कृषि, GDP का, सिर्फ 10% हिस्सा ही है। लेकिन कृषि और इससे जुड़ी सेवाओं में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। शायद यही वजह है कि केंद्र सरकार जब भी कोई बड़ा लोकप्रिय फैसला या सुधार करना चाहती है तो वह इसी सेक्टर में होता है। 

नीचे के चित्र पर नजर डालिए। इससे आपको यह पता चलेगा कि कौन सा सेक्टर भारतीय अर्थव्यवस्था में किस तरह से योगदान करता है। 

इस डेटा/डाटा का प्रकाशन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी RBI 1950 से लगातार करता आ रहा है और मैंने इसे उसकी वेबसाइट से लिया है। मैंने इस डेटा/डाटा में सिर्फ थोड़ा सा बदलाव किया है, जिससे कि मैं आप को प्रतिशत में हर सेक्टर का योगदान दिखा सकूं। जैसा कि आप देख सकते हैं कि कुछ सालों में कृषि का योगदान प्रतिशत तौर पर घटा है जबकि सर्विसेज यानी सेवाओं (सॉफ्टवेयर और उससे जुड़ी सेवाएं) का योगदान लगातार बढ़ा है। 

लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा है कि कृषि क्षेत्र में अभी भी सबसे ज्यादा रोजगार मिलता है। कृषि उद्योग और इससे जुड़े सारे लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण ये जानना होता है कि इस बार बारिश कैसी होगी। बारिश इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में कृषि योग्य भूमि का 2/3 हिस्सा बारिश से ही सींचा जाता है। 

भारत में बारिश (मॉनसून) के दो मौसम होते हैं –

  1. दक्षिणी पश्चिमी मॉनसून (बारिश का मुख्य मौसम) और 
  2. उत्तर पूर्वी मॉनसून

बारिश के इन दो मौसमों के बारे में जानने योग्य मुख्य बातें हैं – 

  1. दक्षिणी पश्चिमी मॉनसून दक्षिण भारत में शुरू होता है और मध्य भारत के पूरे हिस्से में इसका प्रभाव होता है। इस मौसम की बारिश जून या जुलाई में शुरू होती है और सितंबर-अक्टूबर तक चलती है। 
  2. उत्तर पूर्वी मॉनसून भारत के उत्तर और पूर्वी हिस्से में प्रभाव दिखाता है। उत्तर भारत, हिमालय के आसपास, पश्चिमी हिस्से और तमिलनाडु का एक बड़ा हिस्सा इसके प्रभाव में रहता है। यह बारिश दिसंबर से शुरू होती है और मार्च तक चलती है। 

मॉनसून के इन दोनों मौसमों में बीज बोए जाते हैं और फिर बाद में फसल काटी जाती है। बारिश अच्छी होगी या बुरी इसके आधार पर फसल का अनुमान लगाया जाता है। 

  • दक्षिणी पश्चिमी मॉनसून के समय जिस फसल की बुवाई होती है उसे खरीफ की फसल कहते हैं। इसमें खासतौर पर अलग-अलग किस्म की दालें, उड़द दाल, मूंग दाल, चावल और कपास आदि की फसल होती है। फसल की बुआई करीब मई या जून के शुरु में होती है (दक्षिणी पश्चिमी मॉनसून के शुरू होने के ठीक पहले) और इस फसल की कटाई मॉनसून के बाद अक्टूबर के महीने में होती है। 
  • उत्तर पूर्वी मॉनसून के समय होने वाली फसल को रबी की फसल कहा जाता है। रबी में आमतौर पर गेहूं, चना, धनिया और सरसों आदि पैदा होता है। रबी की बुआई सर्दी के मौसम के शुरू में होती है और इसकी कटाई अप्रैल के महीने में होती है। 

भारत में सबसे ज्यादा खपत वाले खाद्यान्न चावल और गेहूं हैं और हमारे खाद्यान्न उत्पादन का 40% इन्हीं दोनों में होता है। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था में और भारतीय खाद्यान्न सुरक्षा में इनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। ध्यान रखिए कि इनकी कटाई और बुआई खरीफ और रबी मौसम में होती है। 

फसल की बुआई और कटाई पर लगातार नजर रखी जाती है और इसके बारे में अलग-अलग समय पर रिपोर्ट भी आती रहती हैं। एक नजर डालिए रबी की रिपोर्ट पर – 

ये है खरीफ की रिपोर्ट – 

अब तक दी गयी जानकारी को देखते हुए मुझे लगता है कि आपको इस समाचार को पढ़ना चाहिए।  news piece.

मुझे लगता है कि इससे हमारी अब तक की चर्चा को समझने में आसानी होगी और आप ये समझ सकेंगे कि ये समाचार इससे किस तरह से जुड़ा हुआ है। अगर आप एग्री कमोडिटी में ट्रेडिंग करने के बारे में गंभीर हैं तो आपको इस तरह की समाचारों पर नजर रखनी चाहिए और इनकी आधार पर अपनी रणनीति बनानी चाहिए। 

MCX पर जिन एग्री कमोडिटी में ट्रेड होता है, वो हैं 

  1. इलायची यानी कार्डमम (Cardamom) 
  2. कैस्टर सीड 
  3. कॉटन 
  4. क्रूड पाम ऑयल 
  5. कपास
  6. मेंथा ऑयल 

इनमें से मेरी सलाह यह होगी कि आप इलायची और मेंथा आयल में ट्रेड करें क्योंकि यहां पर लिक्विडिटी अच्छी होती है। 

आइए इन दोनों कमोडिटी पर चर्चा करते हैं, यहां यह भी ध्यान रखिए कि एग्री कमोडिटी में ट्रेडिंग 5:00 बजे तक चलती है।

15.3 – इलायची

इलायची मुख्य तौर पर दक्षिण भारत में (कर्नाटक और केरल में) पैदा होती है। भारत में पैदा होने वाली इलायची को स्मॉल कार्डमम यानी छोटी इलायची कहते हैं। भारत दुनिया में इसका दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है जबकि खपत के मामले में भारत दुनिया में नंबर 1 है। दुनिया में इलायची का सबसे बड़ा उत्पादक ग्वाटेमाला (Guatemala) है। ग्वाटेमाला में होने पैदा होने वाली इलायची मुख्य तौर पर निर्यात ही होती है। 

जैसा कि आप जानते हैं कि इलायची का इस्तेमाल कई तरह की भारतीय मिठाइयों में होता है। इसके अलावा कुछ इसकी औषधियों में भी इसकी जरूरत पड़ती है, खासकर त्वचा और दांत के इलाज में इसका इस्तेमाल किया जाता है। 

इलायची खरीफ की फसल है। इसकी मांग और सप्लाई निम्न चीजों पर निर्भर करती है 

  1. दक्षिणी पश्चिमी मॉनसून 
  2. इसकी गुणवत्ता यानी महक, रंग, आकार और फसल की खुशबू 
  3. फसल की स्थिति – जैसे कीड़ों का असर 
  4. भारत और ग्वाटेमाला में इसके मौजूदा स्टॉक 
  5. भारत में इसकी खपत का चलन (हालांकि इसमें सालों से कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है) 

एक नजर डालते हैं इसके कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारी पर। दूसरी कई कमोडिटी की तरह MCX पर इलायची के दो तरह के कॉन्ट्रैक्ट नहीं होते हैं। 

इलायची की डिमांड और सप्लाई करीब-करीब स्थिर है। इलायची से जुड़ी एक खबर मैं आपको यहां पढ़ाना चाहता हूं 

अब कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियों पर एक नजर डालते हैं। 

कीमत-प्राइस कaट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 100 किलोग्राम

टिक साइज – 0.10 

प्रति टिक P&L 10

एक्सपायरी – महीने की 15 तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 100 किलोग्राम

फरवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे इलायची के कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं

यहां पर कीमत 1564 प्रति किलो दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 100 * 1564

Rs.156,400/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 16,237 रुपये है, यानी NRML ट्रेड का मार्जिन करीब 10% है। 

जैसा कि आप को दिख रहा होगा कि इलायची में MIS मार्जिन उपलब्ध नहीं है। वास्तव में MCX पर किसी भी एग्री कमोडिटी के लिए MIS मार्जिन नहीं होता है। इसकी वजह यह है कि एग्री कमोडिटी में काफी ज्यादा उतार-चढ़ाव होता है और यह आसानी से सर्किट के स्तर तक पहुंच जाती हैं। इसलिए इनमें उसी दिन पोजीशन लेना और उससे बाहर निकलना आसान नहीं होता। इसीलिए किसी भी ट्रेडर के लिए अच्छा यह है कि वह अगर डे ट्रेडिंग भी कर रहा है तो वह NRML में इंट्राडे पोजीशन ले। 

इलायची के कॉन्ट्रैक्ट जारी होने से जुड़ी जानकारी पर एक नजर डालिए

जैसा कि आप देख सकते हैं कि हर महीने एक 6 महीने का फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट जारी किया जाता है। उदाहरण के तौर पर जनवरी में जून का फ्यूचर जारी होता है। जून का फ्यूचर 15 जून तक चलेगा (याद रखें की एक्सपायरी हर महीने के 15 तारीख को होती है)। जैसा कि आपको पता ही है कि यह हमेशा अच्छा होता है कि मौजूदा महीने के कॉन्ट्रैक्ट में ही ट्रेड करना बेहतर होता है क्योंकि वहां पर लिक्विडिटी ज्यादा होती है। 

उदाहरण के तौर पर जब मैं इस अध्याय को लिख रहा हूं (17 जनवरी 2017 को) और अगर मुझे इलायची में ट्रेड करना है तो मैं फरवरी 2017 के इलायची कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करूंगा (जनवरी 2017 का कॉन्ट्रैक्ट 15 जनवरी को एक्सपायर हो चुका है)

15.4 – मेंथा ऑयल – Mentha Oil

मेंथा एक तरीके का पौधा है जिसका इस्तेमाल भारतीय रसोई में होता है। इसमें से मेंथा आयल निकाला जाता है। मेंथा आयल MCX पर ट्रेड होता है। मेंथा ऑयल का इस्तेमाल खाने की चीजों, दवाओं, खुशबू और परफ्यूम में होता है। 

मेंथा ऑयल का एक्सपोर्ट चीन, अमेरिका और सिंगापुर जैसे देशों को भी किया जाता है। और यही वजह है कि मेंथा आयल के कॉन्ट्रैक्ट पर USD INR के रेट का असर पड़ता है। इसके अलावा बारिश, फसल में कीड़े लगना, कितनी जमीन पर फसल लगाई गई है, इनका असर भी इसके कॉन्ट्रैक्ट पर पड़ता है।

अब मेंथा ऑयल के कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियों पर एक नजर डालते हैं। 

कीमत-प्राइस क्वोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 360 किलोग्राम

टिक साइज – 0.10 

प्रति टिक P&L 36

एक्सपायरी – महीने की 15 तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 360 किलोग्राम

मेंथा ऑयल शायद अकेली लिस्टेड वस्तु है जिसका प्रति टिक P&L 36 है।

जनवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे मेंथा ऑयल के कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं

यहां पर कीमत 1023.2 प्रति किलो दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 360 * 1023.2 

Rs.368,352/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 29,893 रुपये है, यानी NRML ट्रेड का मार्जिन करीब 8.5% है। मेंथा ऑयल में भी उपर बताई गई वजहों से MIS मार्जिन नहीं होता है।

हर महीने 5 महीने का एक फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट जारी किया जाता है। आपको पता ही है कि यह हमेशा अच्छा होता है कि मौजूदा महीने के कॉन्ट्रैक्ट में ही ट्रेड करना बेहतर होता है क्योंकि वहां पर लिक्विडिटी ज्यादा होती है। 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. कृषि उद्योग भारत की अर्थव्यवस्था में 10% का योगदान करता है लेकिन इस उद्योग में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। 
  2. कृषि के मामले में भारत अभी भी बहुत हद तक बारिश पर निर्भर है।
  3. भारत में बारिश के दो मुख्य मौसम होते हैं- दक्षिण पश्चिमी मॉनसून (मुख्य मॉनसून) और उत्तर पूर्वी मॉनसून।
  4. दक्षिण पश्चिमी मॉनसून में बुआई और कटाई वाली फसल को खरीफ की फसल कहा जाता है। खरीफ की सबसे महत्वपूर्ण फसल चावल है।
  5. उत्तर पूर्वी मॉनसून में बोई और काटी गई फसल को रबी की फसल कहा जाता है। रबी की मुख्य फसल गेहूं है। 
  6. MCX पर एग्री कमोडिटी का ट्रेड शाम 5:00 बजे तक चलता है। 
  7. भारत में इलायची की सबसे ज्यादा खपत होती है और भारत दुनिया में इलायची का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। दुनिया का पहले नंबर का उत्पादक देश ग्वाटेमाला है। 
  8. इलायची की डिमांड और सप्लाई काफी समय से स्थिर है। 
  9. एग्री कमोडिटी में MIS मार्जिन नहीं होता। 
  10. मेंथा ऑयल को मेंथा की पत्तियों से निकाला जाता है।

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लेड और निकल https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b2%e0%a5%87%e0%a4%a1-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a4%b2/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b2%e0%a5%87%e0%a4%a1-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a4%b2/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:47:44 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7473 14.1 – लेड- थोड़ा इतिहास थोड़ी जरूरी जानकारी  आपको शायद भरोसा ना हो, लेकिन लेड नाम की इस धातु ने रोम के साम्राज्य को गिराने में एक भूमिका अदा की थी। जरा सोचिए- सोना नहीं, चांदी नहीं कोई हीरे जवाहरात नहीं बल्कि लेड, एक ऐसी धातु जो कि बहुत आसानी से पाई जाती है, उसने […]

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14.1 – लेड- थोड़ा इतिहास थोड़ी जरूरी जानकारी 

आपको शायद भरोसा ना हो, लेकिन लेड नाम की इस धातु ने रोम के साम्राज्य को गिराने में एक भूमिका अदा की थी। जरा सोचिए- सोना नहीं, चांदी नहीं कोई हीरे जवाहरात नहीं बल्कि लेड, एक ऐसी धातु जो कि बहुत आसानी से पाई जाती है, उसने इतने बड़े साम्राज्य को गिरा दिया। 

मैं यहां इतिहास की बात ज्यादा नहीं करूंगा। लेकिन यह एक बहुत ही रोचक जानकारी है इसलिए इस मौके का फायदा उठाकर मैं यह जानकारी आप तक पहुंचाना चाहता हूं। 

पहले लेड नाम की इस धातु के लक्षण या गुणों पर नजर डाल लेते हैं यह एक 

  • भारी और चमकीली धातु है 
  • यह काफी लचीली होती है और इससे तार बनाए जा सकते हैं 
  • इससे बिजली नहीं गुजर सकती मतलब यह बिजली का बैड कंडक्टर है 
  • इस पर आसानी से जंग नहीं लगता है 
  • यह काफी सघन होती है 
  • यह काफी आसानी से मिलती है 

लेड की खोज काफी पहले ही हो गयी थी और इसका इस्तेमाल प्रागैतिहासिक काल से हो रहा है। ये सबसे पहले खोजी गयी धातु है इस बात के सबूत के तौर पर मिस्त्र में लेड से बनी मूर्तियां मिली है जो 4000 ईसा पूर्व की हैं। शायद लेड का सबसे ज्यादा इस्तेमाल रोम के साम्राज्य में यानी रोमन साम्राज्य में हुआ था और उस समय इसका उत्पादन भी काफी ज्यादा होने लगा था। रोम के लोग लेड का इस्तेमाल पानी के पाइप, पानी की टंकी, खाने के बर्तनों और यहां तक कि सौंदर्य प्रसाधनों में भी करने लगे थे। 

नीचे के चित्र में आप रोमन काल का एक पानी की पाइप देख सकते हैं 

स्त्रोत – वेलकम इमेजेस, UK

ऐसा माना जाता है कि रोमन काल में लेड की पाइप से घर में पानी पहुंचना ऐश्वर्य का एक संकेत माना जाता था। पानी के पाइप पर उसके मालिक का नाम लिखा होता था (जैसा कि आप ऊपर के चित्र में देख सकते हैं) जिससे लोगों को उसके मालिक के ऐश्वर्य का पता चल सके। 

लेड नाम की इस धातु का इतना ज्यादा इस्तेमाल अंत में रोमन साम्राज्य को महंगा पड़ा। आप शायद जानते हो कि मानव के शरीर में लेड का कोई इस्तेमाल नहीं होता। यह जहरीला होता है और इससे कैंसर तक हो सकता है। लेड का इतना ज्यादा इस्तेमाल अंततः उनको महंगा पड़ा। पाइप के जरिए पानी लाने की वजह से बहुत सारे लोगों की जान गई, खासकर बड़े-बड़े फैसले करने वाले अधिकारियों और नेताओं की जान इसकी वजह से चली गई। ऐसा माना जाता है कि इतने लोगों की मौत की वजह से रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। 

खैर, रोमन साम्राज्य के खत्म होने के बाद लोगों में जागरूकता आई और उन्होंने लेड का बेहतर इस्तेमाल जान लिया। उसका दूसरा इस्तेमाल होने लगा। अब जिन कामों में लेड का इस्तेमाल होता है वह हैं- 

  • टांकने के लिए (Solder) 
  • टैंक (Tanks), चेंबर (Chambers) और सिंक (Sink) जैसी चीजों की इंडस्ट्रियल लाइनिंग करना 
  • रेडिएशन के विरूद्ध एक रक्षा कवच बनाना 
  • लेड एसिड स्टोरेज बैटरी बनाना 
  • केबल को ढंकने के लिए लेड फ्वायल (foil) बनाना 
  • पिगमेंट और कम्पाउंड बनाना 
  • पानी के जहाज बनाना 

बहुत सारे लोग पेंसिल में लिखाई के लिए लगने वाले लेड को लेड धातु के तौर पर समझते हैं लेकिन वह लेड अलग होती है वह ग्रेफाइट से बनती है, वास्तव में लेड से नहीं बनती। 

पिछले कुछ सालों से लेड की सप्लाई और डिमांड स्थिर रही है। एक बार इसके डाटा पर नजर डालिए – 

स्त्रोत – http://www.ilzsg.org/

वास्तव में पिछले कुछ सालों में लेड की कीमतें एक रेंज में ही रही हैं। लेड के लॉन्ग टर्म चार्ट पर नजर डालिए खासतौर पर अंतिम कुछ सालों पर- 

अगर आप MCX पर लेड में फ्यूचर ट्रेडिंग करना चाहते हैं तो आपको मुख्य तौर पर इसकी कीमतों के आधार पर ही ट्रेडिंग करनी होगी। व्यक्तिगत तौर पर मैं फंडामेंटल के आधार पर या फिर खबरों के आधार पर लेड में ट्रेडिंग नहीं करना चाहूंगा। लेकिन अगर आप ऐसा करना चाहते हैं तो लेड के फंडामेंटल डाटा को देखने के लिए यहां क्लिक करें।

14.2 – कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियाँ

इसके कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियों पर एक नजर डालते हैं। MCX पर दूसरी कई धातुओं की तरह लेड के भी दो कॉन्ट्रैक्ट होते हैं – लेड (बिग कॉन्ट्रैक्ट) और लेड मिनी। पहले लेड के बिग कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियों पर एक नजर डालते हैं। 

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 5 मिट्रिक टन (5000 किलोग्राम)

टिक साइज – 0.05 

प्रति टिक P&L 0.05 * 5000 =   250

एक्सपायरी – महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10 मिट्रिक टन

जनवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote ) पर नजर डालते हैं

यहां पर कीमत 137.05 प्रति किलो दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 5000 * 137.05

Rs.685,250/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 80,482 रुपये है, और MIS (इंट्रा डे) के लिए मार्जिन 40,241 रुपये है।

इस हिसाब से NRML का मार्जिन करीब 11.7% और MIS का मार्जिन करीब 5.9% होता है। इस तरह से लेड कमोडिटी के बाजार के सबसे अधिक मार्जिन वाली वस्तुओं में से एक बन जाती है। 

अब लेड मिनी कॉन्ट्रैक्ट –

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 1 मिट्रिक टन (1000 किलोग्राम)

टिक साइज – 0.05 

प्रति टिक P&L 0.05 * 1000 =   50

एक्सपायरी – महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10 मिट्रिक टन

जनवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे लेड मिनी के कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं

यहां पर कीमत 137.5 प्रति किलो दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 1000 * 137.5

Rs.137,500/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 16,442 रुपये है, और MIS (इंट्रा डे) के लिए मार्जिन 8,221 रुपये है।

इस हिसाब से NRML का मार्जिन करीब 11.7% और MIS का मार्जिन करीब 5.9% होता है। लेड मिनी का मार्जिन (NRML और MIS दोनों के लिए) लेड के बिग कॉन्ट्रैक्ट की तरह ही होता है। लेकिन यहां पर कॉन्ट्रैक्ट का लॉट साइज छोटा है इसलिए मार्जिन के लिए पैसे कम लगते हैं। 

14.3 – लेड कॉन्ट्रैक्ट का तर्क

MCX हर महीने एक नया कॉन्ट्रैक्ट जारी करता है और हर नया कॉन्ट्रैक्ट पांचवे महीने के अंतिम कामकाजी दिन को समाप्त होता है। उदाहरण के तौर पर MCX जनवरी 2017 में मई 2017 का कॉन्ट्रैक्ट जारी करेगा और मई 2017 का यह कॉन्ट्रैक्ट मई के अंतिम कामकाजी दिन को खत्म होगा। 

ध्यान दें कि जनवरी 2017 का अपना कॉन्ट्रैक्ट जनवरी के अंतिम कामकाजी दिन को खत्म होगा। जैसा की आप नीचे के टेबल में देख सकते हैं कि जनवरी का कॉन्ट्रैक्ट करीब 5 महीने पहले यानी सितंबर 2016 में जारी हुआ है। 

कॉन्ट्रैक्ट को इस तरह से इसलिए जारी किया जाता है क्योंकि हर समय मौजूदा महीने यानी करेंट मंथ का एक कॉन्ट्रैक्ट मौजूद रहे। 

नीचे के टेबल पर नजर डालिए – 

हालांकि हर कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायरी से 5 महीने पहले जारी होता है, लेकिन उसमें लिक्विडिटी अंतिम महीने में ही आती है। इसीलिए हमेशा मौजूदा महीने के कॉन्ट्रैक्ट में ही ट्रेडिंग करना फायदेमंद होता है, क्योंकि ज्यादा लिक्विडिटी की वजह से बिड और आस्क का स्प्रेड कम मिलता है, और स्प्रेड कम मिलता तो इंपैक्ट कॉस्ट (Impact Cost) कम होता है, और इंपैक्ट कॉस्ट कम होने से फायदा यह होता है कि जब आप मार्केट ऑर्डर डालते हैं तो आपको नुकसान भी कम होता है।

14.4 – निकल की जरूरी जानकारी

निकल और इससे जुड़े दुसरे मिश्रधातु का हमारे जीवन में बहुत उपयोग होता है। किचन का सामान हो, मोबाइल फोन हो, मेडिकल से जुड़े उपकरण हो, बिल्डिंग हो, बिजली का उत्पादन और यहां तक कि ट्रांसपोर्ट में भी, निकल का इस्तेमाल हर जगह किया जाता है। निकल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल स्टेनलेस स्टील बनाने में होता है। निकेल के कुल उत्पादन का करीब 65% स्टेनलेस स्टील बनाने में जाता है। 

निकल के डिमांड और सप्लाई पर एक नजर डालिए

जैसा कि आप देख सकते हैं कि निकल का उत्पादन इसकी मांग से ज्यादा हो गया है। शायद इसी वजह से पिछले कुछ सालों से निकल की कीमत नीचे है

अगर आप MCX पर निकल फ्यूचर में ट्रेडिंग करना चाहते हैं तो मेरी सलाह फिर से वही होगी कि आपको मुख्य तौर पर इसकी कीमतों के आधार पर ही ट्रेडिंग करनी होगी, फंडामेंटल के आधार पर नहीं।

14.5 – निकल के कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियाँ 

निकल के भी दो कॉन्ट्रैक्ट होते हैं – निकल (बिग कॉन्ट्रैक्ट) और निकल मिनी। पहले निकल के बिग कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियों पर एक नजर डालते हैं। 

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 250 किलोग्राम 

टिक साइज – 0.10 

प्रति टिक P&L 0.10 * 250 =  25

एक्सपायरी – महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 3 मिट्रिक टन

जनवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे निकल के कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं –

यहां पर कीमत 685.5 प्रति किलो दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 250 * 686.5

Rs.1,71,625/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 16,924 रुपये है, और MIS (इंट्रा डे) के लिए मार्जिन 8,462 रुपये है 

इस हिसाब से NRML का मार्जिन करीब 10% और MIS का मार्जिन करीब 5% होता है। 

अब निकल मिनी का कॉन्ट्रैक्ट देकते हैं – 

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 100 किलोग्राम 

टिक साइज – 0.10 

प्रति टिक P&L 0.10 * 100 =   10

एक्सपायरी – महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 3 मिट्रिक टन

जनवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे निकल मिनी कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं –

यहां पर कीमत 686 प्रति किलो दिख रही है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 100 * 686

Rs.68,600/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

 

 जैसा कि आप देख सकते हैं कि NRML ट्रेड (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए मार्जिन 6,694 रुपये है, और MIS (इंट्रा डे) के लिए मार्जिन 3,347 रुपये है। 

इस हिसाब से NRML का मार्जिन करीब 10% और MIS का मार्जिन करीब 5% होता है। 

कॉन्ट्रैक्ट हर महीने जारी होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे लेड में होते हैं। मेरी सलाह होगी कि आप करेंट मंथ के कॉन्ट्रैक्ट में ही सौदे करें क्योंकि उसमें लिक्विडिटी होगी। 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. लेड फ्यूचर में दो कॉन्ट्रैक्ट होते हैं – बिग कॉन्ट्रैक्ट और मिनी कॉन्ट्रैक्ट।
  2. लेड का लॉट साइज 5000 मिट्रिक टन और लेड मिनी का 1000 मिट्रिक टन होता है।
  3. लेड का प्रति टिक P&L 250 रुपये और लेड मिनी का 50 रुपये होता है।
  4. लेड की डिमांड और सप्लाई पिछले कुछ सालों से स्थिर रही है।
  5. निकल फ्यूचर में दो कॉन्ट्रैक्ट होते हैं – बिग कॉन्ट्रैक्ट और मिनी कॉन्ट्रैक्ट।
  6. निकल का लॉट साइज 250 किलो और निकल मिनी का 100 किलो होता है।
  7. निकल का प्रति टिक P&L  25 रुपये और निकल मिनी का 10 रुपये होता है। 
  8. निकल की सप्लाई उसकी मांग से अधिक है।
  9. लेड और निकल दोनों में ही सलाह ये होगी कि आप करेंट मंथ के कॉन्ट्रैक्ट में ही सौदे करें क्योंकि उसमें लिक्विडिटी होगी। 
  10. लेड और निकल दोनों में ही इनकी कीमतों के आधार पर ही शॉर्ट टर्म ट्रेडिंग करनी चाहिए, फंडामेंटल के आधार पर नहीं।

 

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कॉपर और एल्युमिनियम https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%89%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%8f%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%ae/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%89%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%8f%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%ae/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:46:50 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7471 13.1 – सुमितोमो कॉपर स्कैंडल (घोटाला)  अगर आप कमोडिटी बाजार के बारे में थोड़ा सा भी जानते हैं तो आपने सुमितोमो कॉपर स्कैंडल की कहानी जरूर सुनी होगी। इस स्कैंडल की शुरुआत करीब 1995 में हुई- जापान में। लेकिन यह स्कैंडल इतना बड़ा था कि दुनिया भर के कमोडिटी बाजारों और कमोडिटी ट्रेडिंग पर इसने […]

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13.1 – सुमितोमो कॉपर स्कैंडल (घोटाला) 

अगर आप कमोडिटी बाजार के बारे में थोड़ा सा भी जानते हैं तो आपने सुमितोमो कॉपर स्कैंडल की कहानी जरूर सुनी होगी। इस स्कैंडल की शुरुआत करीब 1995 में हुई- जापान में। लेकिन यह स्कैंडल इतना बड़ा था कि दुनिया भर के कमोडिटी बाजारों और कमोडिटी ट्रेडिंग पर इसने असर डाला और आज तक इसके बारे में चर्चा होती है। इसे ट्रेडिंग को ठगी का एक नमूना माना जाता है।

सुमितोमो कॉरपोरेशन जापान की एक बहुत बड़ी कंपनी है, इसका मुख्यालय जापान में है और ये वहीं पर लिस्टेड है। इसका कारोबार दुनिया भर में है और ये कई तरह के कारोबार करती है। कंपनी तरह-तरह की वस्तुओं और कमोडिटी की ट्रेडिंग करती है। उन दिनों सुमितोमो में कॉपर ट्रेडिंग यानी तांबे की ट्रेडिंग का एक बहुत बड़ा विभाग था। कंपनी स्पॉट बाजार में कॉपर खरीदती थी और फिर उनको अपने भंडार गृहों में जमा कर के रखती थी, जिससे उसकी ट्रेडिंग कर सके। साथ ही, लंदन मेटल एक्सचेंज पर कॉपर के फ्यूचर्स में भी कंपनी काफी निवेश करती थी। सुमितोमो के मुख्य कॉपर ट्रेडर थे- यासुओ हमानाका। कॉपर यानी तांबे से जुड़ी किसी भी चीज के लिए सुमितोमो में उन्ही का नाम लिया जाता था।

तो उस घोटाले या स्कैंडल में क्या हुआ था-

  • यासुओ हमानाका ने स्पॉट बाजार में कॉपर खरीदा और उसको अपने भंडार गृहों में जमा कर लिया। 
  • उन्होंने यह कॉपर केवल जापान में नहीं खरीदा बल्कि दुनियाभर के बाजारों में खरीदा और अलग-अलग जगहों पर उनको जमा करके रखा। 
  • इसका मतलब है कि कॉपर के स्पॉट बाजार में वह लॉन्ग थे यानी खरीदारी कर रहे थे। 
  • दुनियाभर के बाजारों में जितना कॉपर स्पॉट में खरीदा या बेचा जा रहा था उसका 5% सुमितोमो के पास था। उस समय इस दुनिया में यासुओ हमानाका से ज्यादा कॉपर किसी के पास नहीं था। इस तरह से वो एक ऐसी स्थिति में था जहां पर वह कॉपर की कीमतों को अपने हिसाब से कंट्रोल कर सकता था। 
  • साथ ही, उसने लंदन मेटल एक्सचेंज यानी LME पर कॉपर फ्यूचर भी खरीद रखा था। 
  • हर ट्रेडर को पता था कि यासुओ हमानाका कॉपर का सबसे बड़ा Bull (बुल) था, लेकिन कोई ये नहीं जानता था कि उसने कितना एक्स्पोज़र ले रखा है। (क्योंकि उस समय LME अपने ओपन इंटरेस्ट डाटा को पब्लिक में जारी नहीं करता था।) 
  • जब भी कोई ट्रेडर या ट्रेडिंग कंपनी कॉपर को शॉर्ट करती थी तो हमानाका उसको खरीद लेता था। उसके लिए ऐसा करना आसान था क्योंकि सुमितोमो के पास काफी कैश था और कंपनी इस ट्रेड को फंड कर रही थी। 
  • यासुओ हमानाका ने इतना बड़ी मात्रा में कॉपर खरीदा था कि कॉपर की कीमतें ऊपर चली गई।
  • याद रखें कि कॉपर एक इंटरनेशनल यानी अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी है और इसकी कीमतें बाजार तय करता है (LME फ्यूचर)।
  • तो LME पर कीमत ऊपर गई, शॉर्ट करने वाले ट्रेडर फंस गए और हमानाका ने फ्यूचर्स में काफी मुनाफा कमाया।
  • शॉर्ट करने वाले ट्रेडर को डिफॉल्ट करना पड़ा और उन्हें एक्सपायरी पर कॉपर की डिलीवरी देनी पड़ी। 
  • ऐसे में, हर ट्रेडर को सुमितोमो से महंगी कीमत पर कॉपर खरीदना पड़ता था जिसका मतलब था कि सुमितोमो अपनी स्पॉट की पोजीशन पर भी बहुत सारे मुनाफा कमा रहा था।
  • यह मुनाफा इतना बढ़ता गया कि यासुओ हमानाका कॉपर का किंग बन गया।

यह सब एक दशक से ज्यादा ऐसे ही चलता रहा। लेकिन 90 के दशक के शुरुआत में चीन ने अपना कॉपर का उत्पादन बढ़ा दिया। वहां उत्पादन इतना ज्यादा होने लगा कि बाजार में हर तरफ कॉपर आसानी से मिलने लगा। इस वजह से, कॉपर की कीमतें नीचे आने लगी और हमानाका को मुश्किल होने लगी। उसके पास इतना माल था कि उसे बाजार में बेचना आसान नहीं था। आखिर बाजार में सब कुछ तो वह खुद ही खरीद रहा था। तब उसने अपनी लॉन्ग पोजीशन को बचाए रखने के लिए पैसे उधार पर लेने शुरू कर दिए। याद रखिए कि ये सारी पोजीशन लेवरेज वाली थी और जब आपके पास किसी लेवरेज पोजीशन की बहुत बड़ी मात्रा होती है, तो कीमत में छोटा सा बदलाव भी आपका बड़ा भारी नुकसान करा सकता है। 

फिर एक दिन यही हुआ, कॉपर की कीमत जोर से गिरीं और यासुओ हमानाका का कॉपर साम्राज्य ध्वस्त हो गया। घाटा इतना बड़ा था कि सुमितोमो कॉरपोरेशन को दिवालियापन यानी बैंक्रप्टसी (bankruptcy) के लिए अर्जी देनी पड़ी। 1995 की कीमतों में कंपनी को करीब 5 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। 

इसके बाद वही हुआ जो आमतौर पर होता है। कुछ लोगों पर उंगलियां उठीं, कुछ मुकदमे हुए, कुछ सफाई दी गई और ड्रामा चलता रहा। लेकिन इस कहानी से सीख ये मिली कि रिस्क मैनेजमेंट कितना जरूरी होता है। इसके बारे में बात हम एक अलग मॉडयूल में करेंगे। 

लेकिन अभी हम कॉपर से जुड़ी जरूरी जानकारी के लिए आगे बढ़ते हैं।

13.2 – कॉपर की जरूरी जानकारी

कॉपर यानी तांबा एक बेस मेटल है। MCX पर इसका अच्छा खासा कारोबार होता है। जो धातुएं सोने और चांदी की तरह महंगी धातु नहीं होती हैं उन्हें बेस मेटल कहा जाता है। 

MCX पर कॉपर में हर दिन करीब 2,050 करोड़ रुपए का कारोबार होता है और करीब 55,000 लॉट्स बेचे और खरीदे जाते हैं। MCX पर कॉपर में काफी लिक्विडिटी होती है। यह लिक्विडिटी सोना या क्रूड ऑयल के बराबर होती है। 

कॉपर एक बहुत ही जरूरी धातु है। खपत के मामले में, स्टील और एल्युमिनियम के बाद यह तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा इसकी खपत वाली धातु है। एल्युमिनियम की तरह ही कॉपर की कीमत सीधे तौर पर दुनिया की आर्थिक हालत से जुड़ी होती है। आपको शायद पता हो कि कॉपर इलेक्ट्रिसिटी यानी बिजली का एक अच्छा कंडक्टर है और इसलिए कॉपर का इस्तेमाल बिजली के तार बनाने में होता है। शायद आपको यह भी पता हो कि टेस्ला की कार बनाने में कॉपर की मोटर का इस्तेमाल होता है।

इसके अलावा कॉपर का इस्तेमाल बहुत सारी चीजों में होता है, जैसे 

  • बिल्डिंग और कंस्ट्रक्शन 
  • कॉपर एलॉय मोल्ड
  • इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक 
  • प्लंबिंग 
  • औद्योगिक उत्पादन
  • टेलीकॉम 
  • रेलवे। 

लेकिन मेरे लिए इसका सबसे महत्वपूर्ण उपयोग यह है-

क्या आप अनुमान लगा पाए, अगर हां तो आपकी और मेरी रुचि में ये कॉमन है।   

कॉपर की मांग हमेशा वैसे ही चलती है जैसे एल्युमिनियम की चलती है। नीचे के चित्र पर नजर डालिए।

स्रोत- हिंडालको की वार्षिक रिपोर्ट 2015-16 

2015 में रिफाइंड कॉपर की दुनिया भर की डिमांड करीब 24 मिलियन टन थी। इसमें से आधी मांग चीन और जापान से थी। कॉपर की सप्लाई उसकी मांग से ज्यादा थी और कमोडिटी बाजार में ज्यादा माल आने की वजह से कीमतें पिछले कुछ सालों के मुकाबले काफी नीचे थी। 

कॉपर की फंडामेंटल की जानकारी तो जरूरी है, लेकिन किसी भी दूसरी कमोडिटी की तरह ही कॉपर की ट्रेडिंग में भी मैं चार्ट पर ज्यादा भरोसा करता हूं। इसलिए आइए पहले कॉन्ट्रैक्ट की जरूरी बातों को समझ लेते हैं। एल्युमिनियम और कॉपर दोनों में दो तरह के कॉन्ट्रैक्ट होते हैं – बिग कॉपर कॉन्ट्रैक्ट और इसका मिनी कॉन्ट्रैक्ट। पहले बिग कॉपर कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं। 

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 1 मिट्रिक/मेट्रिक टन 

टिक साइज – 0.05 

प्रति टिक P&L 0.05 * 1000 =  50

एक्सपायरी – हर महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10 मिट्रिक टन

फरवरी 2017 में एक्सपायर हो रहे कॉन्ट्रैक्ट के कोट (Quote) पर नजर डालते हैं 

यहां पर कीमत 389.1 प्रति किलो दिख रही है। इस वजह से कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

लॉट साइज * कीमत

= 1000 * 389.1

Rs.389,100/-

NRML ट्रेड की मार्जिन को नीचे दिखाया गया है –

तो ये है 30,544 यानी करीब 7.8%, जबकि MIS ट्रेड की मार्जिन इसकी आधी होगी।

कॉपर मिनी कॉन्ट्रैक्ट का लॉट साइज छोटा है इसलिए प्रति टिक P&L भी छोटा होगा और मार्जिन भी।

कीमत प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 250 किलोग्राम 

टिक साइज – 0.05 

प्रति टिक P&L 0.05 * 250 =   12.50

एक्सपायरी – हर महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10 मिट्रिक टन

मेरी सलाह यह होगी कि आप कॉपर में ट्रेड करने के लिए या फिर किसी भी कमोडिटी में ट्रेड करने के लिए टेक्निकल एनालिसिस का सहारा लें। कॉपर जैसी किसी भी लिक्विड कमोडिटी में टेक्निकल एनालिसिस अच्छा काम करती है। और अगर आपको सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट की जरूरी जानकारी पता हो तो आप आसानी से ये ट्रेड कर सकते हैं।

अब एल्युमिनियम की तरफ बढ़ते हैं।

13.3 – एल्युमिनियम की जरूरी जानकारी 

याद रखिए कि यहां पर हमारा इरादा सिर्फ जरूरी जानकारी को जुटाना है। हम इस विषय के विस्तार में नहीं जा रहे हैं क्योंकि हमारा इरादा इस कमोडिटी में ट्रेड करने का है और ऐसा ट्रेड जिसमें हम इसे सिर्फ 2 या 3 दिनों के लिए ही होल्ड करेंगे। इसलिए बजाय फंडामेंटल जानकारी बढ़ाते जाने के हमारा फोकस इस पर होना चाहिए कि कीमत कैसे चल रही हैं। इसलिए मैं जरूरी जानकारी दूंगा और अध्याय के अंत में कुछ बुलेट प्वाइंट भी दूंगा जिससे आप इन चीजों को ठीक से समझ सकें। इसके बाद कॉन्ट्रैक्ट की जानकारी को देखेंगे। 

आमतौर पर एल्युमिनियम का नाम आते ही हम सबको एक पतले सिल्वर फॉयल (Silver Foil) का ध्यान आता है जिसमें आप अपना खाना लपेटते हैं। लेकिन एल्युमिनियम के और बहुत सारे इस्तेमाल होते हैं। 

एल्युमिनियम के बारे में कुछ जरूरी बातें आपको जाननी चाहिए, वो हैं 

  1. एल्युमिनियम की सप्लाई बहुत ज्यादा है (एल्युमिनियम की कोई कमी नहीं है)। पृथ्वी की सतह का करीब 8% हिस्सा एल्युमिनियम से बना हुआ है मतलब दुनिया में ऑक्सीजन और सिलिकॉन के बाद सबसे ज्यादा आसानी से मिलने वाली वस्तु एल्युमिनियम है। 
  2. एल्युमिनियम में जंग नहीं लगता और इसलिए इसका इस्तेमाल काफी ज्यादा होता है। 
  3. एल्युमिनियम के उत्पादन में बिजली का खर्च बहुत ज्यादा होता है। एक मेट्रिक टन एल्युमिनियम बनाने के लिए करीब 17.4 मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ती है। यहां देखिए –

ऊपर के चित्र में हाईलाइट करके दिखाया गया हिस्सा हिंडाल्को का वह खर्च है जो वह जो कंपनी बिजली और ईंधन पर करती है। जैसा कि आप देख सकते हैं कि ये कुल खर्च का करीब 10% है। याद रखिए कि हिंडाल्को के पास अपने खुद के बिजली घर हैं इसलिए मुझे लगता है कि यह खर्च उस बिजली पर किया गया है जिस बिजली की खरीदारी अपने द्वारा बनाई गई बिजली के इस्तेमाल बाद की गयी है।

  1. ये जानना भी जरूरी है कि एल्युमिनियम को रि-साइकिल करने में काफी कम बिजली लगती है। एल्युमिनियम को बनाने में जितनी बिजली खर्च होती है, उसका सिर्फ 5% ही रि-साइकल करने में लगती है। 
  2. एल्युमिनियम के बहुत सारे इस्तेमाल होते हैं एक स्मार्टफोन से लेकर बड़े हवाई जहाज बोईंग 747 तक। शायद आपको पता हो कि एक बोइंग 747 बनाने में करीब 70,000 किलो एल्युमिनियम का इस्तेमाल होता है। 
  3. एल्युमिनियम का और भी बहुत सारे उद्योगों में इस्तेमाल होता है जैसे ऑटोमोटिव, बिल्डिंग और कंस्ट्रक्शन, डिफेंस, इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रॉनिक, फार्मास्यूटिकल और व्हाइट गुड्स वगैरह। 
  4. एल्युमिनियम एक ऐसा धातु है जिसकी सप्लाई और डिमांड दोनों काफी ज्यादा है। 
  5. MCX पर एल्युमिनियम की कीमत अंतरराष्ट्रीय कीमत के हिसाब से ऊपर-नीचे होती हैं और अंतरराष्ट्रीय कीमत LME (London Metal Exchange) के कारोबार से तय होती हैं। 

नीचे के चित्र को ध्यान से देखने पर आपको समझ में आएगा कि एल्युमिनियम का उत्पादन, सप्लाई और कीमत (LME पर) किस तरीके से चलती हैं। 

स्त्रोत- हिंडालको वार्षिक रिपोर्ट 2015 2016

यह चार्ट बहुत ही रोचक है। इसके आधार पर आप ट्रेडिंग के कुछ सिद्धांत बना सकते हैं। इस चार्ट को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटते हैं और देखते हैं- 

  1. दुनिया के उत्पादन को देखें (नीले बार से दिखाए गए)- 2015 में एल्युमिनियम का उत्पादन करीब 56 मिलियन टन का था। इसका मतलब है कि पिछले साल के मुकाबले इसके उत्पादन में 4% की बढ़ोतरी हुई। 
  2. इसके उत्पादन में पिछले 8 साल में CAGR तौर पर 6% की बढ़ोतरी हुई। 
  3. इसकी मांग (पीले रंग का बार ) इसके उत्पादन के बराबर है। इसका मतलब है कि सप्लाई और डिमांड में कोई अंतर नहीं है। 
  4. वास्तव में सप्लाई और डिमांड पिछले कई सालों से ऐसा ही रहा है, उनमें बदलाव नहीं हुआ है।
  5. एल्युमिनियम की कीमत पिछले कुछ सालों में नीचे आई है। यह आमतौर पर $1,500 प्रति टन पर हैं जबकि इसकी कीमत का सबसे ऊँचा स्तर $2,500 प्रति टन रहा है। इसका मतलब ये है कि इसकी कीमत उस रिकार्ड स्तर से काफी कम है। आपने कई बार सुना होगा कि दुनिया में कमोडिटी की एक तरीके से बाढ़ आ गई है। चीन में कमोडिटी की मांग जिस तरीके से बढ़ी है, उसने एल्युमिनियम की कीमतों पर काफी असर डाला है। 
  6. भारत में एल्युमिनियम की मांग दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा (प्रतिशत के आधार पर) है। हिंडालको की वार्षिक रिपोर्ट के हिसाब से भारत में एल्युमिनियम की मांग करीब 2 मिलियन टन सालाना की है। इस मांग को ज्यादातर आयात के जरिए पूरा किया जाता है। 

मुझे लगता है कि शुरूआत करने के लिए एल्युमिनियम के बारे में इतनी फंडामेंटल जानकारी आपके लिए काफी है। मैं एल्युमिनियम की ट्रेडिंग टेक्निकल एनालिसिस के जरिए ही करूंगा क्योंकि मैं इसको कम समय के लिए होल्ड करने का इरादा रखता हूं। मैं कभी भी इस ट्रेड को कुछ ट्रेडिंग सेशन से ज्यादा होल्ड नहीं करूंगा। 

तो अब आगे बढ़ते हैं और MCX पर एल्युमिनियम के कॉन्ट्रैक्ट को देखते हैं।

13.4 – एल्युमिनियम के कॉन्ट्रैक्ट की जानकारी

MCX पर एल्युमिनियम के दो मुख्य कॉन्ट्रैक्ट होते हैं- एक बिग एल्युमिनियम कॉन्ट्रैक्ट और दूसरा Sल्युमिनियम मिनी कॉन्ट्रैक्ट। इन दोनों के बीच में अंतर सिर्फ लॉट साइज का होता है और इसी वजह से इनकी कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू भी अलग-अलग होती है। पहले हम बिग एल्युमिनियम कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं।

बिग एल्युमिनियम कॉन्ट्रैक्ट में हर दिन औसतन करीब-करीब 375 करोड़ रुपए का कारोबार होता है। कभी-कभी इस ट्रेड का औसत वॉल्यूम 500 करोड़ तक भी पहुंच जाता है। आपको समझ में आ ही गया होगा कि यह उतना ज्यादा नहीं है जितना सोना या कच्चे तेल में होता है। 

इस कॉन्ट्रैक्ट की बाकी जानकारी ये है – 

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 5 मिट्रिक टन  

यह एक बहुत बड़ा कॉन्ट्रैक्ट है। एक मिट्रिक टन का मतलब 1000 किलो होता है तो 5 मिट्रिक टन का मतलब है – 5000 किलो। चूंकि कीमत प्रति किलो के हिसाब से कोट (quote) की जाती है और लॉट साइज 5000 किलो का है और अगर एक टिक एक रुपए के बराबर है तो प्रति टिक P&L ₹5000 का होता है जो कि काफी ज्यादा है, खास तौर पर रिटेल ट्रेडिंग के हिसाब से। इसीलिए MCX ने टिक साइज को पांच पैसे तक कर दिया है।

टिक साइज – 0.05 

प्रति टिक P&L 0.05 * 5000 =   250

एक्सपायरी – महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10 मिट्रिक टन

अब इस जानकारी को जरा विस्तार से समझते हैं। MCX पर एल्युमिनियम की कीमत प्रति किलोग्राम के रूप में बताई जाती है। नीचे के चित्र को देखिए जिसमें मार्केट डेप्थ को दिखाया गया है-

जैसा कि आप देख सकते हैं कि दिसंबर 2016 में एक्सपायर हो रहा कॉन्ट्रैक्ट 118.4 रूपए प्रति किलो पर है।

लॉट साइज 5 मिट्रिक टन (5000 किलो) है, जिसका मतलब है कि अगर आप एल्युमिनियम को खरीदना (लॉन्ग होना) चाहते हैं तो कुल कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी – 

लॉट साइज * कीमत

= 5000 * 118.4 (लॉन्ग जाने की ऑफर कीमत)

 = Rs. 592,000/-

एल्युमिनियम की कीमत में कम से कम 0.05 का बदलाव होता है, तो अगर कीमत 118.40 से 118.45 हो जाती है तो कुल मुनाफा होगा – 

118.45 – 118.40

= 0.05

= 0.05 * 5000

= Rs. 250

मार्जिन के लिए इस चित्र पर नजर डालिए –
NRML ट्रेड की मार्जिन होगी 33,719 रुपये जो कि करीब 5.6% है। MIS ट्रेड की मार्जिन करीब इसकी आधी है।

एल्युमिनियम मिनी कॉन्ट्रैक्ट की जानकारी पर नजर डालते हैं – 

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति किलोग्राम 

लॉट साइज – 1 मिट्रिक टन

टिक साइज – 0.05 

प्रति टिक P&L 0.05 * 1000 =   50

एक्सपायरी – महीने की अंतिम तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 10 मिट्रिक टन

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू काफी कम है – 

= 1000 * 118.4 (लॉन्ग जाने की ऑफर कीमत)

 = Rs. 118,400/-

NRML ट्रेड की मार्जिन होगी 6,779 रुपये, जो कि करीब 5.7% है। MIS ट्रेड की मार्जिन काफी कम है करीब 3,389 रुपये जो कि कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू की करीब 2.8% है।

प्रति टिक P&L है 50, इस वजह से ट्रेडिंग आसान है।

मुझे लगता है कि इतनी जानकारी एल्युमिनियम में ट्रेडिंग शुरू करने के लिए काफी है। सच कहूं तो आपको सिर्फ चार्ट को देखना है, एक नजरिया बनाना है, उस हिसाब से अपना ट्रेड लगाना है और आप एक अच्छे ट्रेडर बन सकते हैं। अगर आप एल्युमिनियम के बारे में और ज्यादा जानना चाहते हैं तो आप इस वेबसाइट पर नजर डाल सकते हैं- http://www.world-aluminium.org/ और http://www.aluminum.org/ 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. तांबा और एल्युमिनियम यानी कॉपर और एल्युमिनियम दोनों बेस मेटल हैं।
  2. एल्युमिनियम बहुत ज्यादा आसानी से मिलने वाली धातु है (ऑक्सीजन और सिलिकॉन के बाद सबसे आसानी से)।
  3. एल्युमिनियम और कॉपर दोनों के डिमांड और सप्लाई में एक तरीके का संतुलन बना हुआ है।
  4. एल्युमिनियम और कॉपर की दोनों की कीमतें पिछले कुछ साल में नीचे आई है।
  5. LME पर यानी लंदन मेटल एक्सचेंज पर एल्युमिनियम और कॉपर की जो कीमत होती है उसको दुनिया भर में कीमत के लिए बेंचमार्क माना जाता है।
  6. एल्युमिनियम और कॉपर दोनों में मुख्य तौर पर दो कॉन्ट्रैक्ट होते हैं बिग कॉन्ट्रैक्ट और मिनी कॉन्ट्रैक्ट। 
  7. दोनों कॉन्ट्रैक्ट में अंतर सिर्फ लॉट साइज का होता है, जिसकी वजह से कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू और मार्जिन पर असर पड़ता है।

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कच्चा तेल (भाग 3), कच्चे तेल का कॉन्ट्रैक्ट https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-3-%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a5%87-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a4%be/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-3-%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a5%87-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a4%be/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:45:34 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7469 2.1 – कॉन्ट्रैक्ट  MCX पर जिस कमोडिटी का सबसे ज्यादा कारोबार होता है वो है क्रूड ऑयल यानी कच्चा तेल। MCX पर हर दिन इस कमोडिटी में कुल मिलाकर (सभी कॉन्ट्रैक्ट) औसतन 3000 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार होता है यानी करीब–करीब 8500 बैरल कच्चे तेल का कारोबार हर दिन होता है। कच्चे तेल […]

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2.1 – कॉन्ट्रैक्ट 

MCX पर जिस कमोडिटी का सबसे ज्यादा कारोबार होता है वो है क्रूड ऑयल यानी कच्चा तेल। MCX पर हर दिन इस कमोडिटी में कुल मिलाकर (सभी कॉन्ट्रैक्ट) औसतन 3000 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार होता है यानी करीबकरीब 8500 बैरल कच्चे तेल का कारोबार हर दिन होता है। कच्चे तेल के इस कारोबार में कंपनियां और ट्रेडर दोनों हिस्सा लेते हैं। तकरीबन हर दिन अपस्ट्रीम कंपनियां (जैसे ओएनजीसी, रिलायंस और केर्न) और डाउनस्ट्रीम कंपनियां (जैसे IOC, BPCL, HPCL) MCX पर अपने आर्डर देती हैं। मुझे लगता है कि यह कंपनियां मुख्य तौर पर स्पॉट मार्केट में पोजीशन को हेज (hedge) करने के लिए अपने ऑर्डर MCX पर ट्रेड करते हैं जिससे कि वह स्पॉट बाजार में उठापटक से बच सकें। जबकि ट्रेडर सिर्फ स्पेकुलेशन करते हैं जिससे कि वह कच्चे तेल से कुछ कमाई कर सकें। 

मेरी सलाह यह होगी कि आप MCX की भाव कॉपी को देखें। इससे आपको किसी भी कॉन्ट्रैक्ट की लिक्विडिटी और वॉल्यूम के बारे में पता चल सकेगा। 

MCX पर मुख्यतः दो कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेडिंग होती है 

  1. क्रूड ऑयल ( बिग क्रूड या मेन क्रूड कॉन्ट्रैक्ट)
  2. क्रूड ऑयल मिनी (The Baby Version)

इस अध्याय में हम देखेंगे कि इ कॉन्ट्रैक्ट में किस तरीके की शर्तें होती हैं – एक्सपायरी से लेकर मार्जिन और प्रति टिक P&L तक

12.2 – क्रूड आयल (बिग क्रूड या मेन क्रूड कॉन्ट्रैक्ट)

दिन के औसत करीब 2500 करोड़ के कारोबार के साथ बिग क्रूड ऑयल कॉन्ट्रैक्ट MCX पर ट्रेड होने वाला सबसे बड़ा कॉन्ट्रैक्ट है। चलिए इस कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं –

कीमत-प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति बैरल 

लॉट साइज – 100 बैरल 

टिक साइज –

प्रति टिक P&L 100 

एक्सपायरी – हर महीने की 19 या 20 तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 50,000 बैरल 

फिजिकल डिलीवरी – मुंबई/ JNPT पोर्ट 

इस जानकारी को जरा बेहतर तरीके से समझते हैं। MCX पर कच्चा तेल प्रति बैरल के हिसाब से कोट (Quote) होता है। (एक बैरल करीब 42 गैलन या 159 लीटर के बराबर होता है) नीचे हमने क्रूड ऑयल के मार्केट डेप्थ का चित्र दिखाया है 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि 19 दिसंबर 2016 को एक्सपायर होने वाला क्रूड ऑयल का कॉन्ट्रैक्ट 3197 पर है। हमें पता ही है कि यह कीमत प्रति बैरल कीमत है। 

लॉट साइज 100 बैरल का है, इसका मतलब है कि अगर आप इस कॉन्ट्रैक्ट को खरीदना चाहते हैं तो कॉन्ट्रैक्ट की कीमत होगी 

लॉट साइज * कीमत

= 100 * 3198 (लॉन्ग जाने की ऑफर कीमत)

Rs.319,800/-

तो यह तो हुई कॉन्ट्रैक्ट की कीमत लेकिन मार्जिन का क्या? कच्चे तेल में मार्जिन दूसरी किसी भी कमोडिटी के मुकाबले ज्यादा होती है। अगर अपने पोजीशन को अगले दिन के लिए रखना चाहते हैं तो फिर करीब 9% का मार्जिन आपको देना पड़ सकता है। 

इसका मतलब है कि कच्चे तेल के एक लॉट के लिए आपको जो मार्जिन डिपॉजिट देना होगा, वह है – 

9% * 319800

= Rs.28,782/-

वैसे आप चाहें तो जेरोधा के मार्जिन कैलकुलेटर का इस्तेमाल कर सकते हैं और मार्जिन का अनुमान लगा सकते हैं। नीचे उसका ही चित्र है

अगर इस समय कच्चे तेल की कीमत 3253 है तो NRML सौदे (ओवरनाइट पोजीशन) के लिए 29,114 के मार्जिन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन अगर आप इंट्राडे ट्रेड (MIS) करना चाहते हैं तो मार्जिन की जरूरत करीब करीब 4.5% की ही रह जाएगी। जैसा कि आप ऊपर के चित्र में देख सकते हैं कि MIS के लिए मार्जिन करीब 14,557 रुपए है। 

12.3 – ट्रेडिंग के लिए कच्चे तेल के सही कॉन्ट्रैक्ट को कैसे चुनें (एक्सपायरी का तर्क)

कच्चे तेल के कॉन्ट्रैक्ट हर महीने में जारी होते हैं। अभी जारी होने वाले कॉन्ट्रैक्ट की एक्सपायरी 6 महीने के बाद होगी। उदाहरण के तौर पर नवंबर 2016 में जारी हो रहे कॉन्ट्रैक्ट की एक्सपायरी 6 महीने बाद यानी मई 2017 में होगी। MCX इसकी जानकारी लगातार अपने सर्कुलर जारी करके देता रहता है। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मुझे कभी-कभी उस जानकारी को समझने में मुश्किल होती है जो कि एक्सपायरी टेबल में दी जाती है। MCX हमें ये बताना चाहता है – 

मौजूदा महीना कॉन्ट्रैक्ट जारी एक्सपायरी
नवंबर 2016 मई 2017 19th मई
दिसंबर 2016 जून 2017 19th जून
जनवरी 2017 जुलाई 2017 19th जुलाई
फरवरी 2017 अगस्त 2017 21st अगस्त
मार्च 2017 सितंबर 2017 19th सितंबर
अप्रैल 2017 अक्टूबर 2017 18th अक्टूबर
मई 2017 नवंबर 2017 17th नवंबर

लेकिन MCX का सर्कुलर जो बताता है वो ये  है 

तो नवंबर 2016 का कॉन्ट्रैक्ट मई 2016 में जारी हुआ होगा। 

खैर, यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि 

  1. हर महीने एक नया कॉन्ट्रैक्ट होता है जो 6 महीने पहले जारी हुआ होता है 
  2. ये कान्ट्रैक्ट 6 महीने बाद एक्सपायर होते हैं उस महीने की 19 तारीख के करीब 
  3. इस तरह से हर कॉन्ट्रैक्ट 6 महीने तक चलते हैं 

ट्रेडिंग करने के लिए हमेशा पास के महीने वाला कॉन्ट्रैक्ट यानी नियर मंथ का कॉन्ट्रैक्ट चुनना चाहिए। मान लीजिए कि आज नवंबर 5, 2016 है, तो मैं उस कॉन्ट्रैक्ट को चुनुंगा जो कि 19 नवंबर 2016 एक्सपायर हो रहा है। साथ ही, नवंबर 15 या 16 को जब एक्सपायरी में कुछ ही दिन बचेंगे तो मैं दिसंबर 2016 के कॉन्ट्रैक्ट में चला जाऊंगा। इसके पीछे की वजह बहुत सीधी है, मौजूदा महीने के कॉन्ट्रैक्ट (इस उदाहरण में नवंबर 2016) में हमेशा लिक्विडिटी ज्यादा होती है और जब मौजूदा महीने का कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायर होने वाला होता है तो अगले महीने के कॉन्ट्रैक्ट (इस उदाहरण में दिसंबर 2016) में लिक्विडिटी बढ़ने लगती है।

बाजार में मौजूद बाकी सारे कॉन्ट्रैक्ट में कुछ कारोबार नहीं होता जब तक वो नियर मंथ के नहीं बनते।

12.3 – क्रूड ऑयल मिनी का कान्ट्रैक्ट 

क्रूड ऑयल मिनी का कॉन्ट्रैक्ट छोटा होने की वजह से ट्रेडर्स में काफी लोकप्रिय है। इसकी वजह ये है कि इसमें 

  1. मार्जिन की जरूरत कम पड़ती है। 
  2. प्रति टिक P&L भी छोटा होता है। क्या आपको पता है कि लोग कम नुकसान देखना चाहते हैं भले ही मुनाफा ज्यादा ना दिखे?

इस कॉन्ट्रैक्ट की जानकारी इस प्रकार है 

कीमत प्राइस कोट (Price Quote) – प्रति बैरल 

लॉट साइज – 10 बैरल 

टिक साइज –

प्रति टिक P&L 10 

एक्सपायरी – हर महीने की 19 या 20 तारीख 

डिलीवरी यूनिट – 50,000 बैरल 

फिजिकल डिलीवरी – मुंबई/JNPT पोर्ट 

अब एक नजर डालते हैं कीमत के कोट (Quote) पर –

क्रूड ऑयल मिनी का दिसंबर फ्यूचर 3210 प्रति बैरल पर है। इसकी कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी 

= 3210 * 10

Rs.32,100/-

इसमें मार्जिन की जरूरत प्रतिशत के हिसाब से थोड़ी ज्यादा होती है। NRML के लिए करीब 9.5% और MIS के लिए 4.8% । 

अगर रुपयों में देखें तो NRML के लिए मार्जिन होगी 3049 और MIS के लिए होगी 1540, तो आप देख सकते हैं कि क्रूड ऑयल के मुख्य कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले यहां मार्जिन काफी कम है। 

लॉट साइज और मार्जिन के अलावा बाकी चीजें दोनों ही कॉन्ट्रैक्ट में एक जैसी होती हैं। 

12.4 – कच्चे तेल में ऑर्बिट्राज 

नीचे का चित्र देखें

ऊपर के चित्र के पहले हिस्से में क्रूड ऑयल दिसंबर फ्यूचर को दिखाया गया है और इसकी मार्केट डेप्थ भी दिखाई गई है जबकि चित्र का दूसरा हिस्सा क्रूड ऑयल मिनी के दिसंबर कॉन्ट्रैक्ट को उस और उसके मार्केट डेप्थ को दिखाता है। 

अगर सब कुछ एक जैसा रहे तो इन दोनों कॉन्ट्रैक्ट की कीमत करीब-करीब एक जैसी दिखनी चाहिए क्योंकि इन दोनों का अंडरलाइंग एक ही है। और हम देख सकते हैं कि यहां पर दोनों कॉन्ट्रैक्ट की कीमत 3221 ही है

लेकिन अगर इन दोनों की कीमत एक जैसी नहीं हो तो? 

मान लीजिए किसी वजह से दोनों कॉन्ट्रैक्ट अलग-अलग कीमत पर हैं। अगर क्रूड ऑयल 3221 पर है और क्रूड ऑयल मिनी 3217 पर है, तो क्या यहां एक ट्रेड का मौका है? जी हां बिल्कुल सही पहचाना आपने, यहां पर एक आर्बिट्राज का मौका है और इसको इस तरह से ट्रेड करना चाहिए

क्रूड ऑयल = 3221

क्रूड ऑयल मिनी = 3217

रिस्क फ्री मुनाफे की संभावना (आर्बिट्राज) = 3221-3217 = 4

ट्रेड कैसे होगा

हमें पता है कि किसी भी आर्बिट्राज के ट्रेड में हमेशा सस्ते ऐसेट को खरीदना चाहिए और महंगे ऐसेट को बेचना चाहिए। तो इस मामले में –

हम क्रूड ऑयल मिनी को 3217 पर खरीदेंगे और क्रूड ऑयल को 3221 पर बेचेंगे। यह भी याद रखें एक आर्बिट्राज के मौके का अच्छा इस्तेमाल करने के लिए हमें दोनों तरफ बराबर की मात्रा का ट्रेड करना चाहिए। 

क्रूड ऑयल की कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू – 3221 * 100 = Rs.3,22,100/-

क्रूड ऑयल मिनी की कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू-  3217 * 10 = Rs.32,170/-

तो यह देखते हुए हमें क्रूड ऑयल मिनी के 10 लॉट 3217 पर खरीदने होंगे और क्रूड ऑयल का एक लॉट 3221 पर बेचना होगा। इस तरह से दोनों कॉन्ट्रैक्ट साइज एक बराबर हो जायेंगे और आर्बिट्राज सही तरीके से काम करेगा। 

जब हम इस ट्रेड को ठीक तरीके से कर लेंगे तो आर्बिट्राज फायदा मिल जाएगा। याद रखिए कि हर आर्बिट्राज में कीमतें कहीं एक जगह जाकर मिलती हैं। मान लीजिए इस मामले में कीमत 3230 पर मिलती है। 

तो इसका मतलब यह होगा कि हम क्रूड ऑयल मिनी पर 13 प्वाइंट बना रहे होंगे और क्रूड ऑयल पर 9 प्वाइंट का नुकसान सह रहे होंगे। इस तरह से कुल मिलाकर हमें 4 प्वाइंट का मुनाफा होगा। 

वास्तव में कीमत कहीं भी हो आपको 4 प्वाइंट का मुनाफा जरूर मिलेगा। 

याद रखें कि इस तरह के मौके हर दिन नहीं मिलते। अगर ऐसे मौके आते भी हैं तो एल्गोरिदम (Algorithm) उसको आपसे पहले पकड़ लेते हैं। लेकिन कभी-कभी मैंने ऐसे मौकों को कुछ मिनटों तक चलते हुए देखा है। 

तो ट्रेड के ऐसे मौकों के लिए नजर खुली रखिए और अगर ये मिलें तो उसे पकड़ लीजिए। 

इसके साथ ही कच्चे तेल पर हमारी यह बातचीत यहीं खत्म होती है। अगले कुछ अध्यायों में हम मेटल यानी धातुओं के कारोबार पर नजर डालेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. कच्चे तेल के दो कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध होते हैं क्रूड ऑयल और क्रूड ऑयल मिनी।
  2. दोनों कॉन्ट्रैक्ट में लॉट साइज अलगअलग होता है। बड़े क्रूड ऑयल का लॉट साइज 100 बैरल का होता है जबकि क्रूड मिनी का लॉट साइज 10 बैरल का होता है।
  3. दोनों कॉन्ट्रैक्ट में कीमत प्रति बैरल के आधार पर बताई जाती है। 
  4. हर महीने कच्चे तेल का एक नया कॉन्ट्रैक्ट जारी होता है जो 6 महीने बाद एक्सपायर होता है।
  5. एक्सपायरी हर महीने की 19 तारीख के आसपास होती है।
  6. मौजूदा महीने के कॉन्ट्रैक्ट में सबसे ज्यादा लिक्विडिटी होती है।
  7. दोनों कॉन्ट्रैक्ट के बीच में आर्बिट्राज का मौका मिलने पर पैसे कमाए जा सकते हैं लेकिन यह ध्यान देना होता है कि कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू एक बराबर हो।

 

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कच्चा तेल (भाग 2), कच्चे तेल का परितंत्र https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-2-%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a5%87-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a4%be/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-2-%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a5%87-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a4%be/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:43:41 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7467 11.1 – कंपनियों की जानकारी मुझे उम्मीद है कि पिछले अध्याय में आपको कच्चे तेल के मौजूदा फंडामेंटल के बारे में जानकारी मिल गई होगी। हो सकता है कि आप में से कुछ लोग यह भी जानना चाहते हैं कि कच्चा तेल कैसे निकाला जाता है और उसे रिफाइनरी तक कैसे पहुंचाया जाता है? यूट्यूब […]

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11.1 – कंपनियों की जानकारी

मुझे उम्मीद है कि पिछले अध्याय में आपको कच्चे तेल के मौजूदा फंडामेंटल के बारे में जानकारी मिल गई होगी। हो सकता है कि आप में से कुछ लोग यह भी जानना चाहते हैं कि कच्चा तेल कैसे निकाला जाता है और उसे रिफाइनरी तक कैसे पहुंचाया जाता है? यूट्यूब पर चल रहा आयल एंड गैस वीडियो चैनल ये काम बहुत अच्छे तरीके से करता है, जिसमें छोटे-छोटे वीडियो के जरिए इस बारे में बताया जाता है। अगर आप सारे वीडियो नहीं देख सकते हैं तो कम से कम इस एक वीडियो को जरूर देखें।  watch this one

इस एनिमेटेड वीडियो में बताया गया है कि कैसे कच्चे तेल को जमीन की नीचे या समुंदर के नीचे से निकाला जाता है। इस वीडियो को देख कर आपको समझ में आएगा कि आयल रिग किसे कहते हैं? ये वो बड़े-बड़े प्लेटफॉर्म होते हैं जो समंदर में तैरते रहते हैं और जिनकी चिमनी में से आग निकलती रहती है। अबन ऑफशोर, सेलन एक्सप्लोरेशन, केर्न इंडिया आदि कुछ ऐसी कंपनियां है जो इस तरीके के इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करती हैं। मुझे पता है कि बहुत सारे ट्रेडर और कई निवेशक इन कंपनियों में निवेश करते हैं जबकि उनको यह भी नहीं पता होता कि ये कंपनियां काम क्या करती हैं। मुझे लगता है कि यह अच्छा तरीका नहीं है। आपको हमेशा ऐसी कंपनियों में निवेश करना चाहिए जिनके बारे में आप जानते हों। इसीलिए मैं यह कोशिश करूंगा कि कच्चे तेल से जुड़ी लिस्टेड कंपनियों के बारे में आप जान लें और इसी उद्देश्य से मैं यहां पर इस इंडस्ट्री के ढांचे के बारे में भी बात करूंगा।

11.2 – अपस्ट्रीम, डाउनस्ट्रीम और मिडस्ट्रीम 

मैं यहां एक बात साफ कर दूं कि मैं ऑयल और गैस सेक्टर का एक्सपर्ट नहीं हूं, मेरी जानकारी बहुत सीमित है। लेकिन कच्चे तेल के एक ट्रेडर के तौर पर मुझे इस इंडस्ट्री के कामकाज को समझना जरूरी लगता है, क्योंकि इसे समझूंगा तभी मुझे इसमें ट्रेड के सही मौके मिल सकते हैं। उदाहरण के तौर पर- हो सकता है कि कच्चे तेल के कारोबार में कुछ बड़े बदलाव हो रहे हों और उनका कच्चे तेल के कारोबार पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ रहा हो, लेकिन डाउनस्ट्रीम कंपनियों पर उसका असर पड़ सकता है और उनमें ट्रेडिंग का एक अच्छा मौका मिल जाए। इसीलिए यह जरूरी है कि आप इस इंडस्ट्री के ढांचे को समझें और इसमें कहां-कहां ट्रेडिंग के मौके बन सकते हैं उसको पहचानें। मैं इसी बात की कोशिश करूंगा कि आप इस इंडस्ट्री के बारे में ज्यादा से ज्यादा जान सकें और इस सेक्टर से जुड़ी कंपनियों को पहचान सकें और पूरे ऑयल और गैस सेक्टर में वो कंपनियों कैसे फिट बैठती हैं, उसकी समझ आपको आ जाए। 

तो आइए शुरू करते हैं 

ऑयल एंड गैस इंडस्ट्री को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है 

  1. अपस्ट्रीम इंडस्ट्री 
  2. डाउनस्ट्रीम इंडस्ट्री 
  3. मिडस्ट्रीम इंडस्ट्री 

आइए अब इन तीनों के बारे में बारी-बारी से जान लेते हैं सबसे पहले शुरू करते हैं अपस्ट्रीम कंपनी से

अपस्ट्रीम कंपनियां 

अपस्ट्रीम कंपनी वह कंपनी होती है जो कच्चा तेल खोजने के लिए जियोलॉजिकल सर्वे करती हैं, जगहजगह बोरवेल से कुआं खोदती है और देखती है कि वहां पर जमीन के नीचे क्या मिल रहा है। अगर उनको तेल मिलता है तो वह फिर तेल की खुदाई और उसको निकालने का काम शुरू करती हैं। कई बार अपस्ट्रीम कंपनियों को कच्चा तेल खोजने और एक अच्छा मुनाफे वाला तेल का कुआं बनाने में सालों लग जाते हैं। तेल निकालना और कच्चे तेल को जमा करके बैरल में रखना ही इन कंपनियों का काम होता है (पूरी दुनिया में हर दिन लाखों या मिलियन बैरल कच्चे तेल का उत्पादन होता है)। यह कंपनी R&D करती हैं, इंजीनियरिंग के बड़े बड़े काम करती हैं और इनके पास बड़े-बड़े ऐसेट होते हैं। इसीलिए इन कंपनियों का खर्च बहुत ज्यादा होता है। 

लेकिन इन कंपनियों का कच्चा तेल किस कीमत पर बिकेगा, यह उन कंपनियों के हाथ में नहीं होता। कच्चे तेल की कीमतें बाजार में तय होती है और बाजार के खिलाड़ी जैसे मैं और आप भी इस कीमत पर असर डालते हैं। हर अपस्ट्रीम कंपनी के लिए खुद का एक ब्रेक इवन प्वाइंट होता है जो कि उनके प्रति बैरल कच्चा तेल निकालने की कीमत के बराबर होता है। कई बार ब्रेक इवन प्वाइंट को फुल साइकिल कॉस्ट (Full cycle cost) भी कहते हैं। अपस्ट्रीम कंपनियां यह कोशिश करती हैं कि उनके खर्च कम हो और वह अपने फुल साइकिल कॉस्ट को नीचे ला सकें।

ओएनजीसी, केर्न इंडिया, रिलायंस इंडस्ट्रीज, ऑयल इंडिया आदि कुछ ऐसी कंपनियां हैं जो अपस्ट्रीम कंपनियां हैं। इसी तरीके से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शेल, बीपी शेवरान भी इसी तरीके की कंपनियां हैं। 

यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि कच्चे तेल की कीमत में कमी अपस्ट्रीम कंपनियों के लिए फायदे की बात नहीं है, खासकर उन कंपनियों के लिए जिनका फुल साइकिल कॉस्ट ज्यादा हो। साफ है कि इन कंपनियों के लिए फायदा तब होता है जब कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है क्योंकि इनके तेल निकालने का खर्चा तो एक जैसा ही रहता है लेकिन कीमत बढ़ने पर उनकी मार्जिन बढ़ जाती है।

डाउनस्ट्रीम कंपनियां 

अब बात करते हैं डाउनस्ट्रीम कंपनियों की। अपस्ट्रीम कंपनियों का काम सिर्फ कच्चा तेल निकालने का होता है। आपको पता है कि कच्चा तेल कच्चा ही होता है, अगर उससे पेट्रोल या डीजल बनाना है तो उस कच्चे तेल को रिफाइन करना पड़ता है। डाउनस्ट्रीम इंडस्ट्री यही काम करती हैं। ये कंपनियां अपस्ट्रीम कंपनी से कच्चा तेल खरीदती हैं, उसको रिफाइन करती हैं और पेट्रोल, डीजल, एविएशन फ्यूल, मरीन ऑयल, केरोसिन, लुब्रिकेंट, वैक्स और एलपीजी जैसी चीजें बनाती हैं। 

इस सेक्टर की कंपनियां अपने उत्पादों के वितरण का भी काम करती हैं। चाहे उन्हें अपना माल दूसरी कंपनियों को बेचना हो यानी B2B वितरण करना हो या फिर अपना माल को उपभोक्ता यानी कंजूमर को बेचना हो मतलब B2C डिस्ट्रीब्यूशन करना, ये कंपनियां सब करती हैं। पेट्रोल पंप इस काम का एक सही उदाहरण है। पेट्रोल पंप इन कंपनियों के रिटेल आउटलेट होते हैं जहां पर ये कंपनियां अपना माल बेचती है। 

भारत में डाउनस्ट्रीम कंपनियों के उदाहरण हैं – बीपीसीएल, एचपीसीएल, इंडियन ऑयल आदि। कई कंपनियां अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम दोनों काम करती हैं। जो कंपनियां यह दोनों काम करती हैं उन्हें आमतौर पर सुपर मेजर कहा जाता है। ऐसी कंपनियों का उदाहरण है अमेरिका की एक्सॉन मोबिल कॉरपोरेशन। ये कंपनी चार मिलियन बैरल तेल हर दिन निकालती है और 21 देशों में फैली 40 ऑयल रिफायनरी चलाती है। इस तरीके का पूरा ऑपरेशन चलाना काफी बड़ा काम होता है और यह सबके बस की बात नहीं होती।

तो अगर कच्चे तेल की कीमतें नीचे आती है तो इसका मतलब है कि डाउनस्ट्रीम कंपनियां कच्चा तेल अपस्ट्रीम कंपनी से कम कीमत पर खरीद सकेंगी (ऐसा होना अपस्ट्रीम कंपनियों के लिए अच्छा नहीं होता है क्योंकि तेल निकालने में उनकी मेहनत तो पहले जितनी ही होती है)। आमतौर पर कच्चे तेल की कीमत में गिरावट का फायदा अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में उपभोक्ता को तुरंत मिल जाता है क्योंकि डाउनस्ट्रीम कंपनियां इस गिरावट को ग्राहकों तक पहुंचा देती हैं लेकिन इस तरीके का फायदा विकासशील देशों के ग्राहकों जैसे हमें और आपको तुरंत नहीं मिलता। 

यहां पर आपके ध्यान देने वाली कुछ बाते हैं 

  • अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम कंपनियों के बीच में विपरीत संबंध होता है 
  • कच्चे तेल की कम कीमत अपस्ट्रीम कंपनियों के लिए बुरी होती है लेकिन डाउनस्ट्रीम कंपनियों के लिए फायदेमंद होती है 
  • कच्चे तेल की ऊंची कीमत अपस्ट्रीम के की कंपनियों के लिए फायदेमंद होती है लेकिन डाउनस्ट्रीम कंपनियों के लिए नुकसानदायक होती है 

अगली बार जब आप कच्चे तेल की कीमतों को नीचे जाता जाता देखें तो ओएनजीसी और बीपीसीएल को शॉर्ट करने की कोशिश ना करें बल्कि पहले समझें कि वह कंपनी डाउनस्ट्रीम है या अपस्ट्रीम और उस हिसाब से तय करें कि तेल की कीमतों का उस कंपनी पर क्या असर पड़ेगा। इसको समझने के बाद ही ट्रेडिंग का सही फैसला करें।

मिडस्ट्रीम कंपनियां 

अब हम मिडस्ट्रीम कंपनियों के बारे में समझते हैं। 

मिडस्ट्रीम कंपनियां वह होती है जो अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम कंपनियों के बीच में एक तरह से कूरियर का काम करती हैं। यह वह कंपनियां है जो कच्चे तेल को तेल के कुएं से रिफाइनरी तक पहुंचाती हैं। इसके लिए वह तेल पाइपलाइन लगाती हैं, ऑयल टैंकर से कच्चा तेल पहुंचाती हैं और कई बार कच्चे तेल को बड़े-बड़े जहाजों में भरकर समुद्र के रास्ते से एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाती हैं। आप इन्हें कच्चे तेल का होलसेलर भी मान सकते हैं। कुछ मिडस्ट्रीम कंपनियां कच्चे तेल को कुछ हद तक रिफाइन भी करती हैं, जिससे वह इसमें कुछ वैल्यू एडिशन कर सकें। इस तरीके से वह डाउनस्ट्रीम कंपनियों का कुछ काम भी खुद कर देती है क्योंकि मिडस्ट्रीम कंपनियां अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम दोनों तरीके की कंपनियों के लिए काम करती हैं इसलिए वह कच्चे तेल की कीमतों में बदलाव को बहुत ज्यादा पसंद नहीं करतीं। उनके लिए कच्चे तेल की कीमत को बढ़ना या घटना दोनों ही अच्छा नहीं होता। अगर कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है तो डाउनस्ट्रीम कंपनियों को नुकसान होता है और कच्चे तेल की कीमत घटती है तो अपस्ट्रीम कंपनियों का नुकसान होता है और दोनों ही स्थितियां मिडस्ट्रीम कंपनियों के लिए अच्छी नहीं होतीं। 

मिडस्ट्रीम कंपनियों के उदाहरण हैं Trans-Canada, स्पेक्ट्रा एनर्जी, विलियम एंड कंपनी आदि। 

इस पूरे कारोबार को ठीक से समझने के लिए नीचे के चित्र पर नजर डालिए

11.3 – WTI और ब्रेंट कच्चा तेल (Brent Crude) का अंतर

बहुत सारे लोगों को लगता है कि कच्चा तेल एक ही तरीके का होता है जैसे कि सोना। लेकिन यह सच नहीं है। क्या आपको पता है कि कच्चे तेल की अलग-अलग किस्में होती हैं? इन अलग-अलग किस्मों के अलग-अलग लक्षण होते हैं और यह इस पर निर्भर करता है कि वो कच्चा तेल कहां से निकल रहा है। जगह का असर इतना ज्यादा होता है कि कच्चे तेल का रंग (हल्का पीला,सुनहरा,काला), वो कितना गाढ़ा है, उसमें सल्फर कितना है या वोलैटिलिटी कैसी है, यह सब बदल जाता है।

इन सब वजहों से कच्चे तेल की कई किस्में होती हैं। मैं इन सब के बारे में पूरा नहीं जानता इसलिए उन सब के बारे में बात नहीं कर सकता। लेकिन वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट यानी WTI और ब्रेंट-इन दोनों के बीच के अंतर को मैं जानता हूं और किसी कच्चे तेल के ट्रेडर के लिए इसी अंतर को जानना जरूरी है। इसीलिए हम इस पर बात करेंगे। 

हम इस अंतर के बारे में जानना शुरू करें उसके पहले कच्चे तेल के उन दो जरूरी लक्षणों पर बात कर लेते हैं, जिनकी वजह से कच्चे तेल की अलग-अलग किस्में पैदा होती हैं।

API ग्रैविटीAPI का मतलब है अमेरिकन पैट्रोलियम इंस्टीट्यूट। यह एक तरीके का पैमाना है जिससे क्रूड यानी कच्चे तेल के वजन (लाइटनेस-lightness) को पानी के मुकाबले नापा जाता है। अगर किसी तरीके के कच्चे तेल की API  ग्रेविटी 10 से ज्यादा है तो इसका मतलब है कि यह कच्चा तेल पानी से भी हल्का है और यह पानी के ऊपर तैर सकता है। अगर API ग्रेविटी 10 से कम है तो इसका मतलब है कि यह तेल पानी से भारी है और यह पानी में डूब जाएगा। 

स्वीटनेस यानी मीठापन – किसी भी तरीके का कच्चा तेल हो उसमें सल्फर जरूर होता है। जिस तेल में जितना कम सल्फर (0.5% से कम) होता है, उसको उतना ही मीठा यानी स्वीट माना जाता है। जब सल्फर की मात्रा ज्यादा होती है तो यह कहा जाता है कि यह तेल कम मीठा है। 

WTI और ब्रेंट के बीच का अंतर मुख्य तौर पर API ग्रैविटी और स्वीटनेस यानी मीठापन से आता है। 

वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट (WTI) – यह ज्यादा अच्छी क्वालिटी का कच्चा तेल माना जाता है और इसीलिए इसके निकले हुए रिफाइंड उत्पादों को भी ज्यादा अच्छा माना जाता है। इसकी API ग्रेविटी 39.6 है (याद रखिए कि 10 से ज्यादा होने पर यह तेल पानी से हल्का माना जाता है) इसलिए WTI को काफी हल्का तेल माना जाता है। इस में सल्फर की मात्रा 0.26% है इसलिए इसे काफी मीठा कच्चा तेल भी माना जाता है। 

ब्रेंट ब्लेंड (Brent Blend) ब्लेंडेड स्कॉच की तरह कच्चे तेल को भी ब्लेंड किया जा सकता है जिससे उसकी अलग-अलग किस्में बनाई जा सकें। कहा जाता है कि ब्रेंट ब्लेंड को 15 अलग-अलग कुओं के तेल को मिलाकर बनाया जाता है। ब्रेंट ब्लेंड में सल्फर की मात्रा 0.37% होती है इसलिए इसे मीठा तो माना जाता है लेकिन WTI जितना मीठा नहीं। इसकी API ग्रेविटी 38.06 है जो कि इसे काफी हल्का तेल बनाती है। 

अपनी अलग-अलग विशेषताओं की वजह से ही यह दोनों तेल अलग-अलग कीमत पर बिकते हैं। इन दोनों तरह की तेलों की कीमतों पर नजर डालिए 

ब्रेंट क्रूड की कीमत WTI से ज्यादा है। आपके लिए यह जानना भी जरूरी है कि MCX पर कच्चे तेल का ट्रेड ब्रेंट के आधार पर होता है, WTI के आधार पर नहीं। वास्तव में ब्रेंट कच्चा तेल ही दुनिया भर में कच्चे तेल की  कीमतों का बेंचमार्क माना जाता है।

11.3 – कच्चे तेल की इन्वेन्टरी का स्तर (Crude Oil Inventory Levels)

कच्चे तेल की सप्लाई और डिमांड का असर इसकी कीमत पर पड़ता है और इस वजह से इस धंधे से जुड़ी कई कंपनियों के मुनाफे पर भी असर पड़ता है। इसीलिए कच्चे तेल की इन्वेन्टरी कितनी है इस पर नजर रखना बहुत जरूरी होता है। आप इस जानकारी का इस्तेमाल ना सिर्फ MCX पर कच्चे तेल में ट्रेडिंग के लिए कर सकते हैं बल्कि आप बीपीसीएल, एचपीसीएल, इंडियन ऑयल जैसी कंपनियों के शेयर में ट्रेडिंग करने के लिए भी इस जानकारी का इस्तेमाल कर सकते हैं। दुनिया भर में इन्वेन्टरी कितनी है इसकी जानकारी देने वाले दो संगठन हैं 

  1. यूएस एनर्जी इनफार्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (US EIA)यह हर हफ्ते कच्चे तेल की इन्वेन्टरी की रिपोर्ट निकालते हैं। आप इस जानकारी को यहां information here -देख सकते हैं। ध्यान रखिए कि इन्वेन्टरी में बढ़ोतरी तब होती है जब मांग में कमी हो या फिर सप्लाई ज्यादा हो। इन्वेन्टरी का बढ़ना कच्चे तेल की कीमतों के लिए बुरा होता है इसकी वजह से अपस्ट्रीम कंपनियों पर भी इसका बुरा असर पड़ता है दूसरी तरफ इन्वेन्टरी का कम होना यह बताता है कि मांग काफी ज्यादा है या फिर उत्पादन कम हो रहा है दोनों ही स्थितियों में कच्चे तेल की कीमतों पर अच्छा असर पड़ता है यानी वह ऊपर जाती है और यह अपस्ट्रीम कंपनियों के लिए बेहतर होता है। 
  2. OECD क्रूड आयल इन्वेन्टरी – OECD का मतलब होता है ऑर्गेनाइजेशन आफ इकोनामिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट। OECD भी कच्चे तेल की इन्वेन्टरी का हाल बताता है लेकिन यह US EIA की तरह हर हफ्ते ये अनुमान नहीं देता। तेल की इन्वेन्टरी का हाल जानने के लिए आप OECD की वेबसाइट पर जा सकते हैं।

11.4 – अमेरिकी डॉलर और कच्चे तेल में संबंध 

कच्चा तेल और अमेरिकी डॉलर में विपरीत संबंध होता है। अमेरिकी डॉलर के मजबूत होने का मतलब है कि कच्चे तेल की कीमतें नीचे जाएंगी, इसी तरीके से अगर अमेरिकी डॉलर कमजोर होता है तो कच्चे तेल की कीमतें ऊपर जाती हैं। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इन दोनों ऐसेट की अपनी अलग-अलग सप्लाई और डिमांड की स्थितियां होती हैं जो उनकी कीमतों को तय करती हैं। लेकिन फिर भी यह दोनों ऐसेट आपस में जुड़े हुए हैं। 

अगर आप क्रूड ऑयल Vs डॉलर के चित्र को सर्च करेंगे तो ऐसे कई चार्ट मिल जाएंगे जो इस विपरीत संबंध को दिखाते हैं। यहां एक उदाहरण देखिए 

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इस चार्ट में अमेरिकी डॉलर का जो रेट दिखाया गया है वह अमेरिकी डॉलर का स्पॉट रेट नहीं है बल्कि डॉलर इंडेक्स है जोकि दुनिया भर की कई करेंसी के मुकाबले डॉलर को दिखाता है। ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि कच्चा तेल एक इंटरनेशनल कमोडिटी है और इस बात का कच्चे तेल पर कोई असर नहीं पड़ता कि इसे कहां खरीदा जा रहा है। इसका पेमेंट हमेशा अमेरिकी डॉलर में ही होता है। 

इसी वजह से अगर अमेरिकी डॉलर किसी भी वजह से बढ़ता है तो दुनिया भर के देश ज्यादा कच्चा तेल खरीदना शुरू कर देते हैं क्योंकि तब उन्हें उतने ही डॉलर में ज्यादा तेल मिल जाता है। इससे इन्वेन्टरी का स्तर कम होता है और फिर तेल की कीमत बढ़ जाती है। 

अगर लंबी अवधि के लिए देखें तो ऊपर दिया गया तर्क हमेशा सच साबित होता है। लेकिन याद रखिए कि दोनों ऐसेट के अपने खुद के फंडामेंटल होते हैं इसलिए कभी ऐसी स्थिति भी हो सकती है कि डॉलर और कच्चे तेल के बीच का विपरीत संबंध टूट जाए और दोनों एक ही दिशा में बढ़ने लगें। याद रखिए कि विपरीत संबंध केवल यह बताता है कि यह दोनों अलग-अलग दिशाओं में चलेंगे, लेकिन यह नहीं बताता कि दोनों में बदलाव कितना होगा। उदाहरण के लिए अगर डॉलर 10% गिरता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि कच्चा तेल भी 10% ही गिरेगा। 

अगले अध्याय में हम MCX पर क्रूड ऑयल के अलग-अलग कॉन्ट्रैक्ट के बारे में जानेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. ऑयल और गैस इंडस्ट्री के ढांचे को समझना और इसमें कौन सी कंपनी किस जगह फिट होती है इसे समझना काफी महत्वपूर्ण है।
  2. अपस्ट्रीम कंपनियों को ज्यादा ऐसेट की जरूरत पड़ती है और वो तेल की खुदाई का काम करती हैं।
  3. कच्चे तेल की कीमत का बढ़ना अपस्ट्रीम कंपनियों के लिए अच्छ होता है और कीमत का घटना बुरा।
  4. डाउनस्ट्रीम कंपनियां मुख्य तौर पर रिफाइनरी होती हैं। कच्चे तेल की कीमत का बढ़ना उनके लिए अच्छा नहीं होता है, जबकि कीमत का घटना उनके लिए अच्छा होता है क्योंकि उनका मार्जिन बढ़ता है।
  5. मिडस्ट्रीम कंपनियां लॉजिस्टिक्स का काम करती हैं। ये कंपनियां तेल की कीमत में स्थिरता पसंद करती हैं, क्योंकि वो अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम कंपनियों दोनों के लिए काम करती हैं।
  6. WTI और ब्रेंट, कच्चे तेल की दो किस्में होती हैं। इनके बीच मुख्य तौर पर API  ग्रैविटी औऱ स्वीटनेस का अंतर होता है।
  7. ब्रेंट क्रूड को कच्चे तेल की कीमत का बेंचमार्क माना जाता है।
  8. इन्वेन्टरी का स्तर जानना बहुत जरूरी होता है। इन्वेन्टरी का स्तर बढ़ना बताता है कि कच्चे तेल की कीमत गिरेगी और इन्वेन्टरी का स्तर घटने का मतलब है कि कीमत बढ़ेगी।
  9. लंबे समय के लिए USD इंडेक्स और कच्चे तेल में विपरीत संबंध होता है लेकिन छोटी अवधि में कभी-कभी ये संबंध टूट भी जाता है क्योंकि दोनों के अपने डिमांड-सप्लाई फैक्टर काम करने लगते हैं।

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कच्चा तेल (भाग 1), इतिहास https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1-%e0%a4%87%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b8/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%9a%e0%a4%be-%e0%a4%a4%e0%a5%87%e0%a4%b2-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1-%e0%a4%87%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b8/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:41:37 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7344 10.1 – कमोडिटी का सुपरस्टार अगर आपको सिर्फ एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी को चुनना हो जिसमें कि स्टॉक मार्केट की तरह उतार चढ़ाव होता हो तो वह कच्चा तेल होगा। नीचे पर चार्ट पर नजर डालिए, आपको समझ में आ जाएगा कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं –  आपको दिखेगा- $140 तक की तेज […]

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10.1 – कमोडिटी का सुपरस्टार

अगर आपको सिर्फ एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी को चुनना हो जिसमें कि स्टॉक मार्केट की तरह उतार चढ़ाव होता हो तो वह कच्चा तेल होगा। नीचे पर चार्ट पर नजर डालिए, आपको समझ में आ जाएगा कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं – 

आपको दिखेगा- $140 तक की तेज उछाल, उसके बाद एक गिरावट और फिर $110 तक की बढ़त फिर से वापस $30 तक गिरावट। कच्चा तेल का चार्ट आपके अंदर की सारी भावनाओं को सामने ले आता है, जैसा कि एक अच्छी फिल्म में होता है। जैसा कि आप जानते हैं कि यह एक अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी है। लाखों लोग इसमें ट्रेड करते हैं और इसी वजह से इसमें ट्रेड करना काफी जटिल यानी पेचीदा है।

तो यहां कच्चे तेल में हो क्या रहा है? कच्चा तेल $115 से $28 तक क्यों गिरा? इस तरह का भयानक डर बाजार में क्यों फैला? कच्चे तेल में अब क्या हो रहा है? अब यह किधर जा रहा है? यह सब समझने के लिए हमें थोड़ा सा इतिहास में जाना पड़ेगा – 2014 और 2015 की घटनाओं में। 

इस अध्याय में हम यही करेंगे। इस अध्याय को ठीक से समझने के लिए पीछे जाते हैं और 2015 के पहले 6 महीनों को देखते हैं कि उस समय क्या हो रहा था?

10.2 – संकट का पुनरावलोकन 

जनवरी 2014 में कच्चा तेल $110 प्रति बैरल था जो कि जनवरी 2016 में $28 प्रति बैरल तक गिर गया। ब्रेंट क्रूड के इतिहास में पिछले 5 सालों में शायद यह अब तक की सबसे बड़ी गिरावट थी। वैसे इस गिरावट से कई कंपनियों को और कई देशों को बहुत फायदा हुआ। लेकिन कच्चा तेल पैदा करने वाली अर्थव्यवस्थाओं पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा। किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि कच्चा तेल 75% तक गिर जाएगा। तो क्या यह इस गिरावट का सबसे निचला स्तर यानी बॉटम था? ये किसी को नहीं पता, लेकिन यह गिरावट जितनी तेज थी उसको देख कर यह भरोसा नहीं होता कि यहां बॉटम बन चुका है या गिरावट अपने निचले स्तर तक पहुंच गई है। 

तो, वास्तव में हुआ क्या था? 

कच्चे तेल में आई इस गिरावट को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि कच्चे तेल का कारोबार कैसे होता है और इस गिरावट के पहले तक इस धंधे को कैसे चलाया जाता था? इस चर्चा से आपको कच्चे तेल व्यापार के बारे में काफी कुछ समझने को मिल सकता है। कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले देश हर दिन कई मिलियन बैरल कच्चा तेल, अमेरिका, चीन, भारत और यूरोप के अलग-अलग देशों को एक्सपोर्ट करते हैं। कच्चा तेल निकालने वाले देशों को दो समूहों में बांटा जाता है 

  1. ऑर्गेनाइजेशन आफ पैट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज यानी ओपेक (OPEC) जिनमें सऊदी अरब, कतर, कुवैत और UAE आदि शामिल हैं।
  2. कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले दूसरे देश जैसे ब्राजील, कनाडा, रूस, मैक्सिको, नॉर्वे आदि जो कि OPEC का हिस्सा नहीं है और इसलिए उनको नॉन ओपेक देश कहा जाता है। 

इन दोनों समूहों के देशों यानी ओपेक और नॉन ओपेक देशों के द्वारा करीब 90 मिलियन बैरल यानी 9 करोड़ बैरल कच्चा तेल हर दिन निकाला जाता है। नीचे के टेबल में आप यह देख सकते हैं कि ओपेक देश कितने तेल का उत्पादन करते हैं और नॉन ओपेक देश कितने कच्चे तेल का उत्पादन करते हैं –

कारण

हर देश में कच्चे तेल का उत्पादन करने का खर्च अलग होता है। कच्चे तेल के उत्पादन पर उनका खर्च कितना होता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश की आर्थिक हालत कैसी है और वह किस तरह की टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहा है। उत्पादन का खर्च भले ही सबके लिए अलग-अलग हो लेकिन कच्चे तेल की कीमत हमेशा बाजार तय करता है। ऐसे में हर देश की हमेशा ये कोशिश होती है कि वो कच्चा तेल उस कीमत पर बेच सके जहां उसे अपने उत्पादन खर्च से ज्यादा पैसा मिल सकें। कोई भी देश ब्रेक इवन प्वाइंट (प्रति बैरल उत्पादन खर्च) से कम की कीमत पर कच्चा तेल बेचने को तैयार नहीं होता क्योंकि उससे उनके देश के बजट पर बुरा असर पड़ता है। नीचे के टेबल में आप OPEC देशों के कच्चे तेल उत्पादन का प्रति बैरल खर्च यानी उनका ब्रेकइवन प्वाइंट देख सकते हैं –

देश प्रति बैरल ब्रेकइवन प्वाइंट*
इरान $130.7
अल्जीरिया $130.5
नाइजीरिया $122.5
वेनेजुएला $117.5
सऊदी अरब $106.0
इराक $100.6
UAE $77.3
कतर $60.0
कुवैत $54.0

इस कीमत के आधार पर आप देख सकते हैं कि अगर 2013 तक कच्चा तेल 100 डॉलर के ऊपर बिक रहा था तो यह कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले इन देशों के लिए बहुत ही अच्छी स्थिति थी। लेकिन पिछले कुछ समय में हुए बदलाव ने कच्चे तेल के कारोबार से जुड़ी चीजों को काफी हद तक बदल दिया है। खासकर इन तीन मुख्य घटनाओं ने कच्चे तेल की कीमतों पर काफी असर डाला

  1. अमेरिकी शेल ऑयल – अमेरिकी शेल ऑयल एक ऐसा कच्चा तेल है जो ऑयल शेल (एक तरीके का पत्थर) से निकलता है। यह कच्चे तेल की तरफ का ही उत्पाद है, इसे निकालने की टेक्नोलॉजी विकसित हो चुकी है और इसका उत्पादन का खर्च काफी कम होता है। जिसकी वजह से इस तरह के तेल का उत्पादन काफी बढ़ गया और बाजार में सस्ता कच्चा तेल मिलने लगा है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि अमेरिका के इस शेल ऑयल का इतना भंडार है कि वह कई पीढ़ियों तक चलेगा। अमेरिका के 2 राज्यों-टेक्सस (Texas) और नॉर्थ डकोटा (North Dakota) में होने वाले इस शेल ऑयल के उत्पादन से अमेरिका में  कच्चे तेल का आयात कम हो गया है। जिसकी वजह से कच्चे तेल की कीमतों में काफी गिरावट की शुरुआत हुई।
  2. तेल उत्पादक देशों के सामूहिक प्रयास की कमी – अमेरिका में शेल ऑयल का उत्पादन बढ़ने की वजह से कच्चे तेल में गिरावट आई और ऐसे में उम्मीद थी कि कच्चे तेल का उत्पादन करने वाले देश अपना उत्पादन कम करेंगे जिससे कि सप्लाई और डिमांड के बीच में एक संतुलन बना रहे। लेकिन ओपेक देश ना ही अपने सदस्यों को और ना ही गैर ओपेक देशों को इस बात के लिए समझा पाए कि कच्चे तेल का उत्पादन कम कर के तेल की कीमत को गिरने से रोका जा सकता है। वास्तव में ये माना गया कि कच्चे तेल का उत्पादन कम करना, कच्चे तेल के उत्पादन करते रहने के मुकाबले ज्यादा महंगा पड़ेगा। 
  3. चीन का असर – चीन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में से एक है जो कि लौह अयस्क, कोयला, कच्चा तेल जैसी बहुत सारी अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी का आयात करता है। वास्तव में 2013 में चीन ने कच्चे तेल के आयात के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया था, लेकिन अब ऐसा महसूस होने लगा है कि चीन की अर्थव्यवस्था उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है जैसा कि पहले बढ़ रही थी। जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी की मांग कम हो गयी है। इस वजह से भी कच्चे तेल की कीमत में आ रही बढ़त पर रोक लगी। 
  4. बाजार की हालत – इन तीनों वजह से कच्चे तेल में एक बिकवाली आई और इस बिकवाली में आग में घी वाला काम किया ट्रेडरों ने जिन्होंने कच्चे तेल के कॉन्ट्रैक्ट में काफी शार्ट पोजीशन बना रखी थी।

आमतौर पर जब कच्चा तेल गिरता है तो अमेरिकी डॉलर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले मजबूत होता है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि जब कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है तो अमेरिका का करंट अकाउंट डेफिसिट बढ़ता है (याद रहे कि अमेरिका मध्य एशिया से कच्चा तेल आयात करता है), ऐसा होना अमेरिकी डॉलर के लिए एक अच्छा संकेत नहीं होता है। इसी वजह से, जब इसका उल्टा होता है यानी कच्चा तेल गिरता है तो अमेरिकी डॉलर मजबूत होता है। इस तरह से डॉलर और कच्चे तेल के बीच में उलटा यानी इनवर्स संबंध है। याद कीजिए कि सन 2008 में जब कच्चा तेल अपने सबसे ज्यादा ऊंचाई पर यानी $148 की ऊंचाई पर पहुंच गया था तो अमेरिकी डॉलर यूरो के मुकाबले 1.6 पर था। 

रूस का असर 

गैर ओपेक देशों में से रूस कच्चे तेल का सबसे बड़ा उत्पादक और एक्सपोर्टर यानी निर्यातक है। रूस का फेडरेशन करीब करीब 40% कच्चे तेल का एक्सपोर्ट करता है। कच्चे तेल में आई गिरावट की वजह से रूस की अर्थव्यवस्था काफी कमजोर पड़ गई। जो तीन कारण रूस के विरुद्ध काम कर रहे थे, उनमें से दो कच्चे तेल से जुड़े हुए थे 

  1. तेल का कीमत- रूस की अर्थव्यवस्था को ठीक रखने के लिए कच्चे तेल की कीमत $105 से $107 के आसपास होनी चाहिए। इसलिए जब कच्चा तेल $50 तक पहुंच गया तो रूस के बजट पर इसका काफी असर पड़ा 
  2. रूबल का संकट- याद रखिए कि रूस एक उभरती अर्थव्यवस्था है। कच्चे तेल की कीमत में गिरावट आने की वजह से रूस की करेंसी रूबल यूएस डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर हो गई। ये कमजोरी इतनी बढ़ी कि रूस के सेंट्रल बैंक को ब्याज दरें 7.5% तक बढ़ानी पड़ी, जिससे कि रूबल को और ज्यादा टूटने से बचाया जा सके। 
  3. क्रिमिया का प्रभाव – रूस को यूक्रेन को लेकर जो रवैया था, उसे देखते हुए कई पश्चिमी देशों ने रूस के ऊपर प्रतिबंध लगा दिए। इस वजह से रूस का दूसरे देशों पूंजी लेना मुश्किल हो गया। ऐसा तब हुआ जब रूस को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। 

इसी समय सीरिया में एक अलग से संकट पैदा हो गया, साथ ही दूसरे कई और स्थानीय मुद्दे भी पैदा हो गए। इन सबकी वजह से रूस में हालात सुधरने के उम्मीद और भी कम हो गई।

भारत के आर्थिक हालात का असर

अगर ऊपर से देखा जाए तो कच्चे तेल में आने वाली गिरावट भारत जैसे देश के लिए काफी फायदेमंद है क्योंकि इस वजह से पेट्रोलियम पर दी जाने वाली सब्सिडी कम होगी। भारत कच्चे तेल का काफी आयात करता है (कुल जरूरत का करीब करीब दो तिहाई) और इसकी वजह से ऑयल इंपोर्ट पर उसे काफी खर्च करना पड़ता है। इसीलिए कच्चे तेल की कीमत गिरने का मतलब है कि फिस्कल डेफिसिट में कमी आएगी, इन्फ्लेशन में कमी आएगी और ब्याज दरें कम हो सकेंगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये सारी चीजें अच्छी हैं। 

लेकिन कच्चे तेल में गिरावट का एक और आयाम है। जहां कच्चे तेल की कीमत कम होने से आयात का खर्च गिरेगा, वहीं एक्सपोर्ट से होने वाली हमारी कमाई पर भी असर पड़ेगा। भारत से होने वाला ज्यादातर एक्सपोर्ट UAE, अमेरिका, सऊदी अरब, कुवैत, ईरान, चीन जैसे देशों को होता है जिनमें से ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था कच्चे तेल पर निर्भर करती है। कच्चे तेल की कीमत गिरने की वजह से इन देशों के खर्च करने की क्षमता घटेगी और इसलिए भारत कs एक्सपोर्ट पर इसका असर पड़ेगा। 

अगर आप अक्टूबर 2014 में RBI द्वारा जारी किए गए इंपोर्ट और एक्सपोर्ट के डेटा को देखें तो इसमें ये तथ्य साफ दिखेगा- जहां कच्चे तेल के आयात पर होने वाला खर्च 19% कम हुआ है, हमारा एक्सपोर्ट भी 5% कम हुआ है। साफ है कि कच्चे तेल की कीमत में कमी से उतना बड़ा फायदा नहीं हुआ जितना दिखता है। कच्चे तेल की गिरावट क्या असर डाल सकती है इसका एक नमूना 6 जनवरी 2015 को हमें देखने को मिला जब NSE निफ्टी 255 प्वाइंट यानी 3% गिरा और बाजार में एक हाहाकार मच गया।

भारतीय कंपनियों पर असर

सरकारी ऑयल कंपनियों जैसे एचपीसीएल, बीपीसीएल, इंडियन ऑयल आदि को कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट का सीधा फायदा मिलता है। कच्चे तेल की कीमत में गिरावट की वजह से इन कंपनियों को वर्किंग कैपिटल की जरूरत कम पड़ती है। बीपीसीएल और एचपीसीएल ने तो वास्तव में अपने कुल शॉर्ट टर्म कर्ज का 50% से 30% पिछले 2 साल में चुका दिया है। अगर कच्चा तेल $50 के आसपास स्थिर हो गया तो फिर इन कंपनियों के लिए यह बहुत फायदे वाली बात होगी, इससे उनकी बैलेंस शीट सुधरेगी और कमाई भी बढ़ेगी। 

क्या ये अंत है

अब सब इस बात पर निर्भर करता है कि कच्चे तेल की सप्लाई और डिमांड किस तरीके से रहती है। जैसा कि सऊदी के राजकुमार अल-वालीद बिन तलाल ने कहा कि अगर सप्लाई जहां है वही रहती है और डिमांड भी जहां है वहीं रहती है, तो कीमत यहां पर बॉटम नहीं बनाएगी, उसमें और गिरावट संभव है। साथ ही अमेरिका ने कच्चे तेल के निर्यात पर लगा 40 साल पुराना प्रतिबंध हटा दिया है इसका मतलब है कि बाजार में कच्चे तेल की सप्लाई बढ़ेगी और कीमतों पर भी दबाव बढ़ेगा। 

सितंबर 2016 में ओपेक देशों में अंततः इस बात के लिए सहमति हो गई कि कच्चे तेल का उत्पादन कम किया जाए। आप ब्लूमबर्ग के इस लेख को यहां पढ़ सकते हैं। article on Bloomberg.

वैसे तो अमेरिकन शेल ऑयल ने बाजार में हलचल मचा दी है, लेकिन इसका एक दूसरा हिस्सा भी है। जो कंपनियां इस शेल ऑयल को निकाल रही हैं वह कितनी मजबूत हैं, क्या उनके बैलेंस शीट में ज्यादा लेवरेज है, क्या वह शेल ऑयल रिजर्व को जरूरत से ज्यादा बड़ा बता रही हैं, आगे जाते हुए इन सवालों का जवाब बाजार को जरूर मिलेगा और इसका असर कच्चे तेल की कीमतों पर पड़ेगा। 

लेकिन अगर अभी आप मुझसे पूछे कि क्या कच्चा तेल अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है तो इसका जवाब देना मेरे लिए संभव नहीं है। 

ध्यान दीजिए कि वैरसिटी के सारे दूसरे अध्यायों की तरह इस अध्याय में कोई मुख्य बातें नहीं हैं। मैंने यहां सिर्फ यह बताया है कि कच्चे तेल में क्या हो रहा है। आगे जाते हुए यह सिर्फ एक ऐसा इतिहास बन सकता है जिसकी कोई जरूरत नहीं रह जाए। 

ध्यान दें – मैंने यह सारी बातें द स्पेशल रिपोर्ट में से ली है जो कि मैंने दलाल स्ट्रीट इन्वेस्टमेंट जर्नल के लिए लिखा था।  The special report

 

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चाँदी https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%81%e0%a4%a6%e0%a5%80/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%9a%e0%a4%be%e0%a4%81%e0%a4%a6%e0%a5%80/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:40:41 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7342 9.1 – बुलियन जुड़वा – The Bullion Twins  सोना, चाँदी और प्लैटिनम –इनको एक साथ बुलियन कहा जाता है। यह माना जाता है कि सोने और चाँदी की कीमतें एक तरह से एक साथ चलती हैं। अगर सच में ऐसा होता है तो यह दोनों मिलकर पेयर ट्रेडिंग स्ट्रैटजी जैसे ट्रेडिंग के कई मौके देते […]

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9.1 – बुलियन जुड़वा – The Bullion Twins 

सोना, चाँदी और प्लैटिनम इनको एक साथ बुलियन कहा जाता है। यह माना जाता है कि सोने और चाँदी की कीमतें एक तरह से एक साथ चलती हैं। अगर सच में ऐसा होता है तो यह दोनों मिलकर पेयर ट्रेडिंग स्ट्रैटजी जैसे ट्रेडिंग के कई मौके देते हैं। हम पेयर ट्रेडिंग पर विस्तार से आगे चर्चा करेंगे, लेकिन अभी यह देखते हैं कि क्या यह सच है कि सोना और चाँदी साथ साथ चलते हैं। मैंने सोने और चाँदी के कोरिलेशन को जांचने के लिए पिछले 3 महीने के 30 मिनट वाले इंट्राडे डेटा को देखा और ये हैं उसके नतीजे –इंट्रा डे में यह कोरिलेशन 0.7 निकलता है जो कि काफी अच्छा है। मेरा अनुमान है कि अगर हम इस कॉरिलेशन को एंड ऑफ द डे के हिसाब से निकालें तो यह संख्या और भी बड़ी आएगी। तो इसका मतलब है कि ये दोनों धातुएं इंट्राडे के हिसाब से साथ साथ चलती हैं। आपको याद होगा कि हमने कोरिलेशन के बारे में USD INR के अध्याय में चर्चा की थी। अगर आपने उसे नहीं पढ़ा है तो अध्याय 5 के 5.3 हिस्से को पढ़िए। 

अगर इंट्राडे कोरिलेशन 0.7 जितना करीब है तो हम सोने पर लॉन्ग और चाँदी पर शॉर्ट या चाँदी पर शॉर्ट और सोने पर लॉन्ग जैसे ट्रेड ले सकते हैं। ये एक तरीके की हेजिंग स्ट्रैटेजी होगी जहां पर एक ही ऐसेट पर आप एक समय में लॉन्ग और शार्ट दोनों होते हैं। यहां पर सिर्फ यह बताने की कोशिश की जा रही है कि इस तरह की ट्रेडिंग स्ट्रैटजी को बनाना संभव है। अभी तुरंत आपको ऐसा कोई ट्रेड करने की ज़रूरत नहीं है। 

ऐसा ट्रेड करने के लिए अभी और बहुत सारी चीजों को जानना जरूरी है। पेयर ट्रेडिंग के बारे में हम आगे बात करेंगे, लेकिन अभी आप सोना और चाँदी के इस इंट्रा डे चार्ट पर नजर डालिए, मैंने जानबूझ कर इसको सौ से शुरू किया है जिससे आप ठीक से दोनों की तुलना कर सकें –

अगर आपको सिर्फ इस ग्राफ को दिखाया जाए और कहा जाए कि यह बताइए कि दोनों धातुएं यानी सोना और चाँदी कितना साथ साथ चलते हैं तो आप शायद यही कहेंगे कि इन दोनों के बीच में कोई संबंध नहीं है। लेकिन आंकड़े कुछ और ही बताते हैं ।

जैसा मैंने पहले कहा था कि मैंने कोरिलेशन और ग्राफ बनाने के लिए यहां पर इंट्राडे डेटा लिया है। थोड़े लंबे समय का डेटा और अच्छी सूचनाएं दे सकता है। मैंने थॉमसन रॉयटर के एक सर्वे में से भी सोने और चाँदी के बीच के कोरिलेशन का डेटा निकाला है और उस डेटा से ये पता चला – 

इन दोनों के बीच के कोरिलेशन को जब तिमाही के आधार पर देखा गया तो ये औसतन 0.8 है और शायद इसीलिए ट्रेडर्स इन दोनों को बुलियन जुड़वा कहते हैं। 

एंड ऑफ द डे का कोरिलेशन इतना मजबूत होने का मतलब है कि ट्रेडर और इन्वेस्टर सोने और चाँदी दोनों को सुरक्षित निवेश मानते हैं, खासकर आर्थिक संकट के समय में। साथ ही ये भी पता चलता है कि विश्व के किसी भी आर्थिक या राजनीतिक संकट के समय सोने और चाँदी दोनों की कीमतें बढ़ती हैं। 

यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि चाँदी और कच्चे तेल के बीच में कोरिलेशन बहुत अच्छा नहीं है और आप इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

9.2 – चाँदी से जुड़ी जरूरी जानकारी

चाँदी का उपयोग औद्योगिक उत्पादन में, फोटोग्राफी में, फैशन में और इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक सामानों में होता है। इसीलिए चाँदी की मांग हमेशा बनी रहती है। अमेरिका के सिल्वर इंस्टिट्यूट ने हाल ही में किए गए अपने सर्वे में कहा है कि दुनिया भर में चाँदी की मांग 1170.5 मिलियन आउंस की है। अगर इतिहास देखें तो दिखेगा कि चाँदी की मांग हर साल करीब 2.5% बढ़ जाती है। इसमें से ज्यादातर मांग औद्योगिक उत्पादन से ही आती है। इससे साफ है कि चाँदी की मांग इस बात पर निर्भर करती है कि दुनिया भर में वस्तुओं का उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन कैसा चल रहा है। इसके लिए भी खास तौर पर चीन और भारत जैसे अर्थव्यवस्था पर नजर रखी जाती है। 

दूसरी तरफ अगर सप्लाई पर नजर डालें तो, दुनिया भर में खदानों से निकलने वाली चाँदी, सरकारी बिक्री और स्क्रैप सहित सभी तरह की चाँदी को मिलाकर कुल उत्पादन 1040.6 मिलियन आउंस का होता है। इससे साफ है कि चाँदी एक ऐसी कमोडिटी है जिसमें सप्लाई मांग से कम है। वास्तव में चाँदी की सप्लाई में सालों से बड़ी बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। इसकी सप्लाई में करीब 1.4% का ही इजाफा हुआ है। 

नीचे के चार्ट में आप चाँदी की डिमांड और सप्लाई पर नजर डाल सकते हैं – 

इस पूरे सर्वे की रिपोर्ट को आप यहां पढ़ सकते हैं।  survey report

डिमांड और सप्लाई की स्थिति को देखते हुए यह साफ है कि चाँदी में ट्रेड करने के काफी मौके मिल सकते हैं। तो अब अगला सवाल यह है कि चाँदी की कीमत कौन तय करता है। वास्तव में चाँदी की कीमत भी उसी तरीके से तय होती है जैसे सोने की कीमत तय होती है, यानी लंदन में पार्टिसिपेटिंग बैंकों के द्वारा ये कीमत तय की जाती है। सोने और चाँदी की कीमत कैसे तय होती है यह जानने के लिए आप इसे पढ़ सकते हैं –read this.

9.3 – चाँदी के कॉन्ट्रैक्ट

चाँदी के कॉन्ट्रैक्ट 4 तरीके के होते हैं जिनको आप MCX पर ट्रेड कर सकते हैं। इन कॉन्ट्रैक्ट के बीच का अंतर मुख्यतः उनकी कीमत का अंतर होता है। इसी वजह से उनके लिए मार्जिन भी अलग-अलग होती है। एक नजर डालिए इन चारों कॉन्ट्रैक्ट पर –

कॉन्ट्रैक्ट प्राइस कोट लॉट साइज टिक साइज P&L/टिक एक्सपायरी डिलीवरी यूनिट
सिल्वर 1 किलोग्राम 30 किलो Rs.1/टिक Rs.30/टिक एक्सापयरी महीने का पाँचवा दिन 30 किलो
सिल्वर मिनी 1 किलोग्राम 5 किलो Rs.1/ टिक Rs.5/टिक एक्सपायरी महीने का अंतिम दिन 30 किलो
सिल्वर माइक्रो 1 किलोग्राम 1 किलो Rs.1/ टिक Rs.1/टिक एक्सपायरी महीने का अंतिम दिन 30 किलो
सिल्वर 1000 1 किलोग्राम 1 किलो Rs.1/ टिक Rs.1/टिक एक्सपायरी महीने का अंतिम दिन 1 किलो

ऊपर के चारों कॉन्ट्रैक्ट में सिल्वर 30kg कॉन्ट्रैक्ट और सिल्वर मिनी कॉन्ट्रैक्ट सबसे ज्यादा ट्रेड होते हैं। हम इन पर विस्तार से चर्चा करेंगे। सबसे पहले सिल्वर के मुख्य कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं।

सिल्वर कॉन्ट्रैक्ट में चाँदी की कीमत को किलोग्राम में कोट किया जाता है। इसका मतलब यह है कि MCX के ट्रेडिंग टर्मिनल पर चाँदी के कॉन्ट्रैक्ट की जो कीमत दिखाई जाती है वो 1 किलो चाँदी की होती है। इस कीमत में इंपोर्ट ड्यूटी, टैक्स और दूसरे तरीके के शुल्क शामिल होते हैं। नीचे के स्क्रीनशॉट पर नजर डालिए, इसे काइट से लिया गया है –

चाँदी के दिसंबर फ्यूचर की मौजूदा कीमत 42,266 रूपए है, ध्यान दें कि ये प्रति किलो कीमत है। ये कॉन्ट्रैक्ट 30 किलोग्राम (लॉट साइज) का है इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी –

= 30 * 42,266

= Rs 12,67,980

चाँदी पर मार्जिन करीब 5% होती है। नीचे के चित्र में आप देख सकते हैं कि इन कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करने के लिए कितना मार्जिन देना पड़ेगा –

अगर प्रतिशत में निकालना हो तो

1267980 / 68619

= 5.41%

प्रति टिक P&L निकालने के लिए इस फार्मूले का इस्तेमाल करना होगा

प्रति टिक P&L = (लॉट साइज / क्वोटेशन) * टिक साइज

= (30 kgs /1 kg) * Rs.1/-

Rs30/-

तो चाँदी के हर टिक पर आप या तो Rs.30/- कमाते हैं या Rs.30/- गंवाते हैं

एक्सपायरी के हिसाब से देखें तो अक्टूबर 2016 को जो कॉन्ट्रैक्ट मौजूद हैं वो हैं (सभी कॉन्ट्रैक्ट उस महीने की 5 तारीख को एक्सपायर होते हैं)  – 

  • दिसंबर  2016
  • मार्च 2017
  • मई 2017
  • जुलाई 2017
  • सितंबर 2017

जब दिसंबर 2016 का कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायर होता है तो दिसंबर 2017 का कॉन्ट्रैक्ट जारी होता है। अब तक आप यह बात जान चुके हैं कि सबसे ज्यादा लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट वह होते हैं जो अपनी एक्सपायरी के करीब होते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर हम अक्टूबर 2016 में हैं और हमें चाँदी में ट्रेड करना है तो मैं दिसंबर 2016 के कॉन्ट्रैक्ट को चुनुंगा। 

यहां यह भी याद रखिए कि इक्विटी में सेटलमेंट हमेशा कैश में होता है, फिजिकल नहीं होता है। लेकिन जब कमोडिटी की बात आती है तो सेटलमेंट फिजिकल होता है और इसलिए वहां पर डिलीवरी देनी होती है। इसका मतलब है कि अगर आपने चाँदी के 10 लॉट ले रखे हैं और आपने डिलीवरी लेना चुना है तो आपको 300 किलो चाँदी की डिलीवरी मिलेगी। इस डिलीवरी को लेने के लिए आपको शुरू में ही इंगित करना होता है, ये काम आप एक्सपायरी के 4 दिन पहले तक कर सकते हैं। इसका मतलब है कि अगर एक्सपायरी 5 तारीख को है तो आपको डिलीवरी लेने का अपना इरादा 1 तारीख तक बताना होता है। 

अगर आप ज़ेरोधा पर ट्रेड कर रहे हैं तो हम आपको इस बात की इजाजत नहीं देते हैं कि आप किसी कमोडिटी की फिजिकल डिलीवरी लें। इसका मतलब यह है कि आपको अपनी पोजीशन को एक्सपायरी महीने की 1 तारीख के पहले क्लोज करना होगा। जहां तक मेरी बात है मैं व्यक्तिगत तौर पर यह पसंद करता हूं कि अपनी पोजीशन को जल्दी से जल्दी क्लोज कर सकूं और कमोडिटी की फिजिकल डिलीवरी के चक्कर में ना पड़ूं। 

ध्यान देने वाली एक और बात है कि चाँदी के मेन कॉन्ट्रैक्ट में डिलीवरी जरूरी है लेकिन सिल्वर मिनी और सिल्वर माइक्रो कॉन्ट्रैक्ट में यह जरूरी नहीं है। इसका मतलब यह है कि आप सिल्वर मिनी या माइक्रो कॉन्ट्रैक्ट को एक्सपायर होने दे सकते हैं और कैश में सेटलमेंट कर सकते हैं। लेकिन सिल्वर 30kg कॉन्ट्रैक्ट में आपके पास यह सुविधा नहीं है कि आप कैश में सेटल कर सकें।

अब एक और जरूरी बात, जरा इस चित्र पर नजर डालिए – 

ऊपर के टेबल में आप देखेंगे कि हर कमोडिटी के साथ एक जगह का नाम भी दिया गया है। जैसे उदाहरण के तौर, पर सिल्वर माइक्रो के आगे अहमदाबाद का नाम लिखा है। इसका क्या मतलब है ?

हमें पता है कि एक्सपायरी पर स्पॉट मार्केट में अंडरलाइंग की कीमत और फ्यूचर कीमत एक जगह पर आकर मिल जाती हैं। इक्विटी के मामले में तो अंडरलाइंग और उसका फ्यूचर एक ही प्लेटफॉर्म पर ट्रेड होते हैं। मतलब NSE या BSE पर। उदाहरण के तौर पर, इंफोसिस का स्पॉट NSE पर इंफोसिस के फ्यूचर कीमत में मिल जाएगा, लेकिन कमोडिटी के मामले में ऐसा नहीं होता क्योंकि यहां पर स्पॉट मार्केट अलग होता है। उदाहरण के तौर पर काली मिर्च और रबर – कोच्चि में ट्रेड होते हैं, सोना मुंबई और अहमदाबाद में ट्रेड होता है। इसलिए एक्सपायरी पर सोने के फ्यूचर की कीमत सोने के किस स्पॉट कीमत से मिलेगी, मुंबई की कीमत से मिलेगी या अहमदाबाद की कीमत से? इसी वजह से MCX में हर कमोडिटी के आगे उस कमोडिटी के स्पॉट मार्केट का नाम लिखा है जिससे आपको पता चल सके कि एक्सपायरी पर कीमत किस जगह की स्पॉट कीमत से मिलेगी।

9.4 – चाँदी के दूसरे कॉन्ट्रैक्ट

अगर आपने ऊपर बताए गए मेन सिल्वर कॉन्ट्रैक्ट की जानकारी को समझ लिया है तो आपके लिए MCX पर ट्रेड हो रहे किसी भी दूसरे सिल्वर कॉन्ट्रैक्ट को समझना आसान होगा। इनके बीच का अंतर सिर्फ लॉट साइज का और मार्जिन का है। 

मैं आपके लिए मार्जिन के आंकड़ें और डिलीवरी का विकल्प नीचे दिखा रहा हूं जिससे आप अलग-अलग कॉन्ट्रैक्ट के बारे में समझ सकें और यह तय कर सकें कि आप डिलीवरी लेना चाहेंगे या फिर कैश में सेटल करेंगे। 

कॉन्ट्रैक्ट मार्जिन % में मार्जिन डिलीवरी विकल्प
सिल्वर Mini Rs.13,158/- 6.27% कैश /फिजिकल
सिल्वर Micro Rs.2,618/- 5.1% कैश / फिजिकल
सिल्वर 1000 Rs.2,711/- 6.2% फिजिकल

जैसा कि आप देख सकते हैं कि यहां पर दिए गए मार्जिन सिल्वर के मेन कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले काफी कम हैं। 

जहां तक ट्रेडिंग की बात है, सोने की तरह ही चाँदी में भी फंडामेंटल काफी मुश्किल होते हैं और उनको हर दिन देखना और समझना आसान काम नहीं होता। इसीलिए कमोडिटी बाजार के ज्यादातर ट्रेडर टेक्निकल एनालिसिस का सहारा लेते हैं। मुझे भी लगता है कि यह एक ज्यादा अच्छा तरीका है। 

टेक्निकल एनालिसिस के अलावा आप चाहे तो क्वांटिटेटिव यानी मात्रा पर आधारित तकनीकों का भी सहारा ले सकते हैं, जैसे पेयर ट्रेडिंग। जैसा कि इस अध्याय में मैंने पहले भी कहा है कि इस तकनीक के बारे में हम अलग मॉड्यूल में चर्चा करेंगे। 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. सोना और चाँदी दोनों इंट्रा डे आधार पर काफी करीब से कोरिलेटेड होते हैं 
  2. सोना और चाँदी एक अच्छा जोड़ा बनाते हैं और इस जोड़े की ट्रेडिंग के लिए पेयर ट्रेडिंग तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है 
  3. चाँदी का कच्चे तेल से बढ़िया कोरिलेशन नहीं है 
  4. MCX पर चाँदी के 4 तरीके के कॉन्ट्रैक्ट ट्रेड होते हैं  
  5. चाँदी के मुख्य यानी मेन कॉन्ट्रैक्ट का लॉट साइज 30 किलो का होता है और इसके लिए करीब 75000 की मार्जिन लगती है 
  6. चाँदी में आमतौर पर औसत मार्जिन कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का 5-6% होता है 
  7. चाँदी के ट्रेडिंग में टेक्निकल एनालिसिस काफी अच्छे तरीके से काम करती है

 

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8.1 – लंदन फिक्स (लंदन में कीमत निर्धारण)

पिछले अध्याय में हमने सोने के उन कॉन्ट्रैक्ट पर चर्चा की थी जो MCX पर मौजूद हैं। इस अध्याय की शुरुआत हम इस चर्चा से करते हैं कि सोने की स्पॉट कीमतें दुनिया भर में और भारत में कैसे तय होती हैं। लेकिन मैं यह साफ कर दूं कि सोने की कीमत तय करने का यह तरीका सिर्फ एक तरीका है और MCX पर होने वाली सोने की ट्रेडिंग में इसका कोई बहुत ज्यादा महत्व नहीं होता है। लेकिन फिर भी इसे जानना ज़रूरी है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोने की कीमत हर दिन लंदन में तय की जाती है, दिन में दो बार दो अलग-अलग सत्रों के लिए। सुबह के सत्र के लिए 10:30 AM पर जिसे AM फिक्स कहा जाता है और शाम के सत्र के लिए 3:00 PM पर जिसे PM फिक्स कहा जाता है। लंदन के सबसे बड़े बुलियन डेस्क के ट्रेडर इस कीमत को तय करते हैं और नैथन मायर राथ्सचाइल्ड एंड संस (Nathan Mayer Rothschild & Sons) इस काम में उन्हें मदद करते हैं। 

जेपी मॉर्गन, स्टैंडर्ड चार्टर्ड, स्कोटियामोकाटा (स्कोटिया बैंक), सोसायटी जनरल जैसे करीब 10 से 11 पार्टिसिपेटिंग बैंक इस काम में हिस्सा लेते हैं। ध्यान दीजिए कि आम जनता को या दूसरे बैंकों को इस प्रक्रिया में हिस्सा लेने की इजाजत नहीं है। इन बैंकों के डीलर पहले से तय समय पर निर्धारित कॉन्फ्रेंस कॉल में कॉल करते हैं और सोने की खरीद और बिक्री की कीमतें की अपनी बिड बताते हैं। वहां आई सभी बिड और ऑफर से एक औसत कीमत निकाली जाती है और फिर उस कीमत को बाजार को बता दिया जाता है जो कि सोने के लिए उस समय का बेंचमार्क भाव बनता है। इस पूरी प्रक्रिया में 10 से 15 मिनट लगते हैं। यही प्रक्रिया शाम के सत्र के लिए यानी PM सेशन के लिए फिर से दोहराई जाती है और फिर से सोने की कीमत तय करके उसे बाजार को बता दिया जाता है।

AM और PM फिक्स में जो कीमतें तय की जाती हैं वह उस कीमत के काफी करीब होती हैं जो लंदन में हो रही सोने की ट्रेडिंग में चल रही होती हैं। इस वजह से ये कीमतें किसी भी बुलियन ट्रेडर के लिए कोई नई खबर नहीं होती हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि इंग्लैंड में होने वाली बहुत सारी दूसरी चीजों की तरह यह भी एक तरीके की परंपरा है जिसे निभाया जा रहा है। 

भारत में भी कुछ इसी तरीके की परंपरा है लेकिन इतनी विस्तृत नहीं है। आपको पता ही है कि भारत में सोने की सबसे ज्यादा खपत होती है और भारत इसे आयात करता है। भारत में सोना निर्धारित बैंकों द्वारा आयात किया जाता है और फिर यही सोना बुलियन डीलर्स को सप्लाई किया जाता है (कुछ शुल्क लगाने के बाद)। इसके बाद बुलियन डीलर्स एसोसिएशन अपने नेटवर्क के द्वारा इस सोने के लिए बोली मंगाता है, यह बिड या बोली इस आधार पर मंगाई जाती है कि डीलर को इस कीमत पर कितना सोना खरीदना या बेचना है। इन कीमतों के आधार पर एक औसत कीमत निकाली जाती है और यही भारत में सोने की उस दिन की कीमत होती है। वास्तव में यह एक तरीके का चक्र है। डीलर सोने का भाव भेजने के पहले MCX में सोने की फ्यूचर कीमत पर नजर डालते हैं और उसके आधार पर ही अपना भाव बुलियन एसोसिएशन को भेजते हैं। इसके बाद यह कीमतें डीलर और ज्वेलर्स के नेटवर्क को भेजी जाती हैं और उस दिन की कीमत तय हो जाती है।

8.2 – सोने की कीमत का अंतर

कभी कभी सोने के ट्रेडर शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज यानी CME में सोने के फ्यूचर की कीमत और यहां भारत में MCX पर सोने की फ्यूचर कीमत के अंतर को देखते हैं और उसके आधार पर यह मान लेते हैं कि यहां आर्बिट्राज का मौका बन रहा है। उन्हें यह मौका इसलिए दिखता है क्योंकि वो ये मान लेते हैं कि सोना एक अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी है और आमतौर पर दुनिया भर में इसकी कीमतें एक जैसी होना चाहिए और जब कभी ऐसा नहीं होता तो वो एक आर्बिट्राज का मौका है। उदाहरण के तौर पर अगर 995 प्योरिटी का सोना CME में $433 पर कोट (quote) हो रहा है तो MCX पर भी 10 ग्राम सोने की कीमत $430 के आस पास ही होनी चाहिए। 

लेकिन ऐसा नहीं होता है, इन दोनों कीमतों में काफी अंतर होता है और इस वजह से ही CME और MCX के फ्यूचर कीमत में हमेशा एक अंतर होता है। तो यहां सवाल यह उठता है कि दोनों जगह के फ्यूचर कान्ट्रैक्ट की कीमतों में इतना अंतर क्यों होता है?

आइए इस को समझते हैं-  

इस बात को समझने के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि भारत में सोने की स्पॉट कीमतें कैसे तय की जाती हैं। 

याद रखिए कि भारत में सोने का आयात होता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में और खासकर अमेरिका में, सोने की कीमत प्रति ट्रॉय औंस (per troy ounce basis) में कोट (quote) किया जाता है। एक ट्रॉय औंस करीब-करीब 31.1035 ग्राम होता है। अब मान लीजिए कि अमेरिकी स्पॉट बाजार में सोना 1320 डॉलर प्रति ट्रॉय औंस में बिक रहा है ऐसे में अगर डॉलर 65 रुपए का है तो भारत में सोने की स्पॉट कीमत क्या होनी चाहिए?

आमतौर पर लोग पहले अमेरिका में 10 ग्राम सोने की कीमत अमेरिकी डॉलर में पता कर लेते हैं और उसके बाद उसे भारत में USD-INR के रेट से गुणा करके यहां पर सोने की कीमत पता करते हैं। आइए ऐसा कर के देखते हैं 

31.1 ग्राम सोने की कीमत $1320 इसलिए 10 ग्राम सोने की कीमत $424.43 होगी। अब चूंकि USD INR 65 पर है इसलिए भारत में 10 ग्राम सोने की कीमत होगी करीब 27,588 रुपए

लेकिन वास्तव में यह इतना सीधा सादा नहीं होता। भारत में जब सोना आयात होता है (बैंक इसे आयात करते हैं) तो उन्हें सोने पर ड्यूटी और टैक्स भी देना होता है। इसलिए भारत में सोने की स्पॉट कीमतों में यह शुल्क भी शामिल होना चाहिए। एक नजर डालिए की सोने के आयात में क्या-क्या शुल्क शामिल होते हैं-

  1. CIF (Cost, insurance and freight/ कीमत, बीमा और किराया भाड़ा) 
  2. कस्टम ड्यूटी
  3. सेस (Cess)
  4. बैंक का खर्च

इन सारी वजहों से भारत में सोने की वास्तविक कीमत बढ़ जाती है। इसको और अच्छे से समझने के लिए आप यहां पर ट्रेडिंग Q&A पर नजर डाल सकते हैं। this post on TradingQ&A

तो उदाहरण के तौर पर अगर अमेरिका में सोने की स्पॉट कीमत $422 प्रति 10 ग्राम है तो भारत में बाकी सारे खर्चों को जोड़ने के बाद स्पॉट की कीमत काफी ऊपर होगी। उदाहरण के तौर पर आप मान सकते हैं कि भारत में यह कीमत $435 के आसपास होगी और इस तरह से दोनों जगहों पर यह अंतर करीब करीब $15 का होगा।

तो यह तो हुई स्पॉट कीमतों में अंतर की बात लेकिन फ्यूचर की कीमतों के बारे में क्या, याद रखिए कि फ्यूचर की कीमत हमेशा स्पॉट की कीमत से ही निकलती है। फ्यूचर कीमत को स्पॉट कीमत से जोड़ने वाला फार्मूला है –

F = S*e(rt)

आप फ्यूचर कीमत के बारे में और यहां पर पढ़ सकते हैं  futures pricing.

तो जहां अमेरिकी बाजार में सोने की फ्यूचर कीमत वहां के स्पॉट की कीमत के आधार पर तय होती है यानी ऊपर के उदाहरण में $420 के अनुसार, वहीं भारत में सोने की फ्यूचर की कीमत यहां के स्पॉट बाजार के आधार पर तय होगी जो कि उदाहरण में $435 के करीब है। इसी वजह से CME और MCX की फ्यूचर कीमतों में अंतर होता है, और इसे आर्बिट्राज का मौका नहीं समझना चाहिए।

8.3 – सोने की कीमत पर किन बातों का असर पड़ता है

दुनिया भर के निवेशकों की एक खास आदत है वो सोने में तब जरूर निवेश करते हैं जब दुनिया के आर्थिक बाजारों में अनिश्चितता का माहौल होता है। सोने को एक सुरक्षित निवेश माना जाता है और यह माना जाता है कि किसी भी तरीके की आर्थिक मंदी में सोना उनके निवेश को बचाकर रखेगा। 

उदाहरण के तौर पर जून 2016 में BREXIT की घटना हो रही थी, जिसने दुनिया भर के बाजारों को हिला कर रख दिया था तो इस वजह से सोने की कीमतों पर क्या असर पड़ा, इसे आप नीचे के चार्ट में देख सकते हैं 

घटना के दौरान और घटना के बाद सोने की कीमतों में तेजी आई थी और इस चार्ट पर आपको जो बड़े कैंडल दिख रहे हैं वह 24 जून के बाद के हैं, जिस दिन ब्रेक्सिट का फैसला आ गया था। मतलब यह कि ब्रेक्सिट का फैसला आने के बाद सोने में और तेजी आई थी। तो होता यह है कि जब भी दुनिया में किसी भी तरीके का अनिश्चितता का माहौल बनता है तो निवेशक सोना खरीदने लगते हैं क्योंकि सोने को सुरक्षित निवेश माना जाता है। 

इतिहास में जितनी भी बड़ी घटनाएं हुई हैं, उनका सोने की कीमतों पर असर पड़ा है। जैसे कच्चा तेल संकट, मध्य एशिया संकट, इजरायल फिलीस्तीन, यूरोपियन यूनियन शरणार्थी संकट, ग्रीस का आर्थिक संकट, यूरो संकट हो या फिर लेहमैन ब्रदर्स संकट। यह याद रखने की बात है कि जब भी दुनिया में कोई बड़ी घटना होती है तो सोने की कीमतों पर असर पड़ता है। 

इसके आधार पर हम एक बड़ा निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अनिश्चितता में सोने की कीमत बढ़ती है। वास्तव में, आर्थिक अनिश्चितता के समय में रिस्की निवेश जैसे इक्विटी में निवेश कम हो जाता है और सोने जैसे सुरक्षित माने जाने वाले ऐसेट में निवेश बढ़ जाता है।

अनिश्चितता वाली घटनाओं के अलावा भी, दैनिक तौर पर भी निवेशक सोने में निवेश इसलिए करते हैं क्योंकि इसे मुद्रास्फीति यानी इन्फ्लेशन से बचाने वाले निवेश के तौर पर देखा जाता है। यह माना जाता है कि लंबे समय में सोना लगातार बढ़ता रहेगा अगर आप सोने के काफी लंबे समय के चार्ट को देखेंगे तो यह विचार सही भी दिखेगा –

Source: http://www.lbma.org.uk/pricing-and-statistics

एक नजर ऊपर के चार्ट पर डालिए। 1970 में सोना करीब $35 का था और 2016 में, आज सोना $1360 का है। मतलब इसने करीब 37 गुना रिटर्न दिया है। लेकिन जब आप इसे CAGR के हिसाब से देखेंगे, तो यह साल दर साल करीब 8% की वृद्धि दिखा रहा है। आमतौर पर इस दौरान दुनिया में मुद्रास्फीति की दर करीब 5 से 6% की रही है। इसका मतलब है अगर आपने सोने में निवेश किया था तो आपने करीब 8% की कमाई की लेकिन दूसरी तरफ आपने मुद्रास्फीति की वजह से 6% गंवा दिया। इस तरह आपने कुल 2% की कमाई की। लेकिन, खासकर भारत जैसे देशों में जहां पर मुद्रास्फीति की दर ज्यादा है वहां पर तो सोने ने कोई कमाई कर के नहीं दी है।

8.4 – सोना, डॉलर, रूपया और ब्याज दर

सोने की कीमतों में होने वाले बदलाव इस बात से भी प्रभावित होते हैं कि करेंसी के बाजार में क्या चल रहा है और अर्थव्यवस्था में ब्याज दरें किस तरफ जा रही हैं। तो अगर आप सोने के ट्रेडर हैं तो आपको दुनिया की अर्थव्यवस्था पर नजर रखनी होती है, साथ ही यह भी देखना होता है कि करेंसी के बाजार में और मुद्रा बाजार में ब्याज दरों में क्या बदलाव हो रहे हैं। इन सबके बीच में आपसी संबंध काफी सीधे होते हैं। सबसे पहले डॉलर पर नजर डालते हैं। 

नीचे के ग्राफ को देखिए

Source: https://fred.stlouisfed.org/graph/?g=33vD

ये सोने और अमेरिकी डॉलर का ग्राफ है। इन दोनों के बीच विपरीत संबंध हैं जो कि इस ग्राफ में साफ नजर आ रहे हैं,एक ऊपर होता है तो दूसरा नीचे होता है। इस तरह के संबंध की दो खास वजहें है 

  1. जब डॉलर की कीमत किसी करेंसी के मुकाबले कम होती है, तो दूसरी करेंसी की कीमत बढ़ती है। उस करेंसी की कीमत में आई इस बढ़ोतरी की वजह से सोने जैसी कमोडिटी की मांग में भी तेजी आती है। जब सोने की मांग बढ़ती है तो फिर कीमतें बढ़ती हैं। 
  2. USD में आ रही गिरावट की वजह से निवेशकों की रूचि इसमें कम हो जाती है और इन्वेस्टर अपने पैसे को सुरक्षित निवेश यानी सोने में लगाने लगते हैं। 

लेकिन यह हमेशा सच नहीं होता, कई बार ऐसा भी होता है कि सोना और अमेरिकी डॉलर दोनों बढ़ते हैं। उदाहरण के तौर पर जब सऊदी अरब में संकट हुआ था तो वहां के घरेलू निवेशक सऊदी में निवेश नहीं करना चाहते थे और अपने पैसे को सोने या अमेरिकी डॉलर जैसे सुरक्षित ऐसेट में लगाना चाहते थे। इस वजह से इन दोनों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई थी। 

इससे एक बात तो साफ हो गई है कि सोने की कीमतों पर अमेरिकी डॉलर की कीमत में हो रहे बदलाव का असर पड़ता है। लेकिन सोने पर बाकी दूसरी चीजों का क्या असर पड़ता है और वास्तव में कोई असर पड़ता है या नहीं-यह देखते हैं। उदाहरण के तौर पर अमेरिका के फेडरल रेट में आई बढ़ोतरी की वजह से यूएस डॉलर मजबूत होता है। तो इसकी वजह से, सोने की कीमत में गिरावट आनी चाहिए लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता और अगर मैं सही हूं तो सोने और फेडरल रेट के बीच कोरिलेशन संबंध सिर्फ 0.3 का है।

मुझे पता है कि मैंने पहले कहा था कि अगर डॉलर मजबूत होता है तो सोने की कीमतें नीचे जाती है, और ये सब उसके उलट हो रहा है। लेकिन जो चीजें यूएस डॉलर की कीमतों पर असर डालती है वह वास्तव में सोने पर बहुत ज्यादा असर नहीं डालतीं। 

यह सब थोड़ा उलझन वाला लग सकता है। तो, ऐसे में सोने में ट्रेड कैसे किया जाए, सोने में ट्रेड करने का सबसे अच्छा तरीका यह होता है कि उसकी मांग और सप्लाई पर नजर रखी जाए। वैसे डिमांड और सप्लाई को प्रभावित करने वाली चीजें बहुत सारी होती हैं और उन सब को समझना थोड़ा मुश्किल होता है। लेकिन यही एक चीज है जो सोने की कीमतों पर सबसे ज्यादा असर डालती है और चार्ट में भी ये दिखता है। और चार्ट के आधार पर ही आप टेक्निकल एनालिसिस करके सोने में निवेश कर सकते हैं। 

जब आप इक्विटी में निवेश करते हैं तो फंडामेंटल एनालिसिस बहुत ज्यादा काम आती है लेकिन जब कमोडिटी और करेंसी की बात हो तो टेक्निकल एनालिसिस अच्छा होता है।

8.5 – सोने पर टेक्निकल एनालिसिस

अगर आप टेक्निकल एनालिसिस के बारे में नहीं जानते हैं तो मेरी सलाह होगी कि टेक्निकल एनालिसिस पर हमारे मॉड्यूल को पढ़ें। 

टेक्निकल एनालिसिस की सबसे बड़ी खासियत यह है कि किसी भी ऐसेट के लिए उसका इस्तेमाल किया जा सकता है- चाहे वह करेंसी हो या कमोडिटी। अब टेक्निकल एनालिसिस का सोने पर इस्तेमाल करते हैं और देखते हैं कि यह कैसे काम करता है। 

जब मैं सोने में ट्रेड करता हूं तो मेरा इरादा बहुत साफ होता है कि यह छोटे समय का ट्रेड रेट है और इस ट्रेड को कुछ दिनों से अधिक मैं अपने पास होल्ड करने वाला नहीं हूं। 

जब भी मैं ट्रेड को चुनना चाहता हूं तो सबसे पहले एक लंबे समय के चार्ट पर नजर डालता हूं। लंबे समय से मेरा मतलब है कि 2 साल या उससे लंबा चार्ट। यहां पर भी मैं वही करूंगा। मैं गोल्ड BEES (ETF) के दो साल के एन्ड ऑफ द डे चार्ट (End of the day) पर नजर डालूंगा जिससे मुझे गोल्ड यानी सोने के बारे में एक मुख्य ट्रेंड के बारे में पता चल सके। साथ में एक महत्वपूर्ण प्राइस प्वाइंट यानी कीमत बिंदु का भी पता चल सके।

ऊपर के चार्ट से मुझे पता चला कि 

  1. सोना 2013 के अंत से गिरना शुरू हुआ और 2015 के अंत तक गिरता ही रहा 
  2. 2015 के अंतिम कुछ महीनों में कीमत एक तरीके से अपने सबसे निचले स्तर पर आ गई थी 
  3. सोने में सितंबर 2015 से दिसंबर 2015 के बीच में एक तरीके का डबल बॉटम बना था 
  4. 2016 की शुरुआत से सोने की कीमतें ऊपर जाने लगी थी 
  5. 2016 की शुरुआत से ही हर गिरावट पर ट्रेडर्स सोने को खरीद रहे हैं 
  6. साफ है कि सोने में मंदी अब नहीं रही है और यह इस बात से नजर आता है कि सोना 2013 की ऊंचाइयों तक वापस पहुंच गया है 

इन सारी बातों के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि सोने में अब लॉन्ग ट्रेड लिया जा सकता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं सोने में शॉर्ट नहीं करूंगा, जब मुझे एक शॉर्ट करने में फायदा नजर आएगा तो मैं यह जरूर करूंगा। लेकिन जब मैं शॉर्ट करूंगा तो मुझे पता होना चाहिए कि ट्रेडर इस गिरावट का इस्तेमाल खरीद करने के लिए करेंगे क्योंकि वो हर गिरावट पर खरीद रहे हैं। ऐसे में, मैं अपनी शॉर्ट पोजीशन को जल्दी से कवर कर लूंगा। ध्यान दीजिए कि अभी तक मैंने सिर्फ एक मोटा मोटी नजरिया बनाया है लेकिन मैं अभी किसी निश्चित कीमत स्तर को नहीं चुना है। 

अब मैं सोने के छोटी अवधि के चार्ट पर नजर डालूंगा, जिससे मैं ट्रेड करने के सही मौके को चुन सकूं। नीचे के चार्ट पर नजर डालिए। वैसे तो ट्रेडिंग के मौके मुझे चार्ट के दाहिने हिस्से में मिलेंगे लेकिन अभी थोड़ा समय चार्ट के बाएं तरफ पर फोकस कीजिए – 

यह चार्ट 2015 के अंतिम कुछ महीनों से शुरू हुआ है और 2016 की जून तक इसमें बहुत कम चाल दिख रही है। आप कीमत देखें या वॉल्यूम दोनों में आपको यह बात नजर आएगी। कुछ भी वॉल्यूम नहीं है और कीमतें बस गैप अप या गैप डाउन हो रही हैं। क्या आप बता सकते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? 

सोने के कॉन्ट्रैक्ट 1 साल पहले जारी किए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर अक्टूबर 2016 का कॉन्ट्रैक्ट अक्टूबर 2015 में जारी किया गया होगा। लेकिन इस कॉन्ट्रैक्ट में तब तक कोई लिक्विडिटी नहीं आती है जब तक ये अपने एक्सपायरी के पास ना पहुंच जाए यानी अक्टूबर 2016 के करीब ना पहुंच जाए। हां अगर बाजारों में बहुत ज्यादा लिक्विडिटी हो तब शायद इस कॉन्ट्रैक्ट में भी कुछ लिक्विडिटी पहले भी आ सकती है। 

अब चार्ट के बाएं हिस्से पर नजर डालते हैं और ट्रेडिंग के लिए मौके ढूंढते हैं। मैं इस चार्ट को री-पोस्ट करूंगा जिससे मुझे पिछले कुछ समय के कैंडल नजर आ सकें। मैंने 9 और 21 दिन एक्स्पोनेंशियल मूविंग एवरेज को यहां ओवरले किया है।

  1. मौजूदा कीमत इन दोनों शॉर्ट टर्म एवरेज से भी नीचे है। 
  2. पिछले कुछ समय में 30956 के आस-पास 3 प्राइस एक्शन जोन बने हैं (मैंने इन्हें नीले रंग से घेर दिया है)। अभी की मौजूदा कीमत इस स्तर के नीचे है इसलिए 30956 एक रेजिस्टेंस बन जाता है। 
  3. पिछले कुछ समय में हमने एक बेयरिश मारूबोझू (काले रंग से घेर कर दिखाया गया) बनते देखा है जिस ने अच्छा काम किया और ट्रेडर्स में इस पर मुनाफा कमाया होगा।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए अब मैं सोने में खरीद के मौके देखूंगा जैसे ही सोना अपने रेजिस्टेंस लेवल 30956 को पार करेगा मैं उसे खरीदूंगा। ध्यान रखिए कि यह दोनों शॉर्ट टर्म मूविंग एवरेज के साथ भी मिलता है। इस वजह से मुझे लॉन्ग पोजीशन बनाने में कोई दिक्कत नजर नहीं आ रही है। लेकिन, अगर सोने की कीमत रेजिस्टेंस के नीचे रहती है तो मैंने ऊपर जो कारण बताए हैं उस वजह से  मुझे शॉर्ट करने का भरोसा नहीं रहेगा। तो ऐसे में मेरा ट्रेड कुछ इस तरह से बनेगा 

– पोजीशन : लॉन्ग 

– कीमत : 30956 के ऊपर 

– टारगेट : 31418 (एक छोटी नीली रेखा बनाई है)

– स्टॉपलॉस : 30700 (मौजूदा कीमत)

– रिवार्ड टू रिस्क जब मैं 30956 पर लॉन्ग हूं : 1:

– एन्ट्री से प्रतिशत चाल – 1.5

रिस्क रिवार्ड के हिसाब से यह एक अच्छा ट्रेड दिख रहा है और चूंकि मुझे 1.5%  की ही चाल चाहिए इसलिए यह 1 दिन में पूरी हो सकती है। 

इस तरह से आपने देखा कि टेक्निकल एनालिसिस का इस्तेमाल सोने जैसी कमोडिटी में भी आसानी से किया जा सकता है। 

पिछले 2 अध्यायों में मैंने आपको सोने के बारे में काफी जानकारी दी है मुझे लगता है कि इसके बाद आप सोने में ट्रेडिंग की शुरुआत कर सकते हैं। 

अब आगे हम चांदी की बात करेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. सोने की कीमतें दिन में दो बार AM और PM सत्र के लिए लंदन में तय की जाती है।
  2. लंदन में कीमत के इस निर्धारण में केवल कुछ निश्चित बैंक ही हिस्सा ले सकते हैं। 
  3. लंदन में कीमत निर्धारण की तरह ही भारत में भी कीमत निर्धारण की एक प्रक्रिया होती है, लेकिन भारतीय ट्रेडर के लिए यह एक चक्र का हिस्सा भर ही होता है क्योंकि इसके लिए भी वह MCX कीमत की ओर देखता है। 
  4. भारत और अमेरिका में सोने की स्पॉट कीमतों में जो अंतर दिखाई देता है वह मुख्य तौर पर ड्यूटी, टैक्स और दूसरे तरीके के शुल्कों की वजह से होता है।
  5. क्योंकि स्पॉट की कीमतें बदलती रहती हैं इसलिए फ्यूचर की कीमतों में भी बदलाव होता है।
  6. डॉलर और सोने में विपरीत संबंध होता है।
  7. कमोडिटी के फंडामेंटल थोड़े मुश्किल होते हैं इसलिए आमतौर पर ट्रेडर्स डिमांड और सप्लाई को देखते हैं। 
  8. डिमांड और सप्लाई मौजूदा कीमतों में नजर आते हैं और साथ ही चार्ट पर भी ये दिखते है। 
  9. आप सोने तथा दूसरी कमोडिटी में टेक्निकल एनालिसिस का इस्तेमाल कर सकते हैं।

 

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7.1 – शुरूआत

जैसा कि आप जानते हैं कि भारत में दो कमोडिटी एक्सचेंज हैं- मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (MCX) और नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव एक्सचेंज (NCDEX)। मेटल और एनर्जी से जुड़ी कमोडिटी के लिए MCX को ज्यादा पसंद किया जाता है जबकि एग्री कमोडिटी के लिए NCDEX ज्यादा लोकप्रिय है। लेकिन पिछले कुछ समय में, MCX पर एग्री कमोडिटी का कारोबार भी बढ़ रहा है। मैं अगले कुछ अध्यायों उन कमोडिटी के बारे में बात करूंगा जो एक्सचेंज पर ट्रेड होती हैं और कोशिश करूंगा कि आप कमोडिटी कॉन्ट्रैक्ट के बारे में कुछ जान पाएं। 

हम उन सारी कमोडिटी पर चर्चा करेंगे जो कमोडिटी एक्सचेंज पर ट्रेड होती हैं। हमारी कोशिश है कि हम ये जान सकें कि कमोडिटी कॉन्ट्रैक्ट कैसे काम करते हैं, किन कमोडिटी में आपको ट्रेड करना चाहिए और कौन सी ऐसी चीजें है जो कि कमोडिटी पर असर डालती हैं। मैं कमोडिटी के उस हिस्से पर चर्चा नहीं करूंगा जहां कमोडिटी मार्केट के बारे में बताया जाता है, जहां पर उनका इतिहास, फॉरवर्ड मार्केट, अमेरिकी किसान और शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज आदि के बारे में बताया जाता है। इन सब के बारे में आपको हर उस जगह आसानी से जानकारी मिल जाएगी जहां कमोडिटी मार्केट के बारे में कुछ भी बताया जा रहा हो। मैं सीधे कमोडिटी कॉन्ट्रैक्ट के बारे में बात करूंगा और इस कॉन्ट्रैक्ट के बारे में आपको ज्यादा से ज्यादा जानकारी देने की कोशिश करूंगा। 

नीचे की लिस्ट को देखिए जिसमें उन कमोडिटी को दिखाया गया है जो MCX पर ट्रेड होती हैं – 

हम कोशिश करेंगे कि उन सारी बड़ी कमोडिटी पर चर्चा कर सकें जिन्हें ट्रेड किया जा सकता है। यहां पर आपको यह जानना जरूरी होगा कि डेरिवेटिव फ्यूचर किस तरीके से काम करते हैं तभी आप कमोडिटी को अच्छे से समझ पाएंगे। अगर आप फ्यूचर ट्रेडिंग के बारे में नहीं जानते हैं तो आपको फ्यूचर ट्रेडिंग से जुड़े हमारे मॉड्यूल को जरूर पढ़ना चाहिए। 

अगर आप फ्यूचर के बारे में जानते हैं तो हम आगे बढ़ते हैं और शुरुआत करते हैं सोने के साथ

7.2 – सोने का कॉन्ट्रैक्ट 

MCX पर सोने में सबसे ज्यादा कारोबार होता है। इस कारोबार में काफी ज्यादा लिक्विडिटी है और हर दिन करीब 15,000 कॉन्ट्रैक्ट को ट्रेड किया जाता है, यानी हर दिन करीब 4500 करोड़ रुपए का कारोबार होता है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह संख्या सिर्फ सोने के एक कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी हुई है जिसे बिग गोल्ड कहा जाता है। 

MCX पर सोने की कई तरह की कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध हैं, जिनमें आप ट्रेड कर सकते हैं। नए लोग और कई बार तो पुराने कारोबारी भी सोने के इन अलग-अलग कॉन्ट्रैक्ट में उलझ जाते हैं और उनको समझ नहीं आता कि किस कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करना चाहिए और किस में नहीं। इसलिए सबसे पहले हम सोने में उपलब्ध अलग-अलग तरीके के कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं – 

  1. सोना (बिग गोल्ड) 
  2. गोल्ड मिनी
  3. गोल्ड गिनी
  4. गोल्ड पेटल (petal)

इन सभी कॉन्ट्रैक्ट की अंडरलाइंग एक ही है और वह है सोना। इनके अंतर को समझने के लिए सबसे जरूरी चीज यह है कि इनके कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारी को देखा और समझा जाए। तो सबसे पहले शुरू करते हैं बिग गोल्ड से। 

MCX पर सोने के कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी सारी जानकारियां यहां दी गई हैं, इनको हम एक-एक करके समझते हैं – 

विवरण मूल्य
कीमत कोटेशन रूपए प्रति 10 ग्राम (सभी टैक्स और ड्यूटी सहित)
लॉट साइज 1 किलोग्राम
टिक साइज 1 रूपया
प्रति टिक P&L  Rs. 100
एक्सपायरी का दिन कॉन्ट्रैक्ट महीने का 5th दिन 
डिलीवरी आवश्यक
डिलीवरी मात्रा 1 किलोग्राम

इन सब को इसी क्रम में समझते हैं। सबसे पहले नजर डालते हैं कि कीमत और कोटेशन पर 

यहां सोने के लिए कीमत 10 ग्राम के लिए दिखाई गई है। इस कीमत में सभी तरह की इंपोर्ट ड्यूटी और टैक्स शामिल हैं। इनके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे लेकिन अभी के लिए यह जान लीजिए कि MCX की कीमत में सब कुछ शामिल है। नीचे के चित्र पर नजर डालिए जिसमें MCX पर गोल्ड फ्यूचर के लास्ट ट्रेडेड कीमत को दिखाया गया है 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि सोने का लास्ट ट्रेडेड प्राइस (अंतिम ट्रेडेड कीमत) 31,331 है। ध्यान दीजिए कि सोने की ये कीमत 10 ग्राम के लिए है। यहां पर लॉट साइज 1 किलो (1000 ग्राम) का है इसलिए कॉन्ट्रैक्ट की कुल कीमत हुई – 

(1000 * 31331) / 10

= Rs.31,33,100/-

तो इस ट्रेड के लिए कितने मार्जिन की जरूरत पड़ेगी, हम इसे जीरोधा के मार्जिन कैलकुलेटर पर जाकर निकाल सकते हैं – तो हमें 1,25,868 की जरूरत पड़ेगी जिसका मतलब हुआ कि मार्जिन का प्रतिशत हुआ –

1,25,868 / 31,33,100

4.017%

तो जैसा कि आप देख सकते हैं मार्जिन करीब 4% होगा, तो ये करीब करीब उतना ही है जितना करेंसी के कॉन्ट्रैक्ट में था। लेकिन कुल रकम के हिसाब से यह मार्जिन काफी ज्यादा है और इसलिए रिटेल ट्रेडर का सोने में पोजीशन लेना काफी मुश्किल होता है। यही वजह है कि सोने के दूसरे कॉन्ट्रैक्ट जैसे गोल्ड मिनी और गोल्ड पेटल भी एक्सचेंज पर मौजूद हैं जहां मार्जिन कम है। इन सारे कॉन्ट्रैक्ट के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे। 

अभी मान लीजिए कि आपने 1 किलो सोना MCX पर खरीदा है इसका मतलब है कि आप को करीब 1,25,000 मार्जिन के तौर पर जमा करने होंगे और हर टिक पर आप या तो100 कमाएंगे या 100 गंवाएंगे। तो हमें यह 100 का आंकड़ा कहां से मिला – 

प्रति टिक P&L = (लॉट साइज / कोटेशन) * टिक साइज

इसे सोने पर आजमाते हैं 

(1000 ग्राम / 10 ग्राम) * 1 रुपया

= 100 रुपए

वास्तव में, आप इस फार्मूले का इस्तेमाल करके फ्यूचर या ऑप्शन के किसी भी कॉन्ट्रैक्ट का प्रति टिक P&L  निकाल सकते हैं। उदाहरण के तौर पर मान दीजिए JPY INR का कॉन्ट्रैक्ट है, आपको याद होगा कि इस कॉन्ट्रैक्ट के लिए लॉट साइज 100,000 जापानी येन का है और कोटेशन 100 जापानी येन का है टिक साइज 0.0025 है तो प्रति टिक P&L होगा –

(100000/100)*0.0025

= 2.5 Rupees

तो अब आगे बढ़ते हैं और एक्सपायरी पर नजर डालते हैं। अगर आप देखेंगे तो आपको दिखेगा कि गोल्ड में एक्सपायरी की जगह सिर्फ लिखा है- कॉन्ट्रैक्ट महीने का पांचवा दिन। सोने का कॉन्ट्रैक्ट हर दूसरे महीने में नया जारी होता है और हर कॉन्ट्रैक्ट एक 1 साल तक के लिए वैध रहता है। इस तरह से किसी भी समय आपके सामने 6 कॉन्ट्रैक्ट होते हैं जिनमें से आप अपने पसंद का कॉन्ट्रैक्ट चुन सकते हैं। मान लीजिए हम अगस्त 2016 में हैं तो आपको नीचे के इस टेबल को देखकर समझ में आएगा कि कौन से कॉन्ट्रैक्ट आपके लिए उपलब्ध हैं और यह कैसे काम करता है

अभी उपलब्ध कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायरी
अक्टूबर 2016 5th Oct 2016
दिसंबर 2016 5th Dec 2016
फऱवरी 2017 5th Feb 2017
अप्रैल 2017 5th April 2017
जून 2017 5th Jun 2017
अगस्त 2017 5th Aug 2017

हमेशा की तरह, सबसे ताजा कॉन्ट्रैक्ट ही सबसे ज्यादा लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट होता है। जैसे इस उदाहरण में अक्टूबर 2016 का कॉन्ट्रैक्ट है। अक्टूबर 2016 का कॉन्ट्रैक्ट 5 अक्टूबर 2016 को एक्सपायर हो जाएगा तो सितंबर 2017 का कॉन्ट्रैक्ट जारी होगा और सबसे ज्यादा लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट अब दिसंबर 2016 का कॉन्ट्रैक्ट हो जाएगा, जो कि 5 अक्टूबर 2016 के कॉन्ट्रैक्ट की जगह लेगा। 

ध्यान रखिए कि इक्विटी में सेटलमेंट हमेशा कैश में होता है और वहां फिजिकल सेटलमेंट नहीं होता। लेकिन जब कमोडिटी बाजार की बात आती है तो सेटलमेंट फिजिकल होता है और यहां पर डिलीवरी जरूरी होती है. इसका मतलब यह है कि अगर आपके पास सोने के 10 लॉट हैं और आपने डिलीवरी मांगी हुई है तो आपको 10 किलो सोना मिलेगा। डिलीवरी लेने के लिए कमोडिटी बाजार में आपको बताना पड़ता है कि आपको डिलीवरी चाहिए। एक्सपायरी के 4 दिनों पहले तक आप ऐसा कर सकते हैं। अगर एक्सपायरी 5 तारीख को है तो आप डिलीवरी लेने की इच्छा 4 तारीख के पहले किसी भी दिन जाहिर कर सकते हैं। 

ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर आप ज़ेरोधा पर ट्रेड कर रहे हैं तो हम आपको इस बात की इजाजत नहीं देते हैं कि आप किसी कमोडिटी की फिजिकल डिलीवरी लें। इसका मतलब यह है कि आपको अपनी पोजीशन को एक्सपायरी महीने की 1 तारीख के पहले क्लोज करना होगा। जहां तक मेरी बात है मैं व्यक्तिगत तौर पर यह पसंद करता हूं कि अपनी पोजीशन को जल्दी से जल्दी क्लोज कर सकूं और कमोडिटी की फिजिकल डिलीवरी के चक्कर में ना पड़ूं। 

तो अब आप ज्यादातर बातें जान चुके हैं जो कि सोने के बिग गोल्ड कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी हुई हैं। अब आगे बढ़ते हैं और सोने के दूसरे कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं।

7.3 – सोने के दूसरे कॉन्ट्रैक्ट ( गोल्ड मिनी, गोल्ड गिनी, गोल्ड पेटल)

जैसा कि आप समझ चुके हैं कि बिग गोल्ड कॉन्ट्रैक्ट में मार्जिन की जरूरत बहुत बड़ी होती है मतलब इसके लिए बहुत बड़ी रकम देनी पड़ती है। इस वजह से, बहुत सारे ट्रेडर बिग गोल्ड कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड नहीं कर पाते हैं। शायद यही वजह है कि एक्सचेंज ने कम मार्जिन वाले कई कॉन्ट्रैक्ट जारी किए हैं। 

आप सोने के जिन दूसरे कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड कर सकते हैं वह हैं 

  1. गोल्ड मिनी 
  2. गोल्ड गिनी 
  3. गोल्ड पेटल 

इन कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी जानकारियां नीचे के टेबल में दिखाई गई हैं 

कीमत का क्वोट लॉट साइज टिक साइज P&L/टिक एक्सपायरी डिलीवरी डिलीवरी यूनिट
Gold Mini Rs. per 10 gm 100 gm 1 rupee Rs.10 5th day आवश्यक 100 gm
Gold Guinea Rs. per  8 gm 8 gm 1 Rupee Rs.1 Last day आवश्यक 8 gm
Gold Petal Rs. per  1 gm 1 gm 1 Rupee Rs.1 Last day आवश्यक 8 gm

मुझे लगता है कि यह टेबल समझने में आसान है क्योंकि हम इससे जुड़ी जानकारियों के बारे में ऊपर भी चर्चा कर चुके हैं। इसलिए अब हम सीधे मार्जिन से जुड़ी जानकारी पर चर्चा करेंगे

जैसा कि आप देख सकते हैं कि गोल्ड मिनी (GOLD M) कॉन्ट्रैक्ट में मार्जिन 15,682 का है और प्रतिशत के हिसाब से –

= मार्जिन / कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = (कीमत * लॉट साइज)/कीमत का कोटेशन

= (31365 * 100)/10

= Rs.313,650

=15682/313650

5%

अगर आप देखें तो यह करीब करीब उतना ही है जितना कि बिग गोल्ड का प्रतिशत था। अब एक बार हम गोल्ड मिनी के प्रति टिक P&L  पर नजर डाल लेते हैं 

प्रति टिक P&L = (लॉट साइज / कोटेशन) * टिक साइज

= (100/10)*1

= Rs.10/- per tick.

गोल्ड मिनी के अलावा हमारे सामने गोल्ड गिनी और गोल्ड पेटल के कॉन्ट्रैक्ट भी होते हैं। यह बहुत छोटे कॉन्ट्रैक्ट होते हैं और इनमें मार्जिन की जरूरत बहुत कम होती है। करीब करीब 1251 गोल्ड गिनी के लिए और 154 गोल्ड पेटल के लिए। लॉट साइज भी छोटा होता है और इसलिए कॉन्ट्रैक्ट की वैल्यू भी बहुत कम होती है। आपको इनके भी कई प्रकार दिखेंगे जैसे गोल्ड पेटल (दिल्ली), गोल्ड गिनी (अहमदाबाद) आदि। अगर आप सोने में ट्रेड करना चाहते हैं तो आपको इन पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत नहीं है।

मेरी राय यह है कि अगर आप गोल्ड में ट्रेड करना चाहते हैं तो या तो बिग गोल्ड कॉन्ट्रैक्ट में करें या गोल्ड मिनी कॉन्ट्रैक्ट में करें क्योंकि यहां पर लिक्विडिटी काफी होती है। दूसरे कॉन्ट्रैक्ट में लिक्विडिटी काफी कम होती है। आपको यह बताने के लिए कि कॉन्ट्रैक्ट में लिक्विडिटी कितनी होती है, MCX के हर दिन के ट्रेड के इस आंकड़े पर नजर डालिए – 

  • बिग गोल्ड कॉन्ट्रैक्ट में करीब 12 से 13 हजार लॉट का ट्रेड होता है 
  • गोल्ड मिनी कॉन्ट्रैक्ट के 14 से 15 हजार लॉट का ट्रेड होता है 
  • गोल्ड गिनी कॉन्ट्रैक्ट में एक से डेढ़ हजार लॉट ट्रेड होते हैं 
  • गोल्ड पेटल कॉन्ट्रैक्ट के 8 से 9 हजार लॉट ट्रेड होते हैं 

यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि आप को यह आंकड़े देखकर लगेगा कि गोल्ड पेटल में भी काफी ज्यादा लिक्विडिटी है। लेकिन याद रखिए कि गोल्ड पेटल लॉट साइज 8 ग्राम का होता है इसलिए 8 से 9 हजार लॉट का मतलब है करीब 2 से ढाई करोड़ रुपए। 

एक जरूरी बात जो कि याद रखनी चाहिए वह यह है कि लिक्विडिटी हमेशा सबसे करीबी मंथ के कॉन्ट्रैक्ट में सबसे ज्यादा होती है इसलिए कोशिश कीजिए कि आप इसी में ट्रेड करें। एक्सपायरी से जितने दूर वाले कॉन्ट्रैक्ट में रहेंगे लिक्विडिटी उतनी कम होगी। 

अब मुझे लगता है कि अब आप गोल्ड कॉन्ट्रैक्ट और उनसे जुड़ी बातों को काफी हद तक समझ चुके होंगे। इसलिए अगले अध्याय में हम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में गोल्ड की कीमतों के संबंध और अंतरराष्ट्रीय कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी चीजों पर चर्चा करेंगे। यह भी जानेंगे कि गोल्ड पर किन चीजों का असर पड़ता है और गोल्ड और इक्विटी तथा डॉलर में क्या संबंध होता है।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. MCX पर ट्रेड होने वाले बुलियन कॉन्ट्रैक्ट में सबसे ज्यादा ट्रेड सोने में होता है। 
  2. सोने के कॉन्ट्रैक्ट के कई अलग-अलग प्रकार होते हैं- बिग गोल्ड, गोल्ड मिनी, गोल्ड गिनी, गोल्ड पेटल।
  3. सबसे ज्यादा लोकप्रिय कॉन्ट्रैक्ट है बिग गोल्ड लेकिन इसमें मार्जिन बहुत ज्यादा लगता है करीब 125000। 
  4. बिग गोल्ड के प्रति टिक P&L  ₹100 का होता है।
  5. प्रति टिक P&L  निकालने का फार्मूला = (लॉट साइज / कोटेशन) * टिक साइज
  6. सोने का दूसरा सबसे लोकप्रिय कॉन्ट्रैक्ट है गोल्ड मिनी जिसमें करीब 15000 का मार्जिन लगता है। 
  7. गोल्ड पेटल और गोल्ड गिनी, सोने के दूसरे ऐसे कॉन्ट्रैक्ट हैं जिनमें मार्जिन कम है लेकिन इन कॉन्ट्रैक्ट में लिक्विडिटी भी काफी कम होती है। 
  8. अपने नियरेस्ट मंथ यानी करीबी महीने के कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करना सबसे अच्छा होता है क्योंकि उसमें सबसे ज्यादा लिक्विडिटी होती है।
  9. इन सारे कॉन्ट्रैक्ट में डिलीवरी जरूरी होती है इसलिए यह अच्छा होगा कि आप अपने इन कॉन्ट्रैक्ट को एक्सपायरी के कम से कम 4 दिन पहले क्लोज कर दें।

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EUR, GBP और JPY https://zerodha.com/varsity/chapter/eur-gbp-%e0%a4%94%e0%a4%b0-jpy/ https://zerodha.com/varsity/chapter/eur-gbp-%e0%a4%94%e0%a4%b0-jpy/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:37:03 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7312 6.1 – करेंसी के दूसरे पेयर पिछले कुछ अध्यायों में हमने USD INR  के बारे में काफी चर्चा की है, अब हम करेंसी के कुछ दूसरे पेयर को देखेंगे। जैसे EUR INR (यूरो रुपया), GBP INR (पाउंड रुपया), JPY INR (येन रुपया)। दूसरे करेंसी पेयर भी करीब-करीब वैसे ही काम करते हैं जैसे USD INR […]

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6.1 – करेंसी के दूसरे पेयर

पिछले कुछ अध्यायों में हमने USD INR  के बारे में काफी चर्चा की है, अब हम करेंसी के कुछ दूसरे पेयर को देखेंगे। जैसे EUR INR (यूरो रुपया), GBP INR (पाउंड रुपया), JPY INR (येन रुपया)। दूसरे करेंसी पेयर भी करीब-करीब वैसे ही काम करते हैं जैसे USD INR काम करता है। इसको आप इस तरीके से भी समझ सकते हैं कि अगर आपको यह पता है कि nifty50 के कॉन्ट्रैक्ट किस तरीके से काम करते हैं तो आप यह समझ सकते हैं कि निफ़्टी बैंक के कॉन्ट्रैक्ट किस तरीके से काम करेंगे। 

इस अध्याय में हम पहले जल्दी से हम इन करेंसी पेयर के कॉन्ट्रैक्ट के बारे में समझ लेते हैं और इस अध्याय के दूसरे हिस्से में हम कुछ ट्रेडिंग टेक्निक के बारे में बात करेंगे खासकर टेक्निकल एनालिसिस से जुड़ी तकनीक के बारे में। इसके बाद, करेंसी से जुड़ा हुआ हमारा यह अध्याय खत्म हो जाएगा और उसके बाद इस मॉड्यूल में हम कमोडिटी पर नजर डालेंगे। 

तो आइए शुरू करते हैं।

EUR INR

दुनिया में जिस करेंसी पेयर में सबसे ज्यादा कारोबार होता है वह है EUR USD लेकिन हमारे देश में यह कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध नहीं है हालांकि RBI ने एक्सचेंज को इस पेयर को भी लिस्ट करने के लिए हरी झंडी दे दी है और हो सकता है कि बहुत जल्दी यह पेयर EUR USD भी हमारे लिए उपलब्ध हो। साथ ही, GBP USD, JPY USD में भी हमें ट्रेड करने को मिल सकता है। लेकिन अभी के लिए हमारे पास ट्रेड करने के लिए EUR INR  मौजूद है। 

जैसा कि हमें पता है कि यूरो (EUR) यूरोपियन यूनियन की करेंसी है। बाकी किसी भी करेंसी से अलग, यूरो अकेली ऐसी करेंसी है जो किसी एक देश की अर्थव्यवस्था से नहीं बल्कि यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्था से जुड़ी करेंसी है। 

EUR INR का कॉन्ट्रैक्ट करीब-करीब वैसा ही है जैसे USD INR का कॉन्ट्रैक्ट होता है। इससे जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियों पर नजर डालते हैं 

विवरण EUR INR टिप्पणी
लॉट साइज € 1,000 इक्विटी डेरिवेटिव में लॉट साइज शेयरों की संख्या बताता है लेकिन यहां ये यूरो मे एक रकम होती है
अंडरलाइंग 1 EUR की भारतीय रूपए में कीमत
टिक साइज 0.25 पैसे या रूपयों में कहें तो INR 0.0025
ट्रेडिंग का समय सोमवार से शुक्रवार 9:00 AM से 5:00 PM
एक्सपायरी साइकिल 12 महीने तक का कॉन्ट्रैक्ट ध्यान दें कि इक्विटी डेरिवेटिव में 3 महीने तक की एक्सपायरी होती है 
ट्रेडिंग का अंतिम दिन महीने के अंतिम कारोबारी दिन से दो दिन पहले दोपहर 12:30 PM तक, इक्विटी डेरिवेटिव में एक्सपायरी के दिन  3:30 PM तक ट्रेड कर सकते हैं
सेटेलमेंट का अंतिम दिन महीने का अंतिम कारोबारी दिन
मार्जिन SPAN + Exposure आमतौर पर SAPN करीब 1.5%, और एक्सपोजर करीब 1%, होता है, इसलिए कुल मार्जिन करीब 2.5% होती है
सेटलमेंट कीमत अंतिम सेटेलमेंट के दिन का RBI रेफरेंस रेट  स्पॉट की क्लोजिंग कीमत

 

तो जैसा आप देख सकते हैं कि यह लगभग USD INR जैसा ही है। अंतर सिर्फ यह है कि EUR INR का लॉट साइज 1000 (यूरो) का है USD INR की तरह $1000 का नहीं। 

आइए देखते हैं कि इसकी वजह से मार्जिन पर क्या असर पड़ेगा। EUR INR के फ्यूचर का चित्र आप नीचे देख सकते हैं 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि इस कॉन्ट्रैक्ट का लास्ट ट्रेडेड प्राइस (LTP/Last Traded Price) 74.8950 है। इसके सहारे हम कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू निकाल सकते हैं।

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = लॉट साइज * कॉन्ट्रैक्ट कीमत

= 1000 * 74.8950 

= 74,895.0

अगर हम यह मान लें कि मार्जिन करीब 2.5% है तो यह मार्जिन करीब 1870 होना चाहिए। आप चाहें तो ज़ेरोधा के मार्जिन कैलकुलेटर का भी इस्तेमाल कर सकते हैं जिससे आपको सही मार्जिन पता चल जाएगी।

तो इसकी मार्जिन USD INR पेयर से कुछ ज्यादा है। लेकिन इक्विटी के डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट में लगने वाली मार्जिन के मुकाबले यह तब भी काफी कम है। 

GBP INR

हमारे देश में USD INR  के कॉन्ट्रैक्ट के बाद जिस कॉन्ट्रैक्ट में सबसे ज्यादा कारोबार होता है वह शायद GBP INR का कॉन्ट्रैक्ट है। इस कॉन्ट्रैक्ट में ज्यादातर चीजें वैसी ही है जैसी कि USD INR  के कॉन्ट्रैक्ट में होती हैं और यहां पर भी सिर्फ लॉट साइज और अंडरलाइंग का फर्क है। यहां पर अंडरलाइंग 1 GBP का एक्सचेंज रेट है और लॉट साइज 1000 पाउंड का है। कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू करीब करीब 89,345 का होगा, क्योंकि 5 अगस्त 2016 को फ्यूचर में ये 89.3450 पर ट्रेड हो रहा था।

तो जैसा आप नीचे देख सकते हैं इसके लिए मार्जिन भी थोड़ा ज्यादा है 

एक मजेदार बात जो आपको जानना चाहिए वो ये है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में GBP USD पेयर को केबल (cable) भी कहा जाता है। अगर आप किसी करेंसी ट्रेडर को केबल शॉर्ट करने के बारे में कहते सुने तो समझ जाइए कि वह GBP USD को शॉर्ट कर रहा है।

JPY INR

JPY INR का कॉन्ट्रैक्ट दूसरी किसी भी करेंसी कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले अलग है। इसमें लॉट साइज 1000 यूनिट का नहीं होता बल्कि 100000 यूनिट का होता है। यहां पर अंडरलाइंग 100 जापानी येन का एक्सचेंज रेट होता है। 

तो जब हम इस चित्र को देखते हैं 

तो हम 100 येन के रेट को देख रहे हैं जिसे भारतीय रुपए में दिखाया जा रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो, 100 जापानी येन खरीदने के लिए हमें 66.2750 रुपए खर्च करने पड़ेंगे। चूंकि लॉट साइज 100,000 का है तो यहां कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी 

= (100,000 * 66.2750) / 100

= 66275

एक पिप की चाल पर इसका P&L  होगा 0.0025 * 1000 =₹ 2.5 ध्यान दें कि सभी INR पेयर के लिए ये P&L  यही है यानी एक जैसा ही है। 

JPY INR के लिए मार्जिन होगा 2808 रुपए जो कि करीब 4.2% बनता है।

तो इस तरह से JPY INR कॉन्ट्रैक्ट का मार्जिन करेंसी सेगमेंट में सबसे ज्यादा होता है और मेरे हिसाब से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह सबसे ज्यादा वोलेटाइल कॉन्ट्रैक्ट है (क्योंकि इसमें लिक्विडिटी काफी कम होती है)। आप चाहें तो एक्सेल में JPY INR की वोलैटिलिटी पता कर सकते हैं। 

इन सभी करेंसी पेयर के स्प्रेड कॉन्ट्रैक्ट हर एक्सपायरी के लिए एक्सचेंज पर उपलब्ध हैं। आप नीचे NSE की वेबसाइट से लिया गए इस चित्र में इन्हें देख सकते हैं 

लेकिन जैसा आप देख सकते हैं कि USD INR के अलावा बाकी कोई भी स्प्रेड कॉन्ट्रैक्ट लिक्विड नहीं हैं मतलब उसमें लिक्विडिटी कम है। 

अगर आप कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करने के लिए उसकी लिक्विडिटी देख रहे हैं तो मेरी सलाह यह होगी कि आप इस लिस्ट के आधार पर अपनी प्राथमिकता तय करें –

  1. USD INR फ्यूचर्स
  2. USD INR  ATM ऑप्शन्स
  3.  GBP INR फ्यूचर्स
  4. EUR INR फ्यूचर्स
  5. JPY INR फ्यूचर्स

अब मुझे उम्मीद है कि आपको करेंसी ट्रेडिंग से जुड़ी हुई ज्यादातर जानकारी मैंने दे दी है, अब हम ट्रेडिंग से जुड़े हुए कुछ तरीकों पर चर्चा करेंगे

6.2 – सीजनैलिटी का टेस्ट (क्या करेंसी ट्रेड का मौसम होता है)

करेंसी के बाजार में बहुत बार इस बात पर चर्चा होती है कि इस कारोबार में सीजन आते रहते हैं यानी तय वक्त पर ये बाजार एक तय तरीके से काम करता है। कहते हैं कि इसमें आप इन सीजन के हिसाब से ट्रेड कर सकते हैं। जैसे बाजार में बहुत सारे लोग ये बात करते हैं कि USD INR दिसंबर में नीचे जाता है या USD INR हमेशा एक्सपायरी के एक हफ्ते पहले ऊपर जाता है। बहुत सारे लोग अपने ट्रेड इन बातों के आधार पर करते हैं और ये जानने की कोशिश भी नहीं करते हैं कि सीजन के बारे में यह कथन सही है या नहीं। इसीलिए मुझे लगा कि हमें करेंसी के सीजनैलिटी (Seasonality) के बारे में थोड़ी चर्चा करनी चाहिए और इसको जांच भी लेते हैं। इसे जांचने के लिए हम हमने USD INR  के स्पॉट डेटा को लिया है। 

** चेतावनी **

अब जो चर्चा हम करेंगे वह तकनीकी चर्चा होगी, यह शायद Varsity के आम पाठक के लिए नहीं है। अगर आप इस बात का सीधा जवाब जानना चाहते हैं कि क्या करेंसी में ट्रेडिंग के अलग अलग मौसम होते हैं यानी क्या सीजनैलिटी होती है तो इसका सीधा जवाब है कि ऐसा कोई सीजन नहीं होता। इसके बाद, आप चाहें तो आप सीधे अध्याय के अगले अगले हिस्से पर जा सकते हैं। लेकिन अगर आप आंकड़ों से प्यार करते हैं तो आप आगे पढ़िए और मैं आपको समझाने और इसे छोटा रखने की पूरी कोशिश करूंगा।

इस विषय को पाठकों तक पहुंचाने के लिए मुझे अपने अच्छे दोस्त प्रकाश को धन्यवाद भी देना है। इस हिस्से से जुड़े किसी भी सवाल के लिए आप उसे prakash.lekkala@ gmail.com पर लिख सकते हैं। 

किसी भी टाइम सीरीज की सीजनैलिटी को पता करने के लिए होल्ट विंटर टेस्ट (Holt Winters test) का इस्तेमाल किया जाता है जो कि एक सांख्यिकीय टेस्ट है। आमतौर पर Holt Winters मेथड यानी प्रणाली में 3 हिस्से होते हैं

  • लेवल 
  • ट्रेंड  
  • सीजनैलिटी 

लेवल – इस सूचकांक में USD INR में हुए औसत बदलाव को YoY यानी वर्ष दर वर्ष तौर देखा जाता है

ट्रेंड  – इस सूचकांक में USD INR में महीने दर महीने हुए औसत बदलाव को नापा जाता है

सीजनैलिटी – यह सूचकांक कीमत पर सीजन की वजह से हुए बदलाव को नापता है, उदाहरण के तौर पर, USD INR में हमेशा जनवरी में तेजी आती है, हमेशा अप्रैल में गिरावट आती है, जैसी बातें।

इन तीनों हिस्सों को ले कर दो स्थितियां बन सकती हैं-

  • एडिटिव (Additive) यानी जोड़ वाला
  • मल्टीप्लिकेटिव (multiplicative) यानी गुणा वाला

लेकिन मुझे लगता है कि ये चर्चा यहां जरूरी नहीं है।

सीजनैलिटी के लिए होल्ट विंटर टेस्ट (Holt-Winters test for seasonality) :

होल्ट विंटर टेस्ट में किसी भी टाइम सीरीज की सीजनैलिटी का पता लगाने के लिए अनुमान का एक मॉडल तैयार किया जाता है (मान लीजिए मॉडल 1) और फिर उसके नतीजों को देखा जाता है। मॉडल 1 में सीजनैलिटी का हिस्सा नहीं होता है। इसके बाद, एक और मॉडल बनाया जाता है जिसमें सीजनैलिटी को रखा जाता है और फिर इस मॉडल की गलतियों यानी ERROR को देखा जाता है।

हम दोनों मॉडल की गलतियों (ERROR) की तुलना करते हैं और फिर देखते हैं कि क्या हमें मॉडल 2 से मॉडल 1 के मुकाबले में बेहतर अनुमान मिल रहा है। इसके लिए हम ‘Chi Square’ टेस्ट का इस्तेमाल करते हैं तब पता चलता है कि किसमें सही नतीजे मिल रहे हैं। अगर म़ॉडल 2 में मॉडल 1 के मुकाबले बेहतर अनुमान मिलते हैं तो ये माना जाता है कि आंकड़ों में कुछ सीजनैलिटी का असर है। लेकिन अगर दोनों मॉडल में एक जैसे नतीजे मिलते हैं या मॉडल 1 में बेहतर नतीजे मिल रहे हों तो मान लिया जाता है कि कोई सीजनैलिटी नहीं है।

USD INR में सीजनैलिटी का नतीजा

साप्ताहिक सीजनैलिटी के लिए जांच 

मॉडल 1 (सीजनैलिटी के हिस्से के बगैर) – सबसे अच्छा मॉडल वो है (M,N,N) जिसका को एफिशिएंट 0.9999 है 

यह मॉडल बताता है कि साप्ताहिक डेटा में सिर्फ लेवल का हिस्सा होता है और ट्रेंड का हिस्सा नहीं होता। यहां लेवल का कोएफिशिएंट 0.9999 है मतलब अगले हफ्ते की कीमत इस हफ्ते की कीमत से 0.9999 गुना होगी 

जो पाठक रैंडम वॉक थ्योरी (Random Walk theory) के बारे में जानते हैं, वह इस को अच्छे से समझ सकेंगे। यह मॉडल हमें बता रहा है कि साप्ताहिक तौर पर USD INR की कीमत रैंडम वॉक के आधार पर चलती है। 

मॉडल 2 (सीजनैलिटी के हिस्से के साथ) – सबसे अच्छा मॉडल (M,N,M) वह है जिसका कोएफिशिएंट 0.7 और 0.0786 है। 

यह मॉडल बताता है कि इस साप्ताहिक डेटा में लेवल भी है और सीजनैलिटी भी है। यह मॉडल बताता है कि अगले हफ्ते की कीमत इस हफ्ते की कीमत का 0.7 गुना होगी और बाकी बचा हुआ हिस्सा सीजनैलिटी से आएगा। 

निष्कर्ष –  ‘Chi Square’ टेस्ट बताता है कि यहां 100% संभावना है कि मॉडल 2 और मॉडल 1 एक जैसे ही परिणाम दें, इसका मतलब यह हुआ कि USD INR में सीजनैलिटी का मॉडल लगाने से परिणाम बेहतर नहीं हो रहे हैं।

ऐसा तभी होता है जबकि डेटा में कोई सीजनैलिटी ना हो। क्योंकि यह डेटा साप्ताहिक एनालिसिस के लिए निकाला गया है इसलिए माना जा सकता है कि वीकली यानी साप्ताहिक तौर पर डेटा में कोई सीजनैलिटी नहीं होती। 

मंथली यानी मासिक सीजनैलिटी –

मॉडल 1 – सबसे बढ़िया मॉडल वो है (A,N,N) जिसका कोएफिशिएंट 0.9999 है 

वीकली डेटा की तरह, मंथली डेटा भी यही बताता है कि यह एक रैंडम वॉक है 

मॉडल 2 – इसमें सबसे बढ़िया वह मॉडल (A,N,A) है जिसका कोएफिशिएंट 0.9999 और 0.0001 है 

यह मॉडल दर्शाता है कि अगले माह की क्लोजिंग कीमत करीब करीब उतनी होगी जितनी इस महीने की क्लोजिंग कीमत है, और इसमें थोड़ा सा सीजनैलिटी का असर दिख रहा है। 

निष्कर्ष – ‘Chi Square’ टेस्ट बताता है कि करीब 20% संभावना यह है कि मॉडल 2 के परिणाम मॉडल 1 से ज्यादा सही हों। सांख्यिकी आधार पर देखें तो ऐसे बेहतर नतीजे रैंडमनेस की वजह से हो सकते हैं, जैसे कि, आपने कौन सा समय अवधि चुना है या कौन सा डेटा लिया है। 

आमतौर पर सांख्यिकी में यह माना जाता है कि मॉडल 2 के नतीजे को मॉडल 1 से बेहतर मानने के लिए 95% संभावना होनी चाहिए , तभी ये कहा जा सकता है कि इसमें सीजनैलिटी का असर है। इसका मतलब है कि USD INR में मंथली स्तर पर भी कोई सीजनैलिटी नहीं होती। 

इस जांच के लिए RBI की वेबसाइट से USD INR का पिछले 8 साल का डेटा लिया गया है। 

तो अब अगर आप किसी को यह कहता सुनें कि USD INR हमेशा क्रिसमस के पहले गिर जाता है तो आप जानते हैं कि उसकी बातों में कोई तथ्य नहीं है।

6.3 – क्लासिक टेक्निकल एनालिसिस 

किसी कंपनी के बारे में फंडामेंटल एनालिसिस करने पर हम क्या करते हैं, मान लीजिए हिंदुस्तान लीवर के लिए, हम पहले उसके बिजनेस के बारे में जानते हैं, फाइनेंशियल स्टेटमेंट देखते हैं, कॉरपोरेट गवर्नेंस देखते हैं और कौन सी कंपनियां से उसका मुकाबला है उनको देखते हैं, फिर उसके आधार पर एक फाइनेंशियल मॉडल बनाते हैं और तब यह तय करते हैं कि यह स्टॉक निवेश करने लायक है या नहीं। तो फंडामेंटल एनालिसिस सीधा सादा रास्ता होता है। लेकिन जब किसी करेंसी पेयर में निवेश की बात आती है, उदाहरण के लिए मान लीजिए USD INR  में, तो फंडामेंटल एनालिसिस में बहुत सारे आयाम जुड़ जाते हैं, USA की अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है, वहां के घरेलू हालात कैसे हैं, दुनियाभर के हालात कैसे हैं, उनका USA की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा, भारत की अर्थव्यवस्था के क्या हाल हैं, उसमें कौन सी चीजें हो रही हैं, घरेलू स्तर पर क्या-क्या हो रहा है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कौन सी चीजें हैं जो भारत पर असर डाल सकती हैं, आपको इन सब को समझना होगा और उन सब के असर को भी समझना होगा, उसके बाद ही कोई विचार आप बना सकते हैं। 

तो सच बात तो यह है कि यह आसान काम नहीं है और बहुत सारे लोग इसे नहीं कर सकते। आप अगर ट्रेडर हैं तो आपके पास एक अर्थशास्त्री का दिमाग होना चाहिए तभी आप फंडामेंटल एनालिसिस ठीक से करके करेंसी पेयर में ट्रेड कर पाएंगे। शायद यही वजह है कि करेंसी के बाजार में ज्यादातर लोग टेक्निकल एनालिसिस को ज्यादा पसंद करते हैं। शायद आपको पता हो टेक्निकल एनालिसिस में एक कीमत का अनुमान लगाया जाता है जो कि स्क्रीन पर दिख रहे कीमतों के आधार पर और बाजार में जितनी भी तरह की जानकारी मौजूद है, चाहे वह फंडामेंटल एनालिसिस ही क्यों ना हो, सब को जोड़ते हुए एक कीमत का अनुमान लगाया जाता है। इस अनुमान के आधार पर आप चार्ट की एनालसिस करते हैं और एक राय बनाते हैं। 

करेंसी और कमोडिटी में भी टेक्निकल एनालिसिस वैसे ही काम करती है जैसे यह इक्विटी में काम करती है। अगर आपको नहीं पता कि टेक्निकल एनालिसिस क्या होती है और कैसे काम करती है तो आपको टेक्निकल एनालिसिस से जुड़ा हमारा मॉड्यूल जरूर पढ़ना चाहिए। 

अब एक नजर डालिए टेक्निकल एनालिसिस के आधार पर तय किए गए कुछ एक ट्रेड पर

यहां घेर कर दिखाए गए दो कैंडलस्टिक पैटर्न वो हैं जिन्हें पियर्सिंग पैटर्न कहा जाता है। यह पैटर्न सुझाव देता है कि ट्रेडर को USD INR के पेयर में लॉन्ग जाना चाहिए। जैसा कि आप देख सकते हैं कि यह ट्रेड बहुत अच्छे तरीके से चला। यहां पर कोई स्टॉप लॉस भी ट्रिगर नहीं हुआ।

अब GBP INR  के बेयरिश मारूबोजू पर नजर डालिए। 

ये बेयरिश मारूबोजू आपको सलाह देता है कि आप उस अंडरलाइंग पर शॉर्ट जाएं और उम्मीद करें कि यह नीचे की ओर जाता रहेगा। 

इस तरह के और बहुत सारे उदाहरण हो सकते हैं। मुझे पता है कि बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि करेंसी और कमोडिटी में ट्रेड करने के लिए आपको दूसरे तरीके की टेक्निकल एनालिसिस की जरूरत होती है। लेकिन यह सच नहीं है। टेक्निकल एनालिसिस एकदम उसी तरीके से काम करती है। उसको एक टाइम सीरीज का डाटा चाहिए होता है चाहे वह स्टॉक का हो, कमोडिटी का हो, करेंसी का हो या फिर बॉन्ड का हो। 

इसके साथ ही अब करेंसी पर अपनी इस चर्चा को यहीं खत्म करते हैं। अब मैं इसके अगले हिस्से यानी कमोडिटी ट्रेडिंग की तरफ अगले अध्याय से बढ़ूंगा।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. EUR INR का अंडरलाइंग भारतीय रुपए में 1 यूरो के स्पॉट रेट के बराबर होता है।
  2. EUR INR का लॉट साइज 1000 यूरो का होता है। 
  3. GBP INR का अंडरलाइंग 1 GBP का स्पॉट रेट रेट होता है (भारतीय रूपए में)। GBP INR का कॉन्ट्रैक्ट भारतीय करेंसी बाजार में बिकने वाला दूसरा सबसे बड़ा कॉन्ट्रैक्ट है। 
  4. GBP INR का लॉट साइज 1000 पाउंड होता है। 
  5. GBP USD के पेयर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर केबल भी कहते हैं।
  6. JPY INR का मार्जिन सबसे ज्यादा होता है शायद इसलिए क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा वोलैटिलिटी भी होती है। 
  7. JPY INR का लॉट साइज 100000 का होता है।
  8. JPY INR का अंडरलाइंग 100 जापानी येन के एक्सचेंज रेट के बराबर होता है। 
  9. लोगों को भले ही लगता हो कि USD INR में सीजन के हिसाब से ट्रेड कर सकते हैं लेकिन ऐसा कोई सीजन नहीं होता है, ना तो मासिक तौर पर और ना ही साप्ताहिक तौर पर।
  10. करेंसी में भी टेक्निकल एनालसिस का इस्तेमाल उसी तरीके से किया जा सकता है जैसे स्टॉक्स में किया जाता है।

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डॉलर-रूपया पेयर – भाग 2 https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a1%e0%a5%89%e0%a4%b2%e0%a4%b0-%e0%a4%b0%e0%a5%82%e0%a4%aa%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a4%b0-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-2/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a1%e0%a5%89%e0%a4%b2%e0%a4%b0-%e0%a4%b0%e0%a5%82%e0%a4%aa%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a4%b0-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-2/#comments Fri, 03 Apr 2020 05:36:11 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=7309 5.1 – फ्यूचर्स कैलेन्डर स्प्रेड  अगर बाकी चीजें स्थिर रहें तो, फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट हमेशा स्पॉट के मुकाबले प्रीमियम पर चलना चाहिए। जैसा कि हम जानते हैं कि ऐसा फ्यूचर्स प्राइसिंग फार्मूले (Futures Pricing Formula) में इंटरेस्ट रेट (Cost of carry/कॉस्ट ऑफ कैरी) के प्रभाव की वजह से होता है। हमने पहले फ्यूचर्स के मॉड्यूल में […]

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5.1 – फ्यूचर्स कैलेन्डर स्प्रेड 

अगर बाकी चीजें स्थिर रहें तो, फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट हमेशा स्पॉट के मुकाबले प्रीमियम पर चलना चाहिए। जैसा कि हम जानते हैं कि ऐसा फ्यूचर्स प्राइसिंग फार्मूले (Futures Pricing Formula) में इंटरेस्ट रेट (Cost of carry/कॉस्ट ऑफ कैरी) के प्रभाव की वजह से होता है। हमने पहले फ्यूचर्स के मॉड्यूल में इस पर चर्चा की है। इस समीकरण में थोड़ा सा भी बदलाव आर्बिट्राज का एक मौका पैदा करता है। 

एक बार फिर से जल्दी से कुछ चीजों को दोहरा लेते हैं। इसके लिए, एक ऐसी स्थिति की चर्चा करते हैं जहां पर स्पॉट और फ्यूचर के बीच में आर्बिट्राज का एक मौका बन रहा है – 

फ्यूचर में कीमतें नीचे हैं – मान लीजिए कि स्पॉट कीमत 100 है और फ्यूचर में इसकी सही कीमत (Fair Value) 105 है। फ्यूचर की फेयर वैल्यू निकालने के लिए फ्यूचर प्राइसिंग फार्मूले का इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर स्पॉट और फ्यूचर के बीच का अंतर फ्यूचर के फेयर वैल्यू के बराबर हो यानी 105 – 100 = 5 हो, तो उसे नो आर्बिट्राज स्प्रेड (No Arbitrage Spread) कहते हैं मतलब वहां आर्बिट्राज का कोई मौका नहीं होता है। 

लेकिन मान लीजिए किसी वजह से फ्यूचर 98 पर ट्रेड कर रहा है इसकी वजह से फ्यूचर और स्पॉट के बीच में 7 (105 – 98) का अंतर है जिसका फायदा उठाया जा सकता है। 

आपको करना बस यह है कि फ्यूचर में 98 पर खरीदना है और साथ ही, स्पॉट में 100 पर बेच दीजिए। हमें पता है कि एक्सपायरी के समय पर फ्यूचर और स्पॉट एक जगह पर आकर मिल जाएंगे और यह अंतर गायब हो जाएगा। 

अगर आपको यह ठीक से नहीं समझ में आया है तो मैं आपको सलाह दूंगा कि आप जाकर फ्यूचर मॉड्यूल को फिर से पढ़िए।

इसी तरह, अगर फ्यूचर ऊंची कीमत पर बिक रहा है (यानी अपनी फेयर वैल्यू से ऊपर) तो आप इस स्प्रेड का फायदा उठा सकते हैं फ्यूचर में बेचकर और स्पॉट में खरीद कर। 

यह सब हम पहले भी सीख चुके हैं और यह काफी सीधा सादा है। लेकिन जब बात USD INR की आती है तो स्पॉट और फ्यूचर में आर्बिट्राज के ऐसे ट्रेड नहीं किए जा सकते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि USD INR का स्पॉट बाजार आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं होता है। 

तो फिर करेंसी बाजार में स्प्रेड का ट्रेड कैसे किया जाता है? ये काफी आसान है, यहां स्पॉट और फ्यूचर का स्प्रेड तो नहीं होता लेकिन यहां पर दो अलग-अलग एक्सपायरी वाले फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट, जो कि अलग-अलग दिनों पर खत्म हो रहे हैं, उनके बीच में स्प्रेड होता है और इसे कैलेंडर स्प्रेड कहा जाता है। 

कैलेंडर स्प्रेड में आपको यह देखना होता है कि दो फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के बीच में जो स्प्रेड है वह साधारण है या वहां पर मौका है। अगर बाकी सारी चीजें स्थिर हैं तो आमतौर पर लंबी दूरी के फ्यूचर (लांग डेटेड फ्यूचर / Long dated Future) कॉन्ट्रैक्ट हमेशा कम दूरी वाले (शॉर्ट टर्म डेटेड / Short term dated) फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले प्रीमियम पर होते हैं। उदाहरण के लिए अगस्त महीने का फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट आमतौर पर जुलाई महीने के फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले प्रीमियम पर बिकेगा। इसलिए इन दोनों के बीच में जो थोड़ा सा स्प्रेड होता है उसे साधारण माना जाता है लेकिन कभी-कभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जब इन दोनों के बीच का स्प्रेड असाधारण (ज्यादा ऊंचा या नीचा) होता है। ऐसे में ही स्प्रेड ट्रेड करने का मौका आता है।

आज USD INR का जुलाई फ्यूचर 67.3075 पर बिक रहा है और अगस्त का 67. 6900 पर। 

इन दोनों कॉन्ट्रैक्ट के बीच का अंतर ही स्प्रेड है –

67.6900 – 67.3075

= 0.3825

अब कल्पना कीजिए कि किसी वजह से आपको ऐसा लगता है कि 0.3825 का स्प्रेड काफी ऊंचा है और आमतौर पर इसे 0.2000 होना चाहिए ना कि 0.3825 पर। इसका मतलब है कि यहां पर आपको आर्बिट्राज का एक मौका दिखाई दे रहा है और आप कमा सकते हैं –

0.3825 – 0.2000

= 0.1825

इस स्प्रेड का फायदा उठाने के लिए आपको जुलाई के फ्यूचर को खरीदना होगा और साथ ही अगस्त के फ्यूचर को बेचना होगा।

जुलाई का फ्यूचर लॉन्ग करेंगे 67.3075 पर 

अगस्त का फ्यूचर शॉर्ट करेंगे 67.6900 पर 

जब आप ऐसा सौदा करते हैं जहां आप मौजूदा एक्सपायरी वाले को कॉन्ट्रैक्ट को लॉन्ग कर रहे हो और दूर की एक्सपायरी वाले  कॉन्ट्रैक्ट को शार्ट कर रहे हों तो इसे फ्यूचर बुल स्प्रेड (Future Bull Spread) कहा जाता है इसी तरीके से फ्यूचर बेयर स्प्रेड (Future Bear Spread) तब होता है जब आप मौजूदा महीने की एक्सपायरी को शॉर्ट कर रहे हो और दूर के महीने की एक्सपायरी को लॉन्ग कर रहे हों। 

तो आपने फ्यूचर बुल स्प्रेड बना लिया, अब आपको करना यह है कि अपने इस ट्रेड पर नजर रखनी है और जैसे ही यह स्प्रेड 0.2000 या उससे नीचे पहुंचे तो वहीं पर इस सौदे को क्लोज कर दें। आपको फायदा होगा जब इनमें से कोई एक स्थिति बनेगी-

  1. जब जुलाई (यानी ट्रेड का लॉन्ग हिस्सा) बढ़ेगा और अगस्त (यानी ट्रेड का शॉर्ट हिस्सा) गिरेगा 
  2. जब लॉन्ग हिस्सा बढ़ेगा और शॉर्ट हिस्सा में कोई बदलाव नहीं होगा 
  3. जब लॉन्ग हिस्सा बढ़ेगा और शॉर्ट हिस्सा भी बढ़ेगा लेकिन कम रफ्तार से 
  4. जब शॉर्ट हिस्सा लॉन्ग हिस्से के मुकाबले ज्यादा तेजी से गिरेगा 
  5. जब लॉन्ग हिस्सा स्थिर रहेगा और शॉर्ट हिस्सा गिरेगा 

क्या स्प्रेड आगे जा कर converge करेगा या आपस में मिलेगा? अगर हां तो यह कब मिलेगा? और यह क्यों मिलेगा? क्या उपर बताई गयी स्थितियों में से कोई स्थिति बनेगी? इन सारे सवालों का जवाब इस पर निर्भर करता है कि आप स्प्रेड को कितने अच्छे से समझते हैं, और स्प्रेड को अच्छे तरीके से समझने के लिए आपको इसकी बैक टेस्टिंग करनी होगी यानी इसे पीछे के डेटा से जांचना होगा। बैक टेस्टिंग पर हम बाद में कभी चर्चा करेंगे, अभी मैं आपको यह दिखाऊंगा कि अपने ट्रेडिंग टर्मिनल से किसी भी स्प्रेड को खरीदना या बेचना कितना आसान होता है।

5.2 – स्प्रेड को पूरा करना

अगर आप स्प्रेड को सीधे बेच या खरीद सकें तो कैसा हो? ऊपर के उदाहरण में हमने देखा कि 0.3825 पर ज्यादा कीमत की वजह से एक स्प्रेड बन रहा था, इस स्प्रेड का फायदा उठाने के लिए आपको दो ऑर्डर देने पड़ेंगे जुलाई का फ्यूचर खरीदना होगा और अगस्त का फ्यूचर बेचना होगा। 

इन दोनों ऑर्डर को एक साथ जल्दी-जल्दी करने के कुछ मुश्किलें भी हैं, जब तक आप बेचने और खरीदने, दोनों के ऑर्डर डालेंगे तब तक कॉन्ट्रैक्ट की कीमत ऊपर या नीचे हो सकती है और यह स्प्रेड कम या पूरी तरह से खत्म हो सकता है। 

इसलिए यह ज्यादा अच्छा होगा अगर आप सीधे स्प्रेड को ही खरीद सकें और दो अलग-अलग कॉन्ट्रैक्ट से आपको ना जूझना पड़े। अगर आप जेरोधा के कस्टमर हैं तो आपको नेस्ट ट्रेडर (Nest Trader) का उपयोग करने को मिलता है जिससे आप सीधे स्प्रेड में सौदा कर सकते हैं। आगे जाते हुए यह आपको पाई (Pi) और काईट (Kite) में भी मिलेगा। 

नीचे के कुछ चित्रों में आपको दिखाया गया है कि आप स्प्रेड में सीधे सौदे कैसे कर सकते हैं।

लाल रंग से हाईलाइट किए गए हिस्से को देखिए। जैसा कि आपको समझ में आ ही रहा होगा कि यह मार्केटवॉच में से लिया गया चित्र है। बाएं तरफ से शुरू करें तो – 

  1. सबसे पहले हमें ड्रॉप डाउन से स्प्रेड को चुनना होगा जो कि बताएगा कि हम स्प्रेड में ट्रेड करना चाहते हैं
  2. स्प्रेड को चुनने के बाद हम CDS (सीडीएस) चुनते हैं जो यह बताता है कि ये करेंसी डेरिवेटिव का सेगमेंट है 
  3. FUTCUR बताता है कि इस CDS स्प्रेड में हमें फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को खरीदना या बेचना है 
  4. USD INR बताता है कि हम रुपए और डॉलर के कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करना चाहते हैं
  5. पूरा dropdown-menu भी यहां दिख रहा है जिसमें सभी उपलब्ध स्प्रेड दिखाए गए हैं लेकिन हमें सिर्फ जुलाई और अगस्त के स्प्रेड में ही रूचि है तो हम उसी को चुनेंगे।

जब एक बार हम यह मार्केट वॉच में सब कुछ चुन लेते हैं तो हमें इसको सबमिट (Submit) करना होता है जिससे कि स्प्रेड लोड (Load) हो जाए, इसके बाद यह ऐसा दिखता है

मैंने स्प्रेड के अंतिम ट्रेडेड कीमत यानी लास्ट ट्रेडेड प्राइस (LTP) को हाईलाइट किया है, जैसा कि आप देख सकते हैं यह स्प्रेड इंस्ट्रूमेंट सिर्फ जुलाई और अगस्त के कॉन्ट्रैक्ट के बीच के स्प्रेड को दिखा रहा है। 

लेकिन हमारे हिसाब से तो स्प्रेड को 0.3825 होना चाहिए था ना कि 0.3700 पर। तो फिर कीमत में ये अंतर क्यों है 

मैं इस अंतर को अपनी समझ के हिसाब से आपको समझाता हूं, लेकिन हो सकता है कि मैं गलत हूं, लेकिन फिर भी मैं कोशिश करता हूं। साथ ही, मैं अपने मुख्य विषय (स्प्रेड में ट्रेड कैसे करें) से हट रहा हूं लेकिन उसे भूलना नहीं है, अभी नीचे के चित्र पर नजर डालिए 

इस मार्केट वॉच में जुलाई, अगस्त और जुलाई- अगस्त के स्प्रेड कॉन्ट्रैक्ट को दिखाया गया है। 

कुछ देर के लिए स्प्रेड कॉन्ट्रैक्ट को भूल जाइए और यह मान लीजिए कि आप फ्यूचर बुल स्प्रेड (जुलाई को खरीदना और अगस्त को बेचना) कॉन्ट्रैक्ट में सौदा करना चाहते हैं इसका मतलब है कि 

जुलाई कॉन्ट्रैक्ट को 67.3100 के आस्क रेट पर खरीदें 

अगस्त कॉन्ट्रैक्ट को 67.6775 के बिड रेट पर बेचें

स्प्रेड = 67.6775 – 67.3100 = 0.3675

अब अगर आप को फ्यूचर बेयर स्प्रेड बनाना है तो –

अगस्त कॉन्ट्रैक्ट को 67.6850 के आस्क रेट पर खरीदें 

जुलाई कॉन्ट्रैक्ट को 67.3075 के बिड रेट पर बेचें

स्प्रेड = 67.6850 – 67.3075 = 0.3775

तो जैसा कि आप देख सकते हैं यहां पर एक नहीं बल्कि दो स्प्रेड बन सकते हैं, फ्यूचर बुल / बेयर स्प्रेड दोनों। अब आपको यह तय करना है कि आप फ्यूचर बुल स्प्रेड चाहते हैं या फिर फ्यूचर बेयर स्प्रेड। 

अब सवाल यह है कि मार्केट वॉच में आपके लिए स्प्रेड की कौन सी कीमत दिखाई जाए, फ्यूचर बुल स्प्रेड की या फिर फ्यूचर बेयर स्प्रेड की। 

मेरा अनुमान है कि इस सौदे में दोनों स्प्रेड के औसत को दिखाया गया है। इस उदाहरण में औसत 0.3725 है जबकि वास्तविक स्प्रेड है 0.3700 । अब ये 0.3700 क्यों है और 0.3725 क्यों नहीं, मुझे लगता है कि यहां पर सबसे नया वाला क्वोट (quote) टर्मिनल पर नहीं आया है या फिर इसमें अभी लिक्विडिटी नहीं है। 

वैसे यह भी हो सकता है कि इस स्प्रेड की कीमत ही गलत हो। 

खैर वापस लौटते हैं मुख्य विषय यानी स्प्रेड को खरीदने और बेचने पर। एक बार मार्केट वॉच में स्प्रेड लोड हो जाए तो आपको अपनी पसंद का इंस्ट्रूमेंट चुनना है और F1 या F2 दबाकर खरीद या बिक्री को पूरा करना है।  आप नीचे बाय ऑर्डर (BUY Order) के विंडो में यही देख सकते हैं – 


इस विंडो में सारी जानकारियां पहले से भरी हुई है बस आपको अपनी को क्वांटिटी यानी मात्रा अपने हिसाब से डालनी है और अपने आर्डर को सबमिट (submit) कर देना है। 

5.3 – USD INR के आंकड़े 

मुझे लगता है कि यहां USD INR के पेयर के बारे में कुछ आंकड़ों पर नजर डालना एक अच्छा अच्छा काम हो सकता है। इसलिए मैंने USD INR के स्पॉट डाटा को RBI की साइट से डाउनलोड किया है। 

सबसे पहले USD INR के लगभग 8 साल के लॉन्ग टर्म चार्ट पर नजर डालते हैं (जुलाई 2008 से जुलाई 2016)। 
साफ है कि यूएस डॉलर भारतीय रुपए के मुकाबले पिछले 8 सालों में मजबूत हुआ है। यह तो होना ही था, क्योंकि पिछले कुछ सालों में हमारी अर्थव्यवस्था एक जगह पर रुकी हुई है। अब एक नजर डालते हैं USD INR के डेली (हर दिन के) रिटर्न पर 

इस ग्राफ में कुछ महत्वपूर्ण चीजें देखने को मिलती है, USD INR का हर दिन का औसत रिटर्न करीबकरीब 0.025% है। इसने 1 दिन में अधिकतम रिटर्न  + 4.01%  दिया है,  जबकि इसने न्यूनतम रिटर्न  – 2.962% का दिया है। जब आप इसकी तुलना nifty50 के अधिकतम और न्यूनतम रिटर्न से करेंगे तो आपको दिखेगा कि निफ्टी ने अधिकतम रिटर्न + 3.81% का और न्यूनतम रिटर्न – 5.92% का दिया है, इससे आपको समझ में आएगा कि USD INR के पेयर में उठापटक निफ्टी के मुकाबले कम होती है। आप जब वोलैटिलिटी के आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो यह बात और साफ हो जाएगी – 

  1. डेली स्टैंडर्ड डेविएशन है -0.567% (पिछले 8 साल का)
  2. 2015 का डेली स्टैंडर्ड डेविएशन है -0.311% 
  3. एनुअलाइज स्टैंडर्ड डेविएशन 2015 के लिए है -4.94% 

यह सारे आंकड़े nifty50 के डेली वोलैटिलिटी और एनुअलाइज वोलैटिलिटी के आंकड़ों के मुकाबले, जो कि 0.82% और 15.71% है, उससे कम हैं। 

मैंने nifty50 के और USD INR के बीच में एक कोरिलेशन फंक्शन भी चला कर देखा, मैं आपको इसका नतीजा बताऊं इसके पहले अगर आप कोई एक अनुमान लगाना चाहे तो वो क्या होगा? 

आपमें से वो लोग जो कोरिलेशन के बारे में नहीं जानते हैं उनको मैं बता दूं 

दो अलग-अलग परिवर्तनशील राशियों के बीच का कोरिलेशन हमें यह बताता है कि वह दोनों एक दूसरे के मुकाबले किस तरह से चलते हैं कोरिलेशन -1 से +1 के बीच में होता है। उदाहरण के तौर पर अगर दो परिवर्तनशील राशियों के बीच में कोरिलेशन + 0.75% है तो ये हमें दो बातें बताता है –

  1. संख्या के पहले जो + (प्लस) का चिन्ह लगा है वह यह बताता है कि दोनों के बीच में एक पॉजिटिव संबंध है मतलब दोनों एक ही दिशा में चलते हैं 
  2. इसके बाद आने वाली संख्या हमें यह बताती है कि इस चाल की मजबूती कितनी है आमतौर पर यह आंकड़ा +1 (या – 1 ) के जितना करीब होता है उसका यह मतलब है कि दोनों राशियों के साथ साथ चलने की संभावना हैं 
  3. अगर को रिलेशन की संख्या 0 है तो इसका मतलब है कि दोनों राशियों में कोई संबंध नहीं है 

तो ऊपर की इस व्याख्या के बाद + 0.75 हमें बताता है कि दोनों राशियां एक ही दिशा में चलते हैं और दोनों काफी हद तक एक साथ चलते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कोरिलेशन हमें यह नहीं बताता कि यह चाल कितनी होगी ये बस यह बताता है कि चाल की दिशा क्या होगी। उदाहरण के तौर पर अगर स्टॉक ए 3% चलता है और स्टॉक ए और स्टॉक बी के बीच का कोरिलेशन + 0.75 है तो इसका मतलब यह नहीं है कि स्टॉक बी भी 3% चलेगा यह कोरिलेशन सिर्फ यह बताता है कि स्टॉक बी भी स्टॉक ए की तरह ऊपर की तरफ ही चलेगा

लेकिन एक बात और है जो आपको समझना चाहिए। मान लीजिए स्टॉक ए और स्टॉक बी के बीच में कोरिलेशन 0.75 का है, स्टॉक ए का और स्टॉक बी का औसत डेली रिटर्न 0.9% और 1.2% का है तो ये कहा जा सकता है कि अगर किसी दिन स्टॉक ए अपने दैनिक औसत यानी 0.9% के रिटर्न से ज्यादा चलता है तो स्टॉक बी भी अपने दैनिक औसत रिटर्न यानी 1.2% से ज्यादा चल सकता है। 

इसी तरीके से, -0.75 का को रिलेशन यह बताता है कि यह दोनों राशियां अलग-अलग दिशाओं में चलेंगे ( – चिन्ह यही बताता है)। मान लीजिए स्टॉक ए + 2.5% चलता है तो इस कोरिलेशन की वजह से स्टॉक बी नीचे की ओर जाएगा। लेकिन ये कितना नीचे जाएगा यह नहीं बता सकते। 

क्योंकि हम कोरिलेशन की बात कर रहे हैं इसलिए यहां पर एक और बात पर चर्चा कर लेते हैं, यह सिर्फ उन लोगों के लिए है जो कोरिलेशन के गणित को समझना चाहते हैं। कोरिलेशन का डाटा तभी काम आता है जब यह डाटा सीरीज अपने मीन के आसपास स्टेशनरी हो मतलब यह कि डेटा एवरेज यानी औसत मूल्यों के आसपास ही रहता हो, इसे ठीक से समझने के लिए USD INR के डेली रिटर्न के ग्राफ पर एक बार फिर से नजर डालिए – 
यहां डेली एवरेज रिटर्न यानी दैनिक औसत रिटर्न 0.025% है और अगर आप गौर से देखें तो डेली रिटर्न अपने मीन के आसपास ही है, इसका मतलब कि अगर यह रिटर्न बढ़ता है या घटता है तो यह फिर वापस अपनी औसत के आसपास आ जाता है। कोई भी ऐसा डेटा जो कि इस तरह की चाल दिखाता है उसे स्टेशनरी अराउंड द मीन (stationary around the mean) कहते हैं। स्टॉक, कमोडिटी, करेंसी आदि के रिटर्न आमतौर पर स्टेशनरी होते हैं लेकिन स्टॉक, कमोडिटी, करेंसी की कीमतें स्टेशनरी नहीं होती क्योंकि वह ऊपर या नीचे जाती रहती हैं। 

इस सिद्धांत को समझने में आपको थोड़ी मुश्किल हो सकती है। लेकिन आपको यहां पर जो बात याद रखनी है वह यह है कि जब भी आप कोरिलेशन की जांच करें तो ध्यान रखें कि आप इसे डेली रिटर्न के लिए चलाएं क्योंकि यही आम तौर पर स्टेशनरी होते हैं। अगर आप इसे डेली प्राइस यानी कीमत के लिए चलाएंगे तो यह सही नहीं होगा। 

किन्हीं दो राशियों के लिए कोरिलेशन निकालना बहुत आसान है, इसमें सिर्फ दो कदम होते हैं 

  1. उनका हर दिन का रिटर्न निकाले 
  2. माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल में ‘=Crrel’  फंक्शन का इस्तेमाल करें 

इसके बाद आप जैसे ही Enter दबाएंगे कोरिलेशन आपके सामने आ जाएगा।

याद रखिए कि स्टॉक ए और स्टॉक बी के बीच का कोरिलेशन वैसा ही होगा जैसे स्टॉक बी और स्टॉक ए के बीच में होगा इन में कोई अंतर नहीं होता। 

तो अब आपको कोरिलेशन के बारे में समझ में आ गया है। इसलिए मैं अपना सवाल दोबारा पूछ रहा हूं अगर आपको USD INR और  nifty50 के कोरिलेशन का अनुमान लगाना हो तो यह क्या होगा? इन दोनों के बीच कोरिलेशन पॉजिटिव है या फिर नेगेटिव ? 

इसको एक दूसरे तरीके से देखने की कोशिश करते हैं। हमें पता है कि बाजार अर्थव्यवस्था का हाल दिखाते हैं, अगर बाजार अच्छे चल रहे हैं तो बाजार में विदेशी निवेश आएगा। इसका मतलब है कि देश में डॉलर आ रहे हैं डॉलर आएंगे तो वो बिकेंगे और रुपए में बदलेंगे। इसका मतलब है कि डॉलर बिक रहे हैं और रुपया मजबूत हो रहा है। इसका यह भी मतलब है कि USD INR नीचे जाएगा जबकि nifty50 ऊपर जाएगा । यही तर्क उस समय भी चलेगा जब आप यह देखेंगे कि बाजार नीचे जा रहे हैं और USD INR ऊपर जा रहा है। 

इसका मतलब है कि nifty50 और USD INR एक दूसरे से विपरीत तरीके से कोरिलेटेड है। सच्चाई भी यही है, वास्तव में इन दोनों का कोरिलेशन का आंकड़ा है -0.12267 (2015 के आंकड़े के अनुसार) 

आप इस एक्सेलशीट  को यहां डाउनलोड download कर सकते हैं 

अगले अध्याय में हम USD INR  के अलावा दूसरी करेंसी कॉन्ट्रैक्ट को देखेंगे और साथ ही, करेंसी ट्रेडिंग में टेक्निकल एनालिसिस की भूमिका को भी समझेंगे। उसके साथ करेंसी से जुड़ी हमारी यह चर्चा खत्म हो जाएगी और हम आगे कमोडिटी की तरफ बढ़ेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. आमतौर पर मिलने वाला, फ्यूचर और स्पॉट के बीच का आर्बिट्राज करेंसी के रिटेल मार्केट के लिए मौजूद नहीं होता, इसलिए ट्रेडर आमतौर पर कैलेंडर स्प्रेड में कारोबार करते हैं। 
  2. कैलेंडर स्प्रेड में आप दो अलग-अलग एक्सपायरी के कॉन्ट्रैक्ट को साथ-साथ खरीदते और बेचते हैं।
  3. फ्यूचर बुल स्प्रेड तब होता है जब आप मौजूदा महीने या नियर मंथ के फ्यूचर को खरीदते हैं और दूर के महीने वाले या फरदर मंथ के एक्सपायरी वाले कॉन्ट्रैक्ट को बेचते हैं। 
  4. फ्यूचर बेयर स्प्रेड तब होता है जब आपने नियर मंथ के फ्यूचर को बेचते हैं और फार मंथ के एक्सपायरी को खरीदते हैं। 
  5. आप अपने टर्मिनल से स्प्रेड को सीधे खरीद या बेच सकते हैं इसको स्प्रेड कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं। 
  6. USD INR के पेयर की वोलैटिलिटी nifty50 के मुकाबले कम होती है।
  7. USD INR  और निफ्टी 50 एक दूसरे से विपरीत तरीके से कोरिलेटेड है यानी इन्वर्सली कोरिलेटेड हैं।

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