फ्यूचर्स ट्रेडिंग – Varsity by Zerodha https://zerodha.com/varsity/module/फ्यूचर्स-ट्रेडिंग/ Markets, Trading, and Investing Simplified. Mon, 14 Nov 2022 06:49:40 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.4.5 फिजिकल सेटेलमेंट पर जानकारी https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a4%b2-%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%95/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a4%b2-%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%95/#comments Mon, 27 Jul 2020 11:40:17 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=8570 13.1 – प्रस्तावना  अभी कुछ समय पहले तक भारत में इक्विटी फ्यूचर और ऑप्शन में जो ट्रेड होता था उसे कैश में सेटल किया जाता था। मतलब यह कि कॉन्ट्रैक्ट के एक्सपायर होने पर खरीदार और बिकवाल दोनों अपनी पोजीशन को कैश से सेटल करते थे और अंडरलाइंग सिक्योरिटी की डिलीवरी लेते या देते नहीं […]

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13.1 – प्रस्तावना 

अभी कुछ समय पहले तक भारत में इक्विटी फ्यूचर और ऑप्शन में जो ट्रेड होता था उसे कैश में सेटल किया जाता था। मतलब यह कि कॉन्ट्रैक्ट के एक्सपायर होने पर खरीदार और बिकवाल दोनों अपनी पोजीशन को कैश से सेटल करते थे और अंडरलाइंग सिक्योरिटी की डिलीवरी लेते या देते नहीं थे। 11 अप्रैल 2018 को सेबी (SEBI) ने एक सर्कुलर जारी किया जिसमें F&O के सभी कॉन्ट्रैक्ट के लिए स्टॉक की फिजिकल डिलीवरी की जरूरत को धीरे धीरे आवश्यक बनाने का ऐलान किया गया था। इसके जरिए ये कोशिश की गई कि बाजार में होने वाली सट्टेबाजी पर रोक लगाई जा सके और शेयरों में अतिरिक्त वोलैटिलिटी यानी उठा-पटक को रोका जा सके। 

13.2 – फिजिकल डिलीवरी क्या होती है?

इसका मतलब यह है कि F&O के सभी कॉन्ट्रैक्ट के खत्म होने पर उनकी अंडरलाइंग सिक्योरिटी की डिलीवरी लेनी या देनी होगी। अक्टूबर 2019 से सभी स्टॉक चाहे वो F&O के किसी भी कॉन्ट्रैक्ट में हो, उनके सेटलमेंट के लिए फिजिकल डिलीवरी को जरूरी कर दिया गया। 

इसको एक उदाहरण से समझते हैं, फिजिकल सेटलमेंट की शुरुआत के पहले, अगर आपने इस महीने एक्सपायर होने वाले SBI फ्यूचर्स का एक लॉट खरीदा था तो एक्सपायरी पर आपको कैश सेटेलमेंट करना होता और सेटलमेंट  कीमत के हिसाब से सिर्फ उतने रुपए आपके अकाउंट से निकल जाते या आ जाते थे। इस अध्याय में हमने इस बात पर चर्चा की है कि मार्क टू मार्केट सेटलमेंट कैसे काम करता है। लेकिन फिजिकल सेटलमेंट की परिस्थिति में अगर आपने अपनी पोजीशन को रोल ओवर या बंद नहीं किया तो फिर एक्सपायरी के समय आपको कॉन्ट्रैक्ट की कुल कीमत चुकानी होगी और बचे हुए शेयर आपके डीमैट एकाउंट में डिलीवर हो जाएंगे।

13.3 – फिजिकल सेटलमेंट को क्यों लागू किया गया?  

अगर कॉन्ट्रैक्ट को कैश में सेटल किया जा रहा है तो ट्रेडर को अपने अकाउंट में कॉन्ट्रैक्ट के लिए सिर्फ मार्जिन (स्पैन + एक्सपोजरSPAN +Exposure) को रखना जरूरी होता है। इस वजह से शॉर्ट करने वाले एक्सपायरी के आसपास बहुत ज्यादा शॉर्ट पोजीशन बनाते चले जाते हैं जिससे कीमत बहुत ज्यादा नीचे चली जाती है। जबकि फिजिकल सेटलमेंट में ट्रेडर्स को या तो स्टॉक बाजार से खरीदना होगा या फिर SLB मार्केट से उधार पर लेना होगा जिससे वह उस स्टॉक के डिलीवरी सामने वाले पार्टी को दे सके। ऐसा करने से कीमत में एक संतुलन आ जाता है और कीमत को तोड़ा मरोड़ा नहीं जा सकता। 

13.4 – पोजीशन सेटल कैसे की जाती है

एक्सपायरी पर अलग अलग F&O कॉन्ट्रैक्ट को इस तरह से सेटल किया जाता है 

  1. डिलीवरी लेना (आपके डीमैट अकाउंट में शेयर आ जाते हैं) –  लॉन्ग फ्यूचर्स, लॉन्ग ITM कॉल, और शॉर्ट ITM पुट 
  2. डिलीवरी देना (आपको स्टाक एक्सचेंज को डिलीवर करना पड़ता है) शॉर्ट फ्यूचर, शॉर्ट ITM कॉल और लॉन्ग ITM पुट 

केवल ITM ऑप्शन का फिजिकल सेटलमेंट होता है क्योंकि अगर ऑप्शन OTM एक्सपायर होता है तो वह वर्थलेस हो जाता है यानि की उसकी कोई कीमत नहीं होती और इसलिए उसमें डिलीवरी की कोई जरूरत नहीं होती।

13.5 – पोजीशन का नेट निकालना 

*Definition of Netting. A method of reducing credit, settlement and other risks of financial contracts by aggregating (combining) two or more obligations to achieve a reduced net obligation.

अगर आपने एक ही एक्सपायरी वाले अंडरलाइंग में बहुत सारी पोजीशन ले रखी है जिससे कि आप एक हेज बना सकें, तो, फिर उस ट्रेड की दिशा के हिसाब से उनकी एक नेट पोजीशन निकाली जाएगी। 

1st चरण 2nd चरण
लॉन्ग फ्यूचर्स शार्ट ITM कॉल

लॉन्ग ITM पुट

शार्ट फ्यूचर्स लॉन्ग ITM कॉल 

शार्ट  ITM पुट

लॉन्ग ITM कॉल लॉन्ग ITM पुट 

शार्ट ITM कॉल

लॉन्ग ITM पुट लॉन्ग ITM कॉल

शार्ट  ITM पुट

शार्ट ITM कॉल लॉन्ग ITM कॉल

शार्ट ITM पुट

शार्ट ITM पुट शार्ट ITM कॉल

लॉन्ग ITM पुट

 

उदाहरण के लिए अगर आपने SBI का जून फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट लॉन्ग किया है और ITM पुट को 200 की स्ट्राइक पर लॉन्ग किया है (SBI की स्पॉट कीमत 180 है), तो फिर फ्यूचर लॉन्ग पोजीशन के लिए आपको डिलीवरी लेनी होगी और लॉन्ग पुट ऑप्शन के लिए डिलीवरी देनी होगी। आपके अकाउंट के इन दोनों सौदों की वजह से आपको किसी फिजीकल डिलीवरी की जरूरत नहीं होगी।

13.6 – मार्जिन

जब आप फ्यूचर के लिए या शॉर्ट ऑप्शन के लिए F&O सेगमेंट में ट्रेड कर रहे होते हैं, तो आपको अपने अकाउंट में सिर्फ मार्जिन की रकम रखनी पड़ती है। जब लॉन्ग ऑप्शन पोजीशन होती है तो आपको प्रीमियम देने के लिए उतनी रकम अकाउंट में रखनी पड़ती है। लेकिन फिजिकल सेटलमेंट में यह स्थिति बदल जाती है। आपको अपने कॉन्ट्रैक्ट की 100% कीमत अकाउंट में रखना होता है क्योंकि एक्सपायरी पर आपको कॉन्ट्रैक्ट की डिलीवरी लेनी पड़ती है या फिर स्टॉक की डिलीवरी देनी होती है। इसीलिए एक्सपायरी के आसपास ब्रोकर आपके लिए अतिरिक्त मार्जिन लगाते हैं। आप जेरोधा की फिजिकल सेटलमेंट पॉलिसी को यहां  here पर पढ़ सकते हैं।

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ओपन इंटरेस्ट https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%93%e0%a4%aa%e0%a4%a8-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%93%e0%a4%aa%e0%a4%a8-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:05:45 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6301 12.1 – ओपन इंटरेस्ट और इसकी गणना इस मॉड्यूल को खत्म करने के पहले हमें एक और महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करनी है। बाजार में ये सवाल बार-बार पूछा जाता है कि ओपन इंटरेस्ट क्या है और यह वॉल्यूम से अलग कैसे है? कई लोगों को यह भी नहीं समझ में आता कि वॉल्यूम और […]

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12.1 – ओपन इंटरेस्ट और इसकी गणना

इस मॉड्यूल को खत्म करने के पहले हमें एक और महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करनी है। बाजार में ये सवाल बार-बार पूछा जाता है कि ओपन इंटरेस्ट क्या है और यह वॉल्यूम से अलग कैसे है? कई लोगों को यह भी नहीं समझ में आता कि वॉल्यूम और ओपन इंटरेस्ट डेटा का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है? इस अध्याय में हम इन्हीं सवालों का जवाब देने की कोशिश करेंगे। इस अध्याय के बाद आपको ओपन इंटरेस्ट डेटा को वॉल्यूम के डेटा के साथ देखना और समझना आ जाएगा और इसका ट्रेडिंग में इस्तेमाल करना भी आ जाएगा। वॉल्यूम पर अपनी समझ को वापस ताजा करने के लिए आप इसको  पढ़िए।

ओपन इंटरेस्ट वो संख्या है जो हमें बताती है कि बाजार में इस समय फ्यूचर या ऑप्शंस के कितने कॉन्ट्रैक्ट आउटस्टैंडिंग हैं या अभी तक बंद नहीं किए गए हैं। आपको याद ही होगा कि हर सौदे में (या ट्रेड) में दो पार्टियां होती हैं, एक खरीदने वाली और एक बेचने वाली। मान लीजिए कि बेचने वाले ने खरीदने वाले को एक कॉन्ट्रैक्ट बेचा, बेचने वाला उस कॉन्ट्रैक्ट पर शॉर्ट है और खरीदने वाला उसी कॉन्ट्रैक्ट पर लॉन्ग है। इस ट्रेड की वजह से बाजार में एक ओपन इंटरेस्ट बना। 

इसको एक उदाहरण से समझते हैं, मान लीजिए बाजार में पांच ट्रेडर हैं जो निफ़्टी फ्यूचर्स में ट्रेड कर रहे हैं, जिनके नाम अर्जुन, नेहा, वरुण, जॉन और विक्रम हैं। आइए उनकी कुछ दिनों की ट्रेडिंग देखते हैं और समझते हैं कि ओपन इंटरेस्ट कैसे बदलता है। आपको इसे थोड़ा ध्यान से समझना होगा।

सोमवार:  अर्जुन ने 6 कॉन्ट्रैक्ट खरीदा, वरुण 4 कॉन्ट्रैक्ट खरीदता है जबकि नेहा ने इन सभी को 10 कॉन्ट्रैक्ट बेचा है। इन सौदों के बाद अब बाजार में 10 कॉन्ट्रैक्ट हैं और 10 लांग (6+4) और 10 शॉर्ट कॉन्ट्रैक्ट। इस तरह बाजार में ओपन इंटरेस्ट कुल 10 है। इसको आप नीचे के टेबल में देख सकते हैं:

मंगलवार : नेहा अपने 10 में से, 8 कॉन्ट्रैक्ट से निकलना चाहती है और वह ऐसा ही ट्रेड करती है जॉन के साथ, जो अभी-अभी बाजार में आया है। तो जॉन शॉर्ट कॉन्ट्रैक्ट नेहा से ले लेता है। अभी ध्यान देना होगा कि यहां पर कोई नया कॉन्ट्रैक्ट नहीं बना है। एक पुराना कॉन्ट्रैक्ट ही एक इंसान से दूसरे इंसान के पास चला गया है। इसलिए ओपन इंटरेस्ट अभी भी 10 ही रहेगा। मंगलवार के सौदों को आप नीचे के टेबल में देख सकते हैं:

बुधवार:  जॉन अपने 8 शॉट कॉन्ट्रैक्ट के अलावा 7 और शार्ट कॉन्ट्रैक्ट बनाना चाहता है। उधर अर्जुन और वरुण अपनी लॉन्ग पोजीशन बढ़ाना चाहते हैं। ऐसे में जॉन ने तीन कॉन्ट्रैक्ट अर्जुन को बेचे और दो कॉन्ट्रैक्ट वरूण को। तो अब यहां ये 5 नए कॉन्ट्रैक्ट बने। उधर नेहा अपनी 2 ओपन पोजीशन को बंद करना चाहती है। उसने ये दोनों कॉन्ट्रैक्ट जॉन को बेच दिए और अब नेहा के पास कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं बचा। अब टेबल ऐसी दिखेगी:

बुधवार के अंत तक अब बाजार में 15 लॉन्ग कॉन्ट्रैक्ट हैं और 15 शॉर्ट। तो इस तरह से ओपन इंटरेस्ट है 15। 

गुरुवार:  बाजार में एक नया खिलाड़ी आता है विक्रम। वह 25 कॉन्ट्रैक्ट बेचता है। जॉन अपने 10 कॉन्ट्रैक्ट को बंद करना चाहता है इसलिए वह विक्रम से 10 कॉन्ट्रैक्ट खरीदता है, मतलब वह अपने 10 कांट्रैक्ट विक्रम को ट्रांसफर कर देता है। अर्जुन भी विक्रम से 10 कॉन्ट्रैक्ट लेता है और वरुण तय करता है कि वह विक्रम से 5 और कॉन्ट्रैक्ट खरीदेगा। इस तरह से बाजार में 15 नए कॉन्ट्रैक्ट बनते हैं। अब ओपन इंटरेस्ट हो गया 30।

शुक्रवार विक्रम अपने 25 कॉन्ट्रैक्ट में से 20 कॉन्ट्रैक्ट स्क्वेयर ऑफ करना चाहता है। इसलिए वह 10 10 कॉन्ट्रैक्ट अर्जुन और वरुण से खरीदता है। इस तरह से बाजार में 20 कॉन्ट्रैक्ट स्क्वेयर ऑफ हो जाते हैं। यानी बाजार में 20 कॉन्ट्रैक्ट कम हो जाते हैं। इस तरह से नया ओपन इंटरेस्ट है 30 – 20 = 10। इसे आप नीचे के टेबल में देख सकते हैं:

यह चक्र इसी तरीके से चलता रहता है। अब आपको थोड़ा आभास हो गया होगा कि ओपन इंटरेस्ट क्या होता है। ओपन इंटरेस्ट यह बताता है कि बाजार में कितनी ओपन पोजीशन है। यहां एक बात पर ध्यान देने वाली है वह यह कि आप अगर ऊपर के टेबल में कॉन्ट्रैक्ट वाले कॉलम में देखेंगे और वहां पर लॉन्ग पोजीशन को + और शॉर्ट पोजीशन को मानते हुए सारी पोजीशन को जोड़ेंगे तो आपको जीरो मिलेगा। इस वजह से भी डेरिवेटिव को जीरो सम गेम (zero sum game) कहा जाता है। 

नीचे के चित्र पर नजर डालिए-

4 मार्च 2015 को निफ़्टी फ्यूचर्स ओपन इंटरेस्ट करीब 2.78 करोड़ है इसका मतलब है कि निफ्टी में 2.78 करोड़ के लॉन्ग पोजीशन और 2.78 करोड़ के शार्ट पोजीशन हैं। इसके अलावा 55,255 नए कॉन्ट्रैक्ट उस दिन जोड़े गए हैं। इस आँकड़े से पता चलता है कि बाजार कितनी लिक्विडिटी है। जितने ज्यादा ओपन इंटरेस्ट होंगे, बाजार उतना ही ज्यादा लिक्विड माना जाएगा और ऐसे में बाजार से निकलना और उसमें घुसना ज्यादा आसान हो जाता है। साथ ही बिड और आस्क के रेट भी अच्छे मिलते हैं।

12.2 ओपन इंटरेस्ट और वॉल्यूम के डेटा का आकलन 

ओपन इंटरेस्ट का डेटा हमें बताता है कि बाजार में कितने कॉन्ट्रैक्ट ओपन हैं यानी अभी स्वेयर ऑफ नहीं हुए हैं जबकि वॉल्यूम हमें बताता है कि बाजार में कितना ट्रेड हुआ है। एक बेचने और उसे खरीदने के सौदे पर वॉल्यूम में एक की ही बढ़ोतरी होती है। उदाहरण के लिए अगर किसी दिन 400 कॉन्ट्रैक्ट बेचे गए और 400 खरीदे गए तो वॉल्यूम 400 होगा 800 नहीं। देखने में दोनों वॉल्यूम और ओपन इंटरेस्ट डेटा एक जैसे लग सकते हैं लेकिन दोनों अलग-अलग जानकारी देते हैं। वॉल्यूम का डेटा हर दिन 0 से शुरू होता है और जैसे-जैसे सौदे होते जाते हैं यह बढ़ता जाता है इसलिए वॉल्यूम का डेटा इंट्राडे आधार पर ही बढ़ता है। लेकिन ओपन इंटरेस्ट वॉल्यूम की तरह नहीं होता। हर दिन के साथ साथ जैसे जैसे ट्रेडर कॉन्ट्रैक्ट बढ़ाते या घटाते जाते हैं वैसे वैसे ओपन इंटरेस्ट बढ़ता या घटता जाता है।  अपने पिछले उदाहरण के आधार पर बना ओपन इंटरेस्ट और वॉल्यूम डेटा नीचे के टेबल में डाल कर देखते हैं। 

ध्यान दीजिए कि ओपन इंटरेस्ट और वॉल्यूम हर दिन बदल रहा है। लेकिन आज के वॉल्यूम का कल के वॉल्यूम पर कोई असर नहीं पड़ता है, जबकि ओपन इंटरेस्ट के मामले में ऐसा नहीं है। वैसे देखा जाए तो ,ओपन इंटरेस्ट और वॉल्यूम दोनों अपने आप में कुछ ज़्यादा जानकारी नहीं देते हैं लेकिन ट्रेडर इन आंकड़ों को कीमत के उतार चढ़ाव के साथ जोड़कर देखते हैं और उस हिसाब से बाजार का अपना आकलन करते हैं। 

नीचे के टेबल से आपको पता चलेगा कि ट्रेडर किस तरीके से इन आंकड़ों का इस्तेमाल करता है।

कीमत वाल्यूम ट्रेडर का आकलन
वृद्धि वृद्धि बुलिश/तेजी का
कमी कमी मंदी यानी बेयरिश दौर की समाप्ति,ट्रेंड बदलने की शुरुआत
कमी वृद्धि बेयरिश/ मंदी
वृद्धि कमी बुलिश ट्रेंड की समाप्ति की संभावनt, ट्रेंड रिवर्सल की शुरूआत

वॉल्यूम बताता है कि उस दिन का बाजार की दिशा किस तरफ है लेकिन ओपन इंटरेस्ट बाजार की दिशा के बारे में नहीं बताता है। ओपन इंटरेस्ट यह बताता है कि बाजार में बुल और बेयर के पोजीशन कितने ताकतवर हैं। नीचे के टेबल में आप देख सकते हैं कि ट्रेडर ओपन इंटरेस्ट के डेटा और कीमत के आधार पर कैसे बाजार का आकलन करता है।

कीमत OI ट्रेडर का आकलन
वृद्धि वृद्धि ज्यादा सौदे लॉन्ग वाले
कमी कमी लोग लॉन्ग की पोजीशन कम कर रहे हैं, इसे लॉन्ग अनवाइंडिंग (Long Unwinding) भी कहते हैं
कमी वृद्धि ज्यादा सौदे शॉर्ट वाले
वृद्धि कमी शॉर्ट वाले अपनी पोजीशन कवर ,इसे शॉर्ट कवरिंग (Short Covering) भी कहते हैं  

 

ध्यान दीजिए कि अगर ओपन इंटरेस्ट में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हो रही है और कीमतों में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी या गिरावट हो रही है तो यह संभलने या सावधान हो जाने का समय है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि बाजार में बहुत ज्यादा उत्साह है और लोग बहुत ज्यादा लेवरेज पोजीशन बना रहे हैं। ऐसे में एक छोटा सा गलत संकेत भी बाजार में डर की स्थिति पैदा कर सकता है।

इसके साथ अब हम फ्यूचर्स ट्रेडिंग का यह मॉड्यूलल यहीं खत्म करते हैं। 

आगे हम ऑप्शन थ्योरी के बारे में बात करेंगे। 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. ओपन इंटरेस्ट यह बताता है कि बाजार में कितने कॉन्ट्रैक्ट अभी भी ओपन हैं।
  2. जब नए कॉन्ट्रैक्ट जुड़ते हैं तो ओपन इन्टरेस्ट बढ़ता है और जब कॉन्ट्रैक्ट बंद होते हैं तो ओपन इंटरेस्ट घटता है।
  3. जब कॉन्ट्रैक्ट एक से दूसरे इंसान के पास पहुंचता है तो ओपन इंटरेस्ट में कोई बदलाव नहीं होता। 
  4. वॉल्यूम डेटा एक दिन का होता है जबकि ओपन इंटरेस्ट हर दिन जुड़ता जाता है। 
  5. अपने आप में ओपन इंटरेस्ट या वॉल्यूम की जानकारी बहुत ज्यादा काम की नहीं होती लेकिन आप इसको कीमत के साथ जोड़ कर देखेगें तो इनमें परिवर्तन का बाजार पर असर कैसे पड़ता है, इसे समझ सकते हैं। 
  6. ओपन इंटरेस्ट बहुत अधिक होने का मतलब है कि बाजार में लेवरेज है। ऐसी स्थिति में आपको सावधान हो जाना चाहिए।

ध्यान दें : 24th Aug 2016 – अगर आप इंट्राडे ओपन इंट्रेस्ट की जानकारी को महत्वपूर्ण जानकारी बनाकर अपनी ट्रेडिंग स्ट्रैटेजी बनाते हैं तो ट्रेड करने से पहले इसे ज़रूर पढ़ें।

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फ्यूचर्स से/के ज़रिये हेजिंग (Hedging) करना https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%87%e0%a4%9c/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a5%87%e0%a4%9c/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:05:41 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6299 11.1 हेजिंग क्या है? फ्यूचर्स का एक सबसे महत्वपूर्ण इस्तेमाल है हेजिंग। हेजिंग का हिंदी में अर्थ है बचाव। खराब बाजार में अपनी पोजीशन को नुकसान से बचाने के लिए हेजिंग का इस्तेमाल किया जाता है। एक उदाहरण से हेजिंग को समझते हैं, मान लीजिए आप के घर के बाहर एक खाली जमीन है। इस […]

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11.1 हेजिंग क्या है?

फ्यूचर्स का एक सबसे महत्वपूर्ण इस्तेमाल है हेजिंग। हेजिंग का हिंदी में अर्थ है बचाव। खराब बाजार में अपनी पोजीशन को नुकसान से बचाने के लिए हेजिंग का इस्तेमाल किया जाता है। एक उदाहरण से हेजिंग को समझते हैं, मान लीजिए आप के घर के बाहर एक खाली जमीन है। इस जमीन को खाली रखने के बजाय आप इसमें बगीचा लगाने का फैसला करते हैं। आप कुछ फूल पौधे भी लगाते हैं। अच्छी देखभाल करते हैं, लगातार पानी देते हैं और कुछ समय में यह हरा-भरा हो जाता है। अच्छा खासा लॉन और उसमें खिले हुए खूब सारे रंग-बिरंगे फूल। जैसे ही यह सब होता है, वहां पर भटकती हुई कुछ गायें और दूसरे जानवर आ जाते हैं  जो आपके लॉन की घास को चरने लगते हैं और आप के फूल-पौधे को उजाड़ने लगते हैं। तब आप अपने बगीचे को बचाने के लिए फैसला करते हैं कि आप इसके आसपास एक लकड़ी की बाड़ लगा देंगे, जिससे कि आवारा जानवर आपके बगीचे को नुकसान न पहुंचा सकें। इससे आपका बगीचा बचा रहता है। 

अब इसी को बाजार के नजरिए से देखते हैं।

  • मान लीजिए आप काफी रिसर्च करके, अच्छे से जांच-समझ के कुछ स्टॉक चुनते हैं। उनमें धीरे-धीरे करके आप काफी पैसा लगा देते हैं। अब यह उस बगीचे की तरह है जिसको आपने खाद, पानी दे कर, संभाल कर बड़ा किया है।
  • आपके पैसे निवेश करने के कुछ समय बाद आपको लगता है कि बाजार में गिरावट होने वाली है जिसकी वजह से आपको नुकसान हो सकता है। यह लगभग वैसा ही है जब गाय और दूसरे जानवर आपके लॉन को उजाड़ने वाले होते हैं। 
  • बाजार में अपने निवेश को बचाने के लिए, पैसे के नुकसान से बचने के लिए आप हेजिंग का इस्तेमाल करते हैं और इसलिए आप फ्यूचर्स खरीदते हैं। ठीक उसी तरीके से जैसे अपने बगीचे को बचाने के लिए आप उसके आसपास एक लकड़ी की बाड़ लगाते हैं। 

उम्मीद है कि इस उदाहरण से आपको कुछ हद तक यह समझ में आ गया होगा कि हेजिंग क्या होती है। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि है हेजिंग का इस्तेमाल अपने एक पोर्टफोलियो के स्टॉक्स को नुकसान से बचाने के लिए किया जाता है। कई बार आप अपने एक स्टॉक को बचाने के लिए भी हेज कर सकते हैं।

11.2 – हेज क्यों करना है?

हेज करने की जरूरत क्या है? यह एक सवाल बार-बार पूछा जाता है। जरा कल्पना कीजिए कि किसी ट्रेडर या इन्वेस्टर ने एक स्टॉक ₹100 पर खरीदा है। लेकिन अब उसको लगता है कि बाजार बिगड़ रहा है और उसका स्टॉक भी गिरेगा। ऐसे में वो तीन चीजें कर सकता है 

  1. कुछ ना करे, अपने स्टॉक को गिरने दे और ये उम्मीद करे कि वो फिर से वापस अपनी मौजूदा कीमत पर पहुंच जाएगा।
  2. स्टॉक को बेच दे और उम्मीद करे कि बाद में उस स्टॉक को कम कीमत पर फिर से खरीद लेगा। 
  3. अपनी पोजीशन को हेज करे।

पहले यह समझते हैं कि अगर हेज ना करने का फैसला करता है तो क्या होगा? मान लीजिए उसका स्टॉक ₹100 से गिरकर ₹75 तक पहुंच जाता है। यहां ट्रेडर मान लेता है कि एक दिन यह स्टॉक वापस ₹100 तक पहुंचेगा। तो जब स्टॉक को वापस ₹100 तक पहुंचना ही है, तो फिर इसमें हेज करने की क्या जरूरत है? 

मुझे लगता है कि आपको समझ में आ रहा होगा कि स्टॉक के ₹100 से ₹75 तक पहुंचने का मतलब है कि स्टॉक में 25% की गिरावट आई है। लेकिन जब वही स्टॉक ₹75 से ₹100 तक पहुंचने की कोशिश करेगा तो उसको सिर्फ 25% नहीं बढ़ना होगा उसको बढ़ना होगा 33.5%। इसका मतलब है कि स्टॉक का गिरना ज्यादा आसान है लेकिन उसका वापस बढ़कर पुरानी कीमत तक पहुंचना ज्यादा मुश्किल है। मैं अपने अनुभव से यह भी बता सकता हूं कि एक बार जब स्टॉक गिर जाता है तो उसके वापस ऊपर पहुंचने के लिए एक बहुत भारी बुल मार्केट की जरूरत होती है। इसीलिए जब भी आपको लगे कि बाजार की स्थिति बिगड़ रही है तो हेज करना हमेशा अच्छा होता है। 

अब दूसरे विकल्प पर नजर डालते हैं जहां ट्रेडर ये सोचता है कि अपनी पोजीशन को बेच दे और बाद में नीचे की कीमत पर उसका को वापस खरीद ले। इसके लिए पहले तो उसको बाजार पर लगातार नजर रखनी होगी और सही समय पर बाजार में घुसना होगा जो कि आसान नहीं है। दूसरा, जब ट्रेडर बार-बार जल्दी-जल्दी बेचता और खरीदता है तो उसको कैपिटल गेन टैक्स का फायदा नहीं मिलेगा। साथ ही, हर बार खरीदने बेचने के लिए ट्रांजैक्शन पर खर्च करना होगा। 

इन सभी कारणों की वजह से बाजार में अपनी पोजीशन को बचाने के लिए हेज करना हमेशा एक अच्छा उपाय होता है। इससे यह होता है कि बाजार में कुछ भी हो, आपके ऊपर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। एकदम वैसे ही, जैसे आपने अगर कोई टीका लगवा रखा है तो आप बीमारी से बचे रहेंगे। 

11.3 – रिस्क 

इसके पहले कि हम यह समझें कि बाजार में अपनी पोजीशन को हेज कैसे किया जाता है, उसके पहले जरूरी है कि हम ये समझें कि हम किस चीज को हेज करने की कोशिश कर रहे हैं। जैसा कि आपको समझ में आ गया होगा कि हम रिस्क को हेज करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन किस तरह का रिस्क? 

जब भी आप बाजार में किसी कंपनी का स्टॉक खरीदते हैं तो आप अपने पैसे पर रिस्क ले रहे होते हैं। बाजार में दो तरह के रिस्क होते हैं सिस्टमैटिक रिस्क (Systematic risk) और अनसिस्टमैटिक रिस्क (Unsystematic risk) । जब आप कोई शेयर या फ्यूचर्स खरीदते हैं तो आप इन दोनों तरीके के रिस्क को ले रहे होते हैं।

शेयर गिर सकता है और इससे आपको नुकसान हो सकता है। शेयर गिरने के कई कारण हो सकते हैं: 

  1. जैसे कंपनी की आमदनी का घटना
  2. प्रॉफिट मार्जिन का घटना 
  3. कर्ज से जुड़े खर्च का बढ़ना 
  4. कंपनी का लेवरेज बढ़ाना 
  5. मैनेजमेंट की गड़बड़ी या गलतियां 

इस तरह के और कई कारण हो सकते हैं जिससे शेयर गिर जाए। लेकिन यहां पर जो ध्यान देने योग्य बात है, वह यह है कि यह सब कंपनी से जुड़े हुए रिस्क हैं। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आपने ₹100,000 की पूंजी HCL टेक्नोलॉजीज लिमिटेड के शेयर मे लगाई। कुछ महीने बाद HCL की तरफ से एक बयान आता है कि उसका रेवेन्यू यानी आमदनी घटने वाली है। इस बयान की वजह से HCL के शेयरों की कीमत में गिरावट आएगी और आपको अपने निवेश पर नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन इस खबर का कंपनी के प्रतिद्वंदियो जैसे टेक महिंद्रा और माइंड ट्री पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इसी तरह से, अगर टेक महिंद्रा का मैनेजमेंट किसी गड़बड़ी में पकड़ा जाता है तो टेक महिंद्रा के शेयर की कीमत पर असर पड़ेगा, उसके किसी भी प्रतिद्वंदी कंपनी के शेयर पर नहीं। तो वो रिस्क जो किसी कंपनी से जुड़े हुए होते हैं और तो इससे सिर्फ उस कंपनी पर असर पड़ता है किसी दूसरी कंपनी पर नहीं, ऐसे रिस्क को अनसिस्टमैटिक रिस्क कहते हैं।

अनसिस्टमैटिक रिस्क को डायवर्सिफाई किया जा सकता है, मतलब किसी एक कंपनी में सारा पैसा लगाने के बजाय आप निवेश को डायवर्सिफाई कर सकते हैं यानी बाँट सकते हैं, और उसी पैसे को दो तीन अलग-अलग कंपनियों में लगा सकते हैं। ऐसा करने से अनसिस्टमैटिक रिस्क की संभावना काफी कम हो जाती है। ऊपर के उदाहरण को फिर से देखते हैं। तो मान लीजिए कि आप HCL में पूरा पैसा लगाने के बजाय आप ₹50000 HCL में लगाते हैं और बाकी पैसा मान लीजिए कर्नाटक बैंक लिमिटेड में लगा देते हैं। ऐसे में अगर HCL के स्टॉक की कीमत गिरती है, तो सिर्फ आपकी आधी पूंजी पर असर पड़ेगा। आधी पूंजी तब भी सुरक्षित रहेगी क्योंकि वह एक दूसरी कंपनी में लगी है। इसी तरीके से दो स्टॉक की जगह आप 5 या 10 कंपनियों के शेयर भी ले सकते हैं और एक पोर्टफोलियो बना सकते हैं। आपके इस पोर्टफोलियो में डायवर्सिफिकेशन के लिए जितने स्टॉक होंगे आपके अनसिस्टमैटिक रिस्क उतना कम हो जाता है। 

अब यहां पर एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि आपको अपने पोर्टफोलियो में कितने स्टॉक रखने चाहिए जिससे आप अनसिस्टमैटिक रिस्क को अच्छे तरीके से डायवर्सिफाई कर सकें। अब तक की गई रिसर्च के मुताबिक अनसिस्टमैटिक रिस्क से बचने के लिए अधिक से अधिक 21 स्टॉक का पोर्टफोलियो चाहिए होता है। पोर्टफोलियो में 21 स्टॉक से ज्यादा रखने पर भी रिस्क और कम नहीं होता। इसको ज्यादा बेहतर ढंग से समझने के लिए नीचे के ग्राफ पर नजर डालिए।

जैसा कि आप इस ग्राफ में देख सकते हैं कि जैसे-जैसे आप डायवर्सिफाई करते हैं और ज्यादा स्टॉक जोड़ते जाते हैं वैसे-वैसे अनसिस्टमैटिक रिस्क कम होता जाता है। लेकिन 20 स्टॉक के बाद अनसिस्टमैटिक रिस्क को और ज्यादा डायवर्सिफाई नहीं किया जा सकता। आप ग्राफ में भी देख सकते हैं कि 20 स्टॉक के बाद यह ग्राफ एक सीधी लाइन में चलने लगता है और ज्यादा स्टॉक जोड़ने पर भी कोई बदलाव नहीं होता। इसका मतलब कि उसके बाद रिस्क कम नहीं होता। वास्तव में डायवर्सिफिकेशन करने के बाद भी जो रिस्क बचा रह जाता है उसको सिस्टमैटिक रिस्क कहते हैं।

सिस्टमैटिक रिस्क वो होता है जो किसी एक कंपनी पर नहीं बल्कि सभी कंपनियों के शेयरों पर होता है। यह अर्थव्यवस्था से जुड़े ऐसे रिस्क हैं जो पूरे बाजार पर असर डालते हैं। सिस्टमैटिक रिस्क के कुछ उदाहरण हैं– 

  1. जीडीपी (GDP) का घटना 
  2. इंटरेस्ट रेट (ब्याज दरों) का बढ़ना
  3. इन्फ्लेशन या मुद्रास्फीति 
  4. फिस्कल डेफिसिट यानी वित्तीय घाटा
  5. जियोपोलिटिकल यानी भू-राजनीतिक रिस्क 

यह लिस्ट और भी लंबी हो सकती है। लेकिन अब तक आपको समझ आ गया होगा कि सिस्टमैटिक रिस्क में क्या-क्या हो सकता है। सिस्टमैटिक रिस्क सभी तरीके के शेयरों पर असर डालते हैं। मान लीजिए आप ने अपने शेयर का पोर्टफोलियो 20 स्टॉक तक बढ़ा लिया है और अपने को डायवर्सिफाई कर लिया है, लेकिन जीडीपी के घटने की वजह से सभी 20 स्टॉक नीचे आ सकते हैं। सिस्टमैटिक रिस्क का मतलब ही है वो रिस्क जो कि सिस्टम से जुड़ा हुआ है और इससे डायवर्सिफिकेशन कर के नहीं बचा जा सकता। सिस्टमैटिक रिस्क से बचने के लिए हेजिंग जरूर की जा सकती है। तो हम जब हेजिंग की बात करते हैं तो हम डायवर्सिफिकेशन की बात नहीं कर रहे होते हैं। 

याद रखिए कि हम अनसिस्टमैटिक रिस्क से बचने के लिए डायवर्सिफाई करते हैं और सिस्टमैटिक से बचने के लिए हेज करते हैं।

11.4 – एक स्टॉक को हेज करना

हम पहले एक स्टॉक में हेज करना सीखेंगे क्योंकि इसको करना आसान होता है यह करने पर हमें इस की कमजोरियां भी समझ में आएंगी और आगे स्टॉक के पोर्टफोलियो को हेज करना हमारे लिए आसान होगा।

मान लीजिए आप ने इन्फोसिस के 250 शेयर ₹2284 की कीमत पर खरीदे हैं यानी आप ने ₹571000 का निवेश किया है। यह स्पॉट बाजार में बनाई गयी लांग पोजीशन है। शेयर खरीदने के बाद आपको पता चलता है कि इन्फोसिस तिमाही नतीजे ही भी जल्दी आने वाले हैं। अब आप थोड़े चिंतित हो जाते हैं कि कहीं अगर इन्फोसिस के नतीजे अच्छे नहीं आए तो क्या होगा? इन्फोसिस का स्टॉक गिरेगा और आप को नुकसान होगा। स्पॉट बाजार में हो सकने वाले इस नुकसान से बचने के लिए आप अपनी पोजीशन को हेज करने का फैसला करते हैं। 

स्पॉट बाजार में अपनी पोजीशन को हेज करने के लिए आसान तरीका यह होता है कि हम फ्यूचर्स बाजार में उससे उल्टी पोजीशन ले लें। क्योंकि हमने स्पॉट बाजार में लांग पोजीशन बनाई है इसलिए हमें फ्यूचर्स बाजार में शॉर्ट पोजीशन बनानी होगी।

फ्यूचर्स में शॉर्ट का सौदा कैसा बनेगा 

फ्यूचर्स पर शॉर्ट @ ₹2285/- 

लॉट साइज = 250

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = ₹571250/-

अब इन्फोसिस में स्पॉट बाजार में आपकी लॉन्ग पोजीशन है और फ्यूचर्स बाजार में इन्फोसिस पर शॉर्ट पोजीशन है। हालांकि दोनों पोजीशन अलग-अलग कीमत पर बनाई गई है लेकिन पोजीशन की कीमत से ज्यादा महत्व की बात यह है कि आपके दोनों पोजीशन अलग-अलग दिशा में बनाए गए हैं। इसका मतलब है कि अब आप न्यूट्रल हैं। न्यूट्रल होने का मतलब आपको थोड़ी देर में समझ में आएगा। 

इस सौदे को शुरू करने के बाद अब हम एक बार कुछ अलग-अलग कीमतों को लेते हैं और देखते हैं कि इन्फोसिस के उन कीमतों पर पहुंचने का इस पोजीशन पर क्या असर होता है।

कीमत स्पॉट लॉन्ग P&L शॉर्ट फ्यूचर्स P&L कुल P&L
2200 2200 – 2284 = – 84 2285 – 2200 = +85 -84 + 85 = +1
2290 2290 – 2284 = +6 2285 – 2290 = -5 +6 – 5 = +1
2500 2500 – 2284 = +216 2285 – 2500 = -215 +216 – 215 = +1

यहां समझने वाली बात यह है कि कीमत ऊपर जाए या नीचे जाए आप की पोजीशन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। आप ना तो पैसा बनाएंगे ना पैसा गंवाएंगे। इसका मतलब यह है कि आज की पोजीशन पर बाजार का कोई असर नहीं पड़ने वाला है। इसी को हम न्यूट्रल पोजीशन कहते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि एक स्टॉक की पोजीशन को हेज करना बहुत ही सीधा काम है इसमें कोई मुश्किल नहीं है। हम किसी भी स्टॉक की स्पॉट पोजीशन को हेज करने के लिए उसके फ्यूचर्स में एक काउंटर पोजीशन का इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए हमेशा फ्यूचर में ऐसी पोजीशन बनानी होगी जिसमें शेयरों की संख्या एक समान हो। यानी फ्यूचर्स के लॉट साइज में उतने ही शेयर हों जिसने हमारे स्पॉट पोजीशन में हैं। अगर इन दोनों की शेयरों संख्या में अंतर होगा तो हमारा P&L थोड़ा सा अलग बनेगा और पोजीशन पूरी तरीके से हेज नहीं हो पाएगी। इससे कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं 

  1. अगर किसी स्टॉक में फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट है ही नहीं, तो क्या होगा? उदाहरण के लिए साउथ इंडियन बैंक का कोई फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट नहीं है, तो क्या इसका यह मतलब है कि मैं साउथ इंडियन बैंक में अपनी पोजीशन को हेज नहीं कर सकता हूं? 
  2. उदाहरण के लिए स्पॉट की जिस पोजीशन को हमने हेज करने लिया था वह ₹570000 की थी। लेकिन अगर हमारी पोजीशन ₹50000 की होती या ₹100000 की होती तो क्या उस पोजीशन को भी हेज किया जा सकता है? 

वास्तव में इन दोनों सवालों का जवाब सीधा नहीं है। हमें इन्हें समझना होगा और हम ये काम कुछ देर में करेंगे। अभी हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि स्पॉट में बनाई गयी कई पोजीशन यानी पोर्टफोलियो को कैसे हेज किया जाए? ये करने के लिए हमें सबसे पहले समझना होगा किसी की किसी स्टॉक का बीटा (Beta) क्या होता है।

11.5 – बीटा क्या होता है

बीटा एक ग्रीक शब्द है और ये ऐसा β दिखता है। बाजार में बीटा का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। यह एक बहुत ही जरूरी सिद्धांत है। वित्तीय बाजार में बीटा के महत्व को समझने के लिए ये सही समय है क्योंकि पोर्टफोलियो को हेज करने में बीटा काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। 

आम भाषा में कहें तो , बीटा यह बताता है कि बाजार में होने वाली उठापटक से कोई स्टॉक कितना ज्यादा प्रभावित हो सकता है। बीटा से हमें इस तरह के सवालों के जवाब मिलते हैं

  1. अगर बाजार कल 2% बढ़ता है तो इसका XYZ स्टॉक पर क्या असर पड़ेगा?
  2. कोई स्टॉक XYZ बाजार के इंडेक्स (निफ़्टी, सेंसेक्स) के मुकाबले कितना ज्यादा वोलेटाइल या रिस्की है?
  3. XYZ स्टॉक में ABC स्टॉक के मुकाबले कितना ज्यादा रिस्क है? 

किसी स्टॉक का बीटा जीरो से ऊपर या जीरो से नीचे भी हो सकता है। लेकिन बाजार के इंडेक्स का बीटा हमेशा +1 होता है अब उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि BPCL के स्टॉक का बीटा 0.7 है। तो इसका मतलब है कि 

  1. बाजार में हर 1% की बढ़त के साथ BPCL का स्टॉक 0.7% बढ़ सकता है।
  1. अगर बाजार 1.5% बढ़ता है तो BPCL का शेयर 1.05% बढ़ेगा।
  2. अगर बाजार 1% गिरता है तो BPCL का स्टॉक यह  0.7% गिरेगा।
  1. क्योंकि BPCL के स्टॉक का बीटा बाजार के बीटा से 0.3% कम (0.7% Vs 1%) है इसलिए यह माना जाता है कि BPCL बाजार से 30% कम रिस्की है। 
  1. आप यह भी कह सकते हैं कि BPCL कम सिस्टमैटिक रिस्क वाला स्टॉक है। 
  1. अगर मान ले कि HPCL का बीटा 0.8 प्रतिशत है तो इसका मतलब है कि HPCL के मुकाबले BPCL का स्टॉक कम वोलेटाइल है इसका मतलब है कि BPCL कम रिस्की है। नीचे के टेबल से आपको यह ज्यादा अच्छी तरह से समझ में आएगा

 

अगय बीटा इतना है तो मतलब
0 से कम, जैसे -0.4 एक -ve चिन्ह बताता है कि शेयर की कीमत और बाजार एक दूसरे की विपरीय दिशा में चर रहे हैंअगर बाजार 1% से ऊपय जाता है तो   –0.4 बीटा वाला स्टॉक 0.4% तक गिर सकता है
0 के बराबर इसका मतलब है कि स्टॉक बाजार की चाल से स्वतंत्र है। बाजार में हो रहा बदलाव स्टॉक पर असर नहीं डालेगा। हालांकि 0 बीटा का स्टॉक मिलना काफी मुश्किल है। 
1 से कम 0 से अधिक

,
जैसे : 0.6

इसका मतलब है कि स्टॉक और बाजार एक दिशा में चलते हैं।;
स्टॉक दूहरों की तुलना में कम रिस्की है बाजार मे 1% का बदलाव स्टॉक को 0.6% तक ऊपर ले जा सकता है।
इन्हें आमतौर पर लो बीटा स्टॉक कहते हैं। 
1 से ऊपर, जैसे : 1.2 इसका मतलब है कि स्टॉक बाजार की ही दिशा में चलेगा। लेकिन स्टॉक बाजार से 20% अधिक चल सकता है।
मतलब, अगर बाजार 1.0% बढ़ता है तो, स्टॉक 1.2%. ऊपर जा सकता है। इसी तरह, अगर बाजार 1% नीचे जाता है तो स्टॉक 1.2% तक गिर सकता है. आमतौर पर, ऐसे स्टॉक को हाई बीटा स्टॉक कहते हैं। 

15 जनवरी 2015 को कुछ ब्लू चिप (नामी गिरामी) स्टॉक का बीटा देखिए।

स्टॉक बीटा
ACC लिमिटेड 1.22
एक्सिस बैंक लिमिटेड 1.40
BPCL 1.42
सिपला 0.59
DLF 1.86
इन्फोसिस 0.43
LT 1.43
मारूति सुजुकी 0.95
रिलायंस 1.27
SBI लिमिटेड 1.58

11.6 – माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल में बीटा निकालना 

माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल में आप = SLOPE फंक्शन का इस्तेमाल करके किसी भी स्टॉक का बीटा आसानी से निकाल सकते हैं। यहां मैं TCS को उदाहरण के तौर पर ले कर किसी शेयर का बीटा को निकालने का कदम दर कदम तरीका बता रहा हूं। 

    1. निफ्टी और TCS का पिछले 6 महीने के प्रति दिन का क्लोजिंग प्राइस निकालिए। यह आपको NSE की वेबसाइट पर मिल जाएगा।
    2.  निफ्टी और TCS का हर दिन का रिटर्न (डेली रिटर्न) निकालिए। 
  • डेली रिटर्न = (आज की क्लोजिंग कीमत/ पिछले दिन की क्लोजिंग कीमत) -1 
    1. एक खाली सेल (cell) में SLOPE फंक्शन को लीजिए।
  • SLOPE फंक्शन का फॉर्मैट है: SLOPE(known _y’s,known_x’s) यहां y’s TCS का डेली रिटर्न है और x’s निफ्टी का डेली रिटर्न है। (SLOPE(known_y’s,known_x’s), where known_y’s is the array of daily return of TCS, and known_x’s )
    1. TCS का 6 महीने (3rd Sept 2014 से 3rd March 2015) का बीटा 0.62 है

आप इस गणना के लिए इस एक्सेल शीट ( excel sheet) को देख सकते हैं।

11.7 – स्टॉक पोर्टफोलियो की हेजिंग

अब वापस से स्टॉक पोर्टफोलियो की हेजिंग पर लौटते हैं। यहां पर हम हेजिंग के लिए निफ़्टी फ्यूचर्स का इस्तेमाल करेंगे। यहां पर आपके दिमाग में एक सवाल आ सकता है कि हम निफ्टी फ्यूचर्स का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? स्टॉक पोर्टफोलियो को हेज करने के लिए किसी और चीज का इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते? 

याद रखिए कि दो तरीके के रिस्क होते हैं सिस्टमैटिक रिस्क और अनसिस्टमैटिक रिस्क। जब हम अपने पोर्टफोलियो को डायवर्सिफाई करते हैं तो हम अनसिस्टमैटिक रिस्क को कम कर रहे होते हैं। लेकिन इसके बाद भी सिस्टमैटिक रिस्क बचा रहता है । जैसा कि हमें पता है सिस्टमैटिक रिस्क बाजार से जुड़ा हुआ होता है इसलिए उससे  बचने का सबसे बेहतर तरीका है कि कि हम एक इंडेक्स का इस्तेमाल करें जो कि बाजार का ही प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए किसी भी तरीके के सिस्टमैटिक रिस्क को हेज करने के निफ़्टी फ्यूचर्स सबसे सही तरीका होगा।  

मान लीजिए मैंने बाजार में ₹800000 निवेश किए हैं जो कि निम्नलिखित शेयरों में लगे हैं

क्रम सं स्टॉक का नाम स्टॉक का बीटा निवेश की रकम
01 ACC लिमिटेड 1.22 Rs.30,000/-
02 एक्सिस बैंक लिमिटेड 1.40 Rs.125,000/-
03 BPCL 1.42 Rs.180,000/-
04 सिपला 0.59 Rs.65,000/-
05 DLF 1.86 Rs.100,000/-
06 इन्फोसिस 0.43 Rs.75,000/-
07 LT 1.43 Rs.85,000/-
08 मारूति सुजुकी 0.95 Rs.140,000/-
कुल  Rs.800,000/-

पहला कदम  

स्टॉक पोर्टफोलियो को हेज करने के लिए कुछ कदम उठाने पड़ते हैं। इसमें से पहला कदम है इसका पोर्टफोलियो बीटा निकालना। 

  • पोर्टफोलियो बीटा उस पोर्टफोलियो में शामिल सभी शेयरों के व्हेटेड/वेटेड (weighted) बीटा का जोड़ होता है। 
  • व्हेटेड बीटा निकालने के लिए सभी अलग-अलग शेयरों के बीटा को पोर्टफोलियो में उस शेयर के व्हेटज/वेटेज (weightage) से गुणा किया जाता  है। 
  • पोर्टफोलियो में शेयर का व्हेटज निकालने के लिए उस शेयर में निवेश की रकम को पोर्टफोलियो के कुल निवेश से विभाजित किया जाता है।
  • उदाहरण के तौर पर एक्सिस बैंक का व्हेटज 125,000/800,000=15.6% है 
  • इसलिए इसका व्हेटेड बीटा होगा 15.6%× 1.4=0.21

नीचे के टेबल में दिए गए पोर्टफोलियो के सभी शेयरों का व्हेटेड बीटा दिया गया है

क्रम सं स्टॉक का नाम बीटा निवेश पोर्टफोलियो में व्हेट व्हेटेड बीटा
01 ACC लिमिटेड 1.22 Rs.30,000/- 3.8% 0.046
02 एक्सिस बैंक लिमिटेड 1.40 Rs.125,000/- 15.6% 0.219
03 BPCL 1.42 Rs.180,000/- 22.5% 0.320
04 सिपला 0.59 Rs.65,000/- 8.1% 0.048
05 DLF 1.86 Rs.100,000/- 12.5% 0.233
06 इन्फोसिस 0.43 Rs.75,000/- 9.4% 0.040
07 LT 1.43 Rs.85,000/- 10.6% 0.152
08 मारूति सुजुकी 0.95 Rs.140,000/- 17.5% 0.166
कुल Rs.800,000/- 100% 1.223

सभी शेयरों के व्हेटेड बीटा का जोड़ ही पोर्टफोलियो बीटा होता है। यहां पर पोर्टफोलियो बीटा 1.223 है। इसका मतलब है कि अगर निफ्टी 1% ऊपर जाता है तो ये पोर्टफोलियो 1.223% ऊपर जाएगा। इसी तरीके से, अगर निफ्टी नीचे जाता है तो यह पोर्टफोलियो 1.223% नीचे जाएगा। 

दूसरा कदम हेज की वैल्यू निकालना

हेज वैल्यू का मतलब है पोर्टफोलियो बीटा को कुल इन्वेस्टमेंट/निवेश से गुणा करने से मिली रकम। 

= 1.223 × 800,000

= 978,400/-

याद रखिए कि ये लॉन्ग पोजीशन वाला पोर्टफोलियो है और ये लॉन्ग पोजीशन स्पॉट बाजार में ली गयी है। इसलिए इसको हेज करने के लिए हमें फ्यूचर्स बाजार में एक काउंटर पोजीशन यानी लॉन्ग से उल्टी यानी शॉर्ट पोजीशन बनानी होगी। हेज वैल्यू हमें बताती है कि इस पोर्टफोलियो की काउंटर पोजीशन ₹978400 की शॉर्ट पोजीशन होगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये हाई बीटा पोर्टफोलियो है। 

तीसरा कदम कितने लॉट की जरूरत पड़ेगी

जब मैं इस उदाहरण पर काम कर रहा था, उस समय निफ़्टी फ्यूचर्स 9025 पर चल रहा था और इस का लॉट साइज 25 था। इसलिए हर लॉट की कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी

= 9025 × 25

= Rs 225,625/-

इसका मतलब है कि हमें निफ़्टी फ्यूचर्स के जितने लॉट की जरूरत होगी वो है

= हेज वैल्यू/ कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू

= 978,400/225,625

= 4.33

ऊपर की गणना से हमें पता चलता है कि अपने ₹800000 की पोर्टफोलियो हेज करने के लिए हमें निफ्टी के 4.33 लॉट की जरूरत होगी। हमें पता है कि हम 4.33 लॉट नहीं ले सकते। हमें चार लॉट लेने होंगे या पाँच लॉट, क्योंकि लॉट भिन्न या अंश में नहीं मिल सकते। 

अगर हम चार लॉट लेते हैं तो हम थोड़ा सा कम हेज कर पाएंगे और अगर हम 5 लॉट लेते हैं तो हम ज्यादा हेज कर रहे होंगे। इसलिए हम कभी भी पूरी तरीके से परफेक्ट हेज नहीं कर सकते।

अब मान लीजिए कि हमारे हेज करने के बाद निफ्टी 500 प्वाइंट (लगभग 5.5%) गिर जाता है। ऐसे में हमारे हेज का कितना असर होगा। आइए देखते हैं। यहां पर इस उदाहरण के लिए हम मान लेते हैं कि हमें 4.33 लॉट शार्ट करने की अनुमति है।

निफ्टी पोजीशन

शार्ट किया @ 9025

निफ्टी में गिरावट – 500 प्वाइंट

निफ्टी का स्तर – 8525

लॉट की मात्रा 4.33

P&L = 4.33 ×25×500

= ₹54,125/-

तो निफ्टी के शॉर्ट से ₹ 54,125/- की कमाई हुई। लेकिन इसका पोर्टफोलियो पर क्या असर हुआ। 

पोर्टफोलियो पोजीशन

पोर्टफोलियो की वैल्यू = 800,000

पोर्टफोलियो का बीटा = 1.223

बाजार में गिरावट = 5.5%

पोर्टफोलियो में गिरावट = 5.5% × 1.223 =6.78%

= 6.78% × 800,000

= ₹54,240

तो आप देख सकते हैं कि एक तरफ निफ्टी शॉर्ट पोजीशन में ₹54125 का फायदा हुआ है और दूसरी तरफ पोर्टफोलियो में ₹54240 का नुकसान हुआ है। तो यहां, पोर्टफोलियो में हुए नुकसान को निफ्टी में हुए फायदे ने बराबर कर दिया है। 

अब आपको समझ में आ गया होगा कि अपने स्टॉक के पोर्टफोलियो को कैसे हेज किया जा सकता है। आप ऊपर के उदाहरण में 4.33 लॉट की जगह 4 या 5 लॉट को शॉर्ट करके उसका असर भी देख सकते हैं।

इस अध्याय को खत्म करने के पहले उन 2 सवालों का जवाब दे देते हैं जिनको हमने एक स्टॉक की पोजीशन को हेज करते समय उठाया था।

  1. अगर किसी स्टॉक में फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट है ही नहीं, तो क्या होगा? उदाहरण के लिए साउथ इंडियन बैंक का कोई फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट नहीं है, तो क्या इसका यह मतलब है कि मैं साउथ इंडियन बैंक में अपनी पोजीशन को हेज नहीं कर सकता हूं? 
  2. उदाहरण के लिए स्पॉट की जिस पोजीशन को हमने हेज करने लिया था वह ₹570000 की थी। लेकिन अगर हमारी पोजीशन ₹50000 की होती या ₹100000 की होती तो क्या उस पोजीशन को भी हेज किया जा सकता है? 

तो जवाब ये है कि जिस स्टॉक में फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट नहीं है, आप उनको भी हेज कर सकते हैं। उदाहरण के लिए मान लीजिए आप ने ₹500000 के साउथ इंडियन बैंक में पोजीशन ली है। आप को पहले ये करना है कि इस स्टॉक के बीटा और अपने कुल निवेश की रकम को आपस में गुणा करके हेज वैल्यू निकालना है। मान लीजिए कि स्टॉक का बीटा 0.75 है तो हेज वैल्यू होगी-

500000×0.75

= 375,000

हेज वैल्यू निकालने के बाद, इस वैल्यू को निफ्टी के कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू से विभाजित कर दें तो आपको यह पता चल जाएगा कि हेज करने के लिए आप को निफ्टी के कितने लॉट को शॉर्ट करना होगा। अब बस आपको उतने लॉट की शॉर्ट पोजीशन बनानी है। 

जहां तक दूसरे सवाल की बात है, अगर आप की पोजीशन काफी छोटी है और निफ्टी फ्यूचर्स के कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू के मुकाबले काफी कम है तो आप उस पोजीशन को हेज नहीं कर पाएंगे। ऐसी पोजीशन को हेज करने के लिए आपको ऑप्शन्स का इस्तेमाल करना होगा। जिसकी हम आगे के मॉड्यूल में बात करेंगे, जब हम ऑप्शन्स पर चर्चा करेंगे। 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. बाजार बिगड़ने पर अपनी पोजीशन को बचाने के लिए आप हेजिंग का इस्तेमाल कर सकते हैं। 
  2. जब आप हेजिंग करते हैं तो स्पॉट बाजार में होने वाले नुकसान की भरपाई फ्यूचर्स बाजार के मुनाफे से करते हैं। 
  3. बाजार में 2 तरीके के रिस्क होते हैं सिस्टमैटिक रिस्क और अनसिस्टमैटिक रिस्क। 
  4. सिस्टमैटिक रिस्क बाजार और अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ होता है। सिस्टमैटिक रिस्क को हेज किया जा सकता है। सिस्टमैटिक रिस्क सभी शेयरों पर असर डालता है। 
  5. अनसिस्टमैटिक रिस्क कंपनी से जुड़ा हुआ होता है। हर कंपनी का अपना अलग अनसिस्टमैटिक रिस्क हो सकता है। इससे बचने के लिए आप हेज नहीं कर सकते लेकिन डायवर्सिफाई करके इस रिस्क से बच सकते हैं। 
  6. अब तक की रिसर्च बताती है कि 21 स्टॉक से ज्यादा डायवर्सिफिकेशन आप नहीं कर सकते।   
  7. किसी एक स्टॉक की पोजीशन को हेज करने के लिए बस हमें फ्यूचर्स बाजार में उसकी एक काउंटर पोजीशन बनानी होती है। लेकिन उस पोजीशन की वैल्यू, स्पॉट बाजार के वैल्यू के बराबर ही होनी चाहिए। 
  8. बाजार का बीटा हमेशा +1.0 होता है
  9.  बीटा बाजार में किसी स्टॉक की सेंसिटिविटी (Sensitivity) को नापता है। 
    1.  अगर स्टॉक का बीटा 1 से कम हो तो उसे लो बीटा स्टॉक कहते हैं 
    2. 1 से ज्यादा बीटा वाले स्टॉक को हाई बीटा स्टॉक कहते हैं।
  10.  स्टॉक का बीटा निकालने के लिए आप माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल का इस्तेमाल कर सकते हैं। आपको उसमें SLOPE फंक्शन का इस्तेमाल करना होगा। 
  11. स्टॉक के पोर्टफोलियो को हेज करने के लिए निम्नलिखित कदमों का इस्तेमाल करना पड़ता है-
    1. हर स्टॉक का अलग-अलग बीटा निकालें
    2. पोर्टफोलियो में हर स्टॉक का व्हेटेज निकालें
    3. हर स्टॉक का व्हेटेड बीटा निकालें
    4. सभी स्टॉक के व्हेटेड बीटा को जोड़ कर पोर्टफोलियो बीटा निकालें
    5. पोर्टफोलियो बीटा और पोर्टफोलियो वैल्यू को गुणा कर के हेज वैल्यू पता करें
    6. हेज वैल्यू को निफ्टी के कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू से विभाजित करें और लॉट की मात्रा निकालें
    7. इस मात्रा की लॉट को फ्यूचर्स में शॉर्ट करें।
  12. याद रखिए कि परफेक्ट हेज करना मुश्किल होता है इसलिए हम अंडर या ओवर हेज ही कर सकते हैं।  

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10.1 – कीमत का फॉर्मूला

अगर आप फ्यूचर्स ट्रेडिंग का कोई कोर्स (course) करें तो आपको सबसे पहले फ्यूचर्स की कीमत तय करने के फॉर्मूला के बारे में ही बताया जाता। लेकिन हमने काफी समय तक आप को जानबूझकर इस को नहीं समझाया। ऐसा करने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि हमें लगता है कि फ्यूचर्स में ट्रेड करने वाले ज्यादातर लोग टेक्निकल एनालिसिस के आधार पर ट्रेड करते हैं। इसलिए उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की कीमतें कैसे तय होती हैं। उस फॉर्मूले की थोड़ी-बहुत जानकारी उनके लिए काफी है। लेकिन, अगर आप क्वान्टिटैटिव स्ट्रैटेजीज़ (Quantitative strategies) यानी मात्रा पर आधारित रणनीति का इस्तेमाल करके ट्रेड करना चाहते हैं, जैसे कैलेंडर स्प्रेड के जरिए या इंडेक्स आर्बिट्राज के जरिए, तब आपके लिए इस फॉर्मूले को जानना बहुत जरूरी है। वैसे आपके लिए आगे ट्रेडिंग स्ट्रैटेजीज़ (Trading strategies) यानी ट्रेड की रणनीति पर एक पूरा मॉड्यूल है जिसमें रणनीति के बारे में बात की जाएगी और वहां पर आपको इसे विस्तार को समझाया जाएगा। लेकिन अभी दी जाने वाली ये शुरूआती जानकारी उस मॉड्यूल के लिए आपके काफी काम आएगी।

आपको याद होगा कि पिछले कुछ अध्यायों में हमने कई बार कहा है कि स्पॉट और फ्यूचर्स की कीमतों में अंतर की सबसे बड़ी वजह फ्यूचर्स की कीमतों को तय करने का फॉर्मूला होता है। तो आइए अब समझते हैं कि फ्यूचर की कीमतें किस फॉर्मूले के आधार पर तय की जाती हैं। 

हमें पता है कि फ्यूचर्स के इंस्ट्रूमेंट की कीमत उसकी अंडरलाइंग एसेट की कीमत के आधार पर बदलती रहती है। अगर अंडरलाइंग एसेट की कीमत नीचे जाती है तो फ्यूचर्स की कीमतें नीचे जाती है और अगर एसेट की कीमत ऊपर जाती है तो फ्यूचर्स की कीमत भी ऊपर जाती है। लेकिन फिर भी अंडरलाइंग की कीमत और फ्यूचर्स कीमत में अंतर होता है। दोनों अलग-अलग होते हैं। जैसे इस समय जब मैं ये सब लिख रहा हूं तो निफ्टी की स्पॉट कीमत 8845.5 है जबकि निफ्टी के करेंट मंथ कॉन्ट्रैक्ट की कीमत 8854.7 है। ये अंतर आप स्नैपशॉट में नीचे देख सकते हैं। दोनों कीमत में इस अंतर को बेसिस या स्प्रेड कहते हैं। इस उदाहरण में निफ्टी का स्प्रेड 9.2 प्वाइंट (8854.7 – 8845.5) है।

कीमत में इस अंतर की वजह, स्पॉटफ्यूचर पैरिटी (Spot Future Parity) है। स्पॉटफ्यूचर पैरिटी वह अंतर है जो स्पॉट और फ्यूचर की कीमतों में ब्याज दरों, डिविडेंड और एक्सपायरी से दूरी जैसी वजहों से आता है। यह गणित पर आधारित एक फॉर्मूला है जो अंडरलाइंग की कीमत के तुलनात्मक आधार पर फ्यूचर्स की कीमत की गणना करता है। इसे ही फ्यूचर्स प्राइसिंग फॉर्मूला भी कहते हैं।

फ्यूचर्स प्राइसिंग फॉर्मूला है 

फ्यूचर्स कीमत = स्पॉट कीमत ×(1+rf -d)

Futures Price = Spot price *(1+ rf – d)

यहाँ 

rf = रिस्क फ्री रेट

d = डिविडेंड

ये वह रिस्क फ्री रेट है जो कि आप पूरे साल यानी 365 दिनों तक पा सकते हैं। लेकिन चूंकि एक्सपायरी एक, दो और तीन महीनों बाद होती है इसलिए 365 दिनों के रेट में उसी समय अवधि के हिसाब से बदलाव करना होगा। इसलिए अब नया फॉर्मूला होगा

फ्यूचर्स कीमत = स्पॉट कीमत ×[1+rf × (x/365)-d]

Futures Price = Spot price * [1+ rf*(x/365) – d]

जहाँ 

X = एक्सपायरी में बचे हुए दिन

आप RBI के 91 डे ट्रेजरी बिल को शॉर्ट टर्म रिस्क फ्री रेट के तौर पर मान सकते हैं। RBI के होम पेज पर आपको यह मिल जाएगा। हम एक नीचे इसका स्क्रीन शॉट दे रहे हैं।

जैसा कि आप ऊपर के चित्र में देख सकते हैं कि मौजूदा दर 8.3528% है। इस को ध्यान में रखते हुए अब एक उदाहरण पर काम करते हैं। मान लीजिए इन्फोसिस की स्पॉट कीमत ₹2280.5 है और एक्सपायरी में 7 दिन बचे हैं। ऐसे में इन्फोसिस के इस महीने के फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की कीमत क्या होनी चाहिए? 

फ्यूचर्स कीमत = 2280.5× [1+8.3528%(7/365)] -0

Futures Price = 2280.5 * [1+8.3528 %( 7/365)] – 0

याद रखिए कि इंफोसिस को अगले 7 दिनों तक डिविडेंड नहीं देना है, इसलिए डिविडेंड जीरो होगा। इस नए फार्मूले के हिसाब से फ्यूचर कीमत होगी ₹2283 । इसे फ्यूचर्स का फेयर वैल्यू (Future Value) कहते हैं। लेकिन आप जब नीचे देखेंगे तो आपको फ्यूचर्स कीमत ₹2284 दिखेगी। ये इस कॉन्ट्रैक्ट का मार्केट प्राइस या मार्केट कीमत कहते हैं।

फेयर वैल्यू और मार्केट कीमत में अंतर आने की वजह है ट्रांजैक्शन चार्ज, टैक्स और मार्जिन जैसी चीजें। लेकिन कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि फेयर वैल्यू यह बताता है कि रिस्क फ्री रेट और एक्सपायरी से दूरी को देखते हुए फ्यूचर कीमत क्या होनी चाहिए। अब आगे बढ़ते हैं और मिड मंथ और फार मंथ के कॉन्ट्रैक्ट की कीमत निकालते हैं।

मिड मंथ कीमत की गणना

एक्सपायरी में बचे हुए दिन = 34 (कॉन्ट्रैक्ट 26th मार्च 2015 को एक्सपायर होगा)

Number of days to expiry = 34 (as the contract expires on 26th March 2015)

फ्यूचर्स कीमत = 2280.5 × [1+8.3528%×(34/365)]-0

Futures Price = 2280.5 * [1+8.3528 %( 34/365)] – 0

= 2299

फार मंथ की गणना

एक्सपायरी में बचे हुए दिन = 80 (कॉन्ट्रैक्ट 30th अप्रैल 2015 को एक्सपायर होगा)

Number of days to expiry = 80 (as the contract expires on 30th April 2015)

फ्यूचर्स कीमत = 2280.5 × [1+8.3528%×(80/365)]-0

Futures Price = 2280.5 * [1+8.3528 %( 80/365)] – 0

= 2322

अब देखते हैं कि NSE पर मिड मंथ कॉन्ट्रैक्ट की क्या कीमत है:

अब देखते हैं कि NSE पर फार मंथ कॉन्ट्रैक्ट की क्या कीमत है:

यहां फिर आपको फेयर वैल्यू और मार्केट कीमत में फिर अंतर दिखाई देगा। मुझे लगता है कि यह अंतर उस समय कॉन्ट्रैक्ट से जुड़े खर्च की वजह से है। इसके अलावा यह भी हो सकता है कि बाजार को उम्मीद है कि साल के अंत में कुछ डिविडेंड भी मिलेगा। लेकिन यहां पर महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे एक्सपायरी में बचे हुए दिन बढ़ते जाते हैं वैसे=वैसे फेयर वैल्यू और मार्केट कीमत के बीच में अंतर भी बढ़ता जाता है। 

अब हम एक और सिद्धांत की तरह बढ़ते हैं डिस्काउंट – Discount और प्रीमियम – Premium बाजार के लोग इन दोनों शब्दों का काफी इस्तेमाल करते हैं।

अगर फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट स्पॉट की कीमत से ऊपर चल रहा है तो यह कहा जाता है कि फ्यूचर मार्केट प्रीमियम पर चल रहा है। हालांकि ध्यान देने वाली बात यह है कि यह हिसाबकिताब के नजरिए से ऐसा होना बिलकुल स्वाभाविक है। एक और बात जो आपको जाननी चाहिए वह यह है कि इक्विटी के फ्यूचर्स बाजार में जहां प्रीमियम शब्द का इस्तेमाल होता है वहीं कमोडिटी के डेरिवेटिव मार्केट में इसको कॉन्टैंगो Contango कहते हैं। लेकिन दोनों का मतलब एक ही है कि स्पॉट की कीमत से ज्यादा महंगी फ्यूचर की कीमत है। 

यहां एक नजर डालिए निफ्टी के स्पॉट और  21 जनवरी 2015 की एक्सपायरी वाले फ्यूचरर्स की कीमतों के ग्राफ पर। आप देख सकते हैं कि पूरे सीरीज में निफ्टी फ्यूचर्स की कीमत स्पॉट से ऊपर दिख रहा है।

अब मैं कुछ खास बातों की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूं:

  1. आप देख सकते हैं कि सीरीज की शुरुआत में (काले रंग के तीर से दिखाया गया हिस्सा) स्पॉट और फ्यूचर की कीमतों के बीच में अंतर काफी ज्यादा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उस समय सीरीज की एक्सपायरी काफी दूर है और इस वजह से x/365 फैक्टर का असर फ्यूचर की कीमतों के फॉर्मूले पर ज्यादा है। 
  2. फ्यूचर्स की कीमत स्पॉट के मुकाबले पूरी सीरीज में लगातार प्रीमियम पर है।
  3. सीरीज के अंत आते-आते (नीले रंग के तीर से दिखाया गया) फ्यूचर और स्पॉट की कीमत एक बराबर हो गई है। ऐसा हमेशा होता है, भले ही पूरी सीरीज में फ्यूचर की कीमत स्पॉट की कीमत के मुकाबले प्रीमियम पर हो या डिस्कॉउंट पर लेकिन एक्सपायरी पर दोनों कीमतें एक जगह आ जाती हैं। 
  4. अगर आपने फ्यूचर्स में कोई पोजीशन बनाई है और आप इसको एक्सपायरी के पहले स्क्वेयर ऑफ नहीं करते हैं तो एक्सचेंज इस पोजीशन को ऑटोमेटिक तरीके से स्क्वेयर ऑफ कर देता है और स्पॉट की कीमत के आधार पर सेटल कर देता है। आपको पता ही है कि फ्यूचर की एक्सपायरी वाले दिन स्पॉट और फ्यूचर की कीमतें एक हो जाती हैं।

लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। डिमांड और सप्लाई के बीच में अंतर की वजह से कई बार ऐसा भी होता है कि फ्यूचर की कीमत स्पॉट के मुकाबले कम होती हैं। इस स्थिति में ये कहा जाता है कि फ्यूचर्स की कीमतें डिस्काउंट में हैं। कमोडिटी बाजार में ऐसी स्थिति को बैकवर्डेशन- backwardation कहते हैं।

10.2 – कीमत का उपयोग

इस अध्याय को खत्म करने से पहले एक बार फ्यूचर्स प्राइसिंग फॉर्मूले का इस्तेमाल भी देखते हैं। जैसे कि हमने अध्याय के शुरू में कहा था कि अगर आप क्वान्टिटैटिव स्ट्रैटेजीज़ (Quantitative strategies) यानी मात्रा पर आधारित ट्रेडिंग रणनीति का इस्तेमाल करके ट्रेड करेंगे तो ये फॉर्मूला आपके काम आएगा। यहां ये याद रखें कि यह एक नमूना या उदाहरण है, आगे चलकर हम ट्रेडिंग स्ट्रैटजी पर और चर्चा करेंगे। कल्पना कीजिए कि 

विप्रो की स्पॉट कीमत = 653  

rf 8.35%

x = 30

d = 0

इस आधार पर फ्यूचर कीमत होगी 

फ्यूचर्स कीमत = 653× [1+8.35%(30/365)]-0

= 658

इसमें जब बाजार के चार्जेज़ यानी शुल्क को लगाएंगे तो भी फ्यूचर कीमत को ₹658 के आसपास होना चाहिए। लेकिन अगर फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की कीमत काफी अलग है तो? मान लीजिए 700 पर? इसका मतलब है कि यहां पर एक ट्रेड बनता है। स्पॉट और फ्यूचर के बीच में आमतौर पर 5 प्वाइंट का अंतर होना चाहिए लेकिन कई बार यह अंतर बढ़ जाता है और यहां पर तो ये 47 प्वाइंट तक पहुंच जाता है। ऐसे मौकों का फायदा उठाने के लिए तुरंत एक ट्रेड कर लेना चाहिए। 

यह ट्रेड कैसे करते हैं? जब हम देखते हैं कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट की कीमत अपने फेयर वैल्यू से काफी ज्यादा है इसका मतलब की फ्यूचर्स बाजार में कीमतें काफी महंगी है या फिर हम यह भी कह सकते हैं कि स्पॉट की कीमतें काफी सस्ती हैं। 

ऐसी स्थिति को स्प्रेड ट्रेड – Spread Trade कहते हैं और स्प्रेड ट्रेड में आप सस्ता एसेट खरीदते हैं और महंगा एसेट बेचते हैं। इसलिए अभी आपको सिर्फ यह करना है कि आपको विप्रो फ़्यूचर को बेचना है और साथ ही स्पॉट बाजार में विप्रो को खरीदना है। आइए देखते हैं इसमें कितना मुनाफा हो सकता है

विप्रो को स्पॉट में खरीदा @653

विप्रो को फ्यूचर में बेचा @700

अब हमें पता है कि एक्सपायरी के दिन स्पॉट और फ्यूचर की कीमत एक जगह पर आ जाएंगी। आइए हम देखते हैं कि अगर 675, 645, 715 की अलग-अलग कीमतों पर यह स्पॉट और फ्यूचर एक जगह आती हैं तो हमारे लिए कितना फायदा या नुकसान बनता है

एक्सपायरी कीमत स्पॉट ट्रेड (लाँग) P&L फ्यूचर्स ट्रेड (शॉर्ट) P&L कुल P&L
675 675 – 653 = +22 700 – 675 = +25 +22 + 25 = +47
645 645 – 653 = -08 700 – 645 = +55 -08 + 55 = +47
715 715 – 653 = +62 700 – 715 = -15 +62 – 15 = +47

जैसा कि आप देख सकते हैं कि जब आप ट्रेड करेंगे तो स्पॉट और फ्यूचर की कीमतें आपके लिए लॉक हो जाएंगी और आपको एक स्प्रेड मिलेगा यानी दोनों के बीच में अंतर मिलेगा। इसके बाद बाजार किसी भी दिशा में जाए इस मुनाफे पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि यह स्प्रेड पर आधारित है। यहां इस बात ध्यान रखें कि इसका फायदा उठाने के लिए हमें इस पोजीशन को एक्सपायरी के पहले काटना होगा। इसका मतलब यह है कि एक्सपायरी के पहले आपको विप्रो को स्पॉट बाजार में बेचना होगा और फ्यूचर बाजार में इसे खरीदना होगा। इस तरह के मौकों को कैश एंड कैरी आर्बिटराज (Cash and Carry Arbitrage) कहते हैं

10.3 – कैलेंडर स्प्रेड

कैश एंड कैरी आर्बिट्राज का ही एक रूप है जिसको कैलेंडर स्प्रेड कहते हैं। कैलेंडर स्प्रेड के जरिए हम उस आर्बिट्राज या अंतर का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं जो फ्यूचर के दो कॉन्ट्रैक्ट पर बीच में होता है, ऐसे दो कॉन्ट्रैक्ट जिन का अंडरलाइंग एक ही है लेकिन एक्सपायरी अलग-अलग है। विप्रो वाले उदाहरण को यहां इस्तेमाल करके देखते हैं। 

विप्रो की स्पॉट में कीमत = 653

करेंट मंथ फ्यूचर्स की फेयर वैल्यू (एक्सपायरी 30 दिन बाद) = 658

करेंट मंथ फ्यूचर्स की मार्केट वैल्यू = 700

मिड मंथ फ्यूचर्स की फेयर वैल्यू (एक्सपायरी 65 दिन बाद) = 663

मिड मंथ फ्यूचर्स की मार्केट वैल्यू (एक्सपायरी 65 दिन बाद) = 665

ऊपर के उदाहरण से साफ है कि करंट मंथ का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट काफी ऊपर बिक रहा है। लेकिन मिड मंथ का कॉन्ट्रैक्ट अपने वास्तविक फेयर वैल्यू के आसपास ही है। यह देखने के बाद मुझे एक अनुमान लगाना है कि करेंट मंथ का कॉन्ट्रैक्ट नीचे आएगा और मिड मंथ का कॉन्ट्रैक्ट अपनी फेयर वैल्यू के आसपास ही रहेगा।

तो अब मिड मंथ के मुकाबले करेंट मंथ का कॉन्ट्रैक्ट महंगा है। ऐसे में हम महंगा कॉन्ट्रैक्ट बेचेंगे और सस्ता कॉन्ट्रैक्ट खरीदेंगे। तो फिर ऐसे में ट्रेड बनेगा कि मुझे मिड मंथ का फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट 665 पर खरीदना है और करेंट मंथ का कॉन्ट्रैक्ट 700 पर बेचना है। 

तो स्प्रेड क्या होगा होगा? दोनों फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के बीच का अंतर यानी 700-665=35 

इस स्प्रेड का फायदा उठाने के लिए ट्रेड ऐसे बनेगा

करेंट मंथ का फ्यूचर्स बेचें @ 700

मिड मंथ का फ्यूचर्स खरीदें @ 665

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि चूंकि आप एक ही अंडरलाइंग वाले फ्यूचर्स के दो अलग-अलग महीनों के कॉन्ट्रैक्ट खरीद रहे हैं इसलिए आपके लिए मार्जिन काफी कम रहेगी। क्योंकि यह एक हेज्ड (Hedged) पोजीशन है। 

यह ट्रेड शुरू करने के बाद आपको मौजूदा यानी करेंट मंथ के फ्यूचर्स की एक्सपायरी का इंतजार करना है। आपको पता है कि एक्सपायरी पर करंट मंथ का फ्यूचर्स और स्पॉट की कीमत एक जगह आ जाएगी। ऐसा होने के ठीक पहले यानी करेंट मंथ के कॉन्ट्रैक्ट के एक्सपायर होने के ठीक पहले आपको अपनी पोजीशन काट लेनी चाहिए।

नीचे देखते हैं कि कुछ परिस्थितियों में P&L कैसा दिखता है 

एक्सपायरी कीमत करेंट मंथ (शॉर्ट) P&L मिड मंथ (लांग) P&L Net P&L
660 700 – 660 = +40 660 – 665 = -5 +40 – 5 = +35
690 700 – 690 = +10 690 – 665 = +25 +10 + 25 = +35
725 700 – 725 = -25 725 – 665 = +60 -25 + 60 = +35

 

आपको याद रखना चाहिए कि आपने माना है कि मिड मंथ कॉन्ट्रैक्ट अपने फेयर वैल्यू के आसपास ही रहेगा। वैसे मेरे अनुभव के हिसाब से ऐसा ही होगा। 

एक और महत्वपूर्ण बात यहां याद रखिए कि इस अध्याय में स्प्रेड के बारे में जो भी बातें की गई हैं ये ट्रेडिंग स्ट्रैटेजी यानी रणनीति का एक नमूना भर हैं। आगे आने वाले मॉड्यूल में हम इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे और बताएंगे कि आप इनका इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. फ्यूचर्स प्राइसिंग फॉर्मूला बताता है कि फ्यूचर्स कीमत = स्पॉट कीमत ×[1+rf × (x/365)-d]
  2. स्पॉट कीमत और फ्यूचर्स की कीमतों के अंतर को बेसिस या स्प्रेड कहते हैं।
  3. फ्यूचर्स प्राइसिंग फॉर्मूला के आधार पर निकाली गई फ्यूचर्स की कीमत को थ्योरीटिकल यानी सैद्धांतिक फेयर वैल्यू भी कहा जाता है।
  4. फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट जिस कीमत पर बाजार में बिक रहा होता है उसको मार्केट कीमत या मार्केट वैल्यू कहते हैं। 
  5. थ्योरीटिकल फेयर वैल्यू और मार्केट वैल्यू एक दूसरे के जैसे ही होनी चाहिए लेकिन इन में थोड़ा अंतर हो सकता है, क्योंकि कुछ खर्चों को अलग से जोड़ा जाता है।
  6. अगर फ्यूचर्स की कीमत स्पॉट से ज्यादा है तो इसको कहा जाता है कि फ्यूचर्स प्रीमियम पर बिक रहा है और अगर फ्यूचर्स की कीमत नीचे है तो कहा जाता है कि वो डिस्काउंट पर मिल रहा है।
  7. कमोडिटी में फ्यूचर्स प्रीमियम को कांटैंगो और डिस्काउंट को बैकवर्डेशन कहते हैं।
  8. कैश एंड कैरी ऐसे तरीके का स्प्रेड है जहां पर आप स्पॉट को खरीदते हैं और फ्यूचर्स में बेचते हैं।
  9. कैलेंडर स्प्रेड भी कैश एंड कैरी का ही एक अलग रूप है। यहाँ पर आप एक कॉन्ट्रैक्ट को खरीदते हैं और दूसरे कॉन्ट्रैक्ट को बेचते हैं जबकि दोनों की एक्सपायरी अलग-अलग होती है लेकिन अंडरलाइंग एक होता है।

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निफ्टी फ्यूचर्स https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:05:04 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6295 9.1 – इंडेक्स फ्यूचर्स के मूल सिद्धांत भारत के डेरिवेटिव बाजार में निफ्टी फ्यूचर्स का अपना एक खास स्थान है। फ्यूचर्स बाजार में सबसे ज्यादा कारोबार निफ़्टी फ्यूचर्स में होता है और यह सबसे ज्यादा लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट है। आपको शायद यह नहीं पता होगा लेकिन निफ्टी फ्यूचर्स दुनिया के 10 सबसे बड़े इंडेक्स फ्यूचर्स में […]

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9.1 – इंडेक्स फ्यूचर्स के मूल सिद्धांत

भारत के डेरिवेटिव बाजार में निफ्टी फ्यूचर्स का अपना एक खास स्थान है। फ्यूचर्स बाजार में सबसे ज्यादा कारोबार निफ़्टी फ्यूचर्स में होता है और यह सबसे ज्यादा लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट है। आपको शायद यह नहीं पता होगा लेकिन निफ्टी फ्यूचर्स दुनिया के 10 सबसे बड़े इंडेक्स फ्यूचर्स में से एक है जिनकी ट्रेडिंग होती है। एक बार जब आप फ्यूचर्स में कारोबार करना सीख जाएंगे तो मेरा मानना है कि बाकी लोगों की तरह आप भी निफ़्टी फ्यूचर्स में कारोबार जरूर करेंगे और इसी वजह से निफ्टी फ्यूचर्स को ठीक से समझना बहुत ज्यादा जरूरी है। लेकिन आगे बढ़ने से पहले मेरा आपसे अनुरोध है कि एक बार आप इंडेक्स के बारे में अपनी जानकारी को फिर से दोहरा लें। इस जगह पर हमने इंडेक्स पर चर्चा की थी। 

मैं उम्मीद करता हूं कि इंडेक्स के बारे में अब आपको पूरी जानकारी है और इसीलिए अब हम इंडेक्स फ्यूचर्स या निफ़्टी फ्यूचर्स की तरफ बढ़ते हैं। 

जैसा कि हम जानते हैं कि फ्यूचर्स इंस्ट्रूमेंट डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट का एक हिस्सा हैं और यह अपने अंडरलाइंग एसेट की कीमत के साथ साथ ऊपर या नीचे जाता है। इसीलिए निफ़्टी फ्यूचर्स भी निफ़्टी इंडेक्स के ऊपर या नीचे गिरने पर साथसाथ चलता है।

निफ़्टी फ्यूचर्स के कॉन्ट्रैक्ट के स्नैपशॉट (Snapshot) पर नजर डालते हैं

किसी भी दूसरे फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की तरह निफ्टी फ्यूचर्स भी तीन प्रकार के होते हैं करेंट मंथ (Current month),  मिड मंथ (Mid month) और फॉर मंथ (Far month)। मैंने इनकी एक्सपायरी को हाईलाइट किया हुआ है। मैंने निफ़्टी फ्यूचर्स की कीमत को भी हाईलाइट किया हुआ है जो कि ₹11484.9 प्रति यूनिट पर उपलब्ध है। स्क्रीनशॉट लेने के समय निफ़्टी की स्पॉट कीमत ₹11470.70 है। यहां भी स्पॉट कीमत और फ्यूचर्स की कीमत में जो अंतर है वह फ्यूचर्स की कीमत के फार्मूले की वजह से ही है। फ्यूचर्स की कीमत के फार्मूले को हम अगले अध्याय में समझेंगे। 

आप यह भी देख सकते हैं कि लॉट साइज 75 का है। हमें पता है कि कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू

CV =  फ्यूचर्स की कीमत × लॉट साइज 

CV = Futures Price * Lot Size

= 11484.90 × 75

= ₹ 861,367

निफ़्टी फ्यूचर्स के कॉन्ट्रैक्ट में कारोबार करने के लिए कितनी मार्जिन लगेगी यह पता करने के लिए हमने जेरोधा मार्जिन कैलकुलेटर इस्तेमाल किया और हमें जो मार्जिन पता चली– 

ऑर्डर का प्रकार मार्जिन
NRML Rs.68,810/-
MIS Rs.24,083/-
BO & CO Rs.12,902/-

 

ऊपर दी गई जानकारी के आधार पर अब आप निफ़्टी फ्यूचर्स को थोड़ा बहुत जान चुके हैं। निफ़्टी फ्यूचर्स की सबसे बड़ी खासियत उसकी लिक्विडिटी है। इसीलिए वह इतना लोकप्रिय है। आइए देखते हैं कि लिक्विडिटी क्या है और इसको कैसे नापते हैं।

9.2 इंपैक्ट कॉस्ट 

बाजार में आप बार-बार लिक्विडिटी शब्द को सुनते होंगे। आम भाषा में कहें तो लिक्विडिटी वह चीज है जो आपको किसी भी स्टॉक या फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट को आसानी से बेचने और खरीदने की सहूलियत देता है। जो स्टॉक ज्यादा लिक्विड होता है उसमें बड़े ट्रेडर कितनी भी बड़ी मात्रा में शेयर खरीद और बेच सकते हैं और उससे स्टॉक की कीमत पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ता। बाजार के बड़े खिलाड़ी यानी इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर भी लिक्विड स्टॉक में ही ज्यादा कारोबार करते हैं। जिस स्टॉक में लिक्विडिटी ज्यादा होती है वहां पर वोलैटिलिटी भी कम होती है। अगर स्टॉक ज्यादा लिक्विड है तो उसमें मार्केट आर्डर डालना भी आसान होता है। 

लिक्विडिटी को समझने के लिए उदाहरण के तौर पर MRF लिमिटेड के शेयर को लेते हैं। मान लीजिए एक विदेशी निवेश संस्थागत निवेशक MRF के 5000 शेयर खरीदना चाहता है। जैसा कि आपको पता है कि MRF कीमत के हिसाब से सबसे महंगे स्टॉक्स में से एक है। इसका एक शेयर ₹38000 के आसपास होता है। इसका मतलब है कि 5000 शेयर खरीदने के लिए खरीदने पर यह सौदा ₹20 करोड़ के आसपास का होगा। याद रखिए कि 20 करोड़ का सौदा किसी भी विदेशी संस्थागत निवेशक के लिए कोई बड़ा सौदा नहीं है। खैर, अभी आगे बढ़ते हैं और देखते हैं कि अगर वह 5000 शेयर खरीदना चाहते हैं तो बाजार में MRF की लिक्विडिटी कैसी है? इसके लिए NSE की वेबसाइट से लिए गए MRF लिमिटेड के ऑर्डर बुक पर नजर डालते हैं

अगर आप ज्यादा मात्रा में किसी शेयर को खरीदना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको यह देखना होगा कि बाजार में उसके कितने शेयर खरीदे जाने के लिए उपलब्ध हैं। जैसा कि आप ऊपर के चित्र में देख सकते हैं कि बाजार में MRF लिमिटेड के केवल 4313 शेयर ही बेचे जा रहे हैं। इसको यहां नीले रंग के तीर से हाईलाइट किया गया है। साफ है कि इस सौदे को पूरा करने के लिए जितने शेयरों की जरूरत है उतने शेयर बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं। इसका मतलब है कि MRF लिमिटेड का स्टॉक लिक्विड नहीं है। लिक्विडिटी को पता करने के लिए आप बिड आस्क स्प्रेड (Bid Ask Spread) को भी देख सकते हैं और उसकी इंपैक्ट कॉस्ट का अनुमान भी लगा सकते हैं। मार्केट ऑर्डर के लिए इंपैक्ट कॉस्ट को जानना काफी मददगार साबित हो सकता है।

इंपैक्ट कॉस्ट वह नुकसान है जो राउंड ट्रिप (Round-trip) सौदे में होता है। इस नुकसान को बिड और आस्क (Bid and Ask) कीमत के औसत के प्रतिशत के तौर पर बताया जाता है। राउंड ट्रिप ट्रेड एक ऐसा सौदा है जिसमें आप सबसे पहली उपलब्ध कीमत पर शेयर खरीदते हैं और सबसे पहली उपलब्ध कीमत पर शेयर बेच देते हैं। यह सौदा MRF में कर के देखते हैं।(ऊपर दिए गए ऑर्डर बुक के आधार पर)

खरीद कीमत  ₹38364.95

बिक्री कीमत  ₹38266.25

अगर मुझे यह राउंडट्रिप करना होगा तो मैं इस सौदे में अपना नुकसान कर बैठूंगा। वास्तव में, सारे राउंडट्रिप सौदे नुकसान ही कराते हैं। इस सौदे में होने वाला नुकसान है

= 38364.95 – 38266.25

= 98.7

बिड और आस्क का औसत होगा

= (38364.95+38266.25)/2

=  ₹38315.60

तो इंपैक्ट कॉस्ट होगी – 

राउंड ट्रिप नुकसान / बिड आस्क का औसत

= 98.7 / 38315.60

= 0.3%

तो अब आप इस जानकारी का उपयोग कहाँ करेंगे? यहां पर इसका सीधा मतलब है कि अगर आप बाजार में इस स्टॉक को खरीदने या बेचने का मार्केट आर्डर डालेंगे तो आप इंपैक्ट कॉस्ट की वजह से 0.3% का नुकसान उठाएंगे। हो सकता है कि हमेशा हर ट्रेड में ऐसा ना हो लेकिन आपको इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए। यह इस पर भी निर्भर करता है कि आप कितने शेयरों का सौदा करने वाले हैं। तो अगली बार जब आप अपने ब्रोकर को कोई भी शेयर खरीदने या बेचने का ऑर्डर दें तो याद रखें स्क्रीन पर आपको जो कीमत दिख रही है और जिस कीमत पर ब्रोकर वह सौदा करेगा दोनों में अंतर होगा और यह अंतर इंपैक्ट कॉस्ट की वजह से हो सकता है। 

0.3% का इंपैक्ट कॉस्ट काफी ज्यादा है। इसको अच्छे से समझने के लिए एक बार निफ़्टी फ्यूचर्स के एक सौदे पर नजर डालते हैं।

वह कीमत जिस पर आप खरीद सकते हैं = 11484.95 

 

वह कीमत जिस पर आप बेच सकते हैं = 11484.00 

राउंड ट्रिप नुकसान = 0.95 (11484.95 – 11484) 

बिड और आस्क का औसत = (11484+11484.95)/2

= 11484.47

इंपैक्ट कॉस्ट = 0.95/11484.47

= 0.0082% 

इसका मतलब है कि अगर आप निफ्टी फ्यूचर्स को बाजार कीमत पर खरीदेंगे तो आपको 0.0082% का नुकसान उठाना पड़ सकता है। अगर इसकी तुलना आप MRF के इंपैक्ट कॉस्ट 0.3% से करेंगे तो आपको समझ में आएगा कि लिक्विडिटी का क्या असर पड़ता है। अब तक की बातचीत से जो खास बातें निकली हैं, वह हैं 

  1. इंपैक्ट कॉस्ट से लिक्विडिटी का अंदाजा मिलता है 
  2. किसी स्टॉक में लिक्विडिटी जितनी ज्यादा होती है इंपैक्ट कॉस्ट उतना ही कम होता है 
  3. खरीदने और बेचने की कीमत के बीच के स्प्रेड से भी लिक्विडिटी का अंदाज मिलता है 
  • ये स्प्रेड जितना ज्यादा होगा उतना ही इंपैक्ट कॉस्ट अधिक होगा 
  • स्प्रेड जितना कम होगा इंपैक्ट कॉस्ट उतना ही कम होगा 
  1. लिक्विडिटी जितनी ज्यादा होगी वोलैटिलिटी उतनी ही कम होगी 
  2. अगर किसी स्टॉक में लिक्विडिटी कम है तो उसके लिए मार्केट ऑर्डर डालना बहुत अच्छा रास्ता नहीं है 

हमें पता है कि निफ्टी फ्यूचर्स भारतीय बाजारों के सबसे लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट में से एक है। इसलिए 0.0082% को एक बेंचमार्क माना जा सकता है और इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि MRF का 0.3% का इंपैक्ट कॉस्ट बहुत ही ज्यादा है।  इसी से ये साफ है कि MRF बहुत ही कम लिक्विडिटी वाला स्टॉक है। निफ़्टी फ्यूचर्स के अलावा बहुत सारे कॉन्ट्रैक्ट ऐसे हैं जो कि काफी लिक्विड हैं जैसे बैंक निफ़्टी फ्यूचर्स, रिलायंस इंडस्ट्रीज, टाटा मोटर्स, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, इंफोसिस, TCS ITC, DLF, सिप्ला आदि। आप इनमें से कुछ का इंपैक्ट कॉस्ट निकाल कर यह पता कर सकते हैं कि उनकी लिक्विडिटी कितनी है।

9.3 – निफ्टी में ट्रेड करने के फायदे 

जैसा कि आपको पता है कि Nifty50  शेयरों का एक समूह है। इन 50 शेयरों को भारतीय अर्थव्यवस्था के अलग-अलग सेक्टर से चुना जाता है। इसलिए निफ्टी भारतीय अर्थव्यवस्था का अच्छे से प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए स्वाभाविक तौर पर अगर भारत और भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छे से चल रही है तो निफ्टी के ऊपर जाने की संभावना होती है। इसी तरह अगर अर्थव्यवस्था में गड़बड़ी है तो निफ्टी के नीचे जाने की आशंका बनती है। अपनी इसी खूबी की वजह से निफ्टी फ्यूचर्स में ट्रेड करना किसी एक स्टॉक में ट्रेड करने के मुकाबले ज्यादा बेहतर होता है। निफ्टी में ट्रेड करने की कुछ अच्छी वजहों पर नजर डालते हैं  

  1. यह डायवर्सिफाइड (Diversified) है कई बार किसी एक स्टॉक की दिशा को पता करना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि उससे जुड़े हुए सारे रिस्क हमें पता नहीं होते हैं। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए मैं इंफोसिस लिमिटेड का शेयर खरीदना चाहता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि उसके तिमाही नतीजे अच्छे आने वाले हैं। लेकिन अगर उसके नतीजे बाजार को पसंद नहीं आए तो शेयर नीचे जाएगा और मुझे नुकसान उठाना पड़ेगा। उधर दूसरी तरफ, निफ़्टी फ्यूचर्स में 50 शेयरों की भागीदारी होती है इसलिए वो किसी एक शेयर के अच्छा या बुरा करने से ज्यादा प्रभावित नहीं होता है। वैसे निफ्टी में भी कुछ हेवी वेट (heavy weight) स्टॉक होते हैं लेकिन वो हर दिन एक तरह का असर नहीं डालते। खैर, मुद्दे की बात यह है कि निफ्टी फ्यूचर्स में ट्रेड करने पर आप कई तरीके के रिस्क से बच जाते हैं जिनको अनसिस्टमैटिक रिस्क (Unsystematic risk) कहते हैं आपको सिर्फ सिस्टमैटिक रिस्क (Systematic risk) का सामना करना पड़ता है। इन दोनों तरीके के रिस्क पर हम आगे विस्तार से हेजिंग के मुद्दे के साथ चर्चा करेंगे। 
  2. इसको मैनिपुलेट करना मुश्किल है निफ्टी में 50 सबसे ज्यादा मार्केट कैपिटलाइजेशन वाली कंपनियों के शेयर होते हैं, इसलिए इसके साथ छेड़छाड़ (manipulation) यानी भाव को ऊपर नीचे करना आसान नहीं होता। जबकि किसी एक स्टॉक के बारे में कई बार ऐसी शिकायतें सुनने में आती हैं कि उनके कीमतों से खिलवाड़ किया जा रहा है। आप सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज और भूषण स्टील का उदाहरण याद कर सकते हैं। 
  3. भारी लिक्विडिटी  हमने इस अध्याय में पहले लिक्विडिटी पर चर्चा की थी। क्योंकि निफ़्टी फ्यूचर बहुत ज्यादा लिक्विड है इसलिए आप इसमें कितनी भी बड़ी मात्रा में ट्रेड कर सकते हैं बिना इस बात की चिंता किए हुए की इंपैक्ट कॉस्ट की वजह से आपको नुकसान उठाना पड़ेगा। 
  4. कम मार्जिन  निफ़्टी फ्यूचर्स का मार्जिन किसी एक स्टॉक के मार्जिन के मुकाबले हमेशा कम होता है। आमतौर पर निफ्टी का मार्जिन 12 से 15% के बीच में होता है, जबकि किसी किसी स्टॉक का मार्जिन 40 से 60% के बीच भी हो सकता है। 
  5. निफ्टी की दिशा अर्थव्यवस्था पर आधारित होती है निफ़्टी फ्यूचर्स में कारोबार करने के लिए आपको अर्थव्यवस्था की दिशा के बारे में एक राय बनानी होती है जबकि किसी कंपनी के शेयर की कीमत की दिशा जानने के लिए आपको बहुत सारी चीजों को जानना होता है। 
  6. टेक्निकल एनालिसिस आसान होती है जिस भी स्टॉक या फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में लिक्विडिटी ज्यादा होती है वहां पर टेक्निकल एनालिसिस आसान हो जाती है क्योंकि उस पर सीधा डिमांड यानी मांग और सप्लाई यानी आपूर्ति का ही असर होता है और टेक्निकल एनालिसिस सबसे ज्यादा डिमांड सप्लाई के भरोसे ही चलती है।
  7. कम वोलैटिलिटी निफ़्टी फ्यूचर्स में किसी एक स्टॉक के मुकाबले वोलैटिलिटी कम होती है। उदाहरण के तौर पर निफ्टी फ्यूचर्स का वार्षिक वोलैटिलिटी 16 से 17% के बीच में रहता है जबकि किसी-किसी स्टॉक्स में ये काफी ज्यादा होता है। उदाहरण के तौर पर इंफोसिस में वार्षिक वोलैटिलिटी 30% तक होती है।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. निफ़्टी फ्यूचर्स की कीमत उसके अंडरलाइंग यानी निफ़्टी 50 इंडेक्स पर आधारित होती है। 
  2. निफ़्टी फ्यूचर्स का लॉट साइज इस समय 75 का है। 
  3. निफ़्टी फ्यूचर्स भारतीय फ्यूचर्स बाजार के सबसे लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट में से एक है।
  4. किसी भी दूसरे फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की तरह निफ्टी फ्यूचर्स में भी करंट मंथ, मिड मंथ और फार मंथ के तीन कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध होते हैं। 
  5. राउंड ट्रिप ट्रेड एक ऐसा ट्रेड होता है जिसमें आप सबसे अच्छी उपलब्ध कीमत पर खरीदते हैं और सबसे अच्छी उपलब्ध कीमत पर बेच देते हैं। 
  6. एक राउंड ट्रिप ट्रेड में हमेशा नुकसान होता है।
  7. राउंड ट्रिप के नुकसान और बिड और आस्क के औसत के बीच के प्रतिशत को इंपैक्ट कॉस्ट कहा जाता है। 
  8. इंपैक्ट कॉस्ट जितना ज्यादा होगा, लिक्विडिटी उतनी कम होगी और अगर इंपैक्ट कॉस्ट कम है तो लिक्विडिटी ज्यादा होगी। 
  9. जब आप मार्केट ऑर्डर डालते हैं तो आपको इंपैक्ट कॉस्ट की वजह से थोड़ा-सा नुकसान सहना पड़ सकता है। 
  10. निफ्टी का इंपैक्ट कॉस्ट 0.0082% है जो कि इसे इस समय के बाजार का सबसे ज्यादा लिक्विड कॉन्ट्रैक्ट बनाता है।

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8.1 – शॉर्टिंग संक्षेप में

शॉर्टिंग यानी शॉर्ट करना क्या है इसके बारे में हमने मॉड्यूल 1 में छोटी सी चर्चा की थी। अब इस अध्याय पर हम शॉर्टिंग के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में शॉर्टिंग जैसी कोई दूसरी चीज नहीं होती इसलिए इस सिद्धांत को समझना थोड़ा-सा मुश्किल होता है। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि आप  X कीमत पर एक मकान खरीदना चाहते हैं और 2 साल बाद उसी मकान को Y कीमत पर बेचना चाहते हैं। इस सौदे में X और Y के बीच में जो अंतर होगा वही आपकी कमाई होगी। इसी तरीके से हम पहले कोई भी चीज खरीदते हैं और खरीदने के बाद ही उसे फायदे या नुकसान पर बेच पाते हैं। लेकिन शॉर्टिंग में इसका ठीक उल्टा होता है वहां हम पहले बेचते हैं और बाद में खरीदते हैं।

तो, बाजार में ऐसा क्या होता है जो ट्रेडर को पहले बेचने के लिए प्रोत्साहित करता है? इसका बहुत ही सीधा-सा जवाब है। जब हमें लगता है कि किसी चीज की कीमत ऊपर जाएगी तो हम पहले तो खरीद लेते हैं और बाद में कीमत बढ़ने पर उसको बेच देते हैं। इसी तरह जब हमें पता होता है कि कीमत नीचे जाने वाली है तो पहले बेचते हैं और कीमत कम हो जाने पर वापस इसे खरीद लेते हैं। 

इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए आप और आपका दोस्त बैठकर भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देख रहे हैं। आपके और आपके दोस्त के बीच में शर्त लगती है। आपको लगता है कि भारत जीतेगा और आपके दोस्त को लगता है कि भारत हारेगा। इसका मतलब है कि अगर भारत मैच जीतता है तो आप पैसे कमाएंगे और अगर भारत मैच हार जाता है तो आपका दोस्त पैसे बनाएगा। अब इसी बात को स्टॉक मार्केट के नजरिए से देखिए। मान लीजिए कि भारत शेयर बाजार का एक स्टॉक  है। तो, अपनी शर्त में आप कह रहे हैं कि आपका स्टॉक यानी भारतीय टीम (स्टॉक) अगर ऊपर जाता है (टीम जीतती है) तो आपके पैसे बनेंगे। इसी तरीके से आपका दोस्त कह रहा है कि अगर भारतीय टीम (स्टॉक) नीचे जाएगा यानी भारतीय टीम हारेगी तो ऐसे में उसके पैसे बनेंगे। बाजार की भाषा में कहें तो आप भारतीय टीम पर लांग हैं और आपका दोस्त भारतीय टीम पर शॉर्ट है। 

इसके बाद भी आपके दिमाग में कई सवाल आ रहे होंगे। क्योंकि शॉर्टिंग को समझना इतना आसान नहीं है। अगर आप शॉर्टिंग के सिद्धांत के बारे में बिल्कुल नहीं जानते तो बस ये याद रखिए कि जब किसी स्टॉक या शेयर के नीचे जाने की संभावना होती है तो आप शॉर्ट करके पैसे बना सकते हैं। किसी शेयर या उसके फ्यूचर्स को शॉर्ट करने के लिए पहले उसे आप को बेचना होता है और बाद में आप उसे खरीदते हैं। वैसे इसे सीखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आप स्टॉक मार्केट में किसी शेयर को शार्ट करें और उससे होने वाले फायदे या नुकसान को झेलें। लेकिन आपके ऐसा करने के पहले मैं कोशिश करूंगा कि इस अध्याय में आपको वो सारी बातें बता सकूं जिसको आप को शॉर्ट करने के पहले जानना चाहिए।

8.2 – स्पॉट बाजार में शेयर की शॉर्टिंग

आप फ्यूचर्स मार्केट में जाकर शॉर्ट करें उसके पहले ये जानना चाहिए कि स्पॉट बाजार में शॉर्ट कैसे किया जाता है। एक स्थिति की कल्पना कीजिए- 

  1. एक ट्रेडर HCL टेक्नोलॉजीज लिमिटेड के डेली चार्ट को देखता है और उसे वहां पर एक बेयरिश मारूबोज़ू दिखता है।
  2. बेयरिश मारूबोज़ू के अलावा चेक लिस्ट की दूसरी सभी शर्तें भी पूरी होती हुई दिखती हैं। 
  • वॉल्यूम औसत से ज्यादा है 
  • रेजिस्टेंस लेवल मौजूद है 
  • इंडिकेटर्स भी इस बात की पुष्टि कर रहे हैं 
  • रिस्क-रिवार्ड रेश्यो संतोषजनक है 
  1. इन सब के आधार पर ट्रेडर को लगता है कि HCL टेक्नोलॉजीज अगले दिन 2% गिरेगा। 

तो, ट्रेडर इस गिरावट का फायदा उठाना चाहता है इसीलिए वह HCL टेक्नोलॉजीज को शॉर्ट करने का इरादा बनाता है। इस ट्रेड पर नजर डालते हैं-

स्टॉक HCL टेक्नोलॉजीज
ट्रेड का प्रकार शॉर्ट (पहले बेचना फिर खरीदना)
समय अवधि इंट्रा डे
कीमत Rs.1990/-
शेयरों की संख्या 50
टारगेट कीमत Rs.1950/-
% मुनाफे की उम्मीद 2.0%
स्टॉपलॉस Rs.2000/-
रिस्क Rs.10/-
रिवार्ड Rs.40/-

अब हमें पता है कि जब शेयर के गिरने की संभावना होती है तो मुनाफा कमाने की उम्मीद पर शेयर को या उसके फ्यूचर को शॉर्ट किया जाता है। ऊपर के टेबल में हमें दिख रहा है कि 1990 रुपये की कीमत पर स्टॉक को शार्ट करना है।

ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म पर जब आप शॉर्ट करना चाहते हैं, तो आपको सिर्फ उस स्टॉक को या उसके फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट को हाईलाइट करना होता है और उसके बाद F2 बटन दबाना होता है। ऐसा करते ही आपके सामने सेल ऑर्डर फॉर्म आ जाता है। अब आपको उसमें मात्रा भरनी है, दूसरी जानकारियां देनी है और सबमिट (Submit) कर देना है। जब आप सबमिट का बटन दबाते हैं तो ऑर्डर एक्सचेंज पर चला जाता है। जैसे ही यह सौदा पूरा होता है आपके लिए बाजार में एक शॉर्ट पोजीशन बन जाती है। 

अब जरा यह सोचिए कि आप जब एक ट्रेडिंग पोजीशन बनाते हैं तो आपको नुकसान कब होता है? आपको नुकसान तब होता है जब शेयर की कीमत आपके अनुमान के विपरीत दिशा में चली जाती है। 

  1. तो जब आप एक स्टॉक को शॉर्ट कर रहे हैं तो आप कीमत को किस दिशा में जाने की उम्मीद कर रहे हैं? 
    1. आपकी उम्मीद है कि शेयर की कीमत नीचे की तरफ जाएगी, 
  2. आपको नुकसान कब होगा? 
    1. जब शेयर की कीमत उलटी दिशा में जाने लगेगी 
  3. और वो दिशा कौन सी होगी? 
    1. जब आपके शेयर की कीमत नीचे जाने की जगह ऊपर की तरफ जाने लगेगी 

इसी वजह से जब आप शॉर्ट करते हैं तो इस सौदे का स्टॉपलॉस हमेशा ऊपर की तरफ होता है। इसीलिए ऊपर के टेबल में आप को दिख रहा होगा कि शॉर्ट के ट्रेड के लिए एंट्री कीमत है 1990 रुपए और स्टॉपलॉस है ₹2000 जो कि आप की एंट्री कीमत से ₹10 ज्यादा है। 

अब 1990 रुपए पर आपके शॉर्ट ट्रेड शुरू करने के बाद दो स्थितियां हो सकती हैं:

स्थिति 1 – स्टॉक की कीमत 1950 रुपए के टारगेट तक पहुंच जाती है 

इस स्थिति में स्टॉक की कीमत आपकी उम्मीद के हिसाब से चली है। स्टॉक नीचे गिरा है ₹1990 से गिरकर ₹1950 तक पहुंचा है और आप का टारगेट पूरा हो चुका है। ऐसे में ट्रेडर अपनी पोजीशन को बंद करेगा। जैसा कि हम जानते हैं कि जब ट्रेडर शॉर्ट पोजीशन बनाता है तो 

  1. पहले ₹1990 की कीमत पर बेचेगा
  2. उसके बाद ₹1950 की कीमत पर खरीदेगा। 

इस तरह से इस पूरी प्रक्रिया में ट्रेडर अपनी बेचने और खरीदने की कीमत के बीच के अंतर यानी ₹40 (1990-1950=40) की कमाई करेगा। 

समझने के लिए आप इसे ऐसे भी देख सकते हैं कि ट्रेडर ने 1950 रुपए पर खरीदा और 1990 रुपए पर बेचा और इस तरीके से ₹40 कमा लिए। बस यहां हो यह रहा है कि यह उल्टे तरीके से हो रहा है जहां पर पहले बेचा जा रहा और बाद में खरीदा जा रहा है। 

स्थिति 2 – स्टॉक की कीमत बढ़कर ₹2000 तक पहुंच जाती है 

इस स्थिति में स्टॉक की कीमत ऊपर चली गई है और याद रखिए कि आप शॉर्ट तब करते हैं जब आप सोचते हैं कि स्टॉक की कीमत नीचे जाएगी। आपको मुनाफा भी तभी होता है जब स्टॉक की कीमत नीचे जाती है। अगर स्टॉक की कीमत ऊपर चली गई तो आपको नुकसान होगा। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है और ट्रेडर को नुकसान हो रहा है। 

  1. ट्रेडर ने 1990 रुपए की कीमत पर शार्ट किया था, शार्ट करने के बाद शेयर की कीमत ऊपर चली गई 
  2. कीमत ₹2000 तक पहुंच गई। स्टॉप लॉस भी आ गया। और अधिक नुकसान से बचने के लिए ट्रेडर को पोजीशन छोड़नी पड़ी और स्टॉक ऊँची कीमत पर खरीदना पड़ा।

इस पूरी प्रक्रिया में ट्रेडर को ₹10 (2000-1990=10) का नुकसान हुआ। इसको अगर आप पारंपरिक तरीके से यानी पहले खरीदने और बाद में बेचने के तरीके से देखेंगे तो यह ₹2000 पर खरीदना 1990 पर बेचने के बराबर है। बस यहां पर यह सब कुछ उल्टी दिशा में हो रहा है। 

अब आपको समझ में आ गया होगा कि कीमत नीचे जाने की स्थिति में शॉर्ट करने पर आप कैसे पैसे कमा सकते हैं।

8.3 – स्पॉट बाजार में शॉर्टिंग (स्टॉक एक्सचेंज के नजरिए से)

स्पॉट बाजार में शॉर्ट करने में एक बड़ी रुकावट है कि आप सिर्फ इंट्रा डे में ही शॉर्ट कर सकते हैं। मतलब अगर आपने शॉर्ट पोजीशन बनाई है तो उसी दिन बाजार बंद होने के पहले आपको शेयर खरीदकर अपनी पोजीशन स्क्वेयर ऑफ करनी होगी। इस शॉर्ट पोजीशन को अगले दिन तक नहीं ले जा सकते। ऐसा क्यों होता है इसको समझने के लिए हमें समझना होगा कि एक्सचेंज शॉर्ट पोजीशन को किस तरीके से देखता है।

शॉर्ट करते समय आप पहले बेच रहे होते हैं। जैसे ही आप यह शेयर बेचते हैं, वैसे ही बैकएंड (Backend) से स्टॉक एक्सचेंज को सूचना जाती है कि आपने फलां शेयर बेचा। उस समय एक्सचेंज को यह नहीं पता चलता कि आपने जो शेयर बेचा है वो  आपके डीमैट अकाउंट में है या नहीं। उनको यह लगता है कि आपने जो शेयर बेचा है वह आप शाम तक उन्हें डिलीवर करेंगे। अब ऐसा करने के लिए आपके डीमैट अकाउंट में अगले दिन वो शेयर होने चाहिए। एक्सचेंज को बाजार बंद होने के बाद ही यह पता चल पाता है कि आपने यह सौदा पूरा नहीं किया है। 

इस बात को दिमाग में रखते हुए, अब मान लीजिए कि आप ने एक स्टॉक को शॉर्ट किया है और आप उस की गिरती कीमत का फायदा उठाना चाहते हैं। अब अगर आप के शॉर्ट करने के बाद कीमत गिरती नहीं है और आप गिरावट के लिए एक दिन और इंतजार करना चाहते हैं। लेकिन बाजार बंद होने के बाद एक्सचेंज को पता चल जाएगा कि आपने जो शेयर बेचे हैं, वो शेयर आपके पास हैं ही नहीं। इस शेयर की डिलीवरी देने के लिए आपके पास शेयर होने चाहिए जबकि आपके पास यह डिलीवरी को पूरा करने के लिए शेयर है ही नहीं। इसका मतलब है कि आप अगले दिन डिफॉल्ट करेंगे। इस डिफॉल्ट के लिए बड़ी भारी पेनल्टी अदा करनी पड़ेगी। ऐसी स्थिति को शॉर्ट डिलीवरी कहते हैं। 

शॉर्ट डिलीवरी की स्थिति पैदा होने पर एक्सचेंज इस मामले को सेटल करने के लिए बाजार में ऑक्शन (नीलामी) करता है। आपको ऑक्शन बाजार के बारे में जानने के लिए आपको इस लेख को पढ़ना चाहिए जो ऑप्शन की प्रक्रिया को और पेनाल्टी के प्रक्रिया को पूरी तरीके से समझाता है। मैं आपको एक सलाह देना चाहता हूं कि कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं पड़िए है जहां पर शॉर्ट डिलीवरी की हालत पैदा हो जाए। आपको हमेशा कोशिश करनी चाहिए कि आप अपने शॉर्ट ट्रेड को बाजार बंद होने के पहले क्लोज कर दें, नहीं तो, आपको 20% तक की रकम पेनल्टी के तौर पर चुकानी पड़ सकती है। 

अब एक बेहद जरूरी बात-  बाजार बंद होने के बाद ही एक्सचेंज ये जान पाता है कि किसने अपने सौदे पूरे नहीं किए हैं। एक्सचेंज ये पता करे इसके पहले आपको अपने शार्ट पोजीशन बंद (स्क्वेयर ऑफ) कर देनी होती है। इसी वजह से इंट्राडे के अलावा और किसी तरीके की शॉर्टिंग स्पॉट बाजार में नहीं की जा सकती है।

हां, अगर आप अपने शॉर्ट पोजिशन फ्यूचर्स बाजार में बनाते हैं तो आप इसको आसानी से कई दिनों तक अपने पास रख सकते हैं।

8.4 – फ्यूचर्स बाजार में शॉर्टिंग

फ्यूचर्स बाजार में शॉर्टिंग पर किसी तरीके की रोक नहीं है, शायद इसीलिए फ्यूचर्स बाजार में ट्रेडिंग इतनी ज्यादा लोकप्रिय है। याद रखिए कि फ्यूचर्स एक डेरिवेटिव इंस्ट्रूमेंट है जो कि अपने अंडरलाइंग की कीमत के आधार पर चलता है। अगर अंडरलाइंग एसेट की कीमत ऊपर या नीचे जा रही हो तो फ्यूचर्स की कीमत भी ऊपर या नीचे होगी। इसका मतलब है कि अगर आपकी किसी स्टॉक के बारे में मंदी की राय है तो आप उस पर शार्ट पोजीशन बना सकते हैं और अपनी पोजीशन को होल्ड कर सकते हैं। 

जिस तरीके से आप अपनी लांग पोजीशन के लिए मार्जिन जमा करते हैं और फिर पोजीशन बनाते हैं उसी तरीके से शॉर्ट पोजीशन के लिए भी आपको मार्जिन जमा करनी होगी। शॉर्ट और लांग दोनों के लिए मार्जिन एक तरह से ही लगती है उसमें कोई अंतर नहीं होता। 

जब आप फ्यूचर्स में शॉर्ट करते हैं तो मार्क टू मार्केट (M2M) में बदलाव कैसा नजर आता है?  इसको समझने के लिए एक उदाहरण पर नजर डालते हैं। मान लीजिए आप ने HCL टेक्नोलॉजीज को 1990 की कीमत पर शॉर्ट किया है। यहां लॉट साइज 125 का है। टेबल में आप देख सकते हैं कि स्टॉक की कीमत अगले कुछ दिनों में किस तरीके से बदलती है और उसका M2M पर क्या असर पड़ता है।

दिन M2M के लिए कीमत क्लोजिंग कीमत  दिन का P&L 
01 – (शॉर्ट की शुरूआत) 1990 1982 125 x 8 = 1000
02 1982 1975 125 x 7 + 875
03 1975 1980 125 x 5 = 625
04 1980 1989 125 x 9 = 1125
05 1989 1970 125 x 19 = 2375
06 – (स्क्वेयर ऑफ) 1970 1965 125 x 5 = 625

जो दो लाइनें लाल रंग से दिखायी गई हैं, वहां पर नुकसान हो रहा है। इस सौदे का कुल मुनाफा या नुकसान निकालने के लिए आपको सारे मार्क टू मार्केट वैल्यू को जोड़ना होगा – 

+1000+875-625-1125+2375+625

= 3125 रुपये

 या फिर हम 

(बेचने की कीमत – खरीदने की कीमत)× लॉट साइज 

= (19990 – 1965) × 125

= 3125 रुपये

आपने देखा कि फ्यूचर्स बाजार में जिस तरीके से लाँग की पोजीशन बनाई जाती है उसी तरीके से शॉर्ट की पोजीशन भी बनाई जाती है। अंतर सिर्फ यह है कि जब आप शॉर्ट की पोजीशन बनाते हैं तो कीमत गिरने से आपको फायदा होता है। मार्जिन की जरूरत और M2M की गणना में कोई अंतर नहीं होता। 

एक्टिव ट्रेडिंग में शॉर्टिंग एक बहुत ही आम बात है। अगर आपको ट्रेडिंग करनी है तो आपको लाँग ट्रेड के साथ-साथ शॉर्ट ट्रेड को करने की आदत डाल लेनी चाहिए। 

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. शॉर्टिंग के लिए पहले आप बेचते हैं और बाद में खरीदते हैं। 
  2. शॉर्ट ट्रेड में आपको मुनाफा तब होता है जब क्लोजिंग कीमत आपकी खरीद कीमत या एंट्री कीमत से कम होती है।
  3. जब आप की शॉर्ट करने कीमत के मुकाबले कीमत ऊपर चली जाती है तब आपको नुकसान होता है।
  4. शॉर्ट ट्रेड में स्टॉपलॉस आप की शॉर्ट करने की कीमत से ऊपर होता है।
  5. स्पॉट बाजार में आप सिर्फ इंट्राडे में ही शॉर्ट कर सकते हैं।
  6. स्पॉट बाजार में शार्ट पोजीशन आप ओवरनाइट नहीं रख सकते।
  7. फ्यूचर्स बाजार में आप शार्ट पोजीशन आप ओवरनाइट होल्ड कर सकते हैं।
  8. शॉर्ट और लाँग दोनों ट्रेड में ही मार्जिन एक बराबर होती है। 
  9. शॉर्ट और लाँग ट्रेड दोनों ही मार्क टू मार्केट की गणना भी एक ही तरीके से होती है।

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7.1 ट्रेड यानी सौदे की जानकारी

इस अध्याय की शुरुआत हम एक पुराने सवाल से करते हैं आपको क्या लगता है कि मार्जिन क्यों लगाए जाते हैं? अब हम एक बार इसका जवाब दोहरा लेते हैं: 

मार्जिन को रिस्क मैनेजमेंट के लिए लगाया जाता है। मार्जिन के जरिए यह कोशिश की जाती है कि काउंटरपार्टी डिफॉल्ट ना हो। ब्रोकर के ऑफिस में RMS सिस्टम यानी रिस्क मैनेजमेंट सिस्टम लगा होता है, जो इस बात के लिए जिम्मेदार होता है कि वह रिस्क मैनेजमेंट को देखे। RMS एक कंप्यूटर प्रोग्राम है और हर कारोबारी के सारे ऑर्डर पहले RMS में जाते हैं उसके बाद ही आगे एक्सचेंज पर जाते हैं। कुछ लोग RMS पर लगातार नजर रखते हैं ताकि ये पता रहे कि सब सही चल रहा है या कुछ गलत हो रहा है।

जब आप एक सौदा डालते हैं तो RMS को कुछ सूचना देते हैं, जैसे मान लीजिए एक फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट खरीदने का सौदा डालते हैं तो आप RMS को बता रहे हैं कि 

  1. आप एक RMS खरीदना चाहते हैं जैसे TCS फ्यूचर्स, आइडिया फ्यूचर्स आदि।
  2. आप इस फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की कितनी मात्रा खरीदना चाहते हैं (कितने लॉट)
  3. आप इस फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट को किस कीमत पर खरीदना चाहते हैं मार्केट कीमत पर या लिमिट कीमत पर। 

जब एक बार आप यह सौदा डालते हैं तो RMS सिस्टम तय करता है कि उस सौदे में कितने मार्जिन की जरूरत है और अगर आपके अकाउंट में उतने पैसे हैं तो इस ट्रेड यानी सौदे को आगे एक्सचेंज पर भेज देता है।

लेकिन कुछ जानकारियां होती हैं जो आप RMS सिस्टम को नहीं देते हैं, जैसे कि 

  1. आप यह सौदा कितने दिनों तक रखने वाले हैं क्या यह इंट्राडे सौदा है या इसको आप कई दिनों तक अपने पास रखेंगे? 
  2. आपकी स्टॉप लॉस कीमत –  अगर यह सौदा आपकी राय के विपरीत दिशा में चला जाता है तो आप किस कीमत पर नुकसान बुक करके अपनी पोजीशन को स्क्वेयर आफ करेंगे? 

अगर आप यह जानकारी भी RMS सिस्टम को दे दें तो क्या होगा? RMS सिस्टम ज्यादा बेहतर तरीके से काम करेगा क्योंकि उसे रिस्क के बारे में अधिक जानकारी होगी।  

उदाहरण के लिए अगर सिस्टम को किसी ट्रेड या सौदे के समय अवधि की जानकारी हो तो सिस्टम को पता होगा कि आप कितनी ज्यादा वोलैटिलिटी का सामना कर सकते हैं। जैसे, अगर आप का सौदा इंट्राडे है तो आपको सिर्फ 1 दिन की वोलैटिलिटी का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अगर आप सौदा कई दिनों तक रखने वाले हैं तो आपको कई दिनों तक वोलैटिलिटी का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही, आपको ओवरनाइट रिस्क का भी सामना करना पड़ेगा। 

ओवरनाइट रिस्क वो रिस्क है जो आप तब लेते हैं जब आप अपने सौदे को अगले दिन तक के लिए अपने पास रखते हैं। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि मैंने एक BPCL का लांग सौदा अपने पास ओवरनाइट रखता हूं, आपको पता ही है कि कच्चे तेल में आने वाले किसी भी उतार-चढ़ाव का असर BPCL पर पड़ता है। अब मान लीजिए उसी रात कच्चा तेल 5% ऊपर चला जाता है इसकी वजह से अगली सुबह BPCL के शेयर पर बुरा असर पड़ेगा क्योंकि BPCL के लिए कच्चा तेल खरीदना महंगा हो जाएगा। अब क्योंकि मैंने यह सौदा ओवरनाइट अपने पास रखा है इसलिए BPCL के इस सौदे में मुझे नुकसान उठाना पड़ सकता है। यानी मुझे M2M में एक कटौती झेलनी होगी। इसे ही ओवरनाइट रिस्क कहते हैं। तो अब आपको समझ में आ गया होगा कि अगर हम सौदे को लंबे समय तक रखते हैं और RMS इसको जानता है तो उसे पता होगा कि आपका रिस्क बढ़ रहा है। RMS के नजरिए से आप सौदे को जितने लंबे समय तक अपने पास रखेंगे आपका रिस्क उतना ही ज्यादा होगा।

इसी तरीके से, आप के सौदे के स्टॉपलॉस के बारे में सोचिए। जब RMS को यह नहीं पता होता कि आपका स्टॉपलॉस क्या है और आप कितना नुकसान उठाने को तैयार हैं, तो RMS आप के रिस्क लेने की क्षमता को नहीं समझ पाता है। वैसे किसी भी सौदे में स्टॉपलॉस बताना जरूरी नहीं है लेकिन अगर RMS को यह पता हो तो सिस्टम ज्यादा अच्छे तरीके से काम कर सकेगा। उदाहरण के लिए मान लीजिए मैंने BPCL का फ्यूचर्स ₹649 पर खरीदा है, लेकिन मेरा स्टॉपलॉस निश्चित नहीं है। ऐसे में मेरे रिस्क की कोई सीमा नहीं है। लेकिन मान लीजिए मैंने यह कहा कि मेरा स्टॉपलॉस ₹640 का है तो मैं ₹9 का ही रिस्क ले रहा हूं। जैसे ही BPCL ₹640 पर पहुंचेगा मैं अपना पोजीशन स्क्वेयर ऑफ कर दूंगा और नुकसान सह लूंगा। RMS के लिए यह जानकारी बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है।

तो किसी भी सौदे में स्टॉप लॉस और समय अवधि दोनों बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं, जिससे RMS को पता चलता है कि आप कितना रिस्क उठा सकते हैं। लेकिन ट्रेडर के लिए इसका क्या महत्व है? 

आप जितनी ज्यादा जानकारी RMS को देंगे उतना ही कम मार्जिन देने की जरूरत होगी।

इसे एक और उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए मैं एक इलेक्ट्रॉनिक की दुकान में जाता हूं और टेलीविजन की कीमत पूछता हूं, ऐसे में दुकानदार क्या करेगा? एक कीमत बता देगा जैसे किसी भी दूसरे ग्राहक को बताता है। लेकिन अगर मैं उसे बताऊं कि मुझे 50 टेलीविजन खरीदने हैं तो दुकानदार एक नई कीमत बताएगा जो कि पहले की कीमत से कम होगी। अगर इसके बाद में उसे यह भी बताऊं कि मैं कैश लेकर आया हूं और यह अभी तुरंत खरीदना चाहता हूं हो सकता है वह कीमत और गिरा दे। मतलब यह कि आप जैसे-जैसे ज्यादा जानकारी देते हैं वैसे वैसे सौदा करना ज्यादा आसान हो जाता है और आपको अच्छी कीमत मिल पाती है।

7.2 प्रॉडक्ट/प्रोडक्ट के प्रकार

तो अब हम समझ चुके हैं कि RMS के पास जितनी ज्यादा जानकारी होगी उतना ही कम मार्जिन लगेगी। मार्जिन कम देना पड़े तो आप अपनी पूंजी का बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। तो अब अगला सवाल यही है कि क्या ऐसा कोई तरीका है जिससे आप RMS  सिस्टम को ज्यादा जानकारी दे सकें? इसका जवाब है, हां। बाजार में ट्रेड करने के लिए कई खास प्रॉडक्ट मौजूद हैं जो इसी लिए बनाए गए हैं। जब आप बाजार में स्टॉक्स फ्यूचर्स को खरीदने या बेचने का अपना आर्डर देते हैं आप इनमें से कोई एक प्रॉडक्ट चुन सकते हैं। हर प्रॉडक्ट एक दूसरे से अलग है क्योंकि वो RMS को अलग अलग तरीके की जानकारी देता है। हालांकि सारे प्रॉडक्ट मुख्यत: एक ही काम करते हैं लेकिन हर ब्रोकर इन को अलग अलग नाम से पुकारता है। यहां मैं आपको जेरोधा के इन प्रॉडक्ट के बारे में जानकारी दूंगा। अगर आप किसी दूसरे ब्रोकर के जरिए कारोबार कर रहे हैं तो आपको अपने ब्रोकर से इस तरह के प्रॉडक्ट के बारे में जानकारी लेनी चाहिए।

NRML – यह सबसे सीधा प्रॉडक्ट है। जब आप अपने सौदे को होल्ड करना चाहते हैं तो इस प्रॉडक्ट का इस्तेमाल कर सकते हैं।

याद रखिए कि NRML सौदे में रिस्क मैनेजमेंट सिस्टम को कोई अतिरिक्त जानकारी नहीं मिलती कि आप इस सौदे में कब तक बने रहना चाहते हैं, ना ही ये जानकारी मिलती है कि आपने अपना स्टॉप लॉस क्या रखा हुआ है। नुकसान होता है तो आप और मार्जिन मनी डाल देते हैं। चूंकि इसमें RMS को जानकारी कम मिलती है इसीलिए RMS सिस्टम NRML सौदे में आप से पूरा मार्जिन वसूलता है (स्पैन + एक्स्पोज़र) 

आप NRML सौदे का इस्तेमाल तब कर सकते हैं जब आप अपने फ्यूचर्स पोजीशन को कई दिनों तक रखना चाहते हैं। याद रखिए कि NRML सौदों का इस्तेमाल इंट्राडे के लिए भी किया जा सकता है।

मार्जिन इंट्राडे स्क्वेयर ऑफ (MIS) जेरोधा के प्लेटफार्म पर MIS पूरी तरीके से इंट्राडे सौदों के लिए बनाया गया प्रॉडक्ट है। अगर आपने MIS को प्रॉडक्ट के तौर पर चुना है तो इसका मतलब है कि आप का सौदा 1 दिन का ही है। अगर आप अपनी पोजीशन को अगले दिन ले जाना चाहते हैं तो आप MIS नहीं चुन सकते हैं। आपको उसी दिन शाम 3 बज कर 20 मिनट के पहले अपने सौदे को काटना होगा। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो RMS सिस्टम अपने आप यह काम कर देगा। 

क्योंकि इस तरह के सौदे में RMS को पता होता है कि यह एक इंट्राडे सौदा है तो उसको यह भी पता होता है कि इस सौदे में वोलैटिलिटी के लिए सिर्फ एक दिन है। इसीलिए NRML सौदे के मुकाबले इस तरह के सौदों (MIS) में मार्जिन कम लगती है।

कवर ऑर्डर (CO) – MIS की तरह कवर ऑर्डर भी एक इंट्राडे प्रॉडक्ट है। अंतर सिर्फ इतना है कि कवर ऑर्डर में आपको स्टॉप लॉस भी बताना होता है। इस तरह से CO ऑर्डर आपके सौदे की दो जानकारियां देता है– 

  1. समय अवधि की जानकारी देता है (इंट्राडे सौदा)
  2.  स्टॉप लॉस की भी जानकारी देता है। यानी बताता है कि आप कितना नुकसान उठाने को तैयार हैं।

एक CO का स्क्रीनशॉट देखें

इस स्क्रीनशॉट में काले रंग से हाईलाइट किए हुए हिस्से में आपको यह बताना होता है कि स्टॉप लॉस कितना है। ट्रेडिंग टर्मिनल में CO ऑर्डर कैसे डालते हैं इसके लिए इस लेख को देखें। (article in z-connect )  

आपको यह याद रखना है कि जब आप CO में ऑर्डर डालते हैं तो इसका मतलब है कि आप यह बता रहे हैं कि यह इंट्राडे सौदा है और साथ ही आप यह भी बता रहे हैं कि आप ज्यादा से ज्यादा कितना नुकसान सहने के लिए तैयार हैं। इसी वजह से RMS इस मामले में आपसे कम मार्जिन लेता है। यह मार्जिन MIS ऑर्डर की मार्जिन से भी कम होती है। 

ब्रैकेट ऑर्डर (BO) –  ब्रैकेट ऑर्डर असल में कवर ऑर्डर का ही सुधरा हुआ रूप है। यह भी एक इंट्राडे प्रॉडक्ट है मतलब यहां भी आपको शाम 3:20 बजे के पहले अपना सौदा स्क्वेयर ऑफ करना होता है। BO का सौदा डालने के पहले आपको कुछ और जानकारियां देनी होती हैं 

  1. स्टॉप लॉस अगर सौदा आपके मन मुताबिक नहीं जा रहा है तो किस कीमत पर आप इस सौदे से बाहर निकलना चाहते हैं।  
  2. ट्रेलिंग स्टॉप लॉस –  इसमें एक और  फीचर यानी सुविधा है जिसके जरिए आप अपने स्टॉपलॉस को ट्रेल कर सकते हैं। अगर आपको ट्रेलिंग स्टॉप लॉस के बारे में जानकारी नहीं है तो हम इस अध्याय के अंत में उसके बारे में चर्चा करेंगे। लेकिन अभी याद रखिए कि यह आर्डर आपको स्टॉपलॉस को ट्रेल करने का मौका देता है और यही इस प्रॉडक्ट का सबसे ज्यादा लोकप्रिय हिस्सा है।
  3. टारगेट अगर सौदा आपके मन मुताबिक जा रहा है तो BO आपको यह भी बताने को कहता है कि आप किस कीमत पर अपना मुनाफा या प्रॉफिट बुक करना चाहेंगे। 

BO के ऑर्डर में आप जब सौदा डालते हैं तो साथ ही एक्सचेंज को यह जानकारी भी दे सकते हैं कि आपका टारगेट क्या है और स्टॉपलॉस क्या है। किसी भी एक्टिव ट्रेडर के लिए यह एक बहुत बड़ी सुविधा है। BO का सौदा कैसे डालते हैं इसके लिए आप इस लेख पर नजर डाल सकते हैं। ( article)

नीचे के चित्र BO का ऑर्डर फॉर्म दिखाया गया है हरे रंग से हाईलाइट किए हुए हिस्से में स्टॉपलॉस लगाया जाता है

अगर आप ध्यान से देखें तो आपको समझ में आएगा कि ब्रैकेट ऑर्डर में ट्रेडर RMS को वह सारी जानकारी देता है जो CO में दी जाती है लेकिन इसके अलावा ट्रेडर यह भी बता रहा है कि उसका टारगेट क्या है? वैसे टारगेट जान कर RMS को कोई खास फायदा नहीं होता है क्योंकि RMS आपकी रिस्क के बारे में जानना चाहता है, आपको होने वाले मुनाफे के बारे में नहीं। इसीलिए BO और CO में मार्जिन एक बराबर ही होता है। 

अब एक बार फिर हम जेरोधा मार्जिन कैलकुलेटर पर मौजूद कुछ और फीचर्स पर नजर डालते हैं। 

7.3 –मार्जिन कैलकुलेटर पर फिर से नजर 

हमने पिछले अध्याय में ज़ेरोधा के मार्जिन कैलकुलेटर पर नजर डाली थी। मार्जिन कैलकुलेटर का सबसे बड़ा फायदा यह है कि कोई भी ट्रेडर यह पता कर सकता है कि उसको अपने सौदे के लिए कितना मार्जिन देना पड़ेगा। इसी बहाने हमने एक्सपायरी रोल ओवर स्प्रेड मार्जिन जैसे दूसरे सिद्धांतों के बारे में भी समझ लिया है। अब हम यह भी जानते हैं कि RMS सिस्टम को जानकारियां कैसे दी जाती हैं और उसका मार्जिन पर कैसा असर होता है। इन सब को ध्यान में रखते हुए अब हम मार्जिन कैलकुलेटर में दिए गए दो और विकल्पों की चर्चा करते हैं “इक्विटी फ्यूचर्स” और “BO &CO” । नीचे के स्क्रीनशॉट में इनको लाल रंग से हाईलाइट किया गया है।

इक्विटी फ्यूचर्स इक्विटी फ्यूचर्स सेक्शन में मार्जिन कैलकुलेटर रेडी रेकनर (Ready reckoner) यानी एक तैयार हैंडबुक की तरह काम करता है। यह किसी भी ट्रेडर को निम्न चीजें समझने का मौका देता है: 

  1. किसी NRML सौदे के लिए कितने मार्जिन की जरूरत पड़ेगी।
  2. MIS सौदे के लिए कितनी मार्जिन की जरूरत पड़ेगी।
  3. ट्रेडिंग अकाउंट में जितने पैसे हैं उतने में आप कितना लॉट खरीद पाएंगे।

जनवरी 2015 तक इक्विटी फ्यूचर्स वाले हिस्से में 475 कॉन्ट्रैक्ट मौजूद थे। इक्विटी फ्यूचर्स वाले हिस्से को और अच्छे से समझने के लिए कुछ अभ्यास करते हैं। इन अभ्यासों को हम इक्विटी फ्यूचर्स के मार्जिन कैलकुलेटर के जरिए पूरा करने की कोशिश करेंगे। उम्मीद है कि इसके बाद आप इस हिस्से का इस्तेमाल बेहतर तरीके से समझ पाएंगे।

अभ्यास 1 एक ट्रेडर के ट्रेडिंग अकाउंट में ₹80000 हैं। वो ACC सीमेंट लिमिटेड का 26 फरवरी 2015 की एक्सपायरी वाला का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदना चाहता है और इस कॉन्ट्रैक्ट को 3 ट्रेडिंग सेशन तक अपने पास रखना चाहता है। पता करें कि इस सौदे के लिए कितने मार्जिन की जरूरत पड़ेगी? वो ट्रेडर इसके अलावा इंफोसिस का जनवरी फ्यूचर्स भी खरीदना चाहता है। लेकिन इसे वह इंट्राडे के लिए खरीदना चाहता है। इसमें कितने मार्जिन की जरूरत पड़ेगी? क्या उसके अकाउंट में इतने पैसे हैं कि वह दोनों सौदे एक साथ कर सके। 

उत्तर पहले ACC के फ्यूचर्स के मामले को देखते हैं, क्योंकि ट्रेडर इस कॉन्ट्रैक्ट को 3 दिनों तक अपने पास रखना चाहता है तो हमें NRML मार्जिन को देखना होगा। वैसे तो हम यह काम स्पैन कैलकुलेटर के जरिए भी कर सकते हैं और हमने उसे पिछले अध्याय में देखा भी था। लेकिन इक्विटी फ्यूचर्स कैलकुलेटर में कुछ अतिरिक्त सुविधाएं हैं जो कि स्पैन कैलकुलेटर में नहीं है, इसीलिए हम इसे इक्विटी फ्यूचर्स के जरिए देखेंगे।

जब आप इक्विटी फ्यूचर्स के हिस्से में जाएंगे तो आपको वहां बहुत सारे कॉन्ट्रैक्ट नजर आएंगे। आपको अपने काम का कॉन्ट्रैक्ट खोजना होगा। ACC को मैंने यहां हरे रंग से हाईलाइट किया है। आप देख सकते हैं कि इस कैलकुलेटर में इन कॉन्ट्रैक्ट की एक्सपायरी, लॉट साइज और कीमत भी बताई गई है। 

काले रंग के बॉक्स में मैंने इसकी NRML मार्जिन भी दिखाई है। 

ऊपर के स्क्रीनशॉट से यह साफ है कि ACC  के फरवरी 2015 के कॉन्ट्रैक्ट के लिए आपको ₹48686 के मार्जिन की जरूरत पड़ेगी। 

इंफोसिस के लिए मार्जिन पता करने के लिए मुझे इंफोसिस का जनवरी का कॉन्ट्रैक्ट को लिस्ट में खोजना होगा।वैसे मैं अपने सर्च बॉक्स में infy टाइप करके भी उसको खोज सकता हूं। 

जैसा कि हम देख सकते हैं कि किसी का NRML मार्जिन ₹67698 है (इसे काले रंग के तीर से दिखाया गया है)। MIS मार्जिन ₹27079 है (लाल रंग के तीर से दिखाया गया है)। तो साफ है कि MIS मार्जिन NRML मार्जिन से काफी कम है।

यह सौदा इंट्राडे का है इसलिए कोई भी ट्रेडर MIS को चुनकर कम मार्जिन के साथ यह सौदा कर सकता है। वैसे तो यह सौदा NRML मार्जिन के साथ भी किया जा सकता है, लेकिन ऐसा करने पर आपकी ज्यादा रकम मार्जिन के तौर पर लॉक हो जाएगी। इसलिए अगर आपका दिमाग साफ है कि यह इंट्राडे सौदा है तो बेहतर होगा कि MIS के जरिए ही सौदा किया जाए।

तो अब हमें पता है कि ट्रेडर को कुल मार्जिन की जरूरत होगी :

  1. ACC के कॉन्ट्रैक्ट के लिए ₹48686 चूंकि यह सौदा 3 दिनों तक ट्रेडर अपने पास रखने वाला है इसलिए यहां NRML का इस्तेमाल होगा। 
  2. इंफोसिस के कॉन्ट्रैक्ट के लिए ₹27079 । यहां पर MIS  मार्जिन का इस्तेमाल होगा क्योंकि ये एक इंट्राडे सौदा है। 
  3. कुल मार्जिन होगी ₹75765 (48686+27079)। 

अब चूंकि ट्रेडर के अकाउंट में ₹80000 हैं इसलिए वह यह दोनों सौदे कर सकता है।

अभ्यास 2 एक ट्रेडर के अकाउंट में ₹120000 हैं। वो विप्रो के जनवरी फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट के कितने लॉट इंट्राडे के लिए खरीद सकता है? अगर यही सौदा कई दिनों के लिए करना है तो वो कितने लॉट खरीद सकता है? 

उत्तर सर्च बॉक्स में विप्रो को खोजिए। MIS मार्जिन वाले कॉलम के बगल में कैलकुलेट का विकल्प दिया है (हरे रंग के तीर से दिखाया गया है)। उसको क्लिक कीजिए।

जब आप कैलकुलेट को क्लिक करेंगे तो एक नई विंडो खुलेगी। यहां पर आपको यह भरना है 

  1. आपके ट्रेडिंग अकाउंट में कितनी रकम है (डिफॉल्ट के तौर पर रकम एक लाख दिखाई देती है लेकिन आप इसे अपनी जरूरत के हिसाब से बदल सकते हैं) 
  2. यह कॉन्ट्रैक्ट किस कीमत पर बिक रहा है। वैसे यह अपने आप ही आ जाता है।

अब इस स्क्रीन शॉट पर नजर डालिए

कैलकुलेटर बता रहा है कि मैं विप्रो के फ्यूचर्स पर इस कॉन्ट्रैक्ट के तीन लॉट NRML प्रॉडक्ट के तहत भी खरीद सकता हूं। NRML में इसकी मार्जिन होगी ₹36806 प्रति लॉट। MIS प्रॉडक्ट के हिसाब से भी मैं 8 लॉट खरीद सकता हूं वहां मार्जिन है सिर्फ ₹14722 प्रति लॉट। 

अब आप को साफ हो गया होगा की इक्विटी फ्यूचर्स सेक्शन में मार्जिन कैलकुलेटर कैसे काम करता है। अब हम BO&CO कैलकुलेटर पर नजर डालेंगे।

7.4 – BO&CO मार्जिन कैलकुलेटर

ब्रैकेट ऑर्डर और कवर ऑर्डर दोनों में मार्जिन की जरूरत एक जैसी होती है, ये हम पहले से ही जानते हैं। BO&CO कैलकुलेटर का इस्तेमाल काफी आसान है यह लगभग वैसा ही है जैसा स्पैन कैलकुलेटर होता है। नीचे के स्नैपशॉट में आप देख सकते हैं कि मैं बायोकॉन के फ्यूचर्स को खरीदने की कोशिश कर रहा हूं जिसकी एक्सपायरी फरवरी 2015 की है। आप देखेंगे कि मैंने स्टॉप लॉस के अलावा हर जानकारी दी है।

बिना स्टॉप लॉस बताए जब मैं कैलकुलेट का बटन दबाता हूं तो यह कैलकुलेटर अपने आप डिफॉल्ट तरीके से एक स्टॉपलॉस बताता है जिसको आप चाहें तो चुन सकते हैं और साथ बताई गई मार्जिन को भी। लेकिन जब मैं अपना स्टॉप लॉस बताता हूं तो कैलकुलेटर इस हिसाब से फिर से मार्जिन को कैलकुलेट करता है। 

BO&CO कैलकुलेटर के हिसाब से स्टॉप लॉस ₹403 का चुना जा सकता है। लेकिन जब आप अपना स्टॉप लॉस बदलेंगे तो मार्जिन भी उसी हिसाब से बदलेगी। अभी फिलहाल ये मार्जिन ₹9062 है जो कि NRML की मार्जिन ₹26135 के मुकाबले और MIS की मार्जिन ₹11545 के मुकाबले काफी कम है। 

7.5 – ट्रेलिंग स्टॉप लॉस 

इस अध्याय को खत्म करने से  पहले एक बार हम ट्रेलिंग स्टॉप लॉस पर भी नजर डाल लेते हैं। ट्रेलिंग स्टॉप लॉस का इस्तेमाल ब्रैकेट ऑर्डर में होता ही है और वैसे भी बाजार में यह बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसलिए जरूरी है कि आप इस बारे में जानें कि स्टॉप लॉस को ट्रेल कैसे किया जाता है। कल्पना कीजिए कि आप ने एक स्टॉक ₹250 पर खरीदा है और आप को उम्मीद है कि यह ₹270 तक जाएगा। इस सौदे के लिए आपने अपना स्टॉपलॉस ₹240 रखा है। आपका इरादा है कि अगर यह शेयर नीचे जाता है तो आप ₹240 पर नुकसान उठाकर इस सौदे से बाहर निकल जाएंगे। 

लेकिन सौदा आपके मन मुताबिक जाता है और शेयर बढ़कर ₹265 तक पहुंच जाता है। अब यह स्टॉक आपके टारगेट ₹270 से कुछ ही रुपए दूर है। लेकिन बाजार की वोलैटिलिटी यानी उठा-पटक की वजह से यह नीचे आना शुरू करता है और नीचे आते-आते ये आपके स्टॉपलॉस ₹240 तक पहुंच जाता है। तो आपको मुनाफा थोड़ी देर के लिए दिखा जरूर लेकिन यह आपके लिए एक नुकसान का सौदा हुआ। ऐसी स्थिति में आपको क्या करना चाहिए था? ऐसा बहुत बार होता है जब बाजार की दिशा को लेकर आपकी राय सही साबित होती है। लेकिन बाज़ार की उठापटक की वजह से आपका नुकसान हो जाता है। 

ऐसी ही स्थिति से बचने के लिए ही ट्रेलिंग स्टॉपलॉस का इस्तेमाल किया जाता है। वास्तव में ट्रेलिंग स्टॉपलॉस कई बार आपको अनुमान से ज्यादा मुनाफा कमा कर दे सकता है। 

ये बहुत ही सीधा-सा सिद्धांत है। यहां बस आपको स्टॉक के उतार-चढ़ाव के हिसाब से अपने स्टॉपलॉस को बदलना होता है। मैं इसको एक उदाहरण से समझाता हूं।

ट्रेड लाँग
शेयर इन्फोसिस
इन्स्ट्रूमेंट फ्यूचर्स
कीमत Rs.2175/-
टारगेट Rs.2220/-
स्टॉपलॉस Rs.2150/-
रिस्क Rs.25 (2175 – 2150)
रिवार्ड Rs.45 (2220 – 2175

यहां पर ₹2175 की कीमत पर लॉन्ग पोजीशन बनाने और स्टॉप लॉस ₹2150 पर रखने का इरादा है। अब हमें करना सिर्फ यह है कि जैसे-जैसे कीमत हमारे सौदे की दिशा में बढ़ती है, वैसे-वैसे हमें अपने स्टॉपलॉस को बदलना है। जैसे मान लीजिए कि हर 15 प्वाइंट के बदलाव पर हमें अपने स्टॉपलॉस को भी बदलना होगा। स्टॉपलॉस किसी भी जगह लगाया जा सकता है। जहां पर भी आप अपने मुनाफे को बांधना चाहते हैं वहां स्टॉपलॉस लगा सकते हैं। जब आप मुनाफा बांधने के हिसाब से अपने स्टॉपलॉस को बदलते हैं तो इसे ट्रेलिंग स्टॉपलॉस कहा जाता है। ध्यान रखिए कि हर 15 प्वाइंट के बदलाव पर स्टॉपलॉस बदलने का नियम सिर्फ उदाहरण के लिए लिया है। वास्तव में आप इसे किसी भी हिसाब से लगा सकते हैं। लेकिन अभी इसको समझने के लिए नीचे के टेबल पर नजर डालते हैं जहां मैंने स्टॉपलॉस को हर 15 प्वाइंट पर ट्रेल करके दिखाया है जिससे कुछ मुनाफा बांधा जा सके।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारा शुरूआती टारगेट 2220 का था लेकिन ट्रेलिंग स्टॉपलॉस  की वजह से मैं मोमेंटम का फायदा उठाकर ज्यादा मुनाफा कमा सका। 

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. आप RMS सिस्टम को जितनी ज्यादा जानकारी देते हैं अपने सौदे की अवधि के बारे में, स्टॉप लॉस के बारे में, उतना ही आपके लिए मार्जिन कम हो जाता है। 
  2. जब आप एक ऐसा ट्रेड करना चाहते हैं जिसको ओवरनाइट अपने पास रखना है तो आपको NRML प्रॉडक्ट को चुनना होता है।
  3. NRML में सबसे ज्यादा मार्जिन लगती है (स्पैन + एक्सपोजर) । 
  4. MIS पूरी तरीके से इंट्रा डे ट्रेड होता है इसलिए इसमें NRML से कम मार्जिन लगती है। 
  5. MIS में बस समय अवधि की जानकारी दी जाती है कि यह सौदा इंट्रा डे का है, लेकिन स्टॉप लॉस के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती। 
  6. कवर ऑर्डर(CO) भी एक इंट्रा डे सौदा है लेकिन इसमें आपको अपना स्टॉपलॉस भी बताना होता है। 
  7. एक कवर ऑर्डर में चूंकि समय अवधि और स्टॉपलॉस दोनों की सूचना दी जाती है इसलिए यहां पर MIS से कम मार्जिन लगती है। 
  8. ब्रैकेट ऑर्डर(BO) में कवर ऑर्डर(CO) के जैसे ही मार्जिन लगती है। 
  9. ब्रैकेट ऑर्डर में आपको अपने स्टॉपलॉस और टारगेट की सूचना एक बार में देने की सुविधा होती है। इसके अलावा आप अपने स्टॉपलॉस को ट्रेल भी कर सकते हैं। 
  10. ट्रेलिंग स्टॉपलॉस तकनीक में आपको अपने स्टॉप लॉस को स्टॉक की कीमत में सौदे की दिशा में होने वाले बदलाव के साथ साथ बदलना होता है। 
  11. ट्रेलिंग स्टॉपलॉस के जरिए आप किसी शेयर के मोमेंटम का फायदा उठा सकते हैं। 
  12. ट्रेलिंग के लिए कोई निश्चित नियम कायदे नहीं है। आप अपनी जरूरत के हिसाब से और बाजार की स्थिति के हिसाब से अपने स्टॉपलॉस को ट्रेल कर सकते हैं।

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6.1 मार्जिन कैलकुलेटर

पिछले अध्याय में हमने मार्जिन के बारे में बात की थी। उसी को आगे बढ़ाते हुए हम अब मार्जिन कैलकुलेटर की बात करेंगे। इसके साथ ही, इससे जुड़े हुए कुछ और मुद्दों पर भी चर्चा करेंगे। 

पिछले अध्याय में हमने अलग अलग तरीके के मार्जिन को देखा था। हमने ये भी देखा था कि हर सौदे में मार्जिन अलग अलग होता है और यह इस पर निर्भर करता है कि वह स्टॉक कितना वोलाटाइल (volatile) यानी अस्थिर है  वोलैटिलिटी पर हम अगले मॉड्यूल में चर्चा करेंगे लेकिन अभी भी हम जानते हैं कि हर अंडरलाइंग एसेट की वोलैटिलिटी अलग होती है और उसी आधार पर मार्जिन भी अलग अलग होता है। तो हम कैसे पता करें कि किस कॉन्ट्रैक्ट के लिए कितना मार्जिन लगेगा। इसी काम के लिए जेरोधा के ट्रेडिंग प्लैटफॉर्म पर मार्जिन कैलकुलेटर भी होता है, जिसका इस्तेमाल आप ट्रेडिंग में कर सकते हैं। 

जेरोधा का मार्जिन कैलकुलेटर काफी लोकप्रिय है। ये इस्तेमाल में आसान है और गणना भी अच्छे तरीके से करता है। इस अध्याय में हम इस मार्जिन कैलकुलेटर को भी जानेंगे। हम यह भी देखेंगे कि आप सौदे का मार्जिन कैसे पता कर सकते हैं। आगे जब हम ऑप्शन के बारे में बात कर रहे होंगे तब हम मार्जिन कैलकुलेटर के उपयोग के बारे में और विस्तार से जानेंगे।  

अब एक उदाहरण देखते हैं, मान लीजिए कि हम आइडिया सेलुलर लिमिटेड का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदने का फैसला करते हैं, जो 29 जनवरी 2015 को एक्सपायर होने वाला है। इसके लिए हमें इनिशियल मार्जिन जमा करना होगा। हमें पता है कि इनिशियल मार्जिन (IM) = स्पैन मार्जिन + एक्स्पोज़र मार्जिन। अपना इनिशियल मार्जिन पता करने के लिए आपको यह करना है:

पहला कदम मार्जिन कैलकुलेटर का लिंक है https://zerodha.com/margin-calculator/SPAN/ । जैसा कि आप देख सकते है कि मार्जिन कैलकुलेटर में आपके लिए कई तरह के विकल्प मौजूद हैं। लेकिन अभी हमारा पूरा ध्यान होना चाहिए स्पैन (SPAN) और इक्विटी फ्यूचर्स पर। वैसे जब भी आप इस कैलकुलेटर को खोलेंगे तो आपको सीधे स्पैन मार्जिन कैलकुलेटर ही दिखेगा जो कि यहां लाल रंग से हाईलाइट किया गया है।

दूसरा कदमस्पैन मार्जिन कैलकुलेटर में दो अलग-अलग हिस्से हैं जिनको यहां दिखाया गया है।

तीसरा कदमलाल रंग से घिरे के हिस्से में आपको तीन चीजें चुननी है। “एक्सचेंज” के ड्रॉप डॉउन हिस्से में आपको यह बताना है कि आप किस एक्सचेंज पर कारोबार करना चाहते हैं। 

  1. अगर आप NSE पर फ्यूचर्स में कारोबार करना चाहते हैं तो आप NFO चुनेंगे।
  2. अगर आप MCX पर कमोडिटी फ्यूचर में कारोबार करना चाहते हैं तो MCX चुनेंगे। 
  3. अगर आप NSE पर करेंसी में डेरिवेटिव कारोबार करना चाहते हैं तो आप CDS चुनेंगे। 

अगला ड्रॉप डाउन हिस्सा जिसमें आप को चुनाव करना है, वह दाहिनी तरफ दिखाया गया है “प्रॉडक्ट” के तहत। अगर आप फ्यूचर्स में कारोबार करना चाहते हैं तो फ्यूचर्स चुनें, नहीं तो, आप ऑप्शंस भी चुन सकते हैं। तीसरे हिस्से में आपको फ्यूचर्स ऑप्शन के तहत खरीदे और बेचे जाने वाले सभी कॉन्ट्रैक्ट में से उस सिंबल या चिह्न को चुनना है जिसमें आप ट्रेड करना चाहते हैं। चूंकि हमें 29 जून की एक्सपायरी वाले आइडिया सेलुलर के फ्यूचर्स को खरीदना है इसलिए मैंने उसको चुना है। आप इसे नीचे पर चित्र में भी देख सकते हैं:

चौथा कदम–  जैसे ही आप फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट चुनते हैं वैसे ही क्वांटिटी की जगह पर एक लॉट आ जाता है। अगर आपको एक लॉट से ज्यादा खरीदना है तो आपको नई क्वांटिटी खुद से भरनी होगी। हमारे आइडिया सेलुलर के स्टाक्स के लिए लॉट साइज दो हजार का है इसलिए आप देखेंगे कि नेट क्वांटिटी में वह अपने आप दिखाई देने लगा है। अब अगर मुझे 3 लॉट खरीदने हैं तो मुझे यहां 6000 भरना होगा। इसको करने के बाद आपको बेचने या खरीदने का बटन दबाना होगा अंत में ऐड (Add) बटन दबाना होगा।

जैसे ही आप ऐड बटन दबाएंगे वैसे ही स्पैन कैलकुलेटर आपको मार्जिन बताएगा। ये कैलकुलेटर आपको स्पैन और एक्स्पोज़र दोनों मार्जिन अलग अलग दिखाने के अलावा कुल इनिशियल मार्जिन भी दिखाएगा। नीचे की तस्वीर में भी आप इसे लाल रंग से हाईलाइट किया हुआ देख सकते हैं:

स्पैन कैलकुलेटर आपको दिखा रहा है कि स्पैन मार्जिन = ₹ 22,160

एक्सपोजर मार्जिन = ₹14,730

इनिशियल मार्जिन (स्पैन + एक्सपोजर) = ₹36890

अब आपको पता है कि आइडिया सेलुलर के फ्यूचर्स ट्रेड में आपको कितने पैसों की मार्जिन की जरूरत पड़ेगी। मार्जिन कैलकुलेटर में “इक्विटी फ्यूचर्स” पर एक अलग से हिस्सा होता है जिस पर हम अगले अध्याय में चर्चा करेंगे। अभी हम जल्दी से एक्सपायरी, स्प्रेड और इंट्राडे ऑर्डर पर चर्चा कर लेते हैं। जब हम इन तीनों को अच्छे से समझ लेंगे तो हमारे लिए इक्विटी फ्यूचर्स को समझना ज्यादा आसान होगा।

6.2 एक्सपायरी 

हमने इसके पहले के अध्याय में भी एक्सपायरी पर चर्चा की है। एक्सपायरी वह तारीख है जिस दिन कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो जाता है। उदाहरण के लिए अगर मैंने 29 जनवरी 2015 की एक्सपायरी वाले आइडिया सेलुलर के फ्यूचर्स को ₹149 पर खरीदा है और मुझे उम्मीद है कि ये ₹155 तक पहुंचेगा। लेकिन इसका मतलब ये है कि आइडिया सेलुलर को ₹155 तक पहुंचने के लिए सिर्फ 29 जनवरी तक का ही समय है। 29 जनवरी के पहले अगर आईडिया सेलुलर की कीमत ₹149 से कम हो जाती है तो मुझे नुकसान होगा और अगर आइडिया सेलुलर की कीमत 30 जनवरी को ₹155 होती है यानी एक्सपायरी के 1 दिन बाद तो उससे मुझे कोई फायदा नहीं होगा। मतलब यह कि एक्सपायरी के पहले ही आइडिया सेलुलर मेरी उम्मीद के मुताबिक ऊपर जाएगा तभी मुझे फायदा होगा। 

क्या यह नियम इतने ही कड़क होने चाहिए? या इसमें थोड़े फेरबदल की संभावना है? क्या यह सौदा एक्सपायरी के बाद भी जारी यह सकता है? एक उदाहरण से देखते हैं:

मान लीजिए आज 19 जनवरी 2015 है और मुझे उम्मीद है कि 1 महीने के बाद यानी फरवरी के अंतिम हफ्ते में जब केन्द्र सरकार के बजट आएगा तो वो मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की कंपनियों के लिए फायदा वाला होगा क्योंकि सरकार मेक इन इंडिया (Make in India) पर ज्यादा जोर देगी। इस सोच के साथ मैं भारत फोर्ज पर दांव लगाना चाहता हूं। मुझे लगता है कि भारत फोर्ज को काफी फायदा होने वाला है और मुझे उम्मीद है कि बजट आने तक भारत फोर्ज का स्टॉक लगातार बढ़ता रहेगा। इस सोच के साथ में भारत फोर्ज  का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदना चाहता हूं। नीचे के चित्र पर नजर डालिए:

भारत फोर्ज का जनवरी 2015 का कॉन्ट्रैक्ट ₹1022 पर मिल रहा है। मुझे लगता है कि यहां से भारत फोर्ज का शेयर लगातार बढ़ेगा और बजट तक बढ़ता ही जाएगा। लेकिन अगर मैं फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदता हूं तो यह कॉन्ट्रैक्ट 29 जनवरी 2015 को एक्सपायर हो जाएगा और मैं बजट तक की रैली का पूरा फायदा नहीं उठा पाऊंगा।

अपनी इस राय का पूरा फायदा उठाने के लिए मुझे जनवरी की एक्सपायरी के आगे भी यह सौदा जारी रखना होगा। इस तरह की स्थिति के लिए NSE में अलग अलग तरीके के कॉन्ट्रैक्ट होते हैं।  

किसी भी एक समय NSE पर आप तीन तरह की एक्सपायरी वाले कॉन्ट्रैक्ट पा सकते हैं। उदाहरण के लिए अगर आप जनवरी में भारत फोर्ज को खरीदना चाहते हैं तो आपके लिए तीन तरह की एक्सपायरी वाले कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध हैं। 

  1. 29 जनवरी 2015 इसे “नियर मंथ” (Near month) कॉन्ट्रैक्ट या “करेंट मंथ” (Current month) कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं 
  2. 26 फरवरी 2015 इसे “मिड मंथ” (Mid month) कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं। 
  3. 26 मार्च 2015 इसे “फार मंथ” (Far Month) कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं। 

नीचे के चित्र पर नजर डालिए

जैसा कि आप देख सकते हैं कि एक्सपायरी के dropdown-menu में करेंट मंथ, मिड मंथ और फार मंथ में से कोई भी कॉन्ट्रैक्ट पसंद कर सकता हूं। क्योंकि मुझे फरवरी के अंत तक का कॉन्ट्रैक्ट चाहिए इसलिए मैं 26 फरवरी को खत्म होने वाला मिड मंथ का कॉन्ट्रैक्ट चुन लूंगा।

यहां पर आपको फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट की कीमत में अंतर साफ दिखेगा। 26 फरवरी 2015 को एक्सपायर होने वाले कॉन्ट्रैक्ट की कीमत है ₹1032 जबकि 29 जनवरी को एक्सपायर होने वाले कॉन्ट्रैक्ट की कीमत है ₹1022.8 । इसका मतलब है कि करेंट मंथ कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले मिड मंथ कॉन्ट्रैक्ट ज्यादा महंगा है। ऐसा हमेशा होता है। एक्सपायरी में जितना ज्यादा समय बचा होगा स्टॉक का फ्यूचर उतना ही महंगा होगा। इसी वजह से इस समय 29 मार्च 2015 को एक्सपायर होने वाला कॉन्ट्रैक्ट ₹1037.4 रुपए पर दिख रहा है।

तो याद रखिए, करेंट मंथ का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट कम होगा, मिड मंथ उससे महंगा होगा और फार मंथ उससे भी ज्यादा महंगा होगा। इसके पीछे एक सीधा सा गणित है। जब हम फ्यूचर्स प्राइस के फार्मूले पर चर्चा करेंगे तब हम इसको ज्यादा अच्छे से समझेंगे। 

एक और बात जो आपको अच्छे से समझना चाहिए जैसा कि मैंने पहले कहा था कि किसी भी समय NSE में 3 तरीके के फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट दिख रहे होते हैं। करेंट मंथ कॉन्ट्रैक्ट, मिड मंथ कॉन्ट्रैक्ट और फार मंथ कॉन्ट्रैक्ट। जैसा कि हमें पता है कि भारत फोर्ज का कॉन्ट्रैक्ट 29 जनवरी 2015 को एक्सपायर होने वाला है इसका मतलब है कि जनवरी का कॉन्ट्रैक्ट 29 जनवरी को 3:30 बजे एक्सपायर हो जाएगा। तो क्या 29 जनवरी को 3:30 पर जब यह कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायर हो जाएगा तो NSE पर केवल दो कॉन्ट्रैक्ट बचेंगे? 

नहीं ऐसा नहीं होगा 29 जनवरी को 3:30 पर इस कॉन्ट्रैक्ट के खत्म होने के बाद अगले दिन 30 जनवरी 9:15 पर NSE अप्रैल 2015 के लिए एक नया कॉन्ट्रैक्ट जारी करेगा। इसका मतलब यह कि 30 जनवरी को सुबह 9:15 बजे जब बाजार खुलेगा तो आपके पास फिर से 3 कॉन्ट्रैक्ट होंगे, जिनमें आप निवेश कर सकते हैं।

  1. अब फरवरी का कॉन्ट्रैक्ट आपका करंट मंथ का कॉन्ट्रैक्ट बन जाएगा जो कि अब तक मिड मंथ का कॉन्ट्रैक्ट था।
  2. मार्च महीने का कॉन्ट्रैक्ट जो अब तक फार मंथ का कॉन्ट्रैक्ट था वह मिड मंथ बन जाएगा। 
  3. इसी तरह अप्रैल का नया कॉन्ट्रैक्ट अब फार मंथ का कॉन्ट्रैक्ट बन जाएगा। 

इसी तरीके से जब फरवरी का कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायर होगा तो NSE मई का कॉन्ट्रैक्ट जारी करेगा और इस तरह हमेशा बाजार में 3 महीने के कॉन्ट्रैक्ट बने रहेंगे।

अब एक बार फिर से नजर डालते हैं भारत फोर्ज लिमिटेड के फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट पर। क्योंकि मेरा नजरिया थोड़ा लंबा है इसलिए मैं 26 फरवरी 2015 को एक्सपायर होने वाला कॉन्ट्रैक्ट खरीद सकता हूं और इसको फरवरी के अंत तक अपने पास रख सकता हूं। लेकिन मेरे सामने एक दूसरा विकल्प भी है फरवरी का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदने के बजाय मैं जनवरी का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीद सकता हूं और इसको इसके एक्सपायरी तक होल्ड कर सकता हूं। इसके बाद एक्सपायरी के समय इसको बेच कर फरवरी का कॉन्ट्रैक्ट खरीद सकता हूं। इसे “रोलओवर” कहते हैं। 

अगर आप बिजनेस न्यूज़ चैनल देखते हैं तो आप देख सकते हैं एक्सपायरी के समय बार-बार रोलओवर डाटा का इस्तेमाल किया जाता है। इसको सुनकर ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। रोलओवर डाटा सिर्फ यह बताता है कितने ट्रेडर अगले महीने के कॉन्ट्रैक्ट के लिए अपनी पोजीशन रोलओवर कर रहे हैं। यानी अगले महीने के कॉन्ट्रैक्ट में भी अपने पोजीशन में बने हुए हैं। जब ज्यादा लोग लांग पोजीशन रोलओवर कर रहे होते हैं तो इसका मतलब है कि बाजार में तेजी का माहौल है। लेकिन जब ज्यादा लोग अपने शॉर्ट पोजीशन को रोलओवर करते हैं तो इसका मतलब है कि बाजार में मंदी का माहौल बना हुआ है। तो क्या यह मानना सही है कि रोलओवर डाटा आपको बाजार की सही स्थिति बताता है, शायद नहीं क्योंकि यह डाटा बाजार के बारे में सिर्फ एक नजरिया पेश करता है। 

तो बाजार में कब लंबे समय के फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदने की जगह रोलओवर किया जाता है? इसको करने का सबसे बड़ा कारण होता है लिक्विडिटी। करेंट मंथ के कॉन्ट्रैक्ट में यानी मौजूदा महीने के कॉन्ट्रैक्ट में खरीदने या बेचने वाले हमेशा ज्यादा होते हैं, इसलिए इस कॉन्ट्रैक्ट को खरीदना और बेचना हमेशा आसान होता है ।

 

6.3 – स्प्रेड्स (spreads) पर एक नजर 

अब हम एक नए सिद्धांत के बारे में बात करेंगे जिसको समझना शुरू-शुरू में आपको थोड़ा सा मुश्किल लग सकता है लेकिन फिर भी आप इसे ध्यान से देखिए। बाद में इसे विस्तार से समझेंगे। अभी इसे एक उदाहरण के जरिए समझते हैं।

दो कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालिए 

  1. भारत फोर्ज लिमिटेड का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट जो कि 29 जनवरी 2015 को एक्सपायर हो रहा है 
  2. भारत फोर्ज लिमिटेड का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट जो 26 फरवरी 2015 को एक्सपायर हो रहा है 

यह दोनों अलग-अलग कॉन्ट्रैक्ट हैं और इन दोनों कॉन्ट्रैक्ट की कीमतें भी अलग-अलग हैं। लेकिन दोनों कॉन्ट्रैक्ट का अंडरलाइंग एक ही है भारत फोर्ज लिमिटेड। इसलिए यह दोनों कॉन्ट्रैक्ट एक तरीके से ही चलते हैं मतलब अगर भारत फोर्ज का शेयर स्पॉट बाजार में ऊपर जाता है तो यह दोनों फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट ऊपर जाएंगे और अगर शेयर स्पॉट बाजार में नीचे जाता है वे दोनों जनवरी और फरवरी फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट नीचे जाएंगे। 

लेकिन कई बार ऐसे मौके आते हैं जब आप इन दोनों में से एक कॉन्ट्रैक्ट को खरीदते हैं और दूसरे कॉन्ट्रैक्ट को बेचते हैं और इससे पैसे कमाते हैं। ऐसे मौकों को “कैलेंडर स्प्रेड” (Calendar spread) कहते हैं। ये कैसे होता है इसको समझने के लिए आगे के मॉड्यूल में चर्चा करेंगे, लेकिन इस समय मार्जिन के हिसाब से इसको समझते हैं। 

हमें पता है कि मार्जिन कैसे लगाए जाते हैं रिस्क मैनेजमेंट के लिए। लेकिन अगर हम कॉन्ट्रैक्ट को एक तरफ खरीद रहे हैं और दूसरी तरफ उसी कॉन्ट्रैक्ट को बेच रहे हैं तो रिस्क कैसा होगा? सच्चाई तो यह है कि रिस्क काफी कम रहेगा। इसको हम एक उदाहरण से समझते हैं:

परिस्थिति 1 ट्रेडर भारत फोर्ज लिमिटेड का जनवरी फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट खरीदता है 

भारत फोर्ज की स्पॉट कीमत = ₹1021 प्रति शेयर 

भारत फोर्ज जनवरी कॉन्ट्रैक्ट कीमत = ₹1021 प्रति शेयर 

लॉट साइज = 250

मान लीजिए स्पॉट कीमत 10 रूपए नीचे गिर जाती है और ₹1011 तक पहुंच जाती है

फ्यूचर की लगभग कीमत = ₹1013

P&L = (10×250) = 2500 का नुकसान

परिस्थिति दोट्रेडर जनवरी फ्यूचर्स खरीदता है और फरवरी फ्यूचर्स बेचता है

भारत फोर्ज की स्पॉट कीमत = ₹1021 प्रति शेयर 

भारत फोर्ज के जनवरी कॉन्ट्रैक्ट पर लॉन्ग पोजीशन ₹1023 प्रति शेयर पर

भारत फोर्ज के फरवरी कॉन्ट्रैक्ट पर शार्ट पोजीशन ₹1033 प्रति शेयर पर

लॉट साइज = 250

मान लीजिए स्पॉट बाजार में कीमत गिर जाती है ₹1011 प्रति शेयर तक(10 प्वाइंट)

जनवरी फ्यूचर्स की लगभग कीमत = ₹1013 प्रति शेयर 

फरवरी फ्यूचर्स की कीमत लगभग = ₹1023 प्रति शेयर 

जनवरी कॉन्ट्रैक्ट का P&L =(10×250) = 2500 का नुकसान

फरवरी कॉन्ट्रैक्ट का P&L =(10×250) = 2500 का फायदा

कुल P&L = -2500 + 2500 = 0

परिस्थिति 3 ट्रेडर जनवरी फ्यूचर्स बेचता है और फरवरी फ्यूचर्स खरीदता है 

भारत फोर्ज की स्पॉट कीमत = ₹1021 प्रति शेयर 

भारत फोर्ज के जनवरी फ्यूचर्स के कॉन्ट्रैक्ट में शॉर्ट पोजीशन ₹1023 प्रति शेयर पर

भारत फोर्ज के फरवरी फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में लॉन्ग पोजीशन ₹1033 प्रति शेयर पर

लॉट साइज = 250

मान लीजिए स्पॉट बाजार में भारत फोर्ज के शेयर की कीमत 10 प्वाइंट बढ़ कर 1031 हो जाती है

जनवरी फ्यूचर्स की लगभग कीमत = ₹1033 प्रति शेयर 

फरवरी फ्यूचर्स की कीमत लगभग = ₹1043 प्रति शेयर 

जनवरी कॉन्ट्रैक्ट का P&L =(10×250) = 2500 का नुकसान

फरवरी कॉन्ट्रैक्ट का P&L =(10×250) = 2500 का फायदा

कुल P&L = -2500 + 2500 = 0

मैं यहां यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि अगर आप एक कॉन्ट्रैक्ट पर लॉन्ग और दूसरे पर शॉर्ट हैं तो आपका रिस्क करीब-करीब जीरो तक पहुंच जाता है। लेकिन ऐसा नहीं कि रिस्क पूरा खत्म हो जाए। आपको लिक्विडिटी, वोलैटिलिटी और दूसरे रिस्क पर नजर तब भी रखनी होती है। लेकिन इन सबके बावजूद कुल मिलाकर रिस्क कम रहता है। 

जब रिस्क कम होता है तो मार्जिन भी कम होना चाहिए। वास्तव में होता भी यही है।

जब हम भारत फोर्ज का जनवरी कॉन्ट्रैक्ट खरीदते हैं तो मार्जिन ₹37,362 लगेगा।

जब हम फरवरी के कॉन्ट्रैक्ट को बेचने की कोशिश करते हैं तो मार्जिन ₹37,362 लगेगा

जब हम जनवरी का कॉन्ट्रैक्ट खरीदने और फरवरी का कॉन्ट्रैक्ट बेचना चाहते हैं तो मार्जिन ₹7213 लगेगा

जैसा कि आप देख सकते हैं जब जनवरी और फरवरी का कॉन्ट्रैक्ट अलग-अलग लिया जाता है तो तो दोनों पर मार्जिन लगता है 37362 और 33629 यानी कुल मिलाकर ₹74991 । लेकिन जब एक साथ ही एक कॉन्ट्रैक्ट खरीदा जा रहा  है और दूसरा कॉन्ट्रैक्ट बेचा जा रहा है तो रिस्क कम हो जाता है इसलिए मार्जिन की जरूरत भी कम हो जाती है। जैसा कि हम देख सकते हैं कि दोनों को साथ ही में खरीदने पर मार्जिन बनता है ₹7213। इसका मतलब हुआ कि 74991 रुपए की मार्जिन के बजाय अब हमें देना पड़ेगा 7213 का मार्जिन जो कि ₹67658 की बचत है। लेकिन याद रखें ऐसा मौका कम ही आता है जब लॉन्ग और शार्ट पोजीशन दोनों एक साथ बनाकर पैसे कमाए जा सकें। ऐसे मौकों को कैलेंडर स्प्रेड कहते हैं। कैलेंडर स्प्रेड का मौका नहीं होने पर कोई जरूरत नहीं कि हम ऐसा सौदा करें।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. जेरोधा का मार्जिन कैलकुलेटर आपको हर सौदे की मार्जिन को आसानी से पता करने में मदद करता है।
  2. मार्जिन कैलकुलेटर में कई तरीके के फीचर यानी विशेषताएं होती हैं।
  3. मार्जिन कैलकुलेटर आपको स्पैन और एक्सपोजर मार्जिन अलग-अलग भी बताता है। 
  4. किसी भी समय NSE पर 3 तरीके के फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट मौजूद होते हैं जिनका अंडरलाइंग एक ही होता है। 
  5. एक ट्रेडर एक्सपायरी डाटा के आधार पर अपनी पसंद का कॉन्ट्रैक्ट चुन सकता है।
  6. मौजूदा महीने में एक्सपायर होने वाला कॉन्ट्रैक्ट, करेंट मंथ कॉन्ट्रैक्ट कहा जाता है अगले महीने खत्म होने वाला कॉन्ट्रैक्ट, मिड मंथ कॉन्ट्रैक्ट कहा जाता है और तीसरा कॉन्ट्रैक्ट होता है फार मंथ कॉन्ट्रैक्ट जो कि उसके भी एक महीने बाद खत्म होता है। 
  7. हर महीने की एक्सपायरी पर करेंट मंथ का कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो जाता है यानी एक्सपायर हो जाता है। एक नया फार मंथ कॉन्ट्रैक्ट चालू हो जाता है और इसी समय मिड मंथ कॉन्ट्रैक्ट करेंट मंथ  कॉन्ट्रैक्ट बन जाता है। 
  8. कैलेंडर स्प्रेड एक तरीके की ट्रेडिंग तकनीक है जिसमें किसी एक अंडरलाइंग के किसी महीने का कॉन्ट्रैक्ट खरीदा जाता है और किसी दूसरे महीने का कॉन्ट्रैक्ट बेचा जाता है। 
  9. जब एक कैलेंडर स्प्रेड शुरू किया जाता है तो मार्जिन की जरूरत काफी कम हो जाती है।

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मार्जिन और M2M (मार्क टू मार्केट – Mark to Market) https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%a8-%e0%a4%94%e0%a4%b0-m2m-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95-%e0%a4%9f%e0%a5%82-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%a8-%e0%a4%94%e0%a4%b0-m2m-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95-%e0%a4%9f%e0%a5%82-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:04:47 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6273 5.1 – बातें जो अब तक आपको जाननी चाहिए फ्यूचर्स ट्रेडिंग में मार्जिन सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में मार्जिन ही फ्यूचर्स ट्रेडिंग को स्पॉट ट्रेडिंग से अलग बनाता है क्योंकि यह उसमें ट्रेडिंग का एक नया रास्ता जोड़ता है। इसीलिए हमें मार्जिन को बहुत गहराई से समझने की जरूरत है। लेकिन आगे […]

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5.1 – बातें जो अब तक आपको जाननी चाहिए

फ्यूचर्स ट्रेडिंग में मार्जिन सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में मार्जिन ही फ्यूचर्स ट्रेडिंग को स्पॉट ट्रेडिंग से अलग बनाता है क्योंकि यह उसमें ट्रेडिंग का एक नया रास्ता जोड़ता है। इसीलिए हमें मार्जिन को बहुत गहराई से समझने की जरूरत है।

लेकिन आगे बढ़ने से पहले एक बार उन चीजों को दोहरा लेते हैं, जिनको हमने अब तक पिछले चार अध्याय में सीखा है। 

  1. फ्यूचर्स मार्केट फॉरवर्ड्स मार्केट का ही सुधरा हुआ रूप है। 
  2. फ्यूचर्स के समझौते आमतौर पर फॉरवर्ड्स के समझौते के आधार पर ही बने होते हैं। 
  3. अगर आप किसी एसेट की कीमत की आगे की दिशा के बारे में एक निश्चित राय रखते हैं तो फ्यूचर्स एग्रीमेंट आपको वित्तीय फायदा पहुंचा सकते हैं। 
  4. फ्यूचर्स एग्रीमेंट की कीमत उसके अंडरलाइंग की स्पॉट मार्केट कीमत से जुड़ी होती है।   
    1. उदाहरण के लिए TCS फ्यूचर्स की  कीमत अंडरलाइंग यानी TCS के शेयर की स्पॉट मार्केट की कीमत से जुड़ी होती है। 
  5. फ्यूचर्स कीमत अंडरलाइंग की स्पॉट कीमत के साथ चलती है। 
    1. फ्यूचर्स की कीमत को निकालने का एक अलग फॉर्मूला होता है।
  6. फ्यूचर्स एग्रीमेंट एक तरीके का स्टैंडर्ड एग्रीमेंट होता है, जिसमें शर्तें पहले से निर्धारित होती हैं जैसे लॉट साइज और एक्सपायरी। 
    1. फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में खरीदने या बेचने के लिए जो कम से कम मात्रा होती है, उसे लॉट साइज कहते हैं। 
    2. कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू= फ्यूचर्स प्राइस × लॉट साइज 
    3. जिस अंतिम तारीख तक आप इस एग्रीमेंट को अपने पास रख सकते हैं उसे एक्सपायरी की तारीख कहते हैं। 
  7. फ्यूचर्स एग्रीमेंट करने के लिए आपको मार्जिन के तौर पर एक छोटी रकम अदा करनी पड़ती है जो कि कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का ही एक प्रतिशत होता है। 
    1. मार्जिन के तौर पर छोटी रकम अदा करके हम बड़ी रकम के सौदे भी कर सकते हैं इस तरह यहां लेवरेजिंग हो सकती है। 
  8. जब हम फ्यूचर्स एग्रीमेंट करते हैं तो हम एक तरीके से एक डिजिटल हस्ताक्षर करके समझौता करते हैं और यह कहते हैं कि हम इस समझौते को पूरा करेंगे। 
  9. फ्यूचर्स एग्रीमेंट की खरीद बिक्री हो सकती है। इसका मतलब यह है कि आपको एक्सपायरी तक इस एग्रीमेंट को अपने पास रखने की जरूरत नहीं होती है। 
    1. फ्यूचर्स एग्रीमेंट आप तब तक अपने पास रख सकते हैं जब तक आपकी राय नहीं बदलती है। जिस दिन कीमत को लेकर आपकी राय बदल जाए उस दिन आप एग्रीमेंट से निकल सकते हैं। 
    2. फ्यूचर्स एग्रीमेंट आप कुछ मिनटों के लिए भी अपने पास रख सकते हैं और उसे अपने फायदे के लिए बेच सकते हैं।
    3. उदाहरण के तौर पर आप 9:15 बजे इंफोसिस को 1951 रुपए पर खरीदकर 9:17 पर 1953 पर बेच सकते हैं चूंकि इंफोसिस का लॉट साइज 250 का है इसलिए इस सौदे में आपको ₹500 (250×2) की कमाई हो जाएगी। 
    4. आप फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट को 1 दिन या 1 महीने तक (एक्सपायरी तक) रख सकते हैं। 
  10. इक्विटी फ्यूचर्स का कैश सेटेलमेंट होता है।
  11. यह सौदे लेवरेज होते हैं इसलिए अंडरलाइंग में मामूली बदलाव का भी P&L पर भारी असर होता है। 
  12. खरीदने वाले को जितना फायदा या नुकसान होता है, बेचने वाले को उतना ही नुकसान या फायदा होता है। 
  13. फ्यूचर्स सौदे में पैसे एक जेब से निकलकर दूसरे की जेब में चले जाते हैं इसलिए इसे जीरो सम गेम (Zero Sum Game)” कहते हैं। 
  14. लेवरेज जितना ज्यादा होगा रिस्क भी उतना ही ज्यादा होगा। 
  15. फ्यूचर्स एग्रीमेंट का पेऑफ स्ट्रक्चर लीनियर होता है। 
  16. फ्यूचर्स मार्केट को सेबी नियंत्रित करती है और अभी तक फ्यूचर्स मार्केट में काउंटर पार्टी के डिफॉल्ट करने की घटनाएं नहीं हुई है। 

अगर आप इन सारी चीजों को ठीक से समझ चुके हैं। तो हम आगे बढ़ते हैं और मार्जिंन और मार्क टू मार्केट के बारे में बात करते हैं।

5.2 मार्जिन क्यों लिया जाता है?

मार्जिन को और गहराई से समझने के लिए एक बार फिर से ABC ज्वेलर्स वाले अपने उदाहरण पर लौटते हैं, जिसकी हमने अध्याय 1 में चर्चा की थी। ABC ज्वेलर्स ने 3 महीने बाद 15 किलो सोना 2450 रुपए प्रति ग्राम पर XYZ गोल्ड डीलर्स से खरीदने का समझौता किया था। अब हम जानते हैं कि अगर सोने की कीमत में कोई उतार-चढ़ाव होता है तो ABC और XYZ में से एक को फायदा और दूसरे को नुकसान होगा। मान लीजिए सोने की कीमतें बहुत ज्यादा ऊपर चली जाती हैं और XYZ के लिए काफी बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है तो XYZ यह कह सकता है कि वह इस सौदे को पूरा नहीं कर सकता और डिफॉल्ट कर देता है। इसके बाद अदालती लड़ाई का लंबा दौर चलेगा। लेकिन हमारे लिए काम की बात यहां यह है कि ऐसी स्थिति में डिफॉल्ट करना काफी आसान रास्ता है। चूंकि फ्यूचर्स मार्केट भी और फॉरवर्ड्स मार्केट के आधार पर ही बनाया गया है इसलिए डिफॉल्ट की इस संभावना को समझते हुए यहां पर कुछ जरूरी बदलाव किए गए हैं और मार्जिन को एक महत्वपूर्ण भूमिका दी गई है।

फॉरवर्ड्स मार्केट में कोई रेगुलेटर यानी नियम नियंत्रित करने वाला नहीं होता। एग्रीमेंट दो लोगों या दो पार्टियों के बीच में होता है और किसी तीसरे को इसकी कोई जानकारी नहीं होती। जबकि फ्यूचर्स मार्केट में सभी सौदे एक एक्सचेंज में होते हैं एक्सचेंज उनके सेटेलमेंट की गारंटी देता है। मतलब एक्सचेंज यह सुनिश्चित करता है कि सौदा पूरा होने पर आपको अपना पैसा मिल सके। इसीलिए एक्सचेंज सभी पार्टियों से पैसा भी पहले ले लेता है। 

एक्सचेंज ये काम कैसे करते हैं और वह कैसे सुनिश्चित करते हैं कि यह सब बिना रुकावट से होता रहे? ये होता है-

  1. मार्जिन ले कर
  2. हर दिन होने वाले फायदा या नुकसान का हिसाब-किताब रख कर, जिसे मार्क टू मार्केट या M2M कहते हैं

मार्जिन और मार्क टू मार्केट के सिद्धांत को ठीक से समझना आपके लिए जरूरी है क्योंकि तभी आप इस बाजार के काम-काज ठीक से समझ पाएंगे। लेकिन इन दोनों को एक साथ समझाना थोड़ा मुश्किल काम है इसलिए पहले मैं आपको मार्क टू मार्केट यानी M2M को समझाना चाहता हूं। इसे समझने के लिए आपको कुछ बातों को याद रखना होगा। 

  1. फ्यूचर्स बाजार में पोजीशन लेने के साथ ही आपके ट्रेडिंग एकाउंट में मार्जिन मनी ब्लॉक हो जाती है 
  2. जो मार्जिन ब्लॉक की जाती है उसे इनिशियल मार्जिन (Initial Margin) या शुरुआती मार्जिन कहते हैं 
  3. इनिशियल मार्जिन के 2 हिस्से होते हैं स्पैन मार्जिन और एक्स्पोज़र मार्जिन (SPAN margin and the Exposure Margin)
  4. इनिशियल मार्जिन =  स्पैन मार्जिन + एक्स्पोज़र मार्जिन  (Initial Margin = SPAN Margin + Exposure Margin)
  5. आप जब तक उस सौदे में बने रहते हैं तब तक आपके ट्रेडिंग एकाउंट में इनिशियल मार्जिन ब्लॉक ही रहती है। 
  1. इनिशियल मार्जिन की रकम हर दिन बदलती रहती है क्योंकि यह फ्यूचर्स की कीमत पर निर्भर होती है 
  2. इनिशियल मार्जिन कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का ही एक निश्चित प्रतिशत होती है 
  3. कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = फ्यूचर्स प्राइस × लॉट साइज 
  4. लॉट साइज निश्चित होता है लेकिन फ्यूचर्स की कीमत हर दिन बदलती है इसका मतलब है मार्जिन भी हर दिन बदलता है 

अब हम आगे बढ़ते हैं और M2M को समझने की कोशिश करते हैं।

5.3 – मार्क टू मार्केट (M2M Mark to Market)

क्योंकि फ्यूचर्स बाजार में कीमत हर दिन बदलती रहती हैं इसलिए हर दिन आपका फायदा या नुकसान भी बदलता रहता है। मार्क टू मार्केट या M2M आपकी इसी फायदा या नुकसान को दिन के अंत में हिसाब-किताब करता और रखता है जिससे दिन के अंत में आपको पता चल सके कि आप को कितने का नुकसान या कितने का फायदा हुआ है। जब तक आप फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में बने रहते हैं तब तक M2M चलता रहता है। इसको एक उदाहरण से समझते हैं। 

मान लीजिए 1 दिसंबर 2014 को 11:30 बजे आपने हिंडाल्को का फ्यूचर्स ₹165 पर खरीदने का फैसला किया। इसका लॉट साइज है 2000 का। 4 दिन बाद यानी 4 दिसंबर 2014 को आप अपनी पोजीशन को स्क्वेयर ऑफ करते हैं 2:15 पर और कीमत होती है ₹170. 10 । नीचे की गणना में आपको दिखेगा कि आप को कितना फायदा हुआ।

खरीद कीमत = 165

बेचने की कीमत =170.10

प्रति शेयर प्रॉफिट = 170.1-165 = 5.1

कुल मुनाफा = 2000 × 5.1

= 10,200/- 

लेकिन यह सौदा चार दिनों तक था। इसलिए हर दिन इसके फायदा या नुकसान को M2M में नोट किया जा रहा था। M2M निकालने के लिए पिछले दिन की बंद कीमत यानी क्लोज प्राइस का इस्तेमाल किया जाता है।

तारीख क्लोजिंग कीमत
1st Dec 2014 168.3
2nd Dec 2014 172.4
3rd Dec 2014 171.6
4th Dec 2014 169.9

आइए इस टेबल के आधार पर समझते हैं कि पिछले 4 दिनों में हर दिन M2M में क्या हुआ?

पहले दिन 11:30 पर फ्यूचर्स कांट्रैक्ट को खरीदा गया जब कीमत थी ₹165 । खरीदने वाले दिन कीमत बढ़ी और बंद कीमत ( क्लोजिंग प्राइस) रही ₹168.3। यानी दिन का मुनाफा हुआ ₹168.3 –  ₹165 = 3.3 रुपए।  चूंकि यहां लॉट साइज 2000 का है, इसलिए कुल मुनाफा होगा 3.3 × 2000 = ₹6600 । 

अब एक्सचेंज यह सुनिश्चित करेगा कि शाम तक ₹6600 आपके ट्रेडिंग एकाउंट में ब्रोकर के जरिए आ जाएं। 

  1. लेकिन यह पैसे कहां से आ रहे हैं? 
    1. पैसे आ रहे हैं आपकी काउंटरपार्टी से। मतलब एक्सचेंज ने यह सुनिश्चित किया है कि काउंटरपार्टी अपने नुकसान वाले ₹6600 आपको दे दे।
  1. लेकिन एक्सचेंज यह कैसे सुनिश्चित करता है कि काउंटर पार्टी यह पैसे दे दे
    1. इसके लिए ही मार्जिन का इस्तेमाल करता है जो कि इस सौदे की शुरुआत में ही जमा कराया गया था।

अब आपको यहां एक और महत्वपूर्ण बात पर ध्यान देना है हिसाब-किताब सही रखने के लिए यह अब आप की खरीद कीमत ₹165 नहीं बल्कि ₹168 होगी क्योंकि यही उस दिन का क्लोजिंग प्राइस है। आप पूछ सकते हैं कि ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि उस दिन का जो भी फायदा हुआ है मार्क टू मार्केट(M2M) के तौर पर आपके ट्रेडिंग एकाउंट में पहले ही भेज दिया गया है। इसका यह भी मतलब है कि इस दिन तक का आपका हिसाब-किताब पूरा हो चुका है। अगला दिन एक नया दिन होगा। इसलिए अगले दिन ₹168.3 की कीमत को शुरुआती कीमत माना जाएगा जो कि पिछले दिन की क्लोज कीमत थी।

दूसरे दिन यानी सौदे के दूसरे दिन फ्यूचर्स ₹172.4 पर बंद हुआ यानी ये क्लोज कीमत हुई। इसका मतलब कि इस दिन भी आपको मुनाफा हुआ। इस दिन का प्रति शेयर मुनाफा होगा ₹172.4 – ₹168.3 = ₹4.1 और कुल मुनाफा हुआ 2000×4 .1 = ₹8800। अब ये मुनाफा भी आपके ट्रेडिंग एकाउंट में आ जाएगा और अब कीमत हो जाएगी ₹172.4

तीसरे दिन फ्यूचर्स में कीमत बंद हुई  ₹171.6 पर यानी पिछले दिन के क्लोज कीमत के मुकाबले इस दिन आपको ₹1600 (172.4-171.6= 0.8×2000= 1600) का नुकसान हो रहा है। यह रकम भी सीधे आपके ट्रेडिंग एकाउंट से निकाल ली जाएगी और अब नई कीमत होगी ₹171.6

चौथे दिन आपने यह पोजीशन होल्ड नहीं की और आपने ₹170.10 पर 2.15 बजे अपना सौदा स्क्वेयर ऑफ कर लिया। यानी इस दिन भी आपको फायदा नहीं बल्कि नुकसान हुआ। ₹1.5 का (171.6 – 170.1 =1.5)  और कुल नुकसान हुआ ₹3000 (1.5 ×2000) का। इसके बाद कीमत में होने वाला कोई भी बदलाव आपके एकाउंट पर असर नहीं डालेगा क्योंकि आपने पहले ही अपनी पोजीशन को स्क्वेयर ऑफ कर लिया है। दिन के अंत तक आपके ट्रेडिंग एकाउंट से ₹3000 जरूर निकाल लिए जाएंगे जो कि आपका उस दिन का नुकसान है। 

इस सारी लेनदेन को एक टेबल में डालकर देखते हैं कि कैसे मार्क टू मार्केट (M2M) बदलता रहता है।

तारीख M2M के लिए कीमत क्लोजिंग कीमत दिन का M2M
1st Dec 2014 165 168.3 + Rs.6,600/-
2nd Dec 2014 168.3 172.4 +Rs.8,200/-
3rd Dec 2014 172.4 171.6 -Rs.1,600/-
4th Dec 2014 171.6 & 170.1 169.9 – Rs.3,000/-
Total +Rs.10,200/-

अगर आप इसकी गणना फिर से करेंगे तो आपको दिखेगा कि

खरीद कीमत = 165

बिक्री की कीमत = 170.1 

प्रति शेयर मुनाफा = (170.1 -165) = 5.1

कुल मुनाफा = 2000 × 5.1

= Rs 10,200/-

तो मार्क टू मार्केट यानी M2M हर दिन की एकाउंटिंग का एक तरीका है, 

  1. जिसमें फ्यूचर्स की कीमत में बदलाव के आधार पर आपके ट्रेडिंग एकाउंट में या तो पैसे आते हैं या निकल जाते हैं। 
  2. हर दिन के मार्क टू मार्केट को निकालने के लिए पिछले दिन की बंद कीमत यानी क्लोजिंग प्राइस को आधार बनाया जाता है। 

आखिर मार्क टू मार्केट की जरूरत क्या है? असल में मार्क टू मार्केट यानी M2M के जरिए हर दिन फायदे या नुकसान की रकम का भुगतान करके एक्सचेंज यह सुनिश्चित करता है कि बाजार में काउंटरपार्टी डिफॉल्ट का रिस्क कम से कम रहे। मार्क टू मार्केट से यह हिसाब-किताब हर दिन बराबर होता रहता है। 

अब एक बार फिर से मार्जिन की तरफ लौटते हैं। 

5.4 मार्जिन बड़ा परिप्रेक्ष्य

मार्क टू मार्केट को ध्यान में रखते हुए एक बार मार्जिन पर नजर डालते हैं। जैसे कि हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं कि सौदा करते समय जो मार्जिन जमा किया जाता है उसे इनिशियल मार्जिन (Initial Margin IM) या शुरुआती मार्जिन कहते हैं। और यह कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का एक निश्चित प्रतिशत होता है। हम यह भी जानते हैं 

इनिशियल मार्जिन (IM) = स्पैन (SPAN) मार्जिन + एक्स्पोज़र मार्जिन 

फ्यूचर्स बाजार में आप जैसे ही किसी भी सौदे की शुरुआत करते हैं वैसे ही बहुत सारे वित्तीय  मध्यस्थ/बिचौलिए यानी फाइनेंशियल इंटरमीडियरीज काम पर लग जाते हैं, जिससे कि आपका हर सौदा बिना रुकावट के आसानी से पूरा हो सके। इनमें दो सबसे महत्वपूर्ण इंटरमीडियरीज हैं एक्सचेंज और ब्रोकर । 

अब अगर आपने अपने सौदे में डिफॉल्ट कर दिया तो इसका असर ब्रोकर और एक्सचेंज दोनों पर होगा। उन दोनों को किसी भी नुकसान से बचाने के लिए ही मार्जिन का इस्तेमाल किया जाता है।

एक्सचेंज की तरफ से जो कम से कम मार्जिन या मिनिमम मार्जिन तय की जाती है उसको स्पैन मार्जिन कहते हैं। इसके बाद M2M में होने वाले किसी नुकसान से बचने के लिए अलग से एक और रकम मार्जिन के तौर पर जोड़ी जाती जिसे एक्सपोजर मार्जिन कहते हैं। ये दोनों ही मार्जिन एक्सचेंज की तरफ से तय की जाती हैं। इसीलिए फ्यूचर्स का कोई भी सौदा करने के लिए इनिशियल मार्जिन को जमा करना ही होता है। एक्सचेंज की तरफ से पूरा इनिशियल मार्जिन (SPAN + एक्सपोजर मार्जिन) ब्लॉक कर दिया जाता है। 

इन दोनों मार्जिन में स्पैन मार्जिन ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। अगर स्पैन मार्जिन की रकम आपके ट्रेडिंग एकाउंट पर नहीं है तो आपके ऊपर पेनल्टी लग सकती है। अपने ट्रेड को होल्ड करने के लिए या अपनी पोजीशन को बचाए रखने (मेंटेन / maintain) के लिए आपके पास स्पैन मार्जिन होना जरूरी है। इसीलिए स्पैन मार्जिन को कभी-कभी मेंटेनेंस (maintenance) मार्जिन भी कहते हैं। 

अब सवाल यह है कि यह कैसे तय होता है कि किस स्टॉक के लिए स्पैन मार्जिन कितनी होनी चाहिए? हर दिन इस मार्जिन को निकालने के लिए एक तरीके का एल्गोरिदम (algorithm) का इस्तेमाल किया जाता है। ये मार्जिन कितनी होगी ये तय करने में उस स्टॉक में होने वाली वोलेटिलिटी (volatility) यानी उठापटक की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वोलेटिलिटी क्या होती है इस पर हम अगले मॉड्यूल में चर्चा करेंगे। अभी ये जानना जरूरी है कि स्टॉक में वोलेटिलिटी बढ़ती है तो इसका मार्जिन भी बढ़ जाता है। 

एक्सपोजर मार्जिन एक अतिरिक्त मार्जिन के तौर पर काम करती है। आमतौर पर ये कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू के 4 से 5% के बीच में होती है।  

अब मार्जिन और M2M के नजरिए से एक फ्यूचर्स ट्रेड को देखते हैं.

विवरण जानकारी
स्टॉक HDFC Bank Limited
सौदे का प्रकार लांग
खरीद की तिथि 10th Dec 2014
खरीद कीमत Rs.938.7/- प्रति शेयर
बेचने की तिथि 19th Dec
बेचने वाली कीमत Rs.955/- per share
लॉट साइज 250
कांट्रैक्ट वैल्यू 250*938.7 = Rs.234,675/-
SPAN मार्जिन 7.5% of CV = Rs.17,600/-
एक्सपोजर मार्जिन 5.0% of CV = Rs.11,733/-
IM/ इनिशियल मार्जिन (SPAN + Exposure) 17600 + 11733 = Rs.29,334/-
प्रति शेयर P&L  प्रति शेयर Rs.16.3/- (955 – 938.7) का मुनाफा
कुल मुनाफा 250 * 16.3 = Rs.4,075/-

यदि आप जेरोधा के जरिए ट्रेड कर रहे हैं तो आपको पता होगा कि यहां पर मार्जिन कैलकुलेटर दिया जाता है जो स्पैन (SPAN) और एक्सपोजर मार्जिन को हर सौदे के लिए अलग-अलग बताता है। इस कैलकुलेटर की जरूरत पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी ऊपर दिए गए फ्यूचर्स ट्रेड की जानकारी के आधार पर यह देखते हैं कि मार्जिन और M2M किसी एक सौदे में किस तरह की भूमिका अदा करते हैं। नीचे के टेबल में आपको दिखेगा कि हर दिन इसमें किस तरह का बदलाव होता है।

ऊपर के टेबल को समझना बहुत ही आसान है। अभी हम देखते हैं कि हर दिन यह कैसे बदल रहा होता है:

 10 दिसंबर 2014

इस दिन HDFC बैंक का फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट ₹938 की कीमत पर खरीदा गया। इसका लॉट साइज 250 का है। इसलिए कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू हुई ₹234675/- । जैसा कि हमें ऊपर बॉक्स में दिखाई दे रहा है कि इसका स्पैन  मार्जिन 7.5% और एक्स्पोज़र मार्जिन 5% है। इसका मतलब यह हुआ कि कुल कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का 12.5% (SPAN + एक्सपोजर) मार्जिन के तौर पर ब्लॉक होगा, जो कि ₹ 29334 है। इनिशियल मार्जिन को इनिशियल कैश ब्लॉक्ड (Initial cash blocked) भी कहते हैं 

HDFC उस दिन ₹940 पर बंद होता है ₹940 पर कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू बनती है ₹233000। इसलिए कुल मार्जिन बनेगी ₹29375 जो कि पहले की मार्जिन ₹47 ज्यादा है। अब इसके लिए ग्राहक को और मार्जिन मनी डालने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि उसका मार्क टू मार्केट यानी M2M मुनाफा ₹325 का है जो कि इस रकम से ज्यादा है और ये रकम ट्रेडिंग एकाउंट में आ चुकी है।  

इस तरह से ट्रेडिंग एकाउंट में कुल रकम होगी = कैश बैलेंस + M2M

= 29,334 + 325

= 29,659

साफ है कि बची हुई रकम, मार्जिन की रकम यानी ₹29375 से ज्यादा है। इसलिए यहां कोई दिक्कत नहीं है। अगले दिन के लिए मार्क टू मार्केट M2M के लिए नई आधार कीमत ₹940 होगी।

11 दिसंबर 2014 

अगले दिन HDFC बैंक के शेयर की कीमत ₹1 गिर जाती है और ₹939 प्रति शेयर पर पहुंच जाती है। इसकी वजह से M2M भी ₹250 नीचे हो जाता है। अब यह रकम बचे हुए कैश बैलेंस में से निकाल दी जाती है और उसको दे दी जाती है जिसने यह मुनाफा कमाया है। अब एकाउंट में बचते हैं

= 29,659 -250

= 29,409 

इसके बाद नया मार्जिन बनता है ₹29344/- अभी भी एकाउंट में बची हुई रकम इस मार्जिन की रकम से ज्यादा है इसलिए कोई मुश्किल की बात नहीं है और अब M2M के लिए नई कीमत होगी ₹939/- । 

12 दिसंबर 2014 

इस दिन बाजार में थोड़ी ज्यादा उठापटक होती है। फ्यूचर्स में HDFC की कीमत ₹9 गिर जाती है और नई कीमत ₹930 प्रति शेयर हो जाती है।  ₹930 की कीमत के हिसाब से अब मार्जिन है ₹29063/- । लेकिन ₹2250 का M2M लॉस हो जाता है।  जिसकी वजह से एकाउंट में बचते हैं ₹27159/-  जो कि मार्जिन की जरूरत से कम है। अब चूंकि एकाउंट में मार्जिन से कम रकम है इसलिए ग्राहक को एकाउंट में और पैसे डालने पड़ेंगे। नहीं, ऐसा नहीं है।

आपको याद होगा कि स्पैन और एक्सपोजर मार्जिन में स्पैन मार्जिन को ज्यादा महत्व दिया जाता है। ज्यादातर ब्रोकर आपको यह सुविधा देते हैं कि अगर आपके पास स्पैन मार्जिन (मेन्टेनेंस मार्जिन) की रकम पूरी है तो आप अपनी पोजीशन को होल्ड कर सकते हैं। जब आपके एकाउंट में मेंटेनेंस मार्जिन से रकम कम हो जाती है तब ब्रोकर आप को कहता है कि आपको और पैसे डालने पड़ेंगे। अगर आपने पैसे नहीं डाले तो आप की पोजीशन को क्लोज कर दिया जाएगा। इस तरह की कॉल जब आपको ब्रोकर करता है तो उसको मार्जिन कॉल कहते हैं। अगर आपका ब्रोकर आपको कॉल करके और मार्जिन डालने को कह रहा है तो इसका मतलब है कि आपके एकाउंट में रकम काफी कम हो गई है। 

हमारे उदाहरण के हिसाब से अब नया कैश बैलेंस है ₹27159 जो कि स्पैन मार्जिन ₹17438 से ज्यादा है इसलिए अभी तक कोई मुश्किल नहीं है। M2M नुकसान आपके एकाउंट से निकल जाता है और अगले दिन के लिए M2M के लिए नई कीमत हो जाती है ₹930/- । 

यहां तक आपको थोड़ा बहुत एहसास होने लगा होगा कि M2M और मार्जिन किस तरीके से चलते हैं। यह भी समझ में आने लगा होगा कि इनके जरिए एक्सचेंज कैसे डिफॉल्ट की स्थिति से बचा कर रखता है क्योंकि यही दोनों, मार्जिन और M2M मिलकर बाजार में किसी भी तरीके के डिफॉल्ट को होने से रोकते हैं। 

अब चूंकि आपको यह सब कुछ समझ में आने लगा है, इसलिए हम इस सौदे के अंतिम दिन की ओर बढ़ते हैं। 

19 दिसंबर 2014

HDFC के शेयर की कीमत ₹955 तक पहुंच चुकी है और अब ट्रेडर यह फैसला करता है कि वह अपने इस सौदे को स्क्वेयर ऑफ कर देगा और पैसे निकाल लेगा। ऐसा करने के लिए पिछले दिन के क्लोज कीमत के आधार पर उसके M2M की रकम ₹938 बनती है। इस तरीके से उसका M2M मुनाफा ₹4250 बनता है। यह रकम उसके पिछले दिन के बैलेंस यानी ₹ 29159 में जुड़ जाती है। इस तरह अब उसके एकाउंट में कुल ₹ 33409 (29159 + 4250) बचते हैं। जैसे ही वह यह सौदा स्क्वेयर ऑफ करता है यह रकम उसके एकाउंट में आ जाएगी।   

अब देखते हैं कि इस पूरे सौदे का P&L कैसा दिखाई देगा। P&L निकालने के कई तरीके हो सकते हैं:

तरीका 1) सभी M2M  को जोड़ कर

P&L = सभी M2M का जोड़

= 325 – 250 -2250 + 4750- 4000 – 2000 + 3250 + 4250

= 4075

तरीका 2) कैश रिलीज

P&L = ब्रोकर द्वारा वापस किया गया अंतिम कैश (कैश रिलीज) इनिशियल मार्जिन (शुरूआत में ब्लाक किया गया मार्जिन)

= 33409 – 29334

= ₹ 4075

तरीका 3) कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू

P&L = अंतिम कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू शुरूआती कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू

= ₹ 238,750 – 234,675

= ₹ 4075

तरीका 4) फ्यूचर्स कीमत

P&L = (फ्यूचर्स में खरीद और बेचने की कीमत का अंतर) × लॉट साइज

खरीद कीमत = 938.7 

बेचने की कीमत = 955

लॉट साइज = 250

= 16.3 × 250

= ₹4075

जैसा कि आप देख सकते हैं कि आप किसी भी तरीके से P&L निकालें, रकम एक ही आती है।

5.5 मार्जिन कॉल का एक रोचक उदाहरण

कुछ देर के लिए यह मान लीजिए कि यह ट्रेड 19 दिसंबर को स्क्वेयर ऑफ नहीं किया जाता और यह सौदा 20 दिसंबर को भी बना रहता है। उस दिन यानी 20 दिसंबर को HDFC बैंक का शेयर 8% गिर जाता है जिसकी वजह से कीमत ₹955 से गिर कर पहुंच जाती है ₹880 पर। अब यहां पर क्या होगा? नीचे दिए गए सवालों के जवाब खुद देने की कोशिश कीजिए।

  1. M2M का P&L कैसा दिखाई देगा? 
  2. कैश बैलेंस पर क्या असर होगा? 
  3. स्पैन और एक्सपोजर मार्जिन की कितनी कितनी जरूरत पड़ेगी? 
  4. ब्रोकर क्या करेगा? 

उम्मीद करता हूं कि आप इन सवालों के जवाब खुद ही निकाल लेंगे लेकिन अगर आपको इन सवालों का जवाब नहीं पता है तो आपको मैं जवाब बता देता हूं।

  1. M2M नुकसान होगा ₹18750 [ (955-880) ×250] । 19 दिसंबर को कैश बैलेंस था ₹33409/- इसमें से M2M नुकसान घटाया जाएगा और रकम बनेगी ₹14659 (33409-18750)। 
  2. क्योंकि कीमत गिर गई है इसलिए नई कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी ₹220000 (250×880)
    1. इस कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू पर स्पैन होगा = 7.5% × 220000= 16500
    2. एक्सपोजर मार्जिन = 11000
  3. कुल मार्जिन = 27500
  4. क्योंकि यहां पर कैश बैलेंस(14659/-) स्पैन मार्जिन(16500/-) से कम है इसलिए ब्रोकर आपको मार्जिन कॉल देगा और कुछ ब्रोकर तो आपके पोजीशन को काट भी देंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. जब आप फ्यूचर्स में कोई सौदा करते हैं तो आपको मार्जिन देना पड़ती है। यह मार्जिन तब तक ब्लॉक रहती है जब तक कि आपका सौदा बना रहता है।
  2. सौदा शुरू करने के समय आपका ब्रोकर जो मार्जिन ब्लॉक करता है उसको इनिशियल मार्जिन कहते हैं। 
  3. बेचने वाले और खरीदने वाले दोनों को फ्यूचर्स सौदों के लिए इनिशियल मार्जिन जमा करनी पड़ती है 
  4. यह जमा की गई मार्जिन एक लेवरेज की तरह काम करती है जहां आप इस छोटी सी रकम के आधार पर एक बड़ा सौदा कर सकते हैं। 
  5. M2M एक एकाउंटिंग सिस्टम है जो कि हर दिन के फायदे या नुकसान को आपकी ट्रेडिंग एकाउंट में दिखाता है।
  6. पिछले दिन का क्लोज प्राइस यानी क्लोज कीमत को M2M के लिए आधार माना जाता है। 
  7. स्पैन मार्जिन वह मार्जिन होता है जो एक्सचेंज के निर्देश पर लिया जाता है जबकि एक्स्पोज़र मार्जिन वह होता है जो ब्रोकर अपनी जरूरत के हिसाब से लगाता है। 
  8. स्पैन मार्जिन और एक्सपोजर मार्जिन की दर को एक्सचेंज ही निर्धारित करता है।
  9. स्पैन मार्जिन को मेंटेनेंस मार्जिन भी कहते हैं।
  10. अगर आप इस सौदे में बने रहना चाहते हैं और अगर आपके मार्जिन की रकम स्पैन मार्जिन से नीचे चली गई है तो आपको मार्जिन के तौर पर फिर से और पैसे जमा करने होंगे। 
  11. मार्जिन कॉल वह कॉल होती है जब ब्रोकर आपको फोन करके कहता है कि आपको मार्जिन के लिए और रकम डालनी पड़ेगी।

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4.1- संक्षिप्त सार

पिछले अध्याय में TCS के उदाहरण से हमने सीखा कि फ्यूचर ट्रेडिंग कैसे काम करती है। उस उदाहरण में हमने इस उम्मीद पर TCS के शेयर खरीदे थे कि आगे जा कर उनकी कीमत बढ़ेगी। लेकिन कॉन्ट्रैक्ट करने के अगले ही दिन हमने मुनाफे के लिए उस पोजीशन को स्क्वेयर ऑफ कर दिया था। 

वहां पर हमने एक सवाल भी पूछा था। सवाल यह था कि मैंने फ्यूचर्स में वह सौदा करने का फैसला क्यों किया और TCS का शेयर स्पॉट बाजार में क्यों नहीं खरीदा? 

आपको पता ही है कि फ्यूचर ट्रेड करते समय हम एक शेयर के लिए एक निश्चित समय के लिए एग्रीमेंट करते हैं। अगर उस समय अवधि में आपकी राय सही नहीं निकली और शेयर की कीमत उल्टी दिशा में चली गई तो आपको नुकसान उठाना पड़ सकता है जबकि स्पॉट बाजार में आप सीधे शेयर खरीदकर उसको अपने डीमैट अकाउंट में रख सकते हैं। वहां पर समय की कोई सीमा नहीं होती और ना ही किसी एग्रीमेंट को पूरा करने का कोई दबाव होता है। तो फिर स्पॉट बाजार के बजाय फ्यूचर बाजार में शेयर क्यों खरीदा जाए?

इन सवालों का जवाब है फाइनेंशियल लेवरेज जो कि फाइनेंशियल डेरिवेटिव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आपको पता ही है कि फ्यूचर भी फाइनेंशियल डेरिवेटिव का ही एक हिस्सा है।

लेवरेज वित्तीय कारोबार की एक नई पद्धति है। लेवरेज का इस्तेमाल करके काफी संपत्ति बनाई जा सकती है। आइए देखते हैं कि लेवरेज क्या होता है।

4.2- लेवरेज क्या है?

हम अपनी जिंदगी के बहुत सारे हिस्सों में लेवरेज का इस्तेमाल करते हैं लेकिन उस समय हम यह नहीं जानते कि यह लेवरेज है। खासकर जब इसे आंकड़ों के नजरिए से नहीं देखा जाए तो इसे समझना थोड़ा मुश्किल भी होता है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मेरा एक दोस्त रियल स्टेट का कारोबार करता है। फ्लैट, बिल्डिंग और ऐसी तमाम चीजें खरीदता है, कुछ समय उन्हें अपने पास रखता है और बाद में मुनाफे पर बेच देता है। 

पिछले दिनों यानी नवंबर 2013 में उसने एक फ्लैट खरीदा। यह फ्लैट उसने बेंगलुरु के एक मशहूर बिल्डर प्रेस्टीज बिल्डर से खरीदा। प्रेस्टीज बिल्डर ने दक्षिण बेंगलुरू के एक हिस्से में एक लग्जरी अपार्टमेंट बनाने का ऐलान किया था। यह फ्लैट इसी में 9वें फ्लोर पर था। दो बेडरूम के इस फ्लैट की कीमत थी 10,000,000 रुपए। इस प्रोजेक्ट की बस अभी घोषणा ही हुई थी। इसे 2018 में पूरा होना था। इस पर कोई काम भी नहीं शुरू हुआ था। इसलिए खरीदार को सिर्फ 10% बुकिंग अमाउंट देना था बाकी 90% पैसा काम शुरू होने के बाद दिया जाना था।

यानी नवंबर 2013 में उसे ₹10,000,000 का 10% यानी सिर्फ ₹10,00,000 ही निवेश करना था और उसे 10,000,000 रुपए का फ्लैट मिल रहा था। वह अपार्टमेंट इतनी ज्यादा तेजी से बिका कि 2 महीने में ही सारे फ्लैट बिक गए। 

1 साल बाद यानी दिसंबर 2014 में मेरे दोस्त को उस फ्लैट के लिए खरीदार मिला। उस समय तक उस इलाके में फ्लैट की कीमत 25% बढ़ चुकी थी यानी मेरे दोस्त को अब उस फ्लैट की कीमत 12,500,000 तक पहुंच चुकी थी। मेरे दोस्त ने 12,500,000 पर वह फ्लैट बेच दिया। जरा एक नजर डालिए इस सौदे पर।

विवरण
व्याख्या
अपार्टमेंट की शुरूआती कीमत Rs. 10,000,000/-
खरीद की तारीख   नवंबर  2013
शुरूआती निवेश @ अपार्टमेंट की कीमत का 10%  Rs.10,00,000/-
बिल्डर का बचा हुआ भुगतान Rs.90,00,000/-
अपार्टमेंट की कीमत में बढ़ोत्तरी 25%
दिसंबर 2014 में अपार्टमेंट की कीमत  Rs.12,500,000/-
नए खरीदार ने बिल्डर को भुगतान किया Rs.90,00,000/-   
खरीदार ने मेरे दोस्त को दिया 12,500,000 – 9000000 = Rs.35,00,000/-
मेरे दोस्त का मुनाफा Rs.35,00,000/- – Rs.10,00,000/- = Rs.25,00,000/-
रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट 25,00,000 / 10,00,000 = 250%

 

इस सौदे में खास क्या है 

  1. सिर्फ 10% रकम होने के बावजूद मेरा दोस्त एक बहुत बड़ा सौदा कर सका। 
  2. उसने इस सौदे के लिए कुल कीमत का 10% रकम ही अदा की। 
  3. उसने जो 10,00,000 रुपए दिए उसे आप फ्यूचर एग्रीमेंट में दिए जाने वाले मार्जिन अमाउंट या टोकन मनी के तौर पर देख सकते हैं। 
  4. एसेट की कीमत में आया थोड़ा सा भी बदलाव रिटर्न को कई गुना बढ़ा देता है। 
  5. इस मामले में एसेट की कीमत में 25% बदलाव से रिटर्न 250 गुना बढ़ गया। 
  6. इस तरह के सौदों को लेवरेज ट्रांजैक्शन या लेवरेज सौदा कहते हैं 

आप इस उदाहरण को अच्छे से समझ लीजिए क्योंकि फ्यूचर सौदों में ऐसा ही होता है। फ्यूचर्स के सारे सौदे लेवरेज होते हैं। इस उदाहरण पर नजर रखते हुए अब हम एक बार फिर से TCS के उदाहरण पर लौटते हैं।

4.3 लेवरेज सौदे

फ्यूचर्स ट्रेडिंग के TCS वाले उदाहरण की कुछ जानकारियों पर फिर से नजर डालते हैं। आसानी के लिए हम यह मान लेते हैं कि TCS का सौदा 15 दिसंबर को ₹2362 प्रति शेयर पर हुआ और स्क्वेयर ऑफ करने का मौका 23 दिसंबर 2014 को ₹2519 प्रति शेयर पर आया। यह भी मान लेते हैं कि फ्यूचर और स्पॉट कीमत में कोई अंतर नहीं है।

विवरण

व्याख्या

अंडरलाइंग

TCS लि.

कीमत पर राय

बुलिश यानी तेजी की

एक्शन

खरीद

ट्रेड यानी सौदे के लिए उपलब्ध पूंजी

Rs.100,000/-

सौदे का प्रकार

शार्ट टर्म

टिप्पणी

अगले कुछ दिनों में कीमत बढ़ने की उम्मीद

खरीद की तारीख

15th दिसंबर 2014

खरीद के समय कीमत

Rs.2362/- प्रति शेयर

बेचने की तारीख

23 दिसंबर 2014

बेचने के समय कीमत

2519 रुपये/- प्रति शेयर

तो TCS के शेयरों में तेजी के नजरिए और निवेश करने के लिए ₹100000 की पूंजी के साथ हमारे सामने सौदे के दो विकल्प हैं। विकल्प 1– TCS के शेयर स्पॉट बाजार में खरीदे जाएं। विकल्प 2 TCS के शेयर फ्यूचर में डेरिवेटिव बाजार में खरीदे जाएं। अब इन दोनों विकल्पों का मूल्यांकन करते हैं।

विकल्प 1 TCS का शेयर स्पॉट बाजार में खरीदा जाए 

स्पॉट बाजार में TCS का शेयर खरीदने के लिए हमें उसकी कीमत पता करना होगा। यह देखना होगा कि हम अपनी पूंजी से कितने शेयर खरीद सकते हैं। शेयर खरीदने के बाद हमें 2 दिन(T+2) का इंतजार करना होगा ताकि शेयर हमारे डीमैट अकाउंट में आ सके। डीमैट अकाउंट में शेयर आने के बाद हमें सही मौके का इंतजार करना होगा जिससे हम शेयर को बेच सकें। स्पॉट बाजार में डिलीवरी वाले सौदे की कुछ खास बातों पर नजर डालते हैं 

  1. जब हम स्पॉट बाजार में डिलीवरी वाले स्टॉक्स खरीदते हैं तो हमें उसके हमारे डीमैट एकाउंट में आने के लिए 2 दिन का इंतजार करना पड़ता है। इसका मतलब है कि अगर खरीदने के अगले दिन कोई मौका आ जाए जहां पर हम उसे बेच कर मुनाफा कमा सकते हैं तो हम उस मौके का फायदा नहीं उठा सकते। 
  2. हम केवल उतने ही शेयर खरीद सकते हैं जितने हमारे पास पैसे हों। मतलब हमारे पास  ₹100000 हैं तो हम ₹100000 से ज्यादा के शेयर नहीं खरीद सकते। 
  3. समय का कोई दबाव नहीं होता हम जब तक चाहें तब तक शेयरों को अपने पास रख सकते हैं और अपने लिए सही मौके का इंतजार कर सकते हैं।

हमारे पास 15 दिसंबर 2014 को अगर एक लाख रुपए हैं तो हम कितने शेयर खरीद सकते हैं

= 100,000 / 2362

= 42 

अब, अगर 23 दिसंबर को हम इस स्क्वेयर ऑफ करते हैं, जब TCS के शेयर की कीमत 2519/-है, तो हमें मिलेगा

= 42× 2519

= 105,798

इसका मतलब है कि 14 दिसंबर 2014 को ₹100,000 में खरीदे गए TCS के शेयर 23 दिसंबर को ₹105,798 पर पहुंच जाएंगे यानी हमें ₹5798 का फायदा होगा। देखते हैं हमें कितने प्रतिशत रिटर्न मिला 

= [5798/100,000]×100

= 5.79%

9 दिन में 5.79% का रिटर्न कमाना अच्छी बात है। अगर आप इसको सालाना रिटर्न के तौर पर देखना चाहे तो यह 235% सालाना आता है जो कि बहुत ही अच्छा रिटर्न है। अब इसकी तुलना करते हैं अपने दूसरे विकल्प से।

विकल्प 2 TCS के शेयर फ्यूचर में डेरिवेटिव बाजार में खरीदे जाएं

अब आपको पता है कि फ्यूचर बाजार में सौदे की शर्तें पहले से निर्धारित होती हैं। उदाहरण के तौर पर आप TCS के कम से कम 125 शेयर ही खरीद सकते हैं या 125 के लॉट में खरीद सकते हैं। लॉट साइज को कीमत से गुणा करने पर हमें कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू मिल जाती है। अगर शेयर की कीमत 2362 प्रति शेयर है तो कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगी 

125×2362

= 295,250 रुपये

क्या इसका मतलब है कि फ्यूचर बाजार में TCS का एक लॉट खरीदने के लिए ₹295250 चाहिए? नहीं!!! अगर कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू 295250 रुपये है तो हमें सिर्फ मार्जिन अमाउंट ही देना है। TCS के लिए यह मार्जिन 14% है। 295,250 का 14% हुआ 41,335 रुपये। इस सौदे के लिए के लिए बस यही रकम देनी है। अब कुछ सवाल आ सकते हैं

  1. मार्जिन के बाद की बाकी रकम (253,915 रू) का क्या होगा? (295,250- 41,335 = 253,915)
  • वास्तव में ये रकम कभी अदा नहीं की जाती
  1. कभी अदा नहीं की जाती का क्या मतलब?
  • इसको हम सेटेलमेंट मार्क टू मार्केट के अध्याय में समझेंगे
  1. क्या हर सौदे के लिए मार्जिन 14% ही होता है?
  • नहीं, हर कंपनी के शेयर के लिए ये अलग अलग होता है।

अब अपने फ्यूचर ट्रेड में आगे बढ़ते हैं। हमारे पास है ₹100,000 जबकि हमें मार्जिन मनी की जरूरत है ₹41335 इसका मतलब है कि हम TCS के एक नहीं दो लॉट भी खरीद सकते हैं यानी ₹82670 में 250 शेयर। दोनों लॉट के लिए मार्जिन मनी ₹ 82670 रुपए देने के बाद भी हमारे पास नगद में ₹17330 बचेंगे। इससे हम और शेयर नहीं खरीद सकते क्योंकि कम से कम एक लॉट खरीदना जरूरी है। अब इस सौदे का विवरण देखते हैं 

लॉट साइज – 125

कुल लॉट – 2

खरीद कीमत ₹2362 प्रति शेयर

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = लॉट साइज× कुल लॉट × कीमत

= 125 × 2 × 2362

= 590,500 

मार्जिन मनी 82670

बिक्री कीमत ₹2519

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = 125 × 2 × 2519

= ₹629,750

इस तरह हमें मुनाफा हुआ ₹39250 (629750-590500= 39250)।

अब आपको अंतर समझ में आ गया होगा। शेयर की कीमत कोई ₹2361 से बढ़कर ₹2519 हुई। जिससे स्पॉट बाजार में मुनाफा हुआ था 5798 जबकि फ्यूचर बाजार में उसी से मुनाफा हुआ ₹39250 । याद रहे कि हमने यहां ₹ 82670 का निवेश किया है इसलिए हमें अपना रिटर्न भी इसी रकम पर देखना होगा।

[39250 / 82670 ] × 100 = 47%

9 दिनों में 47% का रिटर्न बहुत ही ज्यादा अच्छा है। अब जिसकी तुलना कीजिए स्पॉट मार्केट में मिले रिटर्न से जो कि 5.79% था। अगर फ्यूचर मार्केट से मिले सालाना रिटर्न को देखें तो वह बनता है 1925%। अब आपको बिल्कुल समझ में आ गया होगा कि शॉर्ट टर्म ट्रेडर के लिए फ्यूचर मार्केट क्यों बहुत फायदे का सौदा होता है। 

फ्यूचर मार्केट में आप स्पॉट मार्केट के सीधे-साधे सौदों के मुकाबले कई गुना बड़ा सौदा कर सकते हैं सिर्फ मार्जिन के आधार। आपको उसी पूंजी में ज्यादा बड़े सौदे करने का मौका मिलता है और अगर कीमत को लेकर आपकी राय सही साबित होती है तो आप काफी पैसा कमा सकते हैं।

मार्जिन की वजह से हम कम पैसों में बड़ा सौदा कर सकते हैं इसीलिए इसे लेवरेज कहते हैं। लेवरेज को लेकर एक बात हमेशा याद रखिए यह दोधारी तलवार है। ये बड़ा फायदा तो करा सकती है लेकिन यह बड़ा नुकसान भी करा सकती है। 

हम आगे बढ़ें इससे पहले स्पॉट और फ्यूचर के इस सौदे की तुलना देख लेते हैं।

जानकारी

स्पॉट बाजार फ्यूचर्स बाजार

उपलब्ध

पूंजी 

Rs.100,000/- Rs.100,000/-

खरीद की तारीख

15 दिसंबर 2014 15 दिसंबर 2014

खरीद की कीमत

2362 रुपये प्रति शेयर 2362 रुपये प्रति शेयर

कुल संख्या

100,000 / 2362 = 42 शेयर लॉट साइज के मुताबिक
लॉट साइज लागू नहीं

125

मार्जिन लागू नहीं

14%

हर लॉट की कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू लागू नहीं

125 * 2362 = 295,250/-

हर लॉट के लिए मार्जिन लागू नहीं

14% * 295,250 = 41,335/-

कितने लॉट खरीद सकते हैं

लागू नहीं 100,000/41,335= 2.4 या 2 लॉट

मार्जिन डिपॉजिट

लागू नहीं 41,335 * 2 = 82,670/-

खरीदे गए शेयरों की संख्या

42 (जैसा कि ऊपर निकाला गया) 125 * 2 = 250

खरीद कीमत (कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू)

42 * 2362 = 100,000/- 2 * 125 * 2362 = 590,500/-

बेचने की तारीख

23 दिसंबर 2014 23 दिसंबर 2014
ट्रेड कितने दिन चला 9 दिन

9 दिन

बिक्री कीमत 2519 रुपये प्रति शेयर

2519 रुपये प्रति शेयर

बिक्री का मूल्य 42 * 2519 = 105,798

250 * 2519 = 629,750/-

मुनाफा 105798 – 100000 = 5798/-

629750 – 590500 = 39,250/-

9 दिन का रिटर्न 5798 / 100,000 = 5.79 %

39250 / 82670 = 47%

% सालाना रिटर्न 235%

1925%

हमने फ्यूचर सौदों के फायदे के बारे में तो बात कर ली, लेकिन इसका रिस्क क्या है? अगर हम जैसी उम्मीद कर रहे हैं कीमत उस दिशा में नहीं गई तो? यह समझने के लिए हमें जानना होगा कि अगर हमारी राय सही नहीं निकलती है तो हम कितना पैसा गंवा सकते हैं। इसे फ्यूचर्स पे ऑफ (फ्यूचर्स भुगतान) कहते हैं।

4.4 लेवरेज की गणना

जब लेवरेज के बारे में बात होती है तो सबसे पहला सवाल यही पूछा जाता है कि आपके पास कितना लेवरेज हो? जितना ऊँचा लेवरेज होगा उतना ही ज्यादा रिस्क होगा और मुनाफे की भी उतनी ही ज्यादा संभावना होगी। 

लेवरेज की गणना करना काफी आसान है

लेवरेज = [कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू / मार्जिन] 

Leverage = [Contract Value/Margin]

मतलब TCS के ट्रेड के लिए लेवरेज हुआ

= [295,250 / 41,335]

= 7.14 इसे 7.14 गुना लेवरेज कहते हैं अनुपात में देखें तो 1:7.14

इसका मतलब है कि हर एक रुपए से आप ₹7.14 के TCS के शेयर खरीद सकते हैं। यह अनुपात ठीक है। लेकिन अगर यह अनुपात बढ़ता है, तो रिस्क ज्यादा बढ़ता है। एक उदाहरण से समझते हैं। 7.14 गुना लेवरेज होने पर TCS के शेयर को 14% गिरना होगा और तब आपकी पूरी मार्जिन मनी चली जाएगी। इसकी गणना ऐसे होती है – 

1 / लेवरेज

= 1/ 7.14

= 14%

अब मान लीजिए कि मार्जिन ₹41,335 की जगह सिर्फ ₹7000 होता। इसका मतलब है कि लेवरेज होता

= 295,250 / 7000

= 42.17 गुना

यह लेवरेज काफी ऊंचा है ऐसे में अगर TCS का शेयर थोड़ा भी गिरता है आपकी सारी पूंजी चली जाएगी। देखिए:

1 / 42.17

= 2.3%

मतलब TCS के शेयर में आई 2.3% की गिरावट ही आपकी मार्जिन मनी गंवाने के लिए काफी है।  जितना ऊंचा लेवरेज उतना ही ज्यादा रिस्क। लेवरेज ऊपर होने पर अंडरलाइंग एसेट की कीमत में थोड़ा सा बदलाव भी पूरे मार्जिन डिपॉजिट को उड़ा सकता है।  

लेकिन इसका ये भी मतलब यह हुआ कि 42 गुना लेवरेज होने पर 2.3 प्रतिशत की बढ़त ही आपके पैसे को डबल कर सकती है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं बहुत ऊंचा लेवरेज पसंद नहीं करता हूं। मैं वैसे ही ट्रेड करता हूं जहां लेवरेज 1: 10 या अधिक से अधिक 1:12 तक हो, इससे ऊपर नहीं।

4.5 फ्यूचर्स पेऑफ

मैंने जब TCS का फ्यूचर्स खरीदा था तो हमें उम्मीद थी कि TCS के शेयर की कीमत ऊपर जाएगी और इससे मुझे फायदा होगा। लेकिन अगर TCS के शेयर की कीमत ऊपर जाने के बजाय नीचे चली जाए तो मुझे नुकसान होगा। फ्यूचर्स सौदे में जैसे-जैसे कीमत बदलती है वैसे वैसे आपका नफा या नुकसान बदलता रहता है। पेऑफ ढांचा यही बताता है कि कीमत के हर स्तर पर आपको कितने पैसे का नफा या कितने पैसों का नुकसान हो रहा है। पेऑफ को अच्छे से समझने के लिए TCS के इस सौदे क्या एक पे ऑफ ढांचा बना कर देखते हैं। याद रखिए कि एक लॉन्ग ट्रेड है जो कि 2362 रुपए पर किया गया है। यह सौदा करने के बाद 23 दिसंबर को TCS की कीमत किसी तरफ भी जा सकती है और उस कीमत के हिसाब से मेरा फायदा या नुकसान होगा। कीमत के हर स्तर के  हिसाब से मुझे अपना P&L बनाना होगा और उसका विश्लेषण करना होगा। नीचे के टेबल में देखिए

23 दिसंबर को संभावित कीमत

खरीदार का P&L (23 दिसंबर को कीमतखरीद कीमत)

2160 (202)
2180 (182)
2200 (162)
2220 (142)
2240 (122)
2260 (102)
2280 (82)
2300 (62)
2320 (42)
2340 (22)
2360 (2)
2380 18
2400 38
2420 58
2440 78
2460 98
2480 118
2500 138
2520 158
2540 178
2560 198
2580 218
2600 238

 

अगर आपने ₹2362 पर शेयर खरीदा है और 23 दिसंबर को TCS की कीमत ₹2160 है, तो आप देख सकते हैं कि टेबल के मुताबिक आप ₹202 प्रति शेयर का नुकसान उठा रहे हैं। 

इसी तरीके से, अगर TCS की कीमत ₹2600 तक पहुंच जाती है तो आपको ₹238 प्रति शेयर का फायदा होगा। 

आपको याद होगा कि हमने कहा था कि अगर खरीदार को ₹ x का फायदा हो रहा है तो बेचने वाले को एक ₹ x का ही नुकसान होगा। इसलिए अगर 23 दिसंबर को TCS की कीमत ₹2600 प्रति शेयर है तो खरीदने वाले को ₹238 प्रति शेयर का फायदा होगा और बेचने वाले को ₹238 प्रति शेयर का नुकसान होगा।

इसको देखने का दूसरा तरीका यह हो सकता है कि बेचने वाले की जेब से पैसे निकल कर खरीदने वाले के जेब में आ जाते हैं। एक तरह से यहां सिर्फ पैसे का ट्रांसफर हो रहा है।

पैसे का ट्रांसफर और पूंजी का बनना दो अलग-अलग चीजें हैं। पूंजी तब बनती है जब TCS का शेयर आपके पास लंबे समय तक हो, बिजनेस अच्छा कर रहा हो, बिजनेस के प्रॉफिट और उसका मार्जिन लगातार बढ़ रहा हो, जिसकी वजह से शेयर होल्डर को फायदा हो रहा हो। क्योंकि फ्यूचर्स के सौदे में ऐसा नहीं होता, पैसे एक जेब से निकलकर दूसरे जेब में चले जाते हैं, इसीलिए कई बार फ्यूचर्स को जीरो सम गेम – Zero Sum Game” कहते हैं। 

अब एक ग्राफ पर नजर डालिए। ये 23 दिसंबर की TCS की कीमत की संभावनाओं के आधार पर खरीदने वाले के P&L के हिसाब से बनाया गया है। इसे पे ऑफ स्ट्रक्चर Payoff Structure” कहते हैं।

 

आप देख सकते हैं कि खरीद कीमत के ऊपर की कोई भी कीमत फायदा बनाती है और खरीद की कीमत के नीचे की कोई भी कीमत नुकसान बताती है। क्योंकि यह सौदा दो लॉट यानी 250 शेयरों का हुआ है इसलिए एक प्वाइंट की बढ़ोतरी से ₹250 का फायदा होता है 1 प्वाइंट की गिरावट से ₹250 का नुकसान होता है। यह बहुत ही सीधे अनुपात में चलती है और इसी वजह से यह लाइन सीधी होती है और इसे लीनियर पेऑफ ऑफ इंस्ट्रूमेंट –  Linear Payoff Instrument”. कहते हैं।

इस अध्याय की खास बातें

  1. फ्यूचर्स सौदों में लेवरेज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
  2. छोटी सी मार्जिन का भुगतान करके हम बड़ी रकम के सौदे कर सकते हैं।
  3. मार्जिन आमतौर पर कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का एक निश्चित प्रतिशत होता है।
  4. स्पॉट बाजार के सौदे लेवरेज वाले नहीं होते। जितनी रकम है उतने के ही सौदे किए जा सकते हैं।
  5. लेवरेज की वजह से अंडरलाइंग की कीमत में छोटा बदलाव भी बड़ा फायदा या नुकसान बन जाता है।
  6. खरीदने वाले का नफा बेचने वाले के नुकसान के बराबर और और नुकसान बेचने वाले के फायदे के बराबर होता है।
  7. लेवरेज जितना ज्यादा होगा रिस्क भी उतना ही ज्यादा होगा और पैसा बनाने की संभावना भी।
  8. फ्यूचर सौदों में सिर्फ पैसों का एक जेब से दूसरी जेब में ट्रांसफर होता है इसीलिए इसे जीरो सम गेम कहते हैं।
  9. फ्यूचर इंस्ट्रूमेंट का पेऑफ ढांचा लीनियर होता है।

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फ्यूचर्स ट्रेड (The Futures Trade) https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%a1-the-futures-trade/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%a1-the-futures-trade/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:04:33 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6260 3.1 – ट्रेडिंग करने के पहले  पिछले अध्याय में हमने फ्यूचर्स मार्केट से जुड़े हुए कुछ सिद्धान्तों को समझा था। याद रखिए कि एक ट्रेडर के लिए फ्यूचर्स मार्केट पैसा कमाने का एक रास्ता है। अगर ट्रेडर किसी एसेट की कीमत की दिशा के बारे में एक निश्चित राय रखता है तो वो इसका इस्तेमाल […]

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3.1 – ट्रेडिंग करने के पहले 

पिछले अध्याय में हमने फ्यूचर्स मार्केट से जुड़े हुए कुछ सिद्धान्तों को समझा था। याद रखिए कि एक ट्रेडर के लिए फ्यूचर्स मार्केट पैसा कमाने का एक रास्ता है। अगर ट्रेडर किसी एसेट की कीमत की दिशा के बारे में एक निश्चित राय रखता है तो वो इसका इस्तेमाल फ्यूचर्स मार्केट में पैसा कमाने के लिए कर सकता है। अब हम कुछ उदाहरणों के रास्ते फ्यूचर ट्रेड को समझने की कोशिश करेंगे। अब सोने की जगह शेयर या स्टॉक्स का उदाहरण लेंगे। 

देश की जानी-मानी सॉफ्टवेयर कंपनी TCS ने  यानी 15 दिसंबर 2014 को एक इन्वेस्टर मीटिंग की जहां पर कंपनी के मैनेजमेंट ने कहा कि दिसंबर तिमाही के नतीजे में आमदनी बढ़ने को ले कर कंपनी बहुत आश्वस्त नहीं है। बाजार ऐसी खबरों को पसंद नहीं करता है, खासकर जब कंपनी का मैनेजमेंट ऐसी बात कह रहा हो। इसीलिए इस बयान के बाद बाजार में घबराहट फैली और TCS का शेयर 3.6% गिर गया। चित्र में इसे हमने नीले रंग से हाईलाइट किया है

एक ट्रेडर के तौर पर मुझे लगता है कि TCS का शेयर की कुछ ज्यादा ही पिटाई हो गई है, क्योंकि अगर आप ध्यान से देखेंगे तो आईटी सेक्टर की कोई भी कंपनी आमतौर पर दिसंबर क्वार्टर में अच्छा रिजल्ट नहीं पेश करती नहीं दिखेगी। वास्तव में भारतीय आईटी कंपनियों के सबसे बड़े बाजार USA में दिसंबर का महीना साल का अंतिम महीना होता है। साथ ही, इस महीने में वहां बहुत सारी छुट्टियां भी होती है जिसकी वजह से कामकाज कम होता है। यही वजह है कि दिसंबर के महीने में आईटी सेक्टर की कंपनियों की आमदनी थोड़ी कम होती है। बाजार को यह सारी बातें पता है और आईटी कंपनियों के शेयरों की कीमत में इसका असर पहले से शामिल है। इसीलिए मुझे लगता है कि यह 3.6% गिरावट TCS के शेयर को खरीदने का मौका है। थोड़े ही दिनों में यह शेयर फिर से वापस ऊपर जाएगा।

आपको दिख रहा होगा कि TCS के शेयरों की फ्यूचर कीमत के बारे में मेरी एक निश्चित और दिशात्मक राय है और मुझे लगता है कि TCS के शेयरों की कीमत भविष्य में ऊपर जाएगी यानी इसकी मौजूदा कीमत के मुकाबले भविष्य को लेकर मैं बुलिश हूं।

अब मैं TCS के शेयर को स्पॉट बाजार में खरीदने के बजाय फ्यूचर्स बाजार में खरीदने का फैसला करता हूं। (मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं इस पर चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे) फ्यूचर्स खरीदने का फैसला करने के बाद मुझे यह देखना होगा कि TCS फ्यूचर किस भाव पर चल रहा है। इस कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ी सारी जानकारी NSE की वेबसाइट पर मौजूद है। वास्तव में, TCS के फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट की कीमत TCS के स्पॉट बाजार की कीमत के साथ ही दी हुई है। ऊपर के चित्र में मैंने इसको लाल रंग से हाईलाइट किया था।

आपको याद ही होगा कि हर एसेट की फ्यूचर कीमत हमेशा मौजूदा कीमत के हिसाब से चलती है। अगर TCS की मौजूदा कीमत नीचे गई है तो फ्यूचर कीमत भी नीचे गई होगी। NSE की वेबसाइट से लिए गए नीचे के चित्र में भी यह साफ दिख रहा है।

TCS की फ्यूचर की कीमतें भी नीचे 3.77 प्रतिशत नीचे गई है । अब यहां 2 सवाल उठते हैं– 

  1. TCS की स्पॉट कीमत 3.61% नीचे गई है जबकि TCS के फ्यूचर की कीमत 3.77% नीचे गई है। यह अंतर क्यों है?
  2. TCS के स्पॉट की कीमत ₹2362.35 है जबकि फ्यूचर की कीमत ₹2374.90 है। यह अंतर क्यों है?

दोनों सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि फ्यूचर की कीमत निकालने का फार्मूला क्या है? इस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन यहां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि फ्यूचर और स्पॉट की कीमतें एक साथ एक दिशा में चलती है और दोनों एक साथ नीचे गिरी हैं। अब आगे बढ़ने के पहले फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में से जुड़ी कुछ जरूरी जानकारियों पर नजर डालते हैं। नीचे दिए गए चित्र को देखिए

अगर आप इस चित्र में ऊपर की तरफ देखेंगे तो लाल रंग से हाईलाइट किए हुए बॉक्स में तीन महत्वपूर्ण सूचनाएं हैं 

  1. इंस्ट्रूमेंट टाइप यानी इंस्ट्रूमेंट की किस्म (Instrument Type)- जैसा कि आपको पता है कि यहाँ अंडरलाइंग एसेट कंपनी के स्टॉक्स हैं। हम उस कंपनी की फ्यूचर कीमत पर बोली लगा रहे हैं इसीलिए यहां पर इंस्ट्रूमेंट हुआ स्टॉक फ्यूचर्स। 
  2. सिंबल यानी चिह्न या प्रतीक (Symbol)- यह स्टॉक के नाम को बताता है जैसे यहां पर TCS हाइलाइट किया गया है।
  3. एक्सपायरी की तारीख (Expiry Date)यह वह तारीख है जब यह कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो जाएगा। जैसा कि आप देख सकते हैं यहां पर यह कॉन्ट्रैक्ट 24 दिसंबर को खत्म हो रहा है। यहां पर एक और जानकारी आपके लिए जरूरी है, वो यह कि हर महीने के आखिरी बृहस्पतिवार या गुरुवार को सभी डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट समाप्त हो जाते हैं। आगे हम इस पर चर्चा करेंगे। 

नीले रंग के बॉक्स पर हम पहले भी नजर डाल चुके हैं जो फ्यूचर की कीमत को बताता है।

काले रंग से हाईलाइट किए बाक्स से भी हमें कुछ सूचनाएं मिलती हैं 

  1. अंडरलाइंग वैल्यू (Underlying Value)- यह बताता है कि अंडरलाइंग एसेट इस समय स्पॉट मार्केट में किस कीमत पर बिक रहा है। यह स्क्रीनशॉट मैंने थोड़े समय बाद लिया था इसलिए आपको यहां पर कीमत में थोड़ा अंतर दिखेगा पहले कीमत 2362.35 थी और जब मैंने स्क्रीनशॉट लिया तब यह 2359.95 है।
  2. मार्केट लॉट या लॉट साइज (Market Lot or Lot Size)- आपको याद होगा कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट एक समान स्टैंडर्ड तरीके के होते हैं इसमें सारी चीजें पहले से तय होती हैं। जैसे यह तय है कि कॉन्ट्रैक्ट कम से कम कितने शेयरों का होगा। शेयरो की इस संख्या को लॉट साइज कहते हैं। TCS के लिए लॉट साइज 125 शेयरों का है। आप जितने चाहें उतने लॉट खरीद सकते हैं।

अगर लॉट साइज इसको फ्यूचर की कीमत से गुना कर दे तो हमें कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू पता चल जाएगी आपको याद होगा कि हमने कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू के बारे में पिछले अध्याय में भी बात की थी अब हम TCS फ्यूचर का कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू निकालेंगे।

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = लॉट साइज × फ्यूचर की कीमत

= 125 × 2374.90

= 296,862.5 रुपये

आगे बढ़ने  से पहले एक बार हम एक और फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट पर नजर डालते हैं ये फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट है स्टेट बैंक ऑफ इंडिया यानी SBI का। 

इस स्क्रीन शॉट के आधार पर आप शायद कुछ सवालों के जवाब खुद ढूंढ सकते हैं। 

  1. इंस्ट्रूमेंट टाइप क्या है?
  2. SBI का फ्यूचर प्राइस क्या है? 
  3. SBI की फ्यूचर कीमत और स्पॉट कीमत में कितना अंतर है? 
  4. इस फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट की एक्सपायरी क्या है? 
  5. SBI फ्यूचर का लॉट साइज और कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू क्या है?

3.2 – फ्यूचर ट्रेड

एक बार फिर से TCS के फ्यूचर ट्रेड पर लौटते हैं। हमें TCS का फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट खरीदना है क्योंकि मुझे लगता है कि आगे जाते हुए इसकी कीमत बढ़ेगी। मैं TCS के फ्यूचर को 2374.9 रुपये प्रति शेयर के भाव पर खरीदना चाहता हूं। उसके लिए मुझे कम से कम 125 शेयर खरीदने पड़ेंगे जो कि TCS का एक लॉट है।

इसके लिए मैं अपने स्टॉकब्रोकर को फोन करके बता सकता हूं कि मुझे TCS का एक लॉट 2374.9 रुपये प्रति शेयर पर खरीदना है या मैं खुद अपने ब्रोकर के ट्रेडिंग टर्मिनल पर यह काम कर सकता हूं। 

वैसे मैं यह काम अपने ट्रेडिंग टर्मिनल पर करना पसंद करूंगा। इसके लिए मुझे अपने मार्केट वॉच में TCS का फ्यूचर लोड करना होगा और F1 बटन दबाना होगा जिससे मैं यह कांट्रैक्ट खरीद सकूं। अगर आप ट्रेडिंग टर्मिनल का उपयोग नहीं जानते हैं तो आप हमारे ट्रेडिंग टर्मिनल के अध्याय को एक बार पढ़ लें।

जैसे ही मैं TCS के फ्यूचर को खरीदने के लिए एक F1 बटन को दबाउंगा तो बैकग्राउंड में कुछ चीजें होंगी। 

  1. मार्जिन वैलिडेशन (Margin Validation) हम जब फ्यूचर एग्रीमेंट खरीदते हैं तो हमें एक मार्जिन अमाउंट या रकम जमा करनी होती है। यह रकम कांट्रैक्ट वैल्यू या कांट्रैक्ट कीमत का एक निश्चित प्रतिशत होता है। अगर आपके अकाउंट में मार्जिन मनी या मार्जिन अमाउंट पूरा नहीं है तो आप उस एग्रीमेंट को नहीं कर सकते हैं। इसीलिए ब्रोकर का रिस्क मैनेजमेंट सिस्टम या सॉफ्टवेयर पहले यह चेक करता है कि आपके ट्रेडिंग अकाउंट में पर्याप्त रकम है या नहीं , जिससे आप फ्यूचर एग्रीमेंट कर सकें।
  2. काउंटरपार्टी सर्च (Counterparty Search)- मार्जिन को चेक करने के बाद सिस्टम एक ऐसी पार्टी की तलाश करता है जो आपके लिए काउंटर पार्टी बन सके यानी आपके साथ समझौता कर सके। क्योंकि मैं TCS फ्यूचर खरीदना चाहता हूं इसलिए सिस्टम TCS फ्यूचर को बेचने वाले को तलाशेगा। स्टॉक एक्सचेंज पर बहुत सारे लोग होते हैं जो किसी एसेट के बारे में अलग-अलग राय रखते हैं। TCS के फ्यूचर को बेचने वाले की राय यह होगी कि आगे जाते हुए फ्यूचर में TCS की कीमत नीचे जाएगी इसलिए वह फ्यूचर को बेचना चाहेगा।  
  3. साइन ऑफ (The Sign off) जब पहला और दूसरा कदम यानी मार्जिन वैलिडेशन और काउंटर पार्टी सर्च पूरा हो जाता है तो दोनों पार्टी एक फ्यूचर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करती हैं। वास्तव में यह कहीं किया नहीं जाता, बस होता यह है कि दोनों ही पार्टी इस एग्रीमेंट को पूरा करने के लिए अपनी सहमति देती हैं। 
  4. मार्जिन ब्लॉक (Margin Block)- एक बार साइन ऑफ हो जाता है तो दोनों ही पार्टियों से ट्रेडिंग अकाउंट में मार्जिन की रकम ब्लॉक हो जाती है। अब आप तब तक इस रकम का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं जब तक कि यह फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट पूरा नहीं हो जाता।

इन चारों कदमों के पूरा होने के बाद अब मेरे पास TCS फ्यूचर का एक लॉट होगा। आमतौर पर यह पूरा काम कुछ सेकेंड में हो जाता है। 

TCS फ्यूचर का एक लॉट मेरे पास होने का मतलब यह है कि अब 15 दिसंबर 2014 को एक काउंटर पार्टी से TCS फ्यूचर खरीदने के साथ ही मैंने उस पार्टी के साथ TCS  के 125 शेयर फ्यूचर में ₹2374.9 प्रति शेयर पर खरीदने का समझौता कर लिया है और मुझे यह समझौता 24 दिसंबर 2014 को पूरा करना होगा।

3.3 समझौते के बाद की तीन संभावित स्थितियां 

ये फ्यूचर्स एग्रीमेंट करने के बाद 24 दिसंबर 2014 को तीन स्थितियां बन सकती हैं। TCS की कीमत ऊपर जा सकती है, TCS की कीमत नीचे आ सकती है और TCS की कीमत में कोई बदलाव नहीं आ सकता है। हम देखते हैं कि इन तीनों स्थितियों का क्या असर होता है: 

स्थिति 1 – TCS की कीमत 24 दिसंबर को ऊपर जाती है 

यह वह स्थिति है जहां मेरी राय सही साबित होती है। मान लीजिए कि 24 दिसंबर 2014 को TCS की कीमत ₹2374.9 से बढ़कर ₹2450 प्रति शेयर हो जाती है। इस वजह से फ्यूचर कीमत भी बढ़ेगी। इसका मतलब है कि एग्रीमेंट के मुताबिक अभी भी मैं TCS के शेयर ₹2374.9 पर खरीद सकता हूं जो कि बाजार की कीमत से काफी कम है। मुझे हर शेयर पर ₹75.1 का फायदा हो रहा है क्योंकि मेरा आज सौदा 125 शेयरों का है इसलिए मेरा कुल मुनाफा 9387.5 रुपये (2450-2374.9= 75.1) होगा।

उधर बेचने वाले को काफी नुकसान होगा क्योंकि उसे ₹2374.9 के भाव पर शेयर बेचना पड़ेगा जबकि बाजार में कीमत ₹2450 प्रति शेयर है।

स्थिति 2– TCS की कीमत 24 दिसंबर को नीचे चली जाती है 

इस स्थिति में मेरी राय गलत साबित होती है, इसलिए मुझे नुकसान होगा। मान लीजिए 24 दिसंबर 2014 को TCS की कीमत ₹2374.9 के बजाए ₹2300 हो जाती है इसका मतलब है कि अब मुझे TCS के शेयर ₹2374.9 पर खरीदने होंगे जो कि बाजार की कीमत यानी ₹2300 से ₹75 ज्यादा है। चूंकि सौदा 125 शेयरों का है इसलिए मुझे इस सौदे में ₹9375 (75×125) का नुकसान होगा।

जबकि शेयर बेचने वाले को फायदा होगा क्योंकि वह बाजार से एक शेयर को ₹2300 का खरीद पर मुझे ₹2374.9 पर बेच सकता है।

स्थिति 324 दिसंबर को TCS के शेयरों की कीमत में कोई बदलाव नहीं होता

इस स्थिति में बेचने वाले और खरीदने वाले दोनों को कोई फायदा या नुकसान नहीं होता।

3.4- ट्रेडिंग के मौके का फायदा उठाना 

अब जरा इस स्थिति को देखिए, 15 दिसंबर 2014 को TCS का फ्यूचर 2374 रुपये पर खरीदने के बाद अगले ही दिन यानी16 दिसंबर 2014 को TCS की कीमत बढ़ जाती है। अब यह ₹2460 पर बिक रहा है। अब मुझे क्या करना चाहिए? कीमत बढ़ने की वजह से मुझे काफी फायदा हो रहा है, हर शेयर पर ₹85.1 यानी कुल ₹10637.5 (85.1×125)।

मान लीजिए मैं इस कमाई से खुश हूं तो क्या मैं अपने एग्रीमेंट से बाहर निकल सकता हूं? क्या ₹2460 पर पहुंच जाने के बाद भी मेरी राय यही रहेगी कि शेयर आगे और बढ़ेगा, हो सकता है कि अब मेरी राय बदल जाए और मुझे लगे कि अब इससे ज्यादा बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है ऐसे में क्या मुझे इस एग्रीमेंट में बने रहना चाहिए ?

जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि फ्यूचर एग्रीमेंट ट्रेडेबल होता है यानी इस को बेचा और खरीदा जा सकता है। आप इस पूरे एग्रीमेंट को ही किसी और को बेच सकते हैं यानी मैं एग्रीमेंट को बेचकर ₹10637.5 का फायदा उठा सकता हूं। 

ऐसे किसी एग्रीमेंट को बेचने को स्क्वेयर ऑफ करना कहते हैं। इसे ओपन पोजीशन को क्लोज यानी बंद करना भी कहते हैं। TCS के उदाहरण में अब मुझे अपना शेयर का एक लॉट बेचना होगा, जिससे मेरी पोजीशन स्क्वेयर ऑफ हो सके। इसे और बेहतर समझने के लिए नीचे के चार्ट पर नजर डालिए।

क्रम सं प्रारंभिक स्थिति प्रारंभिक स्थिति के समय राय स्क्वेयर ऑफ के समय स्थिति

स्क्वेयर ऑफ के समय राय

01

खरीद / लांग

कीमत ऊपर जाने की उम्मीदबुलिश

बिक्री

कीमत ऊपर जाने की उम्मीद नहीं, सौदे से बाहर निकलने का इरादा 
02 बिक्री / शॉर्ट कीमत नीचे जाने की उम्मीदबेयरिश खरीद

कीमत नीचे जाने की उम्मीद नहीं, सौदे से बाहर निकलने का इरादा

स्क्वेयर ऑफ करने के लिए मैं फिर से अपने ब्रोकर को फोन कर सकता हूं या फिर अपने ट्रेडिंग टर्मिनल पर खुद ही ये काम कर सकता हूं। स्क्वेयर आफ करने के लिए जैसे ही मैं TCS के फ्यूचर के एक लॉट को बेचने का ऑर्डर डालूंगा तो यह चीजें होंगी

  1. ब्रोकर ट्रेडिंग टर्मिनल के जरिए काउंटरपार्टी को ढूंढेगा जोकि फ्यूचर्स के मेरी पोजीशन को खरीदने को तैयार हो यानी कोई ऐसा इंसान जो अभी भी यह मानता हो कि TCS के फ्यूचर की कीमत और ऊपर जाएगी। जब वह एग्रीमेंट खरीदेगा तो इससे जुड़ी हुई सारी रिस्क उसको ट्रांसफर हो जाएगी। 
  2. ध्यान रखिए ये ट्रांसफर TCS के मौजूदा फ्यूचर कीमत यानी ₹2460 प्रति शेयर पर होगी। 
  3. जब यह सौदा हो जाएगा तो मेरी पोजीशन स्क्वेयर ऑफ हो जाएगी। 
  4. सौदा होने के साथ ही मेरी ब्लॉक की गयी मार्जिन की रकम अनब्लॉक हो जाएगी यानी में उसका इस्तेमाल अब कर सकूंगा। 
  5. इस सौदे से हुए फायदा या नुकसान की रकम मेरे ट्रेडिंग अकाउंट में उसी दिन आ जाएगी।

इस तरह से फ्यूचर का एक ट्रेड पूरा होता है।

याद रखिए कि अगर ₹2460 पर भी मुझे लगता है कि TCS की कीमत आगे चलते हुए और बढ़ेगी तो मैं उस एग्रीमेंट में बना रह सकता हूं। मेरे पास 24 दिसंबर 2014 तक उस एग्रीमेंट को होल्ड करने का विकल्प है। वास्तव में 24 दिसंबर की एक्सपायरी के ठीक एक दिन पहले 23 दिसंबर को TCS की कीमत ₹2519 तक पहुंच गई थी यानी मैं अगर उसकी एग्रीमेंट में बना रहता तो मेरा फायदा और ज्यादा होता। आप इसे नीचे की स्क्रीनशॉट में देख सकते हैं:

वास्तव में जब 16 दिसंबर 2014 को जब मैंने ₹2460 पर TCS के शेयर फ्यूचर का एक लॉट बेचा और तो जिस किसी ने भी मुझसे वह लॉट खरीदा और एक रिस्क लिया उसे 23 दिसंबर 2014 को काफी ज्यादा फायदा हुआ। अब यहां दो सवाल उठते हैं 

  1. अगर मैंने TCS फ्यूचर का शेयर 15 दिसंबर 2014 से (₹2374.9 पर) से 23 दिसंबर 2015 को (₹2519.25) तक रखा होता तो मेरा कुल नफा नुकसान (P&L) कितना होता? 
  2. जिसने 16 दिसंबर 2014 को मुझसे ₹2460 पर TCS का शेयर खरीदा और 23 दिसंबर 2014 तक उसको रखा  उसका नफा नुकसान या प्रॉफिट एंड लॉस कितना होगा?

अगर आपको यह इन सवालों का जवाब नहीं समझ में आ रहा है तो आप नीचे के कमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं अगले अध्याय में हम इनके बारे में बात करेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. यदि आप किसी एसेट की कीमत की दिशा पर कोई राय रखते हैं तो आप फ्यूचर एग्रीमेंट में करके उससे फायदा कमा सकते हैं।
  2. फ्यूचर एग्रीमेंट करने के लिए आपको एक टोकन रकम देनी पड़ती है जिसे मार्जिन कहते हैं। 
  3. जब हम फ्यूचर का सौदा करते हैं तो हमें एक एग्रीमेंट साइन करना होता है जिसमें हम इस एग्रीमेंट को पूरा करने का वचन देते हैं। 
  4. एसेट की फ्यूचर कीमत और स्पॉट कीमत अलग-अलग होती है और फ्यूचर कीमत को निकालने का एक फार्मूला होता है। 
  5. इस सौदे को करने के लिए कम से कम जितने शेयर खरीदने होते हैं उसे एक लॉट कहते हैं।
  6. इस एग्रीमेंट को करने के बाद भी यह जरूरी नहीं है कि आप उस एग्रीमेंट में एक्सपायरी तक बने रहे।
  7. जैसे ही आप सौदा करते हैं वैसे ही आपकी मार्जिन की रकम ब्लॉक कर दी जाती है।
  8. आप इस एग्रीमेंट से कभी भी निकल सकते हैं।
  9. एग्रीमेंट से निकलने या स्क्वेयर ऑफ करने पर आप अपना यह रिस्क किसी और को ट्रांसफर कर देते हैं।
  10. जब आप अपनी पोजीशन स्क्वेयर ऑफ कर देते हैं तो आपकी मार्जिन अनब्लॉक हो जाती है।
  11. स्क्वेयर आफ करने के बाद आपको जो फायदा या नुकसान होता है वह रकम आपके ट्रेडिंग अकाउंट में उसी दिन आ जाती है। 
  12. इस सौदे में बेचने या खरीदने वाले में से किसी एक को फायदा और दूसरे को नुकसान होता है।

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फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट (Futures Contract) https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a5%89%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%88%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%9f-futures-contract/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%82%e0%a4%9a%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a5%89%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%88%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%9f-futures-contract/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:04:23 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6258 2.1 – भूमिका पिछले अध्याय में अनेक सीधे-साधे फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट का उदाहरण देखा था, जहां दो पार्टी एक दूसरे से एक समझौता करती हैं कि भविष्य में एक पार्टी कुछ माल देगी और दूसरी पार्टी उस माल के बदले कुछ पैसा देगी। हमने देखा कि ऐसा  समझौता कैसे होता है और कीमत में होने वाले […]

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2.1 – भूमिका

पिछले अध्याय में अनेक सीधे-साधे फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट का उदाहरण देखा था, जहां दो पार्टी एक दूसरे से एक समझौता करती हैं कि भविष्य में एक पार्टी कुछ माल देगी और दूसरी पार्टी उस माल के बदले कुछ पैसा देगी। हमने देखा कि ऐसा  समझौता कैसे होता है और कीमत में होने वाले बदलाव का इन पार्टियों पर क्या असर पड़ता है। अध्याय के अंत में हमने फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट के चार रिस्क या कमियों पर भी नजर डाली थी और यह भी बात की थी कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को इसी लिए बनाया गया जिससे इन को दूर किया जा सके:

  1. लिक्विडिटी रिस्क  (Liquidity Risk)
  2. डिफॉल्ट रिस्क (Default Risk)
  3. रेगुलेटरी रिस्क (Regulatory Risk)
  4. इस समझौते की कठोरता या कड़े नियम (Rigidity of the transitional structure)

एक बात साफ है अगर आप किसी वस्तु की भविष्य की कीमत के बारे में कोई राय रखते हैं तो आप एक फॉरवर्ड समझौते में पैसे कमा सकते हैं। बस आपको एक ऐसी पार्टी ढूंढनी है जिसकी राय आपकी राय से विपरीत हो। हालांकि यह भी साफ है कि फॉरवर्ड एग्रीमेंट में कुछ कमियां होती हैं और उन कमियों से बचने के लिए ही फ्यूचर एग्रीमेंट को लाया गया है।

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट का ही सुधरा हुआ रूप कहा जा सकता है इसको इस तरह से बनाया गया है कि फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट की खूबियां तो बनी रहे लेकिन उसकी कमियां दूर हो जाएं। मतलब फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में भी आप फायदा कमा सकते हैं अगर आपकी किसी भी वस्तु की भविष्य  की कीमत के बारे में एक ठोस राय हो।

इसको एक उदाहरण से समझें। पुराने जमाने में कार का काम था लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना। नए जमाने की कार लोगों को एक जगह से दूसरी जगह तो ले ही जाती है लेकिन साथ में उसमें कई तरह की दूसरी सुविधाएं भी होती हैं जैसे सीट बेल्ट, एयर बैग, पावर स्टीयरिंग आदि। फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट और फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में कुछ इसी तरह का अंतर है।

2.2 – फ्यूचर एग्रीमेंट पर एक नजर

जैसा कि अब हमें पता है कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट और फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट का आधार एक ही है। इसलिए फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को अच्छे से समझने का एक तरीका यह हो सकता है कि हम इन दोनों के अंतर को समझें। 

हमने पिछले अध्याय में एक उदाहरण लिया था जहां पर ABC ज्वेलर्स ने XYZ गोल्ड सेलर से एक समझौता किया था कि वह एक निश्चित समय के बाद कुछ सोना खरीदेगा। अब जरा कल्पना कीजिए कि ABC को ऐसी कोई पार्टी नहीं मिलती जिससे वह यह समझौता कर पाता, तो क्या होता? ABC की सोने के भविष्य के बारे में एक राय है और वह एक समझौता करना चाहते हैं लेकिन उन्हें कोई ऐसा नहीं मिल रहा है जिससे वह समझौता कर सके।

अब मान लीजिए कि ABC नई पार्टी को ढूंढने में समय लगाने के बजाय तय करती है कि वो एक ऐसे सुपर मार्केट में जाएगी, जहां पर बहुत सारे लोग समझौता करने के लिए दूसरी पार्टी को ढूंढ रहे हैं। अब इस सुपर मार्केट में ABC को सिर्फ यह घोषणा करनी है कि मेरी सोने पर यह राय है और जिसको इस राय के विपरीत आकर समझौता करना है वह आए। इसके अलावा यह भी मान लीजिए कि इस सुपर बाजार में बहुत सारे लोग हैं जिनकी केवल सोने पर ही नहीं चांदी, तेल, तांबे जैसी हर वस्तु और यहाँ तक स्टॉक्स पर एक राय है और वह एक समझौता करने के लिए किसी पार्टी को ढूंढ रहे हैं। 

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट इसी तरीके से किए जाते हैं। ये ABC ज्वैलर जैसी किसी एक कंपनी को नहीं बल्कि हर एक व्यक्ति को उपलब्ध हैं जो ऐसा समझौता करना चाहता है। इस सुपर मार्केट या सुपर बाजार को ही हम आम भाषा में हम एक्सचेंज कहते हैं। यह स्टॉक एक्सचेंज भी हो सकता है और कमोडिटी एक्सचेंज भी।

जैसा कि हमें पता है कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को इसलिए लाया गया क्योंकि फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट में कुछ कमियां थी और उनको दूर करना जरूरी था। आइए अब देखते हैं कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में ऐसी कौन सी चीजें हैं जो फॉरवर्ड कांट्रैक्ट से अलग है।

हो सकता है कि इनमें से कुछ बातें आप को अभी समझ में ना आएं। लेकिन बाद में जब हम आपको उदाहरण देंगे तो आपके लिए समझना आसान होगा। फिलहाल के लिए आप एक बार इनके अंतर को देख लीजिए। 

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट अंडरलाइंग एसेट के साथ ऊपर नीचे होते हैं हमारे ABC ज्वेलर वाले उदाहरण में एक एसेट यानी सोना और उसकी कीमत को ले कर ABC और XYZ  के बीच में एक फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट हुआ था। फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में एसेट के रूप में सोने की जगह “सोने का फ्यूचर” ही हो सकता है और सोना उसका अंडरलाइंग होगा। अब जब भी सोने की कीमत ऊपर या नीचे होगी तो एसेट यानी “सोने का फ्यूचर” की कीमत भी ऊपर या नीचे होगी। 

एक समान कॉन्ट्रैक्ट हमने देखा था कि ABC ज्वेलर वाले उदाहरण में ABC और XYZ के बीच जो समझौता हुआ था वह 15 किलो सोने का था। लेकिन यह समझौता 14.5 किलो या 15.5 किलो या 15.2 किलो का भी हो सकता था यानी यह समझौता दोनों पार्टियों की सहूलियत के हिसाब से बदला जा सकता था। लेकिन फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में ऐसा नहीं होता यह समझौता सबके लिए एक समान होता है और वैसे ही बाजार में उपलब्ध होते हैं।

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट बाजार में बेचे और खरीदे जा सकते हैं फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट किसी को भी बेचे और खरीदे जा सकते हैं। अगर मैंने किसी दूसरे के साथ फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट किया है तो भी यहां मैं उस कॉन्ट्रैक्ट से कभी भी निकल सकता हूं, अगर मेरे कॉन्ट्रैक्ट को खरीदने वाला कोई बाजार में मौजूद हो। जबकि फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट में मुझे अपने कॉन्ट्रैक्ट यानी समझौते को पूरा करना जरूरी होता भले ही मेरी अपने एसेट के बारे में या उसकी कीमत के बारे में राय बदल गई हो।

फ्यूचर मार्केट नियमों से नियंत्रित होता है–  फ्यूचर मार्केट और फाइनेंशियल डेरिवेटिव्स मार्केट एक नियामक प्राधिकरण या रेगुलेटरी अथॉरिटी से नियंत्रित होता है।  भारत में यह काम SEBI (सिक्योरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया) करती है। नियंत्रित होने की वजह से इस बाजार में गड़बड़ी की गुंजाइश कम रहती है।

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट का समय निर्धारित होता है सभी तरह के फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट किसी न किसी समय सीमा से निर्धारित होते हैं। ABC ज्वैलर और XYZ वाले उदाहरण को देखें तो वहां यह कॉन्ट्रैक्ट 3 महीने का था लेकिन अगर यही कॉन्ट्रैक्ट किसी फ्यूचर मार्केट में किया जाए तो वहां पर 1 महीने 2 महीने 3 महीने जैसी अलग-अलग अवधि के कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध होते हैं। जब कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो रहा होता है तो उसको एक्सपायरी कहते हैं।

कैश सेटेलमेंट फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट का सेटलमेंट कैश में होता है इसका मतलब कि दोनों कीमतों के बीच का अंतर ही कैश में अदा करना होता है। इसमें किसी भौतिक एसेट की एक जगह से दूसरी जगह डिलीवरी नहीं होती है और यह कैश सेटेलमेंट बाजार को नियंत्रित करने वाले नियामक प्राधिकरण के देखरेख में होता है।

इन सारे बिंदुओं को एक टेबल के रूप में देखते हैं

फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट
कॉन्ट्रैक्ट का करोबार OTC / ओवर द काउंटर (over the counter) होता है फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट एक्सचेंज पर खरीदे बेचे जाते हैं
कॉन्ट्रैक्ट जरूरत के हिसाब से बनाए जा सकते हैं  फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट हमेशा एक समान होते हैं
सामने वाली पार्टी से जुड़ा बड़ा रिस्क सामने वाली पार्टी से रिस्क नहीं
बाजार नियंत्रित नहीं SEBI के नियंत्रण में
कॉन्ट्रैक्ट किसी और को हस्तांतरित नहीं किए जा सकते  कॉन्ट्रैक्ट किसी को भी हस्तांतरित  किए जा सकते हैं, बेचना खरीदना संभव
सिर्फ एक तय समय अवधि अलग अलग समय अवधि के कॉन्ट्रैक्ट संभव
कैश और भौतिक सेटलमेंट संभव सिर्फ कैश सेटलमेंट

 

यहां पर आपको एक और बहुत महत्वपूर्ण बात जान लेनी चाहिए, वह है स्पॉट कीमत और फ्यूचर कीमत का अंतर। कोई भी एसेट आम बाजार में जिस कीमत पर बिकता है वह कीमत स्पॉट कीमत कही जाती है। उदाहरण के लिए जब हम सोने को अंडरलाइंग एसेट के तौर पर देखते हैं तो हम सोने की दो कीमतों के बारे में बात कर रहे हैं- एक कीमत जिस पर सोना आम बाजार में बिक रहा है जिसे स्पॉट कीमत कहेंगे और दूसरी कीमत जिस पर सोना फ्यूचर बाजार में बिक रहा है जिसे हम फ्यूचर कीमत कहेंगे। आमतौर पर स्पॉट कीमत और फ्यूचर कीमत एक साथ ही चलते हैं एक ऊपर या नीचे होता है तो दूसरा भी ऊपर या नीचे होता है।

अब फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट की कुछ और महत्वपूर्ण बातों को समझते हैं।

2.3 – कुछ और जरूरी बातें 

फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट के बारे में और गहराई से जानने से पहले कुछ और बातों को जानना जरूरी है। वैसे इन बातों को हम बाद में और विस्तार से जानेंगे, लेकिन यहां उनको मोटे तौर पर समझ लेते हैं।

लॉट साइज (Lot Size) जैसा कि हम पहले भी बात कर चुके हैं कि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट सबके लिए एक समान होते हैं इसलिए उनमें कुछ बातें निश्चित होती हैं। एक ऐसी ही चीज है लॉट साइज। लॉट साइज हमें यह बताता है कि हर सौदे में आप कम से कम कितने मात्रा का समझौता कर रहे हैं। लॉट साइज हर एसेट के लिए अलग अलग होता है लेकिन एक एसेट में एक समान। 

कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू (Contract Value) या कॉन्ट्रैक्ट की कीमत ABC और XYZ वाले उदाहरण में ABC ने 15 किलो सोना 2450 रुपए प्रति ग्राम यानी 24,50,000 रुपए प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदने का कॉन्ट्रैक्ट किया था। इस कीमत पर 15 किलो सोने की कीमत हुई 3.675 करोड़ तो यहां पर कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू  थी 3.675 करोड़ रुपए मतलब मात्रा (15 किलोग्राम) और कीमत (24,50,000) का गुणक ( मात्रा × कीमत)। चूंकि फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट एक समान होते हैं यानी वहां मात्रा निश्चित होती हैं इसलिए एक फ्यूचर एग्रीमेंट या समझौते का कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू होगा लॉट साइज × कीमत

मार्जिन (Margin)– ABC और XYZ वाले उदाहरण में दोनों के बीच 9 दिसंबर 2014 को एक समझौता हुआ जो 9 मार्च 2015 को एक्सपायर होना था। सौदे के लिए दोनों पार्टियों ने एक दूसरे को वचन दिया लेकिन इसके अलावा और कोई लेन-देन नहीं हुआ था। 

लेकिन फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में ऐसा नहीं होता है। फ्यूचर एग्रीमेंट में आप जैसे ही सौदा करते हैं, दोनों ही पार्टी कुछ पैसे जमा करती हैं। इसे आप टोकन या एडवांस जैसी चीज मान सकते हैं। यह पैसा ब्रोकर के पास जमा किया जाता है और यह सौदे की कीमत का एक निश्चित प्रतिशत होती है। इस रकम को मार्जिन अमाउंट या मार्जिन कहते हैं। यह फ्यूचर सौदे की एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज है।

एक्सपायरी (Expiry) जैसा कि हमें पता है कि फ्यूचर सौदे एक निश्चित समय के लिए होते हैं। जिस दिन यह समझौता खत्म होता है उस दिन को एक्सपायरी कहते हैं। याद रखिए कि जिस दिन यह सौदा एक्सपायर होता है उसी दिन नया सौदा एक्सचेंज पर मिलने लगता है।

अगले अध्याय में हम फ्यूचर सौदे के उदाहरणों पर नजर डालेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें 

  1. अगर आप किसी एसेट की कीमत के बारे में एक निश्चित राय रखते हैं तो तो फॉरवर्ड या फ्यूचर मार्केट में आप फायदा कमा सकते हैं।
  2. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट का ही सुधरा हुआ रूप है फ्यूचर कांट्रैक्ट । 
  3. फ्यूचर कीमतें आम तौर पर अंडरलाइंग एसेट की कीमत के साथ ऊपर नीचे होती हैं। 
  4. फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट खरीदे और बेचे जा सकते हैं।
  5. हर फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें एक समान होती हैं जिससे समझौता पहले से निश्चित शर्तों पर  हो सके। 
  6. फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट एक निश्चित समय के लिए होता है और यह अलग अलग समय अवधि के लिए मिल सकता है। 
  7. अधिकतर फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट कैश में ही सेटल होते हैं। 
  8. भारत में फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को सेबी (SEBI)  नियंत्रित करता है। 
  9. एक फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट की कम से कम मात्रा को लॉट साइज कहते हैं। 
  10. कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू = लॉट साइज × फ्यूचर कीमत 
  11. कोई भी फ्यूचर एग्रीमेंट करने के लिए आपको सौदे की कीमत की एक निश्चित प्रतिशत रकम जमा करानी होती है जिसको मार्जिन कहते हैं। 
  12. हर फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट एक निश्चित तारीख को समाप्त हो जाता है और उसी समय नए फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट बाजार में मिलने लगते हैं।

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पृष्ठभूमि – वायदा बाज़ार – फॉरवर्ड्स मार्केट (Forwards Market) https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%aa%e0%a5%83%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%a0%e0%a4%ad%e0%a5%82%e0%a4%ae%e0%a4%bf-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a6%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%be%e0%a4%b0/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%aa%e0%a5%83%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%a0%e0%a4%ad%e0%a5%82%e0%a4%ae%e0%a4%bf-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a6%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%be%e0%a4%b0/#comments Tue, 17 Dec 2019 09:01:33 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6253 1.1 – अवलोकन फ्यूचर्स मार्केट, फाइनेंशियल डेरिवेटिव्स (Financial Derivatives) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। डेरिवेटिव एक तरह की प्रतिभूति यानी सिक्योरिटी होती है जिसकी कीमत किसी दूसरे उत्पाद से जुड़ी हुई होती है। इस दूसरे उत्पाद को आमतौर पर अंडरलाइंग एसेट (Underlying Asset) कहते हैं। यह अंडरलाइंग एसेट कुछ भी हो सकता है जैसे […]

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1.1 – अवलोकन

फ्यूचर्स मार्केट, फाइनेंशियल डेरिवेटिव्स (Financial Derivatives) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। डेरिवेटिव एक तरह की प्रतिभूति यानी सिक्योरिटी होती है जिसकी कीमत किसी दूसरे उत्पाद से जुड़ी हुई होती है। इस दूसरे उत्पाद को आमतौर पर अंडरलाइंग सेट (Underlying Asset) कहते हैं। यह अंडरलाइंग सेट कुछ भी हो सकता है जैसे शेयर, बॉन्ड, कमोडिटी या करेंसी। इसका चलन सदियों से है। ईसा पूर्व 320 में कौटिल्य/चाणक्य के जमाने में भी इसका जिक्र मिलता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में उस फसल के कीमत की चर्चा की है जो भविष्य में कभी कटने वाली है। यह माना जाता है कि कौटिल्य किसानों को यह कीमत फसल कटने के पहले ही दे देते थे। ये फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट के ढांचे की तरफ इशारा करता है। 

फॉरवर्ड मार्केट और फ्यूचर मार्केट में जिस तरह की समानताएं होती हैं, उसे देखते हुए मुझे लगा कि फ्युचर्स मार्केट के बारे में बात करने के पहले हम फॉरवर्ड मार्केट को समझेंइसे फ्यूचर्स मार्केट को समझने के लिए एक मज़बूत नींव की तरह देख सकते हैं। 

फॉरवर्ड्स कॉन्ट्रैक्ट, डेरिवेटिव का सबसे सीधा और सरल रूप है। फॉरवर्ड्स कॉन्ट्रैक्स को आप फ्यूचर कॉन्ट्रैक्स का सबसे पुराना अवतार समझ सकते हैं। हालांकि दोनों में ही एक तरह की लेन-देन वाली सरंचना है लेकिन बीते कुछ सालों में फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट ट्रेडर के लिए डिफॉल्ट विकल्प बन गया है, मतलब ये उनकी पहली पसंद बन गया है। फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट का इस्तेमाल अब भी होता है लेकिन अब केवल कुछ उद्योग या बैंक ही इसका इस्तेमाल करते हैं जबकि फ्यूचर्स कांट्रैक्ट का इस्तेमाल बाजार में काफी जोरशोर से होता है। इस अध्याय में हमारा फोकस ये रहेगा कि आप एक फॉरवर्ड्स ट्रांजैक्शन की सरंचना यानी स्ट्रक्चर (Structure) ठीक से समझ जाएं, इसके बाद हम इसके अलग-अलग हिस्से को उसकी खूबियों और खामियों के साथ देखेंगे। 

1.2 – फॉरवर्ड्स का सीधा-सरल उदाहरण

फॉरवर्ड मार्केट को किसानों के लिए लाया गया था ताकि उनको कीमतों की उठापटक से बचाया जा सके। फॉरवर्ड मार्केट में खरीदार और विक्रेता यानी बेचने वाला सामान/माल/वस्तु के बदले नकद की अदला-बदली या लेनदेन  का करार/अनुबंध/समझौता करते हैं। यहां पर भविष्य में किस तारीख को या किस दिन यह सौदा होगा और किस कीमत पर होगा इसका एक समझौता पहले से ही हो जाता है। वस्तु/सामान की डिलीवरी की तारीख और वक्त भी तय कर लिया जाता है। ये समझौता या करार या सौदा दो लोगों के बीच आमने-सामने होता है और इसमें किसी तीसरी पार्टी का दखल नहीं होता। इसे “ओवर द काउंटर (Over the Counter or OTC )” समझौता कहते है। फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट्स के सौदे सिर्फ OTC के ज़रिए होते हैं। 

एक उदाहरण देखते हैं: 

मान लीजिए एक गहना बनाने वाला है- ABC ज्वेलर, जिसका काम गहने डिजाइन करना और गहने बनाना है। दूसरा एक और इंसान है जिसका काम है सोने को आयात करना यानी विदेशों से सोना मंगाना और घरेलू बाजार में थोक भाव पर ज्वेलर्स को बेचना। मान लीजिए उसका नाम है XYZ गोल्ड डीलर। 

अब 9 दिसंबर 2014 को ABC ज्वेलर और XYZ गोल्ड डीलर के बीच में एक समझौता होता है कि ABC अपने काम के लिए XYZ से 3 महीने बाद यानी 9 मार्च 2015 को 15 किलो सोना खरीदेगा। इस समझौते में सोने की कीमत तय की जाती है ₹2450 प्रति ग्राम यानी ₹ 24,50,000 रुपए किलो। इस समझौते के मुताबिक 9 मार्च 2015 को ABC को XYZ को ₹3.675 करोड़ (24,50,000 ×15) देने हैं और उसे 15 किलो सोना मिलना है। 

यह एक बहुत ही सीधा-साधा कारोबारी सौदा है और इस तरह के सौदों को फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट या फॉरवर्ड एग्रीमेंट या समझौता कहते हैं।

यहां ध्यान दीजिए कि यह सौदा 9 दिसंबर 2014 को हुआ है जबकि दोनों को नहीं पता है कि 3 महीने बाद सोने की कीमत क्या होगी। आगे बढ़ने से पहले हम देखते हैं कि उन दोनों ने ऐसा क्यों किया?

आपको क्या लगता है ABC ने इस समझौते को क्यों किया? क्योंकि ABC को लगता है कि सोने की कीमत 3 महीने बाद बढ़ जाएगी और इसलिए उसके लिए अच्छा होगा अगर वह अभी की कम कीमत पर सोना खरीद ले यानी ABC सोने की कीमत में बढ़ोतरी से बचना चाहता है।

किसी फॉरवार्ड कॉन्ट्रैक्ट में खरीदने वाले को “बायर ऑफ फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट (Buyer of the Forward Contract) ” कहा जाता है जो कि इस मामले में ABC ज्वेलर है।

दूसरी तरफ XYZ को लगता है कि सोने की कीमतें अगले 3 महीने में नीचे जाएंगी इसलिए उसे अगर अभी की कीमत पर सोना बेचने का मौका मिल रहा है तो यह उसके लिए अच्छा है। क्योंकि वह इस समझौते में बेचने वाला है इसलिए उसे “सेलर ऑफ फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट (Seller of Forward Contract)” कहा जाएगा।

साफ है कि ABC और XYZ दोनों को सोने की भविष्य के बारे में अलग-अलग राय है और दोनों को लगता है कि ये समझौता उनके लिए फायदेमंद है।

1.3- 3 मुमकिन परिदृश्य (3 possible scenarios)

हालांकि सोने की कीमतों को लेकर इन दोनों की अपनी अलग-अलग राय है लेकिन वास्तव में सिर्फ तीन चीजें हो सकती हैं। आइए देखते हैं कि क्याक्या संभावनाएं हैं और इनका क्या असर होगा। 

परिदृश्य 1- पहली संभावना सोने की कीमत ऊपर जाएगी 

मान लीजिए 9 मार्च 2015 को सोने की कीमत ₹2700 प्रति ग्राम हो जाती है। इसका मतलब है कि ABC ज्वेलर की राय सही निकली। उसने सही समय पर 3.67 करोड़ रुपए में सोने का सौदा कर लिया जबकि अगर यही सौदा वह अभी करता तो उसे ₹ 4.05 करोड़ देने पड़ते। अब उसे सोना पहले से तय कीमत यानी  ₹2450 प्रति ग्राम पर ही मिल जाएगा। 

सोने की कीमत में बढ़ोतरी से दोनों पार्टियों पर क्या असर पड़ेगा देखते हैं

 

Party

पार्टी/भागीदार

Action एक्शन

Financial Impact

वित्तीय असर

ABC ज्वेलर गोल्ड डीलर से @ Rs.2450/- प्रति ग्राम पर सोना खरीदता है ABC इस सौदे की वजह से 38 लाख रुपये ( 4.05 करोड़ – 3.67 करोड़) बचाता है
XYZ गोल्ड डीलर इसे ABC को @ Rs.2450/- प्रति ग्राम पर सोना बेचना होगा

38 लाख रुपये का नुकसान उठाता है

 

तो XYZ को अब सोना ₹2700 प्रति ग्राम पर खरीदना पड़ेगा और उसे ABC ज्वेलर को ₹2450 प्रति ग्राम पर बेचना पड़ेगा। इससे उसको नुकसान होगा।

परिदृश्य 2- दूसरी संभावना सोनी सोने की कीमत नीचे जाती है 

मान लीजिए 9 मार्च 2015 को सोने की कीमत ₹2050 प्रति ग्राम हो जाती है यानी XYZ गोल्ड डीलर की राय सही निकलती है। जब उसने समझौता किया था तो बात 3.67 करोड़ रुपये की हुई थी। लेकिन अगर वह यह समझौता आज करता तो उसे 3.075 करोड़ रुपए ही मिलते। लेकिन ABC ज्वेलर को अब 2450 प्रति ग्राम पर ही सोना खरीदना पड़ेगा।

देखते हैं इसका दोनों पार्टियों पर क्या असर पड़ता है

Party पार्टी/भागीदार

Action

एक्शन

Financial Impact वित्तीय असर

ABC ज्वेलर इसे XYZ गोल्ड डीलर से @ Rs.2450/- प्रति ग्राम पर सोना खरीदना ही होगा।  ABC को 59.5 लाख रुपये ( 3.67 करोड़  – 3.075 करोड़) का नुकसान  
XYZ गोल्ड डीलर  इसे ABC को @ Rs.2450/- प्रति ग्राम पर सोना बेचने का हक/अधिकार है

XYZ को 59.5 लाख रुपये का मुनाफा

 

परिदृश्य 3 – तीसरी संभावना सोने की कीमत में कोई बदलाव नहीं होता है

अगर 9 मार्च 2015 को सोने की कीमत वही रहती है जो 9 दिसंबर 2014 को थी, तब ना तो ABC को कोई फायदा होगा और ना ही XYZ को कोई फायदा होगा।

1.4 – तीनों संभावनाओं का एक ग्राफ 

नजर डालते हैं एक ग्राफ पर जो इन तीनों संभावनाओं को ABC को ध्यान में रखते हुए दिखाते है

जैसा कि आप देख सकते हैं कि अगर सोने की कीमत ₹2450 प्रति ग्राम रहती है तो इसका कोई असर ABC पर  नहीं पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे सोने की कीमत बदलती रहती है वैसे-वैसे इसका असर ABC पर पड़ता है। सोने की कीमत जितनी ज्यादा बढ़ती जाती है उतना ही ABC की बचत होती है यानी उसको फायदा होता है और वैसे ही ₹2450 प्रतिग्राम से जितना नीचे सोने की कीमत गिरती है ABC को उतना ही नुकसान होता है।

इसी तरीके का ग्राफ XYZ के लिए भी बनाया जा सकता है।

 ₹2450 प्रतिग्राम पर XYZ पर कोई असर नहीं पड़ता लेकिन जैसे-जैसे सोने की कीमत बदलती है वैसे-वैसे उसका असर XYZ पर दिखाई देता है। जब सोने की कीमत ₹2450 प्रतिग्राम से बढ़ती है तो XYZ को सोना सस्ते में बेचना पड़ता है और नुकसान उठाना पड़ता है वैसे ही अगर सोने की कीमत गिरती है  और ₹2450 प्रतिग्राम के नीचे पहुंच जाती है तो XYZ को फायदा होता है क्योंकि वह सोना ऊंची कीमत पर बेच पाएगा।

1.5 – सेटलमेंट पर एक नज़र (A quick note on settlement)

मान लीजिए 9 मार्च 2015 को सोने की कीमत ₹2700 प्रति ग्राम रहती है। हमें पता है कि ₹2700 प्रति ग्राम पर ABC ज्वेलर्स को फायदा होता है। समझौता करने के समय यानी 9 दिसंबर 2014 को 15 किलो सोने की कीमत 3.67 करोड़ रुपए थी जबकि कीमत बढ़ जाने के बाद 9 मार्च 2015 को 15 किलो सोने की कीमत 4.05 करोड़ रुपए हो जाती है। 3 महीने के बाद दोनों पार्टियों को इस समझौते को खत्म करना है और सेटलमेंट करना है। उनके सामने दो विकल्प हैं:

  1. फिजिकल सेटलमेंट यानी भौतिक सेटलमेंट यहां खरीदार समझौते के हिसाब से पूरी कीमत अदा करता है और बेचने वाला समझौते के मुताबिक पूरा माल उसे देता है। उदाहरण के हिसाब से  XYZ 15 किलो सोना खरीदता है जो कि उसे 4.05 करोड़ रुपए में मिलता है यही सोना वह ABC को 3.67 करोड़ रुपए में दे देता है। इसे फिजिकल सेटलमेंट कहते हैं। 
  2. कैश सेटलमेंट इस तरह के सेटलमेंट में कोई माल नहीं दिया जाता यानी डिलीवरी नहीं होती। इस तरह के सेटलमेंट में बेचने वाला और खरीदने वाला सिर्फ कीमत में आए अंतर के हिसाब से पैसे का लेन-देन करते हैं और समझौता  पूरा हो जाता है। इस उदाहरण के हिसाब से XYZ ने  ABC को ₹2450 प्रति ग्राम पर सोना बेचने का सौदा किया था यानी की ABC को 3.67 करोड़ रुपए XYZ को देने थे और उसे XYZ से 15 किलो सोना मिलना था जिसकी बाजार में इस समय कीमत  ₹4.05 करोड़ रुपए है। अब XYZ सोना देने के बजाय ABC को ₹3.67 करोड़ और ₹4.05 करोड़ के बीच का अंतर यानी 4.05-3.67 = ₹38 लाख उसको दे देगा । जिससे ABC बाजार में मौजूदा कीमत पर सोना खरीद सके। इस तरह के सेटलमेंट को कैश सेटलमेंट कहते हैं।

 हम सेटलमेंट के बारे में आगे और समझेंगे लेकिन अभी के लिए आपको सिर्फ यह जानना जरूरी है कि 2 तरह के सेटलमेंट होते हैं फिजिकल सेटलमेंट और कैश सेटलमेंट।

1.6 रिस्क

अब तक हमने समझौते को देखा उसकी कीमतों से पार्टियों पर होने वाले असर को देखा, लेकिन हमने अब तक रिस्क के बारे में बात नहीं की। रिस्क केवल कीमतों में होने वाले बदलाव का नहीं है। फारवर्ड कांट्रैक्ट में और भी कुछ कमियां होती हैं जिनको जानना जरूरी है। 

  1. लिक्विडिटी रिस्क (Liquidity Risk) अपने उदाहरण में हमने बड़े ही आसानी से मान लिया है कि सोने की कीमतों पर एक दूसरे के विपरीत राय रखने वाले  ABC और  XYZ बाजार में मौजूद हैं। इसलिए दोनों में आसानी से एक समझौता हो गया। लेकिन वास्तव में ऐसा होना हमेशा संभव नहीं है। आमतौर पर कोई एक पार्टी किसी इन्वेस्टमेंट बैंक के पास पहुंचती है और अपनी राय उसे बताती है। इसके बाद इन्वेस्टमेंट बैंक एक दूसरी पार्टी की तलाश करता है जिसकी इस बारे में विपरीत राय हो। अपनी इस सेवा के लिए इन्वेस्टमेंट बैंक एक फीस लेता है।
  2. डिफॉल्ट रिस्क/ कॉउंटर पार्टी रिस्क (Default Risk/Counter Party Risk) – मान लीजिए सोने की कीमत बढ़कर ₹2700 प्रति ग्राम हो जाती है। ABC को लगेगा तो उसने सही वित्तीय फैसला लिया और उसे अब फायदा होगा उसे उम्मीद है कि अब XYZ उसे पैसे देगा। लेकिन XYZ अगर डिफॉल्ट कर दे यानी समझौते को पूरा ना करे तो?
  3. रेगुलेटरी रिस्क (Regulatory Risk)- फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट के समझौते आपस में बैठकर किए जाते हैं। इसमें कोई नियामक या रेगुलेटरी अथॉरिटी नहीं होती है। इसीलिए इसमें डिफॉल्ट होने या समझौता तोड़ने की संभावना बढ़ जाती है।
  4.  नियमों की सख्ती (Rigidity) दोनों पार्टियों ने 9 दिसंबर 2014 को सोने की कीमतों पर एक समझौता किया लेकिन अगर  3 महीने के पहले ही दोनों में से किसी की राय बदल जाए तो क्या होगा? यह समझौता ऐसा होता है कि इसे पहले खत्म नहीं किया जा सकता। 

फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट की इन्हीं ख़ामियों की वजह से फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को लाया गया जिससे रिस्क को कम किया जा सके। 

भारत में फ्यूचर्स मार्केट काफी ज्यादा बड़ा हो चुका है। इस मॉड्यूल में हम फ्यूचर मार्केट और उसमें सौदे करने के तरीकों पर चर्चा करेंगे।

इस अध्याय की खास बातें

  1. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर ही फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट को बनाया गया है। 
  2. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट एक OTC डेरिवेटिव है जो एक्सचेंज पर खरीदा या बेचा नहीं जाता 
  3. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट एक निजी कॉन्ट्रैक्ट होते हैं जिनमें  हर समझौते या कॉन्ट्रैक्ट की शर्तें अलग-अलग होती हैं। 
  4. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट बहुत ही सीधे सादे होते हैं। 
  5. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट में जो पार्टी माल खरीदना चाहते है उसे बॉयर ऑफ फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं। 
  6. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट में जो पार्टी माल बेचती है उसे सेलर और फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं। 
  7. कीमत में होने वाला कोई भी बदलाव बेचने वाले और खरीदने वाले दोनों पर असर डालता है।
  8. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट में दो तरह के सेटलमेंट होते हैं फिजिकल सेटलमेंट और कैश सेटलमेंट। 
  9. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट में होने वाले रिस्क को कम करने के लिए फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट लाया गया है 
  10. फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट और फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट आधार एक ही है।

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