फंडामेंटल एनालिसिस – Varsity by Zerodha https://zerodha.com/varsity/module/फंडामेंटल-एनालिसिस/ Markets, Trading, and Investing Simplified. Fri, 14 Oct 2022 06:34:16 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.4.5 फंडामेंटल एनालिसिस का परिचय https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a4%b2-%e0%a4%8f%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%b0/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a4%b2-%e0%a4%8f%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%b0/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:55:38 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5776 1.1 संक्षिप्त विवरण किसी भी बिज़नेस को समझने के लिए फ़ंडामेंटल एनालिसिस का इस्तेमाल किया जाता है। अगर कोई निवेशक लम्बे समय के लिए बाज़ार में निवेश करना चाहता है तो उसको उस बिज़नेस को ठीक से समझना चाहिए जिसमें निवेश कर रहा है। फ़ंडामेंटल एनालिसिस बिज़नेस को कई तरफ से देखने और समझने के […]

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1.1 संक्षिप्त विवरण

किसी भी बिज़नेस को समझने के लिए फ़ंडामेंटल एनालिसिस का इस्तेमाल किया जाता है। अगर कोई निवेशक लम्बे समय के लिए बाज़ार में निवेश करना चाहता है तो उसको उस बिज़नेस को ठीक से समझना चाहिए जिसमें निवेश कर रहा है। फ़ंडामेंटल एनालिसिस बिज़नेस को कई तरफ से देखने और समझने के इसी काम में मदद करती है। निवेशक के लिए ये ज़रूरी है कि वो बाजार के हर दिन के शोरगुल से अलग हट कर बिज़नेस के कामकाज पर नज़र डाले। फ़ंडामेंटल तौर पर मज़बूत कंपनियों के शेयर की क़ीमत समय के साथ बढ़ती है और निवेशक को फ़ायदा होता है।

भारतीय बाज़ार में ऐसे कई उदाहरण हैं जैसे इनफ़ोसिस, TCS, पेज इंडस्ट्री, आयशर मोटर्स, बॉश इंडिया, नेस्ले इंडिया, TTK प्रेस्टीज आदि। इनमें से हर कंपनी ने दस साल से ज़्यादा तक औसतन 20% से ज़्यादा का कम्पाउंड वार्षिक रिटर्न (CAGR) दिया है। आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि इनमें पैसा लगाने वाले हर निवेशक का पैसा 3.5 साल में दोगुना हो रहा था। CAGR रिटर्न जितना ज़्यादा होगा आपकी पूँजी उतनी ही तेज़ी से बढ़ेगी। बॉश इंडिया जैसी कुछ कंपनियों ने तो 30% तक का CAGR दिया है। तो अब आपको समझ गया होगा कि फ़ंडामेंटल तौर पर मज़बूत कंपनियों में निवेश करके कितनी तेज़ी से और कितना ज़्यादा पैसा कमाया जा सकता है 

नीचे दिए गए बॉश इंडिया, आयशर मोटर्स और TCS लिमिटेड के चार्ट को देख कर आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि लम्बे समय में सम्पत्ति कैसे बढ़ती है। याद रहे कि भारतीय बाज़ार के कई उदाहरणों में से ये सिर्फ़ तीन उदाहरण हैं।

आपको लग सकता है कि मैं सिर्फ़ अच्छे-अच्छे चार्ट दिखा रहा हूँ। आप सोच रहे होंगे कि सुज़लॉन एनर्जी, रिलायंस पावर और स्टर्लिंग बॉयोटेक के चार्ट कैसे दिखेंगे। इनको भी देखिए।


पैसे डुबाने वाले बहुत सारे उदाहरणों में से ये सिर्फ़ तीन हैं।

पैसा कमाने के लिए ये ज़रूरी है कि आप कमाई कराने वाली और नुक़सान कराने वाली कंपनियों के फ़र्क़ को पहचानें। कमाई कराने वाली हर कंपनी में कुछ गुण होते हैं जो उनको अलग से दिखाते हैं। इसी तरह पैसा डुबाने वाली कंपनियों की भी कुछ ख़ास पहचान होती है और अच्छा निवेशक उसे पहचान लेता है।

फ़ंडामेंटल एनालिसिस वो तकनीक है जो आपको सही कंपनी को पहचान कर लम्बे समय के निवेश के लिए भरोसा देती है।

1.2- क्या मैं फ़ंडामेंटल एनालिस्ट बन सकता हूँ


आप बिलकुल बन सकते हैं। ये एक ग़लतफ़हमी है कि सिर्फ़ चार्टर्ड अकाउंटंट या कॉमर्स के बैकग्राउंड वाले लोग ही अच्छे फ़ंडामेंटल एनालिस्ट बन सकते हैं। एक अच्छा फ़ंडामेंटल एनालिस्ट बनने के लिए आपको बस कुछ चीज़ें सीखनी होंगी।: 

  1. वित्तीय स्टेटमेंट को समझना 
  2. हर बिज़नेस को उसकी इंडस्ट्री के परिप्रेक्ष्य के साथ समझना होगा
  3. ज़रूरी गणित को जानना होगा 

इस अध्याय में हम ऊपर की लिस्ट में से पहली दो चीज़ों को सीखेंगे जिससे हमें फ़ंडामेंटल एनालिसिस सके।

1.3 – मुझे टेक्निकल एनालिसिस आती है, फंडामेंटल एनालिसिस समझने की क्या जरुरत है

टेक्निकल एनालिसिस आपको छोटे फ़ायदे दिलाती है। ये आपको बाज़ार में एंट्री और एग्ज़िट का सही समय बताती है। लेकिन ये सम्पत्ति बढ़ाने का सही तरीका नहीं है। आप अमीर तभी बन सकते हैं जब आप अच्छा लांग टर्म निवेश करें। वैसे अच्छा ये होगा कि आप टेक्निकल ऐनालिसिस और फ़ंडामेंटल ऐनालिसिस दोनों को इस्तेमाल करें। इसे समझने के लिए एक बार फिर से आयशर मोटर्स के चार्ट पर नज़र डालते हैं।

मान लीजिए एक निवेशक आयशर मोटर्स को फंडामेंटल तौर पर मजबूत शेयर मानकर उस में निवेश करता है। उसने 2006 में कंपनी के शेयर में पैसे लगाए, जैसा कि आप चार्ट में देख सकते हैं कि 2006 से 2010 के बीच में स्टॉक ने कोई खास पैसे नहीं बनाए। शेयर में तेजी 2010 के बाद ही शुरू हुई। इसका यह भी मतलब हुआ कि फंडामेंटल एनालिसिस के आधार पर किए गए इस निवेश में आयशर मोटर्स ने निवेशक को अच्छा रिटर्न नहीं दिया। 2006 से 2010 के बीच इस निवेशक ने अगर छोटे-छोटे ट्रेड किए होते तो उसको ज्यादा फायदा हो सकता था। टेक्निकल एनालिसिस इस तरह के छोटे सौदों के लिए फायदेमंद होता है । इसीलिए आपको टेक्निकल एनालिसिस और फंडामेंटल एनालिसिस का इस्तेमाल साथसाथ करना चाहिए। इसी पर आधारित है पैसे निवेश करने की एक महत्वपूर्ण रणनीति जिसको कोर सैटेलाइट स्ट्रैटेजी (The Core Satellite Strategy) कहते हैं। 

मान लीजिए एक निवेशक के पास ₹500,000 हैं वह इसको दो हिस्सों में बांटता है उदाहरण के तौर पर 60% और 40% के अनुपात में। इस राशि का 60% यानी ₹300,000 वह निवेश करता है लंबी अवधि के लिए और इसके लिए वह फंडामेंटल तौर पर मजबूत कंपनी ढूंढता है। ₹300,000 का यह निवेश उसका कोर पोर्टफोलियो बनता है। आप उम्मीद कर सकते हैं कि कोर पोर्टफोलियो कम से कम 12 से 15% CAGR के आधार पर हर साल बढ़ेगा। बाकी बचा हुआ 40% पैसा यानी ₹200,000 छोटी अवधि के ट्रेड में इस्तेमाल किए जा सकते हैं और इसके लिए टेक्निकल एनालिसिस तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसे सैटेलाइट पोर्टफोलियो कहते हैं और इसमें भी 10 से 12% के रिटर्न की उम्मीद की जा सकती है।

1.4 फंडामेंटल एनालिसिस के टूल्स यानी उपकरण

 फंडामेंटल एनालिसिस के लिए इस्तेमाल की जाने वाले टूल्स बहुत ही साधारण होते हैं जो कि सबके लिए मुफ्त में उपलब्ध हैं। इसके लिए आपको चाहिए:

  1. कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट फंडामेंटल एनालिसिस के लिए आपको जो भी सूचनाएं चाहिए वह कंपनी की एनुअल रिपोर्ट यानी वार्षिक रिपोर्ट में होती हैं आप इसे कंपनी के वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते हैं।
  2. इंडस्ट्री से जुड़ा डेटा यह जानने के लिए कि कंपनी कैसा काम कर रही है आपको इंडस्ट्री से जुड़ा हुआ डेटा भी चाहिए। यह डेटा भी मुफ्त उपलब्ध होता है। इसके लिए आपको उस इंडस्ट्री एसोसिएशन यानी संगठन की वेबसाइट पर जाना होता है। 
  3. समाचार या खबरों पर नज़रहर दिन की खबर आपको कंपनी के बारे में, इंडस्ट्री के बारे में और अर्थव्यवस्था के बारे में जानकारी देती रहती है। एक अच्छा समाचार पत्र या न्यूज़ चैनल आपके लिए काम आ सकता है।
  4. माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल (MS Excel) हालांकि ये मुफ्त नहीं है लेकिन यह आपके फंडामेंटल एनालिसिस की गणनाओं  के लिए काफी जरूरी है।

इन चार टूल्स यानी उपकरण की मदद से आप फंडामेंटल एनालिसिस कर सकते हैं और यह किसी भी दूसरे फंडामेंटल एनालिस्ट की एनालिसिस के मुकाबले कम नहीं होगा। बड़ी-बड़ी कंपनियों के रिसर्च डिपार्टमेंट भी ऐसे ही काम करते हैं और उनकी भी कोशिश होती है कि उनकी रिसर्च सीधी सरल और तर्कसंगत हो।

इस अध्याय की खास बातें 

  1. फंडामेंटल एनालिसिस का इस्तेमाल लंबे समय के निवेश के लिए किया जाता है।
  2. अच्छे फंडामेंटल वाली कंपनी में किया गया निवेश आपकी पूंजी या संपत्ति को बढ़ाता है। 
  3. फंडामेंटल एनालिसिस के जरिए आप एक अच्छी कंपनी यानी निवेश योग्य कंपनी और एक खराब कंपनी के बीच का अंतर जान सकते हैं।
  4. निवेश योग्य हर कंपनी में एक जैसे ही कुछ गुण होते हैं जो सभी अच्छी कंपनियों में दिखाई देते हैं इसी तरीके से हर खराब कंपनी के कुछ गुण होते हैं जो हर खराब कंपनी में दिखाई देते हैं। 
  5. फंडामेंटल एनालिसिस इन गुणों को पहचानने में आपकी मदद करता है।
  6. बाजार में एक अच्छी रणनीति के लिए टेक्निकल एनालिसिस और फंडामेंटल एनालिसिस दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए।
  7. फंडामेंटल एनालिस्ट बनने के लिए आपको किसी खास कौशल की जरूरत नहीं होती है बस कॉमन सेंस यानी व्यवहारिक बुद्धि होनी चाहिए, थोड़ा गणित आना चाहिए और कोराबार कैसे चलता है, इसका पता होना चाहिए।
  8. पैसे निवेश करने के लिए कोर सैटेलाइट अप्रोच एक अच्छी रणनीति है।
  9. फंडामेंटल एनालिसिस के लिए जरूरी उपकरण बहुत ही साधारण होते हैं और सब को मुफ्त में उपलब्ध हैं।

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कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट (Annual Report) कैसे पढ़ते हैं? https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%aa%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9f-annual/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%aa%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9f-annual/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:55:28 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5818 3.1 – वार्षिक रिपोर्ट (Annual Report) क्या होती है? हर कंपनी साल में एक बार वार्षिक रिपोर्ट छापती है और उसे अपने शेयरधारकों और दूसरे लोगों को भेजती है। वार्षिक रिपोर्ट एक वित्तीय वर्ष के अंत में छापी जाती है और उसमें दिया गया हर डेटा 31 मार्च के दिन तक का होता है। वार्षिक […]

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3.1 – वार्षिक रिपोर्ट (Annual Report) क्या होती है?

हर कंपनी साल में एक बार वार्षिक रिपोर्ट छापती है और उसे अपने शेयरधारकों और दूसरे लोगों को भेजती है। वार्षिक रिपोर्ट एक वित्तीय वर्ष के अंत में छापी जाती है और उसमें दिया गया हर डेटा 31 मार्च के दिन तक का होता है। वार्षिक रिपोर्ट कंपनी की वेबसाइट पर इन्वेस्टर सेक्शन में एक पीडीएफ डॉक्यूमेंट (PDF Document)  के तौर पर मौजूद होती है और उसे डाउनलोड किया जा सकता है। वार्षिक रिपोर्ट की किताब पाने के लिए आप कंपनी से संपर्क कर सकते हैं।

चूँकि वार्षिक रिपोर्ट में दी गई है जानकारी कंपनी की तरफ से दी गई होती है इसलिए इसे आधिकारिक जानकारी माना जा सकता है और इसलिए अगर उसमें कोई गलती पाई जाए तो उसके लिए कंपनी को जिम्मेदार माना जाता है। आपकी जानकारी के लिए यहाँ बताना जरूरी है कि कंपनी में वार्षिक रिपोर्ट में दिया गया वित्तीय डाटा कंपनी के ऑडिटर द्वारा प्रमाणित किया जाता है। 


कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट खासतौर पर नए निवेशकों और पुराने शेयरधारकों के लिए छापी जाती है। इसमें निवेशक के लिए जरूरी जानकारी दी जाती है। साथ ही, इसमें  कंपनी की तरफ से एक संदेश भी होता है। किसी निवेशक के पास एक कंपनी के बारे में जानकारी के लिए सबसे अच्छा स्त्रोत कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट ही होती है। वैसे बहुत सारी बिज़नेस वेबसाइट्स कंपनी के बारे में जानकारी देने का दावा करती हैं, लेकिन निवेशक को इनसे दूर रहना चाहिए क्योंकि कंपनी के द्वारा दी गई जानकारी पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है।


आप सोच रहे होंगे कि दूसरी मीडिया वेबसाइट गलत जानकारी क्यों देंगी? हो सकता है वो यह जानकारी जानबूझकर गलत ना दे रही हों, लेकिन इसकी कुछ और वजह भी हो सकती हैं, उदाहरण के तौर पर कंपनी मूल्यह्रास यानी डेप्रिसिएशन को अपने प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट के एक्सपेंस (Expense) साइड में दिखाती हैं लेकिन मीडिया वेबसाइट इसको किसी और हेड के अंदर दिखा सकती है इससे कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट पर वैसे तो सीधा कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन इसको देखने का तरीका बदल जाएगा ।

3.2 – वार्षिक रिपोर्ट में क्या देखना चाहिए? 


वार्षिक रिपोर्ट के अलगअलग हिस्सों में ऐसी बहुत सारी जानकारी होती है जिससे कंपनी के बारे में पता चलता है। इसको बहुत ही ध्यान से पढ़ना चाहिए क्योंकि कई बार कंपनी ऐसी जानकारी देती है जो मार्केटिंग के लिए रखी जाती है जबकि आपको तथ्यों पर नजर रखनी चाहिए।

चलिए वार्षिक रिपोर्ट के विभिन्न हिस्सों पर नजर डालते हैं और यह देखने की कोशिश करते हैं कि कंपनी उसमें क्या बताती है। आप को समझाने के लिए हमने यहां पर अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड की 2013-2014 की वार्षिक रिपोर्ट को लिया है। जैसा कि आपको पता है कि अमारा राजा बैटरीज, ऑटो सेक्टर और इंडस्ट्रीयल सेक्टर के लिए बैटरी बनाती है। अमारा राजा बैटरीज के वित्त वर्ष 2014 की वार्षिक रिपोर्ट आप यहां से डाउनलोड कर सकते हैं। (http://www.amararaja.co.in/annual_reports)

याद रखें कि इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य आपको ये बताना है कि वार्षिक रिपोर्ट को कैसे पढ़ा जाता है। इसलिए यहां पर वार्षिक रिपोर्ट के हर पन्ने को पढ़ना जरूरी नहीं है और ना ही यह सही तरीका होगा, लेकिन हम आपको यहां यह बताने की कोशिश जरूर करेंगे कि इस रिपोर्ट को कैसे पढ़े? कौन सी जानकारी का उपयोग करें और कौन सी जानकारी को छोड़ दें?

ज्यादा अच्छे से समझने के लिए यह बेहतर होगा कि आप अमारा राजा बैटरीज की यह वार्षिक रिपोर्ट डाउनलोड कर लें और इस अध्याय में उसे हमारे साथ साथ साथ पढ़ने की कोशिश करें।

अमारा राजा बैटरीज की वार्षिक रिपोर्ट में 9 भाग हैं:

  • वित्तीय आंकड़ों का सारांश
  • मैनेजमेंट का वक्तव्य
  • मैनेजमेंट की चर्चा और समीक्षा
  • 10 साल की वित्तीय हाईलाइट 
  • कंपनी के बारे में जानकारी
  • डायरेक्टर की रिपोर्ट
  • कॉरपोरेट गवर्नेंस पर रिपोर्ट
  • वित्तीय हिस्सा
  • नोटिस

यहां पर आप ध्यान रखें कि कोई भी दो रिपोर्ट एक तरीके की नहीं होती। हर रिपोर्ट में कंपनी की जरूरतों के हिसाब से थोड़ा फेरबदल किया जाता है और कभी-कभी इंडस्ट्री के हिसाब से भी। लेकिन वार्षिक रिपोर्ट में कुछ हिस्से आमतौर पर एक जैसे होते हैं।

अमारा राजा बैटरी यानी ARBL की वार्षिक रिपोर्ट में सबसे पहला हिस्सा है-वित्तीय हाईलाइट का। वित्तीय हाईलाइट में कंपनी अपने पिछले 1 साल के कामकाज का संक्षिप्त लेखा-जोखा देती है। यह हिस्सा आमतौर पर ग्राफ़ या टेबल के जरिए दिखाया जाता है। इस हिस्से में कंपनी के कामकाज के पिछले कई सालों की तुलना भी होती है।

वित्तीय हाईलाइट कुछ ऐसा दिखता है:

वित्तीय हाईलाइट के इस भाग में आप जो भी आंकड़े देख रहे हैं, वह कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट से उठाए गए हैं। इसके अलावा कंपनी यहां पर कुछ वित्तीय रेश्यो भी डाल सकती है जिनकी गणना कंपनी ने खुद की होती है। मैं इसको सरसरी तौर पर देखता हूं और इसमें बहुत ज्यादा समय नहीं लगाता हूं। ऐसा मैं इसलिए करता हूं क्योंकि इन रेश्यो की गणना मैं ख़ुद अपने आप करता हूं। ऐसा करने से मुझे कंपनी के कामकाज का सही आकलन मिलता है। अगले कुछ अध्याय में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट को कैसे पढ़ा जाता है और फाइनेंशियल रेश्यो कैसे निकाले जाते हैं?

इसके बाद के दो भाग हैं – मैनेजमेंट स्टेटमेंट और मैनेजमेंट डिस्कशन एंड एनालिसिस। यह दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। मैं इन दोनों को पढ़ने में काफी समय गुजारता हूं। यहां पर आपको पता चलता है कि कंपनी अपने कामकाज के बारे में और इंडस्ट्री के बारे में क्या सोचती है और उसका क्या कहना है। एक निवेशक के तौर पर यहां कही गई हर बात आपकी लिए महत्वपूर्ण होती है। खासकर वह बातें जो हमने अध्याय 2 में कंपनी की गुणवत्ता के बारे में बताई थी।

मैनेजमेंट का वक्तव्य (जिसको चेयरमैन का संदेश भी कहते हैं) का हिस्सा निवेशक को एक परिपेक्ष देता है जिसके आधार पर वह यह जान सकता है कि कंपनी का सबसे ऊंचा अधिकारी अपने बिजनेस के बारे में क्या सोच रहा है। यह बहुत ही आधारभूत जानकारी होती है, लेकिन यह बताती है कि कंपनी का बिजनेस किस जगह पर है और यह कहां जा सकता है। जब मैं इसको पढ़ता हूं तो मैं यह देखने की कोशिश करता हूं कि कंपनी का वक्तव्य कितना तार्किक और तर्कसंगत है? यहां यह भी पता चलता है कि कंपनी को इंडस्ट्री के हालात की सही जानकारी है भी या नहीं? कंपनी इस धंधे को ठीक से समझती है या नहीं? इसके अलावा मैं यह भी देखता हूं कि कंपनी ने जो गलतियाँ की है या जो चीजें सही की है उसको बताने में कम्पनी कितनी ईमानदारी बरत रही है।

यहां पर मुझे एक जानी मानी चाय कंपनी के चेयरमैन के संदेश की याद आती है जिसको मैंने उनकी वार्षिक रिपोर्ट में पढ़ा था। उस संदेश में चेयरमैन ने कहा था कि कंपनी की आय 10% की रफ्तार से बढ़ेगी, लेकिन उनका पूरा पिछला डेटा यह बताता था कि कंपनी की आय कभी भी 4 5% से ज्यादा नहीं रही थी, ऐसे  में 10% की रफ्तार से आमदनी बढ़ने का दावा करना, एक हवाई दावा था। यह साफ था कि कंपनी के सबसे बड़े अधिकारी को बाजार की सही स्थिति की जानकारी नहीं थी। इसलिए मैंने उस कंपनी में निवेश न करने का फैसला किया। बाद में , मैंने जब अपने इस फैसले की समीक्षा की तो मुझे लगा कि मेरा फैसला सही था।

अब नीचे अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड के वार्षिक रिपोर्ट पर मैनेजमेंट के संदेश पर नजर डालिए।  मैंने एक हिस्से को हाईलाइट किया है जो मुझे बहुत ही रोचक लगता है। आप इस पूरे मैसेज को पढ़िए:

इसके बाद अगला हिस्सा आता है वह मैनेजमेंट डिस्कशन एंड एनालिसिस (Management Discussion and Analysis) यानी मैनेजमेंट की चर्चा और समीक्षा का । मेरे हिसाब से वार्षिक रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यही होता है। आमतौर पर कंपनियां इस हिस्से की शुरुआत अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालात से करती हैं। वो बताती हैं कि देश में आर्थिक कारोबार कैसा चल रहा है बिजनेस का माहौल कैसा है और कंपनियां किस तरीके से सोच रही हैं? अगर कंपनी का कारोबार एक्सपोर्ट से जुड़ा है तो कंपनियां कई बार विश्व की अर्थव्यवस्था और कारोबार के माहौल की भी चर्चा करती हैं।

क्योंकि ARBL का कामकाज घरेलू बाजार के साथ-साथ एक्सपोर्ट से भी जुड़ा हुआ है इसलिए कंपनी ने इन दोनों ही दृष्टिकोण की चर्चा अपनी वार्षिक रिपोर्ट में की है। कृपया नीचे का चित्र देखिए:

भारतीय अर्थव्यवस्था पर ARBL की राय:

इसके बाद कंपनी आमतौर पर इंडस्ट्री के ट्रेंड की चर्चा करती है और यह बताने की कोशिश करती है कि कंपनी को आगे का भविष्य कैसा दिख रहा है। यहां हमें यह पता चलता है कि कंपनी को आने वाले समय में क्या-क्या मौके दिख रहे हैं और क्या खतरे नजर आ रहे हैं। मैं इसको बहुत ध्यान से पढ़ता हूं और फिर इसकी तुलना कंपनी का मुकाबला कर रही दूसरी कंपनियों से करता हूं। इससे मुझे यह पता चलता है कि कंपनी अपने विरोधियों के मुकाबले मजबूत है या कमजोर है।

उदाहरण के तौर पर अगर अमारा राजा बैटरी में मेरा निवेश है या में निवेश करना चाहता हूं तो मैं इस हिस्से को ध्यान से पढ़ूँगा और इसके साथ-साथ एक्साइड बैटरीज लिमिटेड के वार्षिक रिपोर्ट में भी इसी हिस्से को पढ़ कर दोनों की तुलना करूंगा।


वार्षिक रिपोर्ट के इस हिस्से यानी मैनेजमेंट डिस्कशन और एनालिसिस के हिस्से तक कंपनी एक व्यापक नजरिया बता रही होती है। इसके बाद कंपनी अपने धंधे के बारे में बात करती है। वो बताती है कि कारोबार कैसा चल रहा है, अलग-अलग हिस्से कंपनी के लिए क्या काम कर रहे हैं, पिछले साल की तुलना में उनका कामकाज कैसा चल रहा है। कंपनी इस हिस्से में आंकड़े भी देती है। 

एक नजर डालिए:

कुछ कंपनियां अपने अलग अलग हिस्सों के लिए आने वाले साल के लिए रणनीति और दिशानिर्देश पर भी यहाँ चर्चा करती हैं । नीचे नज़र डालिए:

कंपनी की चर्चा और समीक्षा के बाद वार्षिक रिपोर्ट में कई और छोटी-छोटी रिपोर्ट होती हैं, जैसे ह्यूमन रिसोर्स रिपोर्ट, रिसर्च एंड डेवलपमेंट रिपोर्ट, टेक्नोलॉजी रिपोर्ट (Human resource report, Research and development report, Technology report) आदि। कंपनी जिस इंडस्ट्री में काम कर रही होती है उसके लिहाज से यह सारी रिपोर्ट महत्वपूर्ण होती हैं। उदाहरण के तौर पर अगर मैं एक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट पढ़ रहा हूं तो ह्यूमन रिसोर्स रिपोर्ट में मुझे यह जानने को मिलेगा कि कंपनी में लेबर को लेकर कोई समस्या तो नहीं है। यदि ऐसी कोई भी समस्या है तो ये कंपनी के कारखाने यानी फैक्ट्री को बंद करा सकती है और ये कंपनी के निवेशकों के लिए अच्छी खबर नहीं होगी।

3.3 –वित्तीय स्टेटमेंट

वार्षिक रिपोर्ट का अंतिम हिस्सा कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट होता है। आप शायद समझते ही होंगे कि वित्तीय स्टेटमेंट ही वार्षिक रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। वित्तीय स्टेटमेंट के तीन भाग होते हैं।

  1. प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट (The profit and loss statement)
  2. बैलेंस शीट (The Balance Sheet)
  3. कैश फ्लो स्टेटमेंट (The Cash flow statement)

हम अगले कुछ अध्ययनों में इन तीनों को विस्तार से समझेंगे लेकिन यहां यह जानना जरूरी है कि वित्तीय स्टेटमेंट दो तरीके से पेश किए जाते हैं 

  1. स्टैंडअलोन फाइनेंशियल स्टेटमेंट या स्टैंडअलोन आंकड़े (Standalone financial statement)
  2. कन्सॉलिडेटेड फाइनेंशियल स्टेटमेंट या कंसोलिडेटेड आंकड़े (Consolidated financial statement)

स्टैंडअलोन आंकड़ों और कंसोलिडेटेड आंकड़ों का अंतर समझने के लिए हमें कंपनी के ढांचे को समझना होगा। 

एक अच्छी और बड़ी कंपनी के बहुत सारे छोटे-छोटे सब्सिडियरी या डिवीजन हो सकते हैं। कई बार कंपनियां दूसरी कंपनियों की होल्डिंग कंपनी के तौर पर भी काम करती हैं। इसको ठीक से समझाने के लिए मैं क्रिसिल लिमिटेड के शेयर होल्डिंग ढांचे पर नजर डालता हूं। यह आपको क्रिसिल की वार्षिक रिपोर्ट में भी मिल जाएगा। शायद आपको पता ही हो कि क्रिसिल एक भारतीय कंपनी है जो दूसरी कंपनियों को क्रेडिट रेटिंग देने के धंधे में है।

जैसा कि आप शेयर होल्डिंग पैटर्न में ऊपर देख सकते हैं:

  1. अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग कंपनी स्टैंडर्ड एंड पुअर (Standard and Poor- S&P) के पास क्रिसिल के 51% शेयर हैं। इस तरह यहां S&P एक होल्डिंग कंपनी या प्रमोटर है। 
  2. बाकी बचा हुआ 49% हिस्सा पब्लिक या दूसरे वित्तीय संस्थानों के पास है।
  3. लेकिन  S&P ख़ुद एक दूसरी कंपनी McGraw-Hill कंपनीज की 100% सब्सिडियरी है।
    1. इसका मतलब यह हुआ कि  S&P का मालिकाना McGraw-Hill  के पास है और क्रिसिल का 51% प्रतिशत हिस्सा S&P के पास है 
  4. क्रिसिल ख़ुद एक कंपनी इरेवना (Irevna) की मालिक है (100% हिस्सेदारी है)

अब इस पर दी गई जानकारी के आधार पर एक स्थिति की कल्पना करते हैं। मान लीजिए वित्त वर्ष 2014 में क्रिसिल ने 1000 करोड़ का नुकसान किया और इसकी 100% सब्सिडियरी इरेवना ने 700 करोड़ का फायदा किया। अब क्रिसिल का कुल मुनाफा कितना हुआ?

बहुत आसान है क्रिसिल ने 1000 करोड़ का नुकसान किया जबकि इसकी सब्सिडी इरेवना ने 700 करोड़ का फायदा किया यानी क्रिसिल का कुल P&L (-1000 करोड़) + 700 करोड़ = 300 करोड़

आपने देखा कि अपनी कंपनी के सब्सिडियरी के मुनाफे की वजह से क्रिसिल का कुल घाटा सिर्फ 300 करोड़ रह गया जबकि उसे 1000 करोड़ का नुकसान हो रहा था। इसी को अगर आप स्टैंडअलोन बेसिस पर देखेंगे तो क्रिसिल को 1000 करोड़ का नुकसान हुआ जबकि कंसोलिडेटेड बेसिस पर क्रिसिल का नुकसान सिर्फ़ 300 करोड़ का ही हुआ।

इसका मतलब यह है कि इस स्टैंडअलोन फाइनेंशियल स्टेटमेंट में कंपनी के अपने नतीजे ही दिखाए जाते हैं। इसमें इसकी सब्सिडी के आंकड़े नहीं होते जबकि कंसोलिडेटेड स्टेटमेंट में कंपनी के सारे नतीजे, उसकी सब्सिडियरी सहित दिखाए जाते हैं। 

मुझे कंपनी के कंसोलिडेटेड फाइनेंशियल स्टेटमेंट को देखना बेहतर लगता है क्योंकि यह कंपनी की पूरी वित्तीय हालत को सही-सही बताता है।

3.4 – फाइनेंशियल स्टेटमेंट का शेड्यूल/ सूची/ कार्यक्रम सारणी

जब कंपनी अपना फाइनेंशियल स्टेटमेंट देती है तो वह शुरू में संक्षिप्त स्टेटमेंट देती है और बाद में उसका पूरा विस्तार दिया जाता है।

यहां आप ARBL का फाइनेंशियल स्टेटमेंट (बैलेंस शीट) देख सकते हैं :

फाइनेंशियल स्टेटमेंट की हर अलग-अलग जानकारी को लाइन आइटम कहते हैं। उदाहरण के तौर पर बैलेंस शीट (इक्विटी और लायबलिटी के तहत) में पहला लाइन आइटम शेयर कैपिटल (हरे रंग के तीर से दिखाया गया) है। आप को दिख रहा होगा कि यहां पर एक नोट नंबर शेयर कैपिटल से जोड़ा गया है इसको शेड्यूल कहते हैं जो फाइनेंशियल स्टेटमेंट से जुड़े होते हैं । ARBL के स्टेटमेंट को देखने के बाद शेयर कैपिटल 17.081 करोड़ दिख रहा है। एक निवेशक के तौर पर मैं जानना चाहूंगा कि ARBL ने 17.081 करोड़ की गणना कैसे की ? इसे जानने के लिए मुझे कंपनी के एसोसिएटेड शेड्यूल नोट नंबर 2 में देखना होगा। नीचे का चित्र देखिए:

अगर आप नए हैं तो आपको फाइनेंशियल स्टेटमेंट की कई चीजें जैसे शेयर कैपिटल का मतलब नहीं समझ में आएगा। लेकिन वैसे फाइनेंशियल स्टेटमेंट को समझना काफी आसान होता है। अगले कुछ अध्याय में हम इसको समझने और इसको पढ़ने की तरीका बताएंगे। अभी सिर्फ यह याद रखिए कि फाइनेंशियल स्टेटमेंट आपको एक संक्षिप्त विवरण देता है जबकि एसोसिएटेड शेड्यूल आपको उसकी विस्तृत जानकारी देता है।

इस अध्याय की मुख्य बातें

    1. कंपनी अपने निवेशकों से संवाद करने के लिए वार्षिक रिपोर्ट जारी करती है।
    2. कंपनी के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए सबसे अच्छा स्त्रोत वार्षिक रिपोर्ट होता है इसलिए हर निवेशक को सबसे पहले इसे पढ़ना चाहिए।
    3. वार्षिक रिपोर्ट में कई हिस्से होते हैं जो बिजनेस से जुड़ी  अलग-अलग चीज के बारे में बात कर रहे होते हैं। 
    4. कंपनी की गुणवत्ता के बारे में जानने के लिए वार्षिक रिपोर्ट एक बहुत अच्छा स्रोत होता है।  
    5. मैनेजमेंट डिस्कशन एंड एनालिसिस यानी मैनेजमेंट की चर्चा और समीक्षा कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इसमें देश की अर्थव्यवस्था के बारे में मैनेजमेंट का नज़रिया, इंडस्ट्री कैसा करेगी और आगे आने वाला समय कैसा रहेगा – ये सारी बातें होती हैं। साथ ही इसमें ये भी बताया जाता है कि कंपनी ने क्या गलत किया और क्या सही।
    6. वार्षिक रिपोर्ट में 3 फाइनेंशियल स्टेटमेंट होते हैं प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट, बैलेंस शीट और कैश फ्लो स्टेटमेंट।
    7. स्टैंडअलोन स्टेटमेंट में सिर्फ कंपनी के वित्तीय आंकड़े दिखाई देते हैं जबकि कंसोलिडेटेड स्टेटमेंट में कंपनी और इसकी सभी सब्सिडियरी के आंकड़े होते हैं।

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P&L स्टेटमेंट को कैसे समझें? (भाग 1) https://zerodha.com/varsity/chapter/pl-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%9d%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1/ https://zerodha.com/varsity/chapter/pl-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%9d%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:55:23 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5821 4.1 वित्तीय स्टेटमेंट का संक्षिप्त विवरण वित्तीय स्टेटमेंट को आप दो नज़रिये से देख सकते हैं।  बनाने वाले के नज़रिये से इस्तेमाल करने वाले के नज़रिये से  वित्तीय स्टेटमेंट बनाने वाला इंसान आमतौर पर अकाउंटिंग के बैकग्राउंड से आता है। लेजर इंट्री (Ledger Entry)  यानी खाता प्रविष्टी , बिल और रसीद को मिलाना, पैसों के […]

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4.1 वित्तीय स्टेटमेंट का संक्षिप्त विवरण

वित्तीय स्टेटमेंट को आप दो नज़रिये से देख सकते हैं। 

  1. बनाने वाले के नज़रिये से
  2. इस्तेमाल करने वाले के नज़रिये से 

वित्तीय स्टेटमेंट बनाने वाला इंसान आमतौर पर अकाउंटिंग के बैकग्राउंड से आता है। लेजर इंट्री (Ledger Entry)  यानी खाता प्रविष्टी , बिल और रसीद को मिलाना, पैसों के आगमन और आवागमन यानी इंफ्लो और आउटफ्लो (Inflow-Outflow) का मिलान करना, ये सब उसके रोज के काम होते हैं। उसका उद्देश्य होता है कि एक ऐसा पारदर्शी फाइनेंशियल स्टेटमेंट बनाएं, जो कंपनी की वित्तीय हालत को सही-सही दिखा सके। ऐसा वित्तीय स्टेटमेंट बनाने के लिए जो कौशल चाहिए वो उसे चार्टेट अकाउंटेंट की ट्रेनिंग के दौरान मिल जाता है। 

दूसरी तरफ, वित्तीय स्टेटमेंट का इस्तेमाल करने वाला इंसान सिर्फ उस स्टेटमेंट को समझना चाहता है। उसे सिर्फ इसका इस्तेमाल करना है। उसको जर्नल एंट्री (Journal entry) या ऑडिट (Audit) के बारे में हर छोटी-छोटी जानकारी को जानना और समझना ज़रूरी नहीं है। उसे सिर्फ मतलब है तो इस बात से कि वो वित्तीय स्टेटमेंट को पढ़कर कंपनी के शेयर के बारे में अपना फैसला कर सके। 

आमतौर पर लोगों को ये गलतफहमी होती है कि फंडामेंटल एनालिस्ट को वित्तीय स्टेटमेंट के बनाने के तौर-तरीके की अच्छी समझ होनी चाहिए। ये समझ होना अच्छी बात है लेकिन ये ज़रूरी हो- ऐसा एकदम नहीं है। एक फंडामेंटल एनालिस्ट बनने के लिए आपको सिर्फ वित्तीय स्टेटमेंट का इस्तेमाल आना चाहिए, उसको बनाना आना ज़रूरी नहीं है। 

वित्तीय स्टेटमेंट में कंपनी तीन खास जानकारियां देती है: 

  1. लाभ-हानि खाता यानी प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट (Profit and loss statement)
  2. बैलेंस शीट (Balance Sheet)
  3. कैश फ्लो स्टेटमेंट (Cash flow statement)

अगले कुछ अध्यायों में हम इन तीनों का इस्तेमाल करना सीखेंगे। 

4.2 प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट (P&L statement)

 प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट या P&L statement को इनकम स्टेटमेंट (Income Statement), स्टेटमेंट ऑफ ऑपरेशंस (Statement of Operations) या स्टेटमेंट ऑफ अर्निंग्स (Statement of Earnings) भी कहते हैं। प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट एक खास अवधि में हुए लेन-देन को दिखाता है। इनमें निम्न चीजों के बारे में जानकारी होती है-

  1. तय समय- अवधि (सालाना या तिमाही) में कंपनी की आय
  2. आय पाने के लिए किया गया खर्च 
  3. टैक्स और डेप्रिसियेशन  (Tax & Depreciation)
  4. प्रति शेयर आमदनी नंबर यानी अर्निंग पर शेयर नंबर (Earning per share number)

मेरा अनुभव कहता है कि वित्तीय स्टेटमेंट को समझने का सबसे अच्छा तरीका वास्तविक स्टेटमेंट को देखना और उसमें दी गई जानकारी को समझना ही है। यहां पर अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड (ARBL) का P&L स्टेटमेंट दिखाया गया है। इसके हर लाइन आइटम को समझते हैं। 

4.3 कंपनी की टॉप लाइन (Top line) यानी आय (Revenue)

आपने बहुत बार जानकारों को कंपनी की टॉप लाइन के बारे में बात करते सुना होगा। वास्तव में वो P&L स्टेटमेंट के रेवेन्यू यानी आय की बात कर रहे होते हैं। कंपनी अपने P&L में सबसे पहले रेवेन्यू या आय का नंबर ही बताती है।

हम इसको समझना शुरू करें इसके पहले P&L स्टेटमेंट के हेडर में लिखी गई कुछ चीजों को जान लेते हैं। 

हेडर साफ-साफ बता रहा है कि..

  1. P&L स्टेटमेंट 31 मार्च 2014 को खत्म हुए साल के लिए है। इसका मतलब हुआ ये वार्षिक स्टेटमेंट है, तिमाही नहीं। साथ ही, यदि ये 31 मार्च 2014 का स्टेटमेंट है, तो ये वित्त वर्ष 2013-14 या FY14 का स्टेटमेंट है। 
  2. यहां दी गई सभी संख्याएं मिलियन रूपये में है। नोट करें – 1 मिलियन, 10 लाख रूपये के बराबर होता है। ये पूरी तरीके से कंपनी पर निर्भर करता है कि वो स्टेटमेंट में दिए गए नंबर किस यूनिट में देना चाहेगी। 
  3. यहां सभी मुख्य चीजों का विवरण दिया गया है और कोई भी जुड़ा हुआ नोट (जिसे शेड्यूल भी कहते हैं), नोट के सेक्शन में दिया जाता है। हर नोट के लिए एक खास नोट नंबर होता है। 
  4. पारंपरिक तौर पर कंपनियां वित्तीय स्टेटमेंट में मौजूदा साल का नंबर बाएं कॉलम में और पिछले साल का नंबर दाएं कॉलम में देती हैं। इस उदाहरण में FY14 का नंबर और FY13 का नंबर है। 

रेवेन्यू की तरफ में पहला लाइन आइटम – सेल ऑफ प्रोडक्ट्स (Sale of products) यानी माल की बिक्री का होता है। 

चूंकि यहां पर हम एक बैटरी बनाने वाली कंपनी पर चर्चा कर रहे हैं, इसलिए यहां पर सेल ऑफ प्रोडक्ट का मतलब है कि कंपनी ने FY14 में कुल कितनी बैटरियां बेची। बिक्री का कुल आंकड़ा है- 3804,12,70,000 रुपये, यानी 3804 करोड़ रुपये। कंपनी ने पिछले साल यानी FY13 में 3294 करोड़ रूपये की बैटरियां बेची थी। 

मैं जानबूझ कर यहां करोड़ रूपये में आंकड़ें दे रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि ये समझने में ज्यादा आसान होगा। 

अगला लाइन आइटम है एक्साइज ड्यूटी। कंपनी ये 400 करोड़ रूपये सरकार को अदा करेगी। इसे कंपनी की आमदनी में से निकाला जाएगा। 

एक्साइज ड्यूटी को निकालने के बाद मिला आंकड़े को कंपनी का नेट सेल्स (Net Sales of the company) कहा जाता है। ARBL का FY14 में नेट सेल्स 3403 करोड़ रूपये है जबकि FY13 में ये आंकड़ा 2943 करोड़ था।

सेल ऑफ प्रोडक्ट के अलावा कपंनी सेवाओं की बिक्री यानी सर्विसेज से भी आमदनी जुटाती है। यहां पर इसका मतलब बैटरी के वार्षिक मेंटेनेन्स यानी रखरखाव से हो सकता है। सर्विसेज की बिक्री से कंपनी को FY14  में 30.9 करोड़ रूपये की आमदनी हुई। 

कंपनी ने अदर ऑपरेटिंग रेवेन्यू (Other Operating Revenue) यानी अन्य कामकाजी आय से भी 2.1 करोड़ रूपये कमाए है। ये आमदनी कुछ ऐसी वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री से हुई है जो कंपनी के मुख्य कारोबार से जुड़े हैं। 

अंत में सेल ऑफ प्रोडक्ट+ सेल ऑफ सर्विस+ अदर ऑपरेटिंग रेवेन्यू के तौर पर टोटल ऑपरेटिंग रेवेन्यू (Total Operating Revenue) यानी कुल आय को दिखाया गया है। यह FY14 में 3436 करोड़ रूपये है जबकि FY13 में ये आंकड़ा 2959 करोड़ रूपये का था। यहां पर एक नोट भी दिया गया है जो कि नंबर 17 है। ये नेट रेवेन्यू फ्रॉम ऑपरेशंस (Net Revenue from operations) यानी ऑपरेशन से जो शुद्ध आय हुई है, उससे जुड़ा हुआ है। इसे हम बाद में ठीक से देखेंगे। 

आपको याद होगा कि पिछले अध्याय में हमने वित्तीय स्टेटमेंट में आने वाले नोट्स और शेड्यूल के बारे में बात की थी। 

नीचे का चित्र इस नोट 17 का विवरण दिखा रहा है। 

साफ है कि इस नोट में  ऑपरेशंस से हुई आय (Revenues from operations) की विस्तृत जानकारी दी गई है जिससे हमें इसके अलग अलग हिस्सों का पता चलता है। जैसा आप देख सकते हैं सेक्शन A में सेल ऑफ प्रोडक्ट यानी माल की बिक्री को कुछ हिस्सों में बांटा गया है। 

  1. FY14 में फिनिश्ड गुड यानी तैयार माल की बिक्री से 3523 करोड़ रूपये की कमाई हुई जबकि FY13 में ये आंकड़ा 3036 करोड़ रूपये था।
  2. पिछले वित्तीय साल के तैयार माल, जिसे अंग्रेजी में स्टॉक इन ट्रेड (Stock in trade) कहते हैं, को चालू साल FY14 में बेचकर 208 करोड़ रूपये आए, जबकि FY13 में ये 149 करोड़ था। 
  3. कंपनी ने UPS बेच कर FY14 में 71 करोड़ रूपये की कमाई की। FY13 में ये कमाई 109 करोड़ की थी। 
  4. कंपनी ने अपने उत्पादों की बिक्री से एक्साइज ड्यूटी देने के बाद 3403 करोड़ रूपये कमाए, जोकि कंपनी के P&L में दिए गए आंकड़ों से मेल खाते हैं। 
  5. इसी तरह सर्विसेज यानी सेवाओं से होने वाली कमाई के हिस्सों को भी आप देख सकते हैं। इससे 30.9 करोड़ रूपये की कमाई हुई जो कि P&L के आंकड़ों से मिलते है। 
  6. नोट में कंपनी ने कहा है “ प्रोसेस स्क्रैप की बिक्री (Sale of Process Scrap)” से 2.1 करोड़ रूपये की कमाई हुई है। यहां पर नोट करें कि प्रोसेस स्क्रैप की बिक्री, कंपनी के मुख्य काम से जुड़ा हुआ काम है, इसलिए इसे अदर ऑपरेटिंग रेवेन्यू (Other Operating Revenue) के तहत डाला गया है। 
  7. सभी तरह के रेवेन्यू यानी आय को जोड़ने पर नेट रेवेन्यू यानी शुद्ध आय का पता चलता है, जैसे 3403 करोड़ + 30.9 करोड़ + 2.1 करोड़ = 3436 करोड़ रूपये
  8. FY13 के स्टेटमेंट में भी आपको ऐसा ही देखने को मिलेगा। 

अगर आप ध्यान दें तो आपको दिखेगा कि ARBL ने P&L स्टेटमेंट पर नेट रेवेन्यू के अलावा 45.5 करोड़ रूपये के अदर इनकम (Other Income) यानी अन्य आय को भी दिखाया है। नीचे दिखाए गए नोट नंबर 18 में बताया गया है कि अन्य आय के तहत क्या-क्या चीजें आती हैं। 

जैसा कि हम देख सकते हैं कि अन्य आय में वो आय या आमदनी शामिल हैं, जो कंपनी के मुख्य कारोबार से जुड़े नहीं है। बैंक डिपॉजिट पर ब्याज, डिविडेंड, इंश्योरेंस क्लेम, रॉयल्टी से आय इत्यादि अन्य आय के तहत आते हैं। आमतौर पर अन्य आय, कुल आमदनी का छोटा सा हिस्सा होते हैं, और ऐसा होना भी चाहिए। अगर अन्य आय का योगदान ज्यादा होगा, तो कुछ गड़बड़ होने की निशानी हो सकती है और इसकी जांच पड़ताल करने की ज़रूरत होगी। 

तो कंपनी के मुख्य काम से हुई आमदनी, जिसे रेवेन्यू फ्रॉम ऑपरेशंस भी कहते हैं, (3436 करोड़ रूपये) और अन्य आय (45 करोड़ रूपये) को जोड़कर FY14 में कंपनी की कुल आय यानी टोटल रेवेन्यू होगा 3482 करोड़ रूपये। 

इस अध्याय की काम की बातें:

  1. वित्तीय स्टेटमेंट कंपनी के बारे में जानकारी देती है और ये भी बताती है कि कंपनी की वित्तीय हालत कैसी है। 
  2. एक वित्तीय स्टेटमेंट में प्रॉफिट एंड लॉस अकाउंट, बैलेंस शीट और कैश फ्लो स्टेटमेंट होता है। 
  3. एक फंडामेंटल एनालिस्ट वित्तीय स्टेटमेंट का इस्तेमाल करता है और उसे इतना पता होना चाहिए कि स्टेटमेंट बनाने वाले स्टेटमेंट के ज़रिए क्या कह रहे हैं। 
  4. प्रॉफिट और लॉस स्टेटमेंट बताता है कि किसी भी तय साल में कंपनी को कितना मुनाफा या नुकसान हुआ। 
  5. प्रॉफिट और लॉस स्टेटमेंट एक आकलन है, क्योंकि कंपनी इसमें दिए गए आंकड़ों के बाद में बदल सकती है। साथ ही, कंपनी स्टेटमेंट में चालू वर्ष और पिछले वर्ष का आंकड़ें अगल-बगल में देती है। 
  6. P&L के रेवेन्यू साइड को टॉप लाइन भी कहा जाता है। 
  7. कंपनी के मुख्य काम से होने वाली कमाई है रेवेन्यू फ्रॉम ऑपरेशंस (Revenue from operations)
  8. मुख्य कारोबार से जुड़ी किसी दूसरी कमाई को अदर ऑपरेटिंग इनकम (Other Operating income) के तहत रखते हैं। 
  9. किसी भी और स्त्रोत से होने वाली कमाई, रेवेन्यू फ्रॉम नॉन ऑपरेटिव सोर्सेज (Revenue from non-operative sources) के तहत आती है। 
  10. रेवेन्यू फ्रॉम ऑपरेशंस (- ड्यूटी) + अदर ऑपरेटिंग इनकम + अदर इनकम = नेट रेवेन्यू फ्रॉम ऑपरेशंस (शुद्ध कमाई)

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P&L स्टेटमेंट को समझें- भाग 2 https://zerodha.com/varsity/chapter/pl-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%9d%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-2/ https://zerodha.com/varsity/chapter/pl-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f-%e0%a4%95%e0%a5%8b-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%9d%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-2/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:55:11 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5826 5.1 – खर्च की जानकारी पिछले अध्याय में हमने कंपनी की आमदनी के बारे में जाना था। इस अध्याय में हम P&L स्टेटमेंट में कंपनी के खर्चों और उससे जुड़े नोट्स के बारे में जानेंगे। आमतौर पर कंपनी के अलग-अलग काम पर किए ग्ए खर्चों को अलग-अलग हिस्सों में बांटा जाता है – या तो […]

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5.1 – खर्च की जानकारी

पिछले अध्याय में हमने कंपनी की आमदनी के बारे में जाना था। इस अध्याय में हम P&L स्टेटमेंट में कंपनी के खर्चों और उससे जुड़े नोट्स के बारे में जानेंगे। आमतौर पर कंपनी के अलग-अलग काम पर किए ग्ए खर्चों को अलग-अलग हिस्सों में बांटा जाता है – या तो खर्चों की प्रवृत्ति के हिसाब से या फिर कॉस्ट ऑफ सेल्स मेथड (cost of sales method) के हिसाब से। कंपनी के हर खर्च का लेखाजोखा प्रॉफिट और लॉस स्टेटमेंट में या फिर नोट्स में दिया जाना चाहिए। आप नीचे देख सकते हैं हर खर्चे के आगे यानी लाइन आइटम के सामने एक नोट जुड़ा हुआ है।P&L के खर्च वाले हिस्से में पहला लाइन आइटम है कॉस्ट ऑफ मेटेरियल कंज्यूमड (Cost of materials consumed) यानी उस कच्चे माल पर हुआ खर्च जो कंपनी ने अपना मुख उत्पाद बनाने के लिए खरीदा है। आप देख सकते हैं कि कंपनी का सबसे बड़ा खर्च यही है।  FY14 के लिए यह खर्च 2101 करोड़ रूपये है जबकि FY13 के लिए यह खर्च 1760 करोड़ रूपये का था। इसके बारे में विस्तार से जानकारी नोट नंबर 19 में दी गई है।

आप देख सकते हैं कि नोट 19 में कच्चे माल की खपत के बारे में जानकारी दी गयी है कंपनी ने लेड, लेड एलॉय, सेपरेटर (Lead, Lead alloys, Separators) और दूसरी चीजों का इस्तेमाल किया जिसका खर्च 2101 करोड़ रूपये था।

अगले दो आइटम हैं- परचेजेज़ ऑफ स्टॉक इन ट्रेड (Purchases of Stock in Trade) और चेंज इन इन्वेंटरी आफ फिनिश्ड गुड्स, वर्क इन प्रोसेस एंड स्टॉक इन ट्रेड (Change in Inventories of finished goods , work–in-process & stock–in-trade)। इन दोनों के बारे में जानकारी नोट 20 में विस्तार से  दी गयी है।

कंपनी अपने कारोबार को चलाने के लिए जो भी बना हुआ सामान या तैयार माल खरीदती है उसको परचेजेज़ ऑफ स्टॉक इन ट्रेड कहते हैं। इस पर कंपनी ने 211 करोड़ रूपये खर्च किए। आगे हम इसे विस्तार से समझेंगे।

कंपनी ने जो माल इस साल बेचा, लेकिन जिसका उत्पादन पिछले साल में हुआ था, ऐसे माल को बनाने में हुए खर्च को चेंज इन इन्वेंटरी ऑफ फिनिश्ड गुड्स कहा जाता है। FY14 में खर्च 29.2 करोड़ रुपये का था।

अगर यह आंकड़ा (-) में यानी नेगेटिव में देख रहा है तो इसका मतलब यह है कि FY14 में कंपनी ने जितनी बैटरियां बेची उससे ज्यादा बैटरियां बनाईं। बिक्री और बिक्री पर होने वाले खर्च के अनुपात को दिखाने के लिए कंपनी मौजूदा साल के खर्च में से वह खर्च घटा देती है (क्योंकि उसे पिछले साल बनाया गया है)। बाद में कंपनी जब उस माल को बेच देगी तो उसके खर्चे को दिखाया जाएगा। जब भी कभी इस खर्च को P&L में जोड़ा जाता है ( माल के बिकने के बाद) तो इस खर्च को परचेजेज़ ऑफ स्टॉक इन ट्रेड (Purchases of Stock in Trade) के लाइन आइटम के तौर पर दिखाया जाता है।

 यहां नोट 20 में दोनों लाइन आइटम के बारे में विस्तार से बताया गया है।

ऊपर दी गई जानकारी बहुत साफ है और इसको समझना बहुत आसान है। इसीलिए यहां इसके और विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, यहां बस यह जानना जरूरी है कि कुल खर्च कितना है। फाइनेंशियल मॉडलिंग के मॉड्यूल में जा कर इसके बारे में और विस्तार से जानेंगे।

कंपनी के खर्च में अगला लाइन आइटम है – एमप्लॉई बेनिफिट एक्सपेंस (Employee Benefit Expense) यानी कर्मचारियों की सुविधाओं पर होने वाला खर्च। कंपनी ने अपने कर्मचारियों के वेतन, उनके प्रोविडेंट फंड और इस तरह के दूसरे खर्चों को यहां दिखाया गया है। यहां यह खर्च 158 करोड़ रूपये का था। इस पर विस्तार से नोट 21 में चर्चा की गई है।

आपको लग रहा होगा कि 3482 करोड़ रूपये कमाने वाली कंपनी अपने कर्मचारियों पर सिर्फ 158 करोड़ रूपये ही खर्च करती है यानी सिर्फ 4.5%। दुर्भाग्यवश देश की तमाम कंपनियों में यही हाल है।

अगला लाइन आइटम है फाइनेंस कॉस्ट/फाइनेंस चार्जेस/ बौरोइंग कॉस्ट (Finance Cost / Finance Charges/ Borrowing Costs) का । कंपनी जब कर्ज लेती है तो उसके ब्याज और उससे जुड़े दूसरे खर्चों को यहां दिखाया जाता है। FY14 में कंपनी का यह खर्च 0.7 करोड़ रूपये था। कंपनी के कर्ज और उससे जुड़ी दूसरी चीजों के बारे में हम उस अध्याय में बात करेंगे जहां पर हम बैलेंस शीट पर चर्चा कर रहे होंगे।

अगला लाइन आइटम है – डेप्रिसिएशन और अमॉरटाइजेशन (Depreciation and Amortization) का। कंपनी ने इस पर 64.5 करोड़ रूपये खर्च किए। इसे ठीक से समझने के लिए हमें टैंजिबल और इनटैंजिबल एसेट (Tangible and intangible assets) के बारे में जानना होगा।

कोई भी ऐसी संपत्ति जो भौतिक तौर पर मौजूद हो और जिसकी कीमत को कंपनी की कुल संपत्ति में जोड़ा जा सके उसे टैंजिबल एसेट यानी भौतिक परिसंपत्ति कहते हैं। जैसे लैपटॉप, प्रिंटर, कार, मशीनें, बिल्डिंग और फैक्ट्री आदि टैंजिबल एसेट हैं।

ऐसी संपत्ति जो भौतिक तौर पर न दिखाई दे लेकिन उसकी कीमत कंपनी की कुल संपत्ति में जोड़ी जा सके उसे इनटैंजिबल एसेट कहते हैं। जैसे कंपनी की ब्रांड वैल्यू, ट्रेडमार्क, कॉपीराइट, पेटेंट, ग्राहकों की लिस्ट, फ्रेंचाइजी आदि इनटैंजिबल एसेट के उदाहरण हैं। 

किसी भी एसेट की सबसे खास बात यह होती है कि उपयोग की समय अवधि बढ़ने के साथ-साथ वह एसेट डेप्रिशिएट होता है। हर एसेट के उपयोग की समय अवधि निश्चित होती है। जैसे किसी लैपटॉप के लिए ये अवधि 4 साल हो सकती है। किसी एसेट का उपयोगी समय वह होता है जब तक वह एसेट कंपनी के लिए मूल्यवान हो। इसको एक उदाहरण से समझते हैं।

स्टॉक ब्रोकिंग फर्म ज़ेरोधा ने कुल ₹100000 की कमाई की। लेकिन इसी दौरान कंपनी ने एक बड़ा कंप्यूटर सर्वर खरीदने के लिए ₹65000 खर्च कर दिए। इस कंप्यूटर सर्वर  का उपयोगी समय 5 साल माना जाता है। अब आप अगर ज़ेरोधा के आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो आपको दिखेगा की कंपनी ने ₹100000 कमाए और दूसरी तरफ ₹65000 खर्च कर दिए। इस तरह कंपनी के पास सिर्फ  ₹35000 की कमाई रह गयी। लेकिन ये आंकड़े सही तस्वीर नहीं बता रहे हैं।

याद रखिए कि यह एसेट (कम्प्यूटर सर्वर) भले ही इस साल खरीदा गया हो, लेकिन इसका उपयोगी समय अगले 5 साल तक का है। इसलिए यह जरूरी है कि इसकी कीमत को अगले 5 साल तक में बांट दिया जाए यानी कंपनी एक बार बड़ा खर्चा दिखाने के बजाय 5 साल तक छोटे-छोटे खर्च के तौर पर इस खर्च को दिखा सकती है।

इस तरह से ₹65000 को 5 साल में में बांटा जाएगा और फिर 65000 /5 = ₹13000  हर साल डिप्रेशिएट होंगे। इस डिप्रेशिएशन को दिखाने के बाद अब ज़ेरोधा की कमाई होगी ₹100000 – ₹13000 = ₹87000

इसी तरीके से इनटैंजिबल एसेट की कीमत को भी आंका जाता है, लेकिन वहां पर इस तरीके को डेप्रिसिएशन नहीं बल्कि अमॉरटाइजेशन कहते हैं।

अब यहां पर एक बहुत ही जरूरी बात है जिसे आप को समझना चाहिए। ज़ेरोधा ने अपने सर्वर को 5 साल तक के लिए डेप्रेशिएट कर दिया और कीमत को 5 साल तक बांट तो दिया, लेकिन वास्तव में कंपनी ने तो ₹65000 खर्च किए। अब खर्च का यह आंकड़ा P&L में कहां दिखाई देगा? एक फंडामेंटल एनालिस्ट के तौर पर हमें इसका पता कैसे चलेगा कि कंपनी के पैसे कहां गए? इसके लिए आपको कैश फ्लो स्टेटमेंट पर नजर डालनी होगी। इसको हम आगे के अध्याय में समझेंगे। अभी नोट 23 पर नजर डालिए जहां डेप्रिसिएशन को दिखाया गया है।

P&L के खर्च वाले हिस्से में अंतिम लाइन आइटम है -अन्य एक्सपेंसेस (Other Expenses) यानी अन्य खर्च का, जो कि 434.6 करोड़ है। यह एक बहुत बड़ी रकम है इसलिए इसको विस्तार से देखना जरूरी है।

इस नोट से यह साफ है कि अदर एक्सपेंस में उत्पादन, बिक्री, प्रशासनिक और दूसरे खर्चे शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर यहां नाम देख सकते हैं कि अमारा राजा बैटरीज ने 27.5 करोड़ रूपये विज्ञापन और प्रमोशन पर खर्च किए हैं।

इन सब को जोड़ेंगे तो आपको दिखेगा कि अमारा राजा बैटरी के P&L में खर्च के तरफ कुल 2941.6 करोड़ रूपये का खर्च है। 

5.2  टैक्स के पहले मुनाफा (प्रॉफिट बिफोर टैक्स-Profit before tax)

जब कमाई में से खर्चे निकाल दिए जाते हैं लेकिन टैक्स और ब्याज की देनदारी उसमें शामिल होती है यानी यह दोनों अदा नहीं किए गए होते हैं, तो इस मुनाफे को प्रॉफिट बिफोर टैक्स कहते हैं। ऊपर दिए गए P&L स्टेटमेंट को देखने पर हमें दिखेगा कि ARBL ने अपने PBT यानी प्रॉफिट बिफोर टैक्स और एक्सेप्शनल आइटम (Profit before tax and Exceptional item numbers) के आंकड़े दिए हैं। 

सरल भाषा में कंपनी का PBT यानी प्रॉफिट बिफोर टैक्स है: 

PBT यानी प्रॉफिट बिफोर टैक्स = कुल आमदनी – कुल ऑपरेटिंग खर्च

= 3482 – 2941.6 

= Rs 540.5 करोड़

लेकिन यहां पर एक एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी/एक्सेप्शनल आइटम (Extraordinary item/Exceptional item) दिख रहा है जो कि 3.8 करोड़ रूपये का है जिसे इस रकम में से घटाया जाएगा। ऐसे खर्च वह होते हैं जो एक बार किसी खास वजह से किए जाते हैं और कंपनी मानती है कि यह खर्चे अगली बार या बार-बार नहीं होंगे। इसीलिए इनको P&L में अलग से दिखाया जाता है।

इसलिए अब नया PBT यानी प्रॉफिट बिफोर टैक्स है 

540.5 – 3.88

= Rs 536.6 करोड़

 नीचे के चित्र में ARBL के P&L में कंपनी का की PBT दिखाया गया है:

5.3 टैक्स के बाद कुल मुनाफा (नेट प्रॉफिट ऑफ्टर टैक्स-Net Profit after Tax)

कंपनी की कुल कमाई में से टैक्स भी घटा देने के बाद जो रकम सामने आती है उसे कंपनी का ऑपरेटिंग प्रॉफिट (Operating profit ) या नेट ऑपरेटिंग प्रॉफिट आफ्टर टैक्स कहते हैं। यह किसी भी P&L स्टेटमेंट का अंतिम हिस्सा होता है। प्रॉफिट आफ्टर टैक्स को ही P&L की बॉटमलाइन (Bottom line) भी कहते हैं।

जैसा कि आप ऊपर के चित्र में देख सकते हैं कि PAT यानी प्रॉफिट आफ्टर टैक्स तक पहुंचने के लिए हमें सभी तरह के टैक्स खर्च को PBT में से निकालना पड़ता है। यहां करेंट टैक्स का मतलब है कॉरपोरेट टैक्स जो इस साल अदा किया जाना है। यह रकम 158 करोड़ रूपये की है। इसके अलावा यहां कंपनी ने दूसरे टैक्स भी बताए हैं। सारे टैक्स मिलाकर कंपनी ने 169.1 करोड़ का टैक्स दिया है। अगर कंपनी के PBT यानी 536.6 करोड़ रूपये में से कंपनी का 169.2 करोड़ का टैक्स घटा दिया जाए तो PAT की रकम आती है 367.4 करोड़ रूपये

मतलब कुल PAT = PBT – टैक्स

किसी P&L स्टेटमेंट के अंतिम हिस्सा होता है ईपीएस (EPS), जो कि डाइल्यूटेड (Diluted) और बेसिक दोनों तरीकों से दिखाया जाता है। किसी कंपनी के वित्तीय विश्लेषण के लिए सबसे ज्यादा EPS का इस्तेमाल होता है। EPS देख कर पता चलता है कि कंपनी के डायरेक्टर और मैनेजर कंपनी को कैसे चला रहे हैं। EPS का अर्थ होता है कि कंपनी के मैनेजमेंट ने कंपनी के हर शेयर पर कितने पैसे कमा कर दिए हैं। आप देख सकते हैं कि ARBL के मैनेजमेंट ने हर शेयर पर 21 कमा कर दिए हैं। इसकी गणना नीचे पर चार्ट में दिख रही है।

कंपनी ने यहां बताया है कि उसके पास 17,08,12,500 शेयर हैं। इस संख्या को अगर PAT  की संख्या से विभाजित किया जाए तो हमें EPS की संख्या मिलती है। 

इस उदाहरण में 

367.4 करोड़ को विभाजित किया जाएगा 17,08,12,500 से जिस से आएगा 21.5 रूपये प्रति शेयर

5.4 – निष्कर्ष

अब हम एक बार P&L स्टेटमेंट को पूरी तरीके से एक नजर में देखते हैं।

उम्मीद है कि अब आपको यह स्टेटमेंट ज्यादा आसानी से समझ में आ रहा होगा। याद रखिए कि हर लाइन आइटम के साथ एक नोट जुड़ा हुआ है। आप उस लाइन आइटम को विस्तार से देखने के लिए उस नोट का इस्तेमाल कर सकते हैं। वैसे बाजार के फैसलों में इस्तेमाल के लिए आपको इन आंकड़े की एनालिसिस यानी विश्लेषण अभी भी करनी होगी। ये कैसे करें इसे हम तब समझेंगे जब हम फाइनेंशियल रेश्यो की बात करेंगे। P&L स्टेटमेंट के साथ दो और फाइनेंशियल स्टेटमेंट जुड़े होते हैं-  बैलेंस शीट और कैश फ्लो स्टेटमेंट । आगे हम इनके बारे में चर्चा करेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. P&L में खर्च वाला हिस्सा कंपनी के खर्चों की सारी जानकारी देता है। 
  2. हर खर्च के बारे में विस्तार से जानने के लिए उसके साथ जुड़े हुए नोट को पढ़ा जा सकता है।
  3. किसी खर्च को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटकर कई साल तक P&L में इस्तेमाल करने के लिए डेप्रेशिएशन या अमॉरटाइजेशन के तरीके का इस्तेमाल किया जाता है।
  4. फाइनेंस कॉस्ट का मतलब होता है कि ब्याज चुकाने के लिए और कर्ज लेने के लिए कंपनी ने कितनी रकम खर्च की है।
  5. PBT = कुल आमदनी – कुल खर्च – एक्सेप्शनल आइटम
  6. कुल PAT = PBT – कुल टैक्स
  7. EPS कंपनी की प्रति शेयर कमाई की क्षमता को बताता है। यहां कमाई का मतलब है PAT और प्रेफर्ड डिविडेंड के बाद की कमाई।
  8. EPS = PAT/ कुल साधारण आउटस्टैंडिंग शेयर

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7.1 – बैलेंस शीट का एसेट वाला हिस्सा

पिछले अध्याय में हमने बैलेंस शीट के लायबिलिटी के हिस्से को देखा था। अब हम इसके दूसरे हिस्से को यानी असेट के हिस्से को देखेंगेबैलेंस शीट का यह हिस्सा हमें कंपनी के हर सेट के बारे में बताता है, जो कंपनी ने अपने पूरे जीवन काल में कभी भी लिया है। साधारण भाषा में एसेट कंपनी की उस संपत्ति को कहते हैं जो बाद में कभी कंपनी को आमदनी कमाने में मदद कर सके।

जैसा कि आप देख सकते हैं कि यहाँ 2 तरीके  के एसेट  दिखाए गए हैं एक नॉन करेंट एसेट और करेंट एसेट इन सब के तहत बहुत सारे लाइन आइटम हैं और उनके साथ जुड़े हुए नोट भी हैं। हम इन सब को बारीबारी से देखेंगे।

7.2 – नॉन करेंट एसेट (फिक्स्ड एसेट)

जैसा कि हमने पिछले अध्याय में जाना था कि नान करेंट एसेट कंपनी की वह संपत्ति है जो कंपनी को 365 दिनों से भी ज्यादा यानी एक साल से भी ज्यादा तक फायदा पहुंचा सकती हैआपको याद ही होगा कि एसेट का मतलब वह संपत्ति है जो कंपनी को आर्थिक तौर पर फायदा पहुंचाए।

आप देख सकते हैं कि  नान करेंट एसेट वाले हिस्से में एक और हिस्सा है जहां फिक्स्ड एसेट (Fixed Assets) लिखा गया है और इसके तहत भी कई लाइन आइटम है। यहां फिक्स्ड एसेट का मतलब कंपनी के उस एसेट से है जिसको आसानी से बेचा नहीं जा सकता या जिसके बदले में आसानी से नगद नहीं मिल सकता। इसमें टैंजिबल और नॉन टैंजिबल दोनों तरह के एसेट होते हैं। फिक्स्ड एसेट के आम उदाहरण हैं जमीन, फैक्ट्री, मशीन, गाड़ियां, बिल्डिंग आदि। कई तरीके के इनटैंजिबल एसेट भी फिक्स्ड एसेट माने जाते हैं क्योंकि वह कंपनी को लंबे समय तक फायदा पहुंचाते हैं। आप देख रहे होंगे कि एक हर लाइन आइटम के  लिए एक ही नोट है नंबर 10। इसको हम आगे विस्तार से देखेंगे।

नीचे के चित्र में अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड के फिक्स्ड एसेट को दिखाया गया है।

पहला लाइन आइटम टैंजिबल एसेट का जो कि 619.8 करोड़ रूपये का है। याद रखिए कि टैंजिबल एसेट वो एसेट होता है जो भौतिक रूप में मौजूद हो यानी जिसे आप देख या छू सकते हैं आम तौर पर इसमें फैक्ट्री, प्लांट, मशीनरी, कार, गाड़ियां, बिल्डिंग आदि होते हैं।

अगला लाइन आइटम इनटैंजिबल एसेट का है इसकी कीमत है 3.2 करोड़ रूपये। याद रखिए कि इनटेंजिबल एसेट वो एसेट होता है, जिसकी वैल्यू तो होती है, लेकिन कोई भौतिक रूप नहीं होता है। इसको आप देख या छू नहीं सकते। इसमें आमतौर पर कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, डिजाइन, पेटेंट जैसी चीजें होती हैं।

जब हमने P&L स्टेटमेंट की चर्चा की थी तो हमने डेप्रिसिएशन के बारे में जाना था। किसी एसेट की कीमत को उसके उपयोगी समय की अवधि में बांटने के तरीके को डेप्रिसिएशन कहते हैं। समय के साथ-साथ एसेट की कीमत कम होती जाती है क्योंकि उसकी उत्पादन क्षमता यानी  उसका उपयोग भी धीरे-धीरे कम होता जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि या तो एसेट पुराना हो जाता है या फिर उसमें टूट-फूट हो जाती हैइसको डेप्रिसिएशन एक्सपेंस या डेप्रिसिएशन खर्च कहते हैं। इसे प्रॉफिट एंड लॉस अकाउंट में और बैलेंस शीट में दिखाया जाता है।

 कंपनी के हर एसेट को समय के साथ डेप्रिसिएट होना चाहिए। इस नजरिए की वजह से कंपनी जब कोई एसेट लेती है तो उसको ग्रॉस ब्लॉक (Gross Block) कहा जाता है। ग्रॉस ब्लॉक में से डेप्रिसिएशन घटाने के बाद हमें नेट ब्लॉक मिलता है।

नेट ब्लॉक = ग्रॉस ब्लॉक एक्युमुलेटेड डेप्रेशिएसन

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यहां डेप्रिसिएशन के साथ एक्युमुलेटेड (Accumulated) शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यह बताता है कि कंपनी के बनने से समय से लेकर अब तक के सारे डेप्रिसिएशन की कीमत को एक साथ जोड़ा गया है।

 जब हम 619.8 करोड़ रूपये के टैंजिबल एसेट और 3.2 करोड़ रूपये के इनटैंजिबल एसेट को देखते हैं तो साथ में हमें याद रखना चाहिए कि कंपनी ने इसे नेट ब्लॉक के तौर पर दिखाया है जो कि ग्रॉस ब्लॉक में से डेप्रिसिएशन को घटाने के बाद मिलता है। फिक्स्ड एसेट के साथ जुड़े हुए नोट 10 को देखते हैं।

नोट के सबसे ऊपरी हिस्से में आप ग्रॉस ब्लॉक, डेप्रिसिएशन/एमॉरटाइजेशन (Depreciation/amortization) और नेट ब्लॉक को हाईलाइट किया हुआ देख सकते हैं। यहां पर मैंने नेट ब्लॉक के दो संख्याओं को हाईलाइट किया है जो की बैलेंस शीट में दिखाए गए आंकड़े से मिलते हैं।

 अब इस नोट की कुछ और जानकारियों पर नजर डालते हैं। टैंजिबल एसेट के तहत आप कंपनी के हर एसेट को देख सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर कंपनी ने टैंजिबल एसेट के तहत बिल्डिंग्स को भी रखा है। मैंने इस हिस्से को हाईलाइट कर दिया है।

31 मार्च 2013 (FY 13) तक  ARBL ने बिल्डिंग की कीमत 93.4 करोड़ रूपये बतायी थी। FY 14 में कंपनी बिल्डिंग की कीमत में 85.8 करोड़ रूपये जोड़ दिए हैं। इसे इस साल में किए गए नए निर्माण के तौर पर दिखाया गया है। इसके अलावा कंपनी ने इस साल बिल्डिंग की कीमत में से 0.668 रूपये का डिडक्शन दिखाया है। इस तरह से इस साल बिल्डिंग का कुल मूल्य हुआ:

पिछले साल बिल्डिंग की कीमत + इस साल जोड़ी गयी कीमत इस साल का डिडक्शन

93.4 + 85.8 – 0.668

= 178.5 करोड़ रूपये

ऊपर के चित्र में इस संख्या को नीले रंग से हाईलाइट किया गया था। याद रखें कि यह बिल्डिंग का ग्रॉस  ब्लॉक है। ग्रॉस ब्लॉक में से एक्युमुलेटेड डेप्रिसिएशन को घटाने से हमने नेट ब्लॉक मिलता है। नीचे के चित्र में मैंने बिल्डिंग के डेप्रिसिएशन के हिस्से को हाईलाइट किया है।

31 मार्च 2013 (FY 13) तक ARBL ने 17.2 करोड़ रूपये का डेप्रिसिएशन दिखाया है। इसमें उन्हें FY 14 का 2.8 करोड़ का डेप्रिसिएशन जोड़ना होगा और 0.376 करोड़ रूपये का डिडक्शन भी दिखाना होगा। इस तरह से साल का कुल डेप्रिसिएशन होगा:

पिछले साल का डेप्रिसिएशन + इस साल का  डेप्रिसिएशन इस साल का डिडक्शन

= 17.2 + 2.8 – 0.376 = 19.736 करोड़

इसे ऊपर के चित्र में लाल रंग से हाईलाइट किया गया है।

तो अब हमारे पास 178.6 करोड़ का बिल्डिंग का ग्रॉस ब्लॉक है, 19.736 करोड़ का डेप्रिसिएशन है तो हम नेट ब्लॉक निकाल सकते हैं: 178.6 – 19.736 = 158.8 करोड़ रूपये नीचे के चित्र में इसे हाईलाइट किया गया है। 

हर तरह के टैंजिबल और इनटैंजिबल एसेट के लिए इसी तरह से कुल नेट ब्लॉक को प्राप्त किया जा सकता है।

फिक्स्ड एसेट के तहत अगले 2 लाइन आइटम हैं कैपिटल वर्क इन प्रोग्रेस (Capital Work in ProgressCWIP) और इनटैंजिबल एसेट अंडर डेवलपमेंट (Intangible assets under development)।

CWIP में ऐसे एसेट को रखा जाता है जो अभी बन रहे हैं जैसे निर्माणाधीन बिल्डिंग, नई मशीनरी, जिसको अभी जोड़ा जा रहा है, और इस तरह की दूसरी वस्तुएं जो बैलेंस शीट के बनने के समय तैयार नहीं हैं। दूसरे शब्दों में , इसमें वह कैपिटल एक्सपेंडिचर आता है जो कि खर्च किया जा चुका है लेकिन जिसका काम पूरा नहीं हुआ है। इस रकम को नेट ब्लॉक में दिखाया जाता है। आप देख सकते हैं कि ARBL ने 144.3 करोड़ CWIP में रखे हैं। एक बार जब काम पूरा हो जाता है और इस एसेट पर का इस्तेमाल शुरू हो जाता है तो इस एसेट को टैंजिबल एसेट में (फिक्स्ड एसेट के तहत) रखा जाता है  और CWIP से हटा दिया जाता है।

अंतिम लाइन आइटम है इनटैंजिबल एसेट अंडर डेवलपमेंट भी CWIP की तरह होता है लेकिन इसमें इनटैंजिबल एसेट होते हैं। जैसे अगर कोई पेटेंट फाइल किया गया है या कॉपीराइट फाइल किया गया या किसी ब्रांड का डेवलपमेंट हो रहा है। ARBL के मामले में यह रकम बहुत छोटी है 0.3 करोड़। इन सभी खर्चों को जोड़कर कंपनी के फिक्स्ड कॉस्ट तक पहुंचा जाता है।

7.3नान करेंट एसेट (अदर लाइन आइटम) Non-current assets (Other line items)

 नॉन करेंट एसेट में फिक्स्ड एसेट के अलावा दूसरे लाइन आइटम भी होते हैं।  इस तस्वीर में इनको दिखाया गया है। 

ARBL द्वारा लंबी अवधि के लिए कुछ नॉन करेंट इन्वेस्टमेंट किए गए हैं। यह निवेश 16.07 करोड़ का है। ये निवेश कुछ भी हो सकते हैं। जैसे कुछ कंपनियों के शेयर खरीदना, किसी कंपनी में माइनॉरिटी हिस्सेदारी लेना, डिबेंचर, म्यूच्यूअल फंड में निवेश आदि। यहां पर नोट 11का एक चित्र दिया जा रहा है जिससे आपको यह बात समझने में मदद मिल सकती है।

अगला लाइन आइटम है लंबी अवधि का कर्ज़ यानी लांग टर्म लोन और एडवांसेज। जो कि 56.7 करोड़ रूपयों का है। यह वह लोन या कर्ज (एडवांस) हैं जो कंपनी ने अपने ग्रुप की दूसरी कंपनियों को, कर्मचारियों को, सप्लायर को या किसी वेंडर को दिया है। 

नॉन करेंट एसेट में अंतिम लाइन आइटम है अदर नॉन करेंट एसेट का, जो कि 0.122 करोड़ है। इसमें मिसलेनियस (विविध) लांग टर्म एसेट (miscellaneous long term assets) भी शामिल हैं।

7.4 – करेंट एसेट

कंपनी के करेंट एसेट वह होते हैं जिनको कंपनी तुरंत या फिर बहुत जल्दी से नगदी में बदल सकती है और कंपनी मानती है कि इनका इस्तेमाल 365 दिनों के अंदर यानी साल के भीतर किया जा सकता है। इन एसेट का इस्तेमाल कंपनी अपने दैनिक कामकाज के लिए और कारोबार के बाकी खर्चों के लिए करती है।

करेंट एसेट के आम उदाहरण हैं नगद, नगद जैसी दूसरी चीजें, इन्वेंटरी, रिसिवेबल, शॉर्ट टर्म लोन और एडवांसेज,  कई और देनदार जिसे संडरी डेटर्स (sundry debtors) कहते है

एक नजर डालिए ARBL के करेंट एसेट पर

करेंट एसेट में पहला लाइन आइटम है इन्वेंटरी का जो कि 335 करोड़ रूपये का है। कंपनी द्वारा बनाए गए सभी उत्पाद, उनका कच्चा माल और दूसरी चीजें इन्वेंटरी में आती हैं। इसमें वह उत्पाद भी आते हैं जो भी अधूरे बने हैं या जो अभी बिक्री के लिए तैयार नहीं है। कंपनी जब उत्पादन करती है तो सारा सामान रॉ मैटेरियल (raw materials) या कच्चे माल से लेकर तैयार माल तक उत्पादन के कई चरणों से गुजरता है। इन विभिन्न चरणों पर रखा माल भी इन्वेंटरी का हिस्सा होता है। नीचे नोट 14 में आप इसका नमूना देख सकते हैं।

जैसा कि आप देख सकते हैं ज्यादातर इन्वेंटरी कच्चा माल (raw material) या वर्क इन प्रॉग्रेस (work-in-progress) में दिख रही है।

अगला लाइन आइटम है ट्रेड रिसिवेबल्स (Trade Receivables) या अकाउंट्स रिसिवेबल्स (Accounts Receivables)। यह वह पैसा है जो कंपनी को उसके डिस्ट्रीब्यूटर, ग्राहकों या दूसरे कुछ लोगों से मिलना बाकी है। ARBL के मामले में यह रकम 452.77 करोड़ रूपये की है। 

अगला लाइन आइटम है कैश एंड कैश इक्विवैलेंट्स (Cash and Cash equivalents) यानी नगदी और नगद जैसी दूसरी चीजें। यह कंपनी का सबसे ज्यादा लिक्विड एसेट माना जाता है। यहां कैश का मतलब है कैश ऑन हैंड और कैश ऑन डिमांड (Cash on hand and Cash on demand)। कैश इक्विवैलेंट का मतलब है छोटी अवधि के वो निवेश जिनकी मैच्योरिटी 3 महीने से कम की है। यह रकम 294.5 करोड़ हैनोट 16 में इसको विस्तार से दिखाया गया है आप यहां देख सकते हैं कि कंपनी ने कई तरीके के अकाउंट में पैसे रखे हैं।

अगला लाइन आइटम है शॉर्ट टर्म लोन्स एंड एडवांसेज (Short-term loans and Advances) का यानी छोटी अवधि के वो कर्ज जो कंपनी ने लोगों को दिए हैं और उम्मीद की जाती है कि इनकी वापसी 1 साल के अंदर यानी 365 दिनों के अंदर हो जाएगी। इनमें ग्राहकों, सप्लायर्स या कर्मचारियों को दिया गया कर्ज, एडवांस टैक्स पेमेंट्स (income tax, wealth tax) आदि शामिल होते हैं। यह रकम 211.9 करोड़ है इसके बाद आता है एसेट के भाग का अंतिम और वास्तव में बैलेंस शीट का भी अंतिम लाइन आइटम इसे कहते हैं अदर करेंट एसेट या अन्य  करेंट एसेट । इसे अन्य इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इसको बहुत महत्व नहीं दिया जाता। यह रकम है 4.3 करोड़ रूपये। 

तो अब कंपनी के कुल एसेट हुए

फिक्स्ड एसेट + करेंट एसेट

= 840.831 + 1298.61 करोड़

= 2139.441 करोड़ रूपये, यह रकम कंपनी की लायबिलिटी के बराबर है। 

तो हमने बैलेंस शीट के एसेट हिस्से और पूरी बैलेंस शीट को पूरी तरह देख लिया। एक बार बैलेंस शीट पर फिर नजर डालिए।

आप देख सकते हैं कि ARBL की बैलेंस शीट में बैलेंस शीट समीकरण सही साबित होता है।

एसेट = शेयरधारकों का फंड + लायबिलिटी

याद रखिए पिछले कुछ अध्यायों में हमने बैलेंस शीट और p&l स्टेटमेंट के बारे में जाना है। लेकिन हमने इनके आंकड़े पर एनालिसिस    अः ए नहीं की है जिससे हमें यह पता चल सके कि आंकड़े अच्छे हैं या बुरे। हम फाइनेंशियल रेश्यो के एनालिसिस वाले अध्याय में इस पर चर्चा करेंगे। 

अगले अध्याय में हम अंतिम फाइनेंसियल स्टेटमेंट यानी कैश फ्लो स्टेटमेंट को देखेंगे। लेकिन वह देखने के पहले हमें यह देख लेना जरूरी है कि बैलेंस और p&l स्टेटमेंट कैसे जुड़ते हैं।

7.5 – P&L  स्टेटमेंट और बैलेंस शीट को जोड़ना

अब हम देखेंगे कि बैलेंस शीट और P&L स्टेटमेंट आपस में कितनी तरह से जुड़े होते हैं। 

इस चित्र पर नजर डालिए।

ऊपर के चित्र में आप देख सकते हैं कि बाएं तरफ वह लाइन आइटम है जो आमतौर पर P&L स्टेटमेंट में होते हैं जबकि दाएं तरफ वो लाइन आइटम हैं जो आमतौर पर बैलेंस शीट में होते हैं। पिछले अध्यायों में दी गई जानकारी के आधार पर आप इन सभी लाइन आइटम के बारे में जानते हैं। अब हम यह देखेंगे कि यह लाइन आइटम एक दूसरे से कैसे जुड़ते हैं।

सबसे पहले बिक्री से होने वाली आमदनी यानी रेवेन्यू फ्रॉम सेल्स (Revenue from Sales) को देखते हैं। यदि कोई कंपनी है कुछ माल बेचती है, तो उसके लिए उसे कुछ खर्च भी करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर कंपनी को विज्ञापन देने पड़ते हैं जिससे लोगों को उसके प्रोडक्ट के बारे में पता चले। इस नगदी खर्च की वजह से कंपनी के पास रहने वाले नगद में कमी आती है। इसके अलावा कंपनी कुछ माल उधार पर भी देती है जिससे रिसिवेबल (Accounts Receivables) ऊपर चला जाता है।

कंपनी अपना उत्पाद या प्रॉडक्ट बनाने के लिए कच्चा माल समेत कई तरह का माल खरीदती है जिसे ऑपरेटिंग एक्सपेंसेस (Operating expenses) कहते हैं । कोई कंपनी जब इस तरह के खर्चे करती है तो दो चीजें होती हैं एक वो कच्चा माल खरीदती है जो कि कई बार उधार पर लिया जाता है जिससे  ट्रेड पेयबल (अकाउंट पेयबल) ऊपर बढ़ता है दूसरा इन्वेंटरी का स्तर भी बदलता है। इन्वेंटरी की कीमत कम होगी या ज्यादा यह इस पर निर्भर करता है कि कंपनी को अपना माल बेचने के लिए कितना समय चाहिए।

जब कंपनी कोई टैंजिबल एसेट खरीदती है या ब्रांड बिल्डिंग (Brand Building) जैसी किसी चीज में निवेश करके इनटैंजिबल एसेट बनाती है तो कंपनी इस खर्च को कई साल में बांट देती है जिसकी वजह से कंपनी के बैलेंस शीट पर डेप्रिसिएशन (depreciation) बढ़ता है।  याद रखिए कि बैलेंस शीट एक फ्लो के तरीके से बनती है, इसलिए बैलेंस शीट में यह डेप्रिसिएशन लगातार साल दर साल जुड़ता जाता है। इसीलिए डेप्रिसिएशन को बैलेंस शीट में एक्युमुलेटेड डेप्रिसिएशन (Accumulated depreciation) कहते हैं।

अदर इनकम या अन्य आय में जो चीजें शामिल होती हैं वह हैं इंटरेस्ट इनकम, सेल ऑफ सब्सिडियरी कंपनी, रेंटल इनकम आदि। इसीलिए कंपनी जब कोई निवेश है इन्वेस्टमेंट करती है तो अन्य आय पर असर पड़ता है।

कंपनी जब भी कोई कर्ज (लांग टर्म या शॉर्ट टर्म) लेती है तो  कंपनी को इसके लिए कुछ पैसे खर्च करने पड़ते हैं। यह जो पैसे खर्च होते हैं इसको फाइनेंस कॉस्ट या बौरोइंग कॉस्ट कहते हैं। इसीलिए जब कर्ज बढ़ता है तो फाइनेंस कॉस्ट भी बढ़ जाता है और जब कर्ज घटता है तो फाइनेंस कॉस्ट नीचे आ जाता है।

 आपको यह भी याद रखना चाहिए कि टैक्स के बाद का मुनाफा- प्रॉफिट आफ्टर टैक्स (Profit After Tax- PAT)  कंपनी के शेयर होल्डर इक्विटी को बढ़ाता है।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. बैलेंस शीट का एसेट वाला हिस्सा कंपनी के सभी एसेट को दिखाता है।
  2. कंपनी एसेट अपनी उपयोगी जीवन अवधि में कंपनी को आर्थिक फायदा पहुंचाते हैं। 
  3. एसेट को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है नॉन करेंट और करेंट एसेट। 
  4. किसी नॉन करेंट एसेट की उपयोगी जीवन अवधि 365 दिन या 12 महीने से ज्यादा होती है। 
  5. करेंट एसेट वह होते हैं जिनको कंपनी तुरंत या फिर बहुत जल्दी से नगदी में बदल सकती है और इनका इस्तेमाल 365 दिनों के अंदर यानी साल के भीतर किया जा सकता है। 
  6. एसेट की कीमत में से जब तक डेप्रिसिएशन कम नहीं किया जाता तब तक उसे ग्रॉस ब्लॉक कहते हैं।
  7. नेट ब्लॉक =  ग्रॉस ब्लॉक एक्युमुलेटेड डेप्रिसिएशन 
  8. सभी एसेट की कीमत मिलकर सभी लायबिलिटी की कीमत के बराबर होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही बैलेंस शीट को बैलेंस्ड कहा जाता है। 
  9. बैलेंस शीट और P&L स्टेटमेंट कई तरह से एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं

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6.1 बैलेंस शीट का समीकरण

कंपनी के P&L अकाउंट से हमें कंपनी के नफा-नुकसान के बारे में पता चलता है, जबकि बैलेंस शीट से हमें कंपनी के एसेट (Asset), लायबिलिटी (Laibility) और शेयरधारकों की हिस्सेदारी के बारे में पता चलता है। P&L स्टेटमेंट किसी एक वित्तीय वर्ष के बारे में जानकारी देता है इसलिए इसे एक अलग स्टेटमेंट माना जा सकता है। जबकि दूसरी तरफ बैलेंस शीट एक ऐसा स्टेटमेंट है जो कंपनी की शुरूआत से लेकर अबतक की स्थिति में आ रहे बदलाव को दिखलाता है। इससे ये पता चलता है कि कंपनी वित्तीय तौर पर किस तरह से  बदलती रही है। 

अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड (ARBL) के बैलेंस शीट पर नज़र डालते हैं-

आप देख सकते हैं कि बैलेंस शीट में एसेट, लायबिलिटी और इक्विटी के बारे में जानकारी दी गई है। 

पिछले अध्याय में हमने एसेट्स के बारे में बात की थी। कंपनी के पास मूर्त परिसंपत्ति यानी टैंजिबल एसेट्स (Tangible assets) और अमूर्त परिसंपत्ति यानी इनटैंजिबल एसेट्स (Intangible assets) दोनों होते हैं। एसेट यानी परिसंपत्ति कोई एक ऐसी वस्तु होती है जो कंपनी के पास होती है और उसकी कंपनी के लिए कीमत होती है। आमतौर पर जिन एसेट के बारे में हम जानते हैं, वो है- फैक्ट्री, मशीन, नकद, ब्रांड, पेटेंट आदि। इनके बारे में हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। 

देनदारियां या लायबिलिटी कंपनी की उन जिम्मेदारियों को कहा जाता है जिसे उसे पूरा करना है। कंपनी ये जिम्मेदारियां इसलिए लेती हैं क्योंकि उसे लगता है कि भविष्य में उसे इनके द्वारा आर्थिक फायदा मिलेगा। साधारण भाषा में कहे तो ये एक तरह का कर्ज है, जिसे भविष्य में कंपनी को चुकाना होगा। देनदारियों के उदाहरण है- छोटी और बड़ी अवधि का कर्ज, किसी भी तरह का भुगतान आदि।  देनदारियां या लायबिलिटी 2 तरह की होती है- 1) करेंट लायबिलिटी 2) नॉन करेंट लायबिलिटी। इन पर हम आगे चर्चा करेंगे। 

आमतौर पर बैलेंस शीट में कंपनी की कुल परिसंपत्ती, कंपनी की कुल देनदारियों के बराबर होती है। 

एसेट=लायबिलिटी

Assets = Liabilities

इस समीकरण को बैलेंस शीट का समीकरण या अकाउंटिंग समीकरण कहते हैं। ये समीकरण बताता है कि बैलेंस शीट हमेशा बैलेंस्ड यानी संतुलित होनी चाहिए। यानी परिसंपत्ति और देनदारियां बराबर होनी चाहिए। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कंपनी हर एसेट यातो मालिक की पूंजी से खरीदती है या किसी लायबिलिटी से। 

एसेट और लायबिलिटी के बीच का अंतर होता है वो है मालिक की पूंजी, जिसे हम ओनर्स कैपिटल (Owners Capital) कहते हैं। इसे शेयर होल्डर्स इक्विटी या कंपनी की नेटवर्थ भी कहते हैं। समीकरण के रूप में देखें तो 

शेयर होल्डर्स इक्विटी = एसेट-लायबिलिटी

Share holders equity = Assets – Liabilities

6.2 शेयर होल्डर फंड की जानकारी 

जैसा कि हम जानते हैं कि बैलेंस शीट में दो हिस्से होते हैं- एसेट और लायबिलिटी। लायबिलिटी कंपनी की जिम्मेदारियों को बताता है। बैलेंस शीट में लायबिलिटी के अंतर्गत शेयर होल्डर फंड भी आता है। इसे आप नीचे की चित्र में देख सकते हैं। कुछ लोग इसे लेकर थोड़ा संशय में रहते हैं। 

ये संशय इसलिए पैदा होता है क्योंकि जब हम लायबिलिटी की बात कर रहे हैं, तो हम वास्तव में हम ये कह रहे हैं कि कंपनी के ऊपर क्या क्या जिम्मेदारियां हैं, जबकि शेयर होल्डर फंड कंपनी की पूंजी को दिखाता है। इसलिए इन दोनों को बैलेंस शीट में एक साथ देखना थोड़ा संशय पैदा करता है क्योंकि शेयर होल्डर फंड तो वास्तव में एसेट होना चाहिए, ना कि लायबिलिटी। 

इसको समझने के लिए आपको कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट को देखने का नज़रिया बदलना होगा। मान लीजिए कि कंपनी एक इंसान है, जिसका काम है अपने शेयर धारकों के लिए पूंजी कमा कर देना। इस तरह से देखने पर आप कंपनी के शेयर धारकों को (जिसमें कंपनी के प्रमोटर भी शामिल हैं) कंपनी से अलग कर के देख रहे हैं। इस नज़रिये से देखने पर आपको समझ में आएगा कि कंपनी किसी भी वित्तीय स्टेटमेंट में अपनी वित्तीय हालत की जानकारी देती है। 

इसका ये भी मतलब है कि शेयर होल्डर फंड कंपनी की संपत्ति नहीं है, ये कंपनी के शेयर धारकों की संपत्ति है। इसलिए कंपनी को शेयर होल्डर्स फंड को एक ऐसी जिम्मेदारी के तौर पर दिखाना पड़ता है जिसे वो बाद में चुकाने वाली है। इसलिए इसे बैलेंस शीट में लायबिलिटी के तौर पर दिखाया जाता है। 

6.3 बैलेंस शीट का लायबिलिटी वाला हिस्सा

बैलेंस शीट के लायबिलिटी वाले हिस्से में कंपनी अपने लायबिलिटीज को 3 हिस्सों में दिखाती है – शेयर होल्डर्स फंड, नॉन करेंट लायबिलिटी और करेंट लायबिलिटी। पहला हिस्सा शेयर होल्डर्स फंड का होता है।

शेयर कैपिटल को ठीक से समझने के लिए एक ऐसी कंपनी की कल्पना कीजिए जो पहली बार अपने शेयर जारी कर रही है। मान लीजिए कंपनी का नाम ABC है और वह 10 रूपये के फेसवैल्यू वाले 1000 शेयर जारी करती है। तो शेयर कैपिटल हुआ 10 × 1000 = 10000. (फेस वैल्यू × शेयरों की संख्या)

ARBL के मामले में शेयर कैपिटल 17.081 करोड़ रूपये का है। जबकि फेस वैल्यू है 1 रूपया। 

हम फेस वैल्यू और शेयर कैपिटल वैल्यू का इस्तेमाल करके कुल आउटस्टैंडिंग शेयरों की संख्या जान सकते हैं। हमें पता है

शेयर कैपिटल = FV (फेस वैल्यू) * शेयरों की संख्या

इसलिए, शेयरों की संख्या = शेयर कैपिटल/ FV (फेस वैल्यू)

इसलिए ARBL के मामले में,

शेयरों की संख्या = 17,08,10,000 / 1

= 17,08,10,000 शेयर

बैलेंस शीट की लायबिलिटी वाले हिस्से में अगला लाइन आइटम है- “रिजर्व और सरप्लस”। रिजर्व उस रकम कहते हैं जो कंपनी किसी खास काम के लिए बचा कर रखती है। सरप्लस उस रकम को कहते हैं जहां कंपनी का मुनाफा दिखाया जाता है। ARBL के लिए रिजर्व और सरप्लस की रकम है 1345.6 करोड़ रूपये। रिजर्व और सरप्लस के साथ जुड़ा हुआ नोट नंबर 3 है। इसको नीचे की तस्वीर में देखते हैं। 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि कंपनी ने कुल रकम को 3 तरह के रिजर्व में बांटा है। 

  1. कैपिटल रिजर्व – ये वो पैसे हैं जिसे कंपनी लंबी अवधि के प्रोजेक्ट के लिए रखती है। ARBL  ने कैपिटल रिजर्व में ज्यादा रकम नहीं दिखाई है। वैसे यह रकम शेयर होल्डर्स की होती है लेकिन उनको बांटी नहीं जा सकती। 
  2. सिक्योरिटीज प्रीमियम रिजर्व/अकाउंट – कंपनी के शेयर की फेस वैल्यू पर जो भी प्रीमियम होता है, वो रकम इस रिजर्व में रखी जाती है। ARBL ने इसके तहत 31.18 करोड़ रूपये रखे हैं। 
  3. जनरल रिजर्व – यह वो रिजर्व जहां पर कंपनी का अब तक जमा सारा मुनाफा (जो शेयर होल्डर में बांटा नहीं गया है) दिखाया जाता है। कंपनी इस रकम को किसी वित्तीय संकट में इस्तेमाल करती है। ARBL ने इसके तहत 218.4 करोड़ रूपये रखे हैं। 

बैलेंस शीट का अगला हिस्सा है सरप्लस का। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि सरप्लस में साल के मुनाफे की सारी रकम दिखाई जाती है। यहां पर कुछ बातों पर आपको ध्यान देना चाहिए। 

  1. पिछले साल (FY13) के बैलेंस शीट में सरप्लस 829.8 करोड़ था। नीचे चित्र में इसको सरप्लस के पहली लाइन के तौर पर दिखाया गया है। 

  1. इस वित्तीय साल (FY14) का मुनाफा जो कि 367.4 करोड़ का है, उसको पिछले साल के सरप्लस के क्लोजिंग बैलेंस में जोड़ा गया है। यहां कुछ बातों पर ध्यान दें-
    1. ध्यान दें कि P&L स्टेटमेंट किस तरह से बैलेंस शीट से जुड़ा हुआ है। ये एक ज़रूरी बात की तरफ इशारा कर रहा है और वो ये है कि तीनों वित्तीय स्टेटमेंट आपस में जुड़े होते हैं। 
    2. ध्यान दें कि किस तरह पिछले साल के बैंलेस शीट की रकम को इस साल की रकम में जोड़ा गया है। ये दिखाता है कि बैलेंस शीट को एक फ्लो के तरीके से बनाया जाता है, जहां पर पिछले साल की रकम को अगले साल में ले आया जाता है। 
  2. पिछले साल का बैलेंस और इस साल का मुनाफा मिल कर 1197.2 करोड़ की रकम बनती है। कंपनी इस रकम का इस्तेमाल अलग-अलग चीजों के लिए कर सकती है। 
    1. सबसे पहले कंपनी में  कुछ रकम जनरल रिजर्व में डाल देती है, जिससे ये रकम भविष्य में काम आ सके। कंपनी ने इसे लिए 36.7 करोड़ रूपये रखे हैं। 
    2. जनरल रिजर्व में पैसे डालने के बाद कंपनी ने 55.1 करोड़ रूपये डिविडेंड के तौर पर बांटे हैं, जिसके ऊपर उन्हें 9.3 करोड़ रूपये का डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स देना पड़ा है। 
  3. इसके बाद कंपनी के पास 1095.9 करोड़ रूपये का सरप्लस बचता है। ये अगले साल (FY15) के बैलेंस शीट में सरप्लस का ओपनिंग बैलेंस होगा। 
  4. कुल रिजर्व और सरप्लस = कैपिटल रिजर्व+सिक्योरिटीज प्रीमियम रिजर्व+जनरल रिजर्व+ साल का सरप्लस। FY14 के लिए ये रकम बनती है 1345.6 करोड़ जबकि FY13 में ये रकम थी 1042.7 करोड़। 

शेयर कैपिटल, रिजर्व और सरप्लस को मिलाकर जो रकम बनती है वो कुल शेयर होल्डर फंड होता है। चुंकि ये रकम कंपनी के शेयर होल्डर्स की होती है इसलिए इसे बैलेंस शीट के लायबिलिटी वाले हिस्से में दिखाया जाता है। 

6.4 नॉन करेंट लायबिलिटी (Non Current Laibilities)

नॉन करेंट लायबिलिटी कंपनी की लंबी अवधि की वो जिम्मेदारियां होती हैं जिनको कंपनी 365 दिन/12महीने के अंदर पूरा नहीं करने वाली है। ये जिम्मेदारियां कंपनी के हिसाब-किताब में सालों तक दिखती हैं। 

ABRL के नॉन करेंट लायबिलिटी को इस चित्र में देखते हैं। 

कंपनी ने 3 तरह की नॉन करेंट लायबिलिटी दिखाई है। आइए उन पर एक नज़र डालते हैं। 

लंबी अवधि का कर्ज– लांग टर्म बॉरोइंग (नोट 4 से जुड़ा हुआ) – ये नॉन करेंट लायबिलिटी का पहला लाइन आइटम है। ये बैलेंस शीट का सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा होता है क्योंकि इसमें कंपनी ने जितनी भी जगहों से कर्ज लिया है, वो सब दिखाया जाता है। लंबी अवधि के कर्ज के आंकड़े का इस्तेमाल कुछ वित्तीय रेश्यो निकालने के लिए भी किया जाता है। इस मॉड्यूल में आगे हम इस पर चर्चा करेंगे। 

लंबी अवधि के कर्ज से जुड़े नोट पर नज़र डालिए। 

इस नोट से साफ है कि यहां पर लांग टर्म बॉरोइंग का मतलब है इंट्रेस्ट फ्री सेल्स टैक्स डिफरमेंट ()। इसको समझाने के लिए कंपनी ने नोट के ठीक नीचे कुछ लिखा है जिसको लाल रंग से हाईलाइट किया गया है। ऐसा लगता है कि ये राज्य सरकार से मिलने वाला कोई टैक्स इंसेटिव है जिसको कंपनी 14 साल से कुछ ज्यादा समय में चुकाने वाली है। 

आपको बहुत सारी ऐसी कंपनियां मिल जाएंगी जिनके पास लांग टर्म बॉरोइंग या कर्ज नहीं होता। वैसे तो ये अच्छी बात है कि कंपनी पर कर्ज नहीं है लेकिन आपको पूछना पड़ेगा कि कर्ज क्यों नहीं है। क्या बैंक कंपनी को कर्ज नहीं देना चाहते या कंपनी अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही है। हम जब बैलेंस शीट की एनालिसिस करेंगे, तब इस सवाल का जवाब ढूंढ़ेगें। 

याद रखिए कि जब कंपनी का कर्ज ज्यादा होता है तो उसका फाइनेंस कॉस्ट भी ज्यादा होता है। जब हम P&L पर चर्चा कर रहे थे तो हमने फाइनेंस कॉस्ट के लाइन आइटम के तहत ये बात जानी थी। 

नॉन करेंट लायबिलिटी में अगला लाइन आइटम है – डेफर्ड टैक्स लायबिलिटी (Deferred tax liability)। कंपनी जब भविष्य में आने वाले टैक्स भुगतान के लिए रकम का इंतजाम करती है, तो उसे डेफर्ड टैक्स लायबिलिटी कहते हैं। आपको यहां सोचना चाहिए कि कंपनी ऐसा क्या करती है जिससे उसे भविष्य में ज्यादा टैक्स देना पड़े और उसके लिए इंतजाम अभी करना पड़े। 

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कंपनीज एक्ट और इनकम टैक्स के तहत डेप्रिसिएशन (Depreciation) को एक खास तरीके से देखा जाता है। अभी हम इस पर ज्यादा बात नहीं करेंगे लेकिन याद रखिए कि डेफर्ड टैक्स लायबिलिटी का सीधा संबंध डेप्रिसिएशन से है। 

नॉन करेंट लायबिलिटी का अंतिम लाइन आइटम है- लांग टर्म प्रोविजन्स (Long term provisions)। ये वो रकम है जो कंपनी कर्मचारियों पर खर्च करती है। इसमें ग्रैच्यूटी, लीव एनकैशमेंट, प्रॉविडेंड फंड जैसी चीजें शामिल हैं। 

6.5 करेंट लायबिलिटी (Current Liabilities)

करेंट लायबिलिटी कंपनी की वो जिम्मेदारियां हैं जिन्हें कंपनी को 365 दिन यानी 1 साल के अंदर पूरा करना होता है। यहां करेंट का मतलब है कि ये जिम्मेदारियां जल्दी पूरी की जाएंगी। याद रखें कि नॉन करेंट में जिम्मेदारियां 1 साल के बाद पूरी की जाती है। 

एक उदाहरण देखते हैं- अगर आप मोबाइल फोन EMI (क्रेडिट कार्ड के जरिए) पर खरीदते हैं तो ये बात साफ होती है कि आप क्रेडिट कार्ड कंपनी को कुछ महीने में कर्ज चुकाने का इरादा रखते हैं। ये हुई आपकी करेंट लायबिलिटी, लेकिन अगर आप एक फ्लैट खऱीदते हैं और हाउसिंग फाइनेंस कंपनी को वो कर्ज 15 साल में चुकाना चाहते हैं तो ये आपकी नॉन करेंट लायबिलिटी होगी। 

नीचे ARBL की करेंट लायबिलिटी देखिए

आप देख सकते हैं कि करेंट लायबिलिटी में 4 लाइन आइटम हैं। पहला है – शॉर्ट टर्म बॉरोइंग (Short Term Borrowing)। जैसा कि नाम से ही साफ है कि ये नकद की उस जरूरत को दिखाता है जो कंपनी को रोजमर्रा की जरूरतों के लिए चाहिए (वर्किंग कैपिटल- Working Capital)। नीचे हमने नोट 7 का एक हिस्सा दिखाया है जिसमें शॉर्ट टर्म बॉरोइंग का मतलब समझाया गया है। 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि कंपनी ने वर्किंग कैपिटल के तौर पर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और आंध्रा बैंक से शॉर्ट टर्म लोन लिया है। शॉर्ट टर्म बॉरोइंग कम से कम रखने की कोशिश की जाती है। यहां पर ये रकम 8.3 करोड़ रूपये की है। 

अगला लाइन आइटम है – ट्रेड पेयेबल -Trade Payable (इसे अकाउंट पेयेबल – Account Payable- भी कहते हैं)। यहां पर ये रकम 127.7 करोड़ रूपये है। ये वो रकम है जो कंपनी को अपने वेंडर्स/सप्लायर्स को देनी है। जैसे कच्चा माल बेचने वाला सप्लायर, बिजली-पानी देने वाली कंपनियां, स्टेशनरी देने वाली कंपनी आदि। नीचे नोट 8 में इसे विस्तार से दिखाया गया है। 

 अगला लाइन आइटम है अदर करेंट लायबिलिटी, जो कि यहां 215.6 करोड़ रूपये है। आमतौर पर ये लायबिलिटी उन कानूनी जरूरतों से जुड़ी होती है जिनका कंपनी के कारोबार से कोई सीधा संबंध नहीं होता। नीचे नोट 9 में आप इसे समझ सकते हैं। 

करेंट लायबिलिटी में अंतिम लाइन आइटम है- शॉर्ट टर्म प्रॉविजन्स ()। यहां ये 281.8 करोड़ रूपये है। ये लांग टर्म प्रॉविजन्स की तरह ही होता है। दोनों में ही कंपनी के कर्मचारियों के लिए ग्रैच्यूटी, प्रॉविडेंड फंड जैसी चीजों का इंतजाम किया है। आप देखेंगे कि दोनों में एक ही नोट है। 

क्योंकि लांग टर्म और शॉर्ट टर्म प्रॉविजन्स से जुड़ा नोट 6 कई पन्नों तक चलता है इसलिए मैं इसके विस्तार में नहीं जा रहा हूं। आप चाहें तो ARBL के FY14  के वार्षिक रिपोर्ट के पेज 80,81,82 और 83 पर नज़र डाल सकते हैं। 

वैसे वित्तीय स्टेटमेंट के संदर्भ में आपको सिर्फ ये जानना जरूरी है कि ये दोनों (लांग टर्म और शॉर्ट टर्म प्रॉविजन्स) कर्मचारियों को मिलने वाली सुविधाओं से जुड़े होते हैं। आप इनसे जुड़े नोट के ज़रिए इनके बारे में पूरी जानकारी पा सकते हैं। 

अब तक हमने आधी बैलेंस शीट को समझ लिया है जिसमें लायबिलिटी वाले हिस्से से जुड़ी बातें थीं। एक बार बैलेंस शीट पर फिर से नज़र डालिए ताकि आपको ये ठीक से समझ में आ जाए। 

साफ है,

कुल लायबिलिटी = शेयर होल्डर्स फंड + नॉन करेंट लायबिलिटी + करेंट लायबिलिटी

= 1362.7+143.03+633.7

कुल लायबिलिटी = 2139.4 करोड़ रूपये 

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. बैलेंस शीट को स्टेटमेंट ऑफ फाइनेंशियल पोजिशन भी कहते हैं। इसे एक फ्लो के तरीके से बनाया जाता है ताकि किसी भी निश्चित समय पर कंपनी की वित्तीय स्थिती का सही पता चल सके। ये स्टेटमेंट दिखाता है कि कंपनी के पास कौन से एसेट है और क्या लायबिलिटी। 
  2. कंपनी को जब निवेशकों से पैसे चाहिए होते हैं या कर्ज लेना होता है या टैक्स जमा करना होता है, तब उसे बैलेंस शीट की जरूरत पड़ती है। 
  3. बैलेंस शीट का समीकरण है, एसेट = लायबिलिटी+शेयर होल्डर इक्विटी
  4. लायबिलिटी कंपनी की जिम्मेदारियां या कर्ज है, जबकि शेयर कैपिटल है शेयरों की संख्या× फेस वैल्यू
  5. रिजर्व्स का मतलब है वो रकम जो कंपनी ने किसी खास वजह के लिए रखी है, और इसका इस्तेमाल भविष्य में होना है। 
  6. सरप्लस वो है जहां पर कंपनी के मुनाफे को दिखाया जाता है। कंपनी के बैलेंस शीट और P&L, दोनों में इसका इस्तेमाल होता है। सरप्लस से ही डिविडेंड दिया जाता है।
  7. शेयर होल्डर्स इक्विटी = शेयर कैपिटल+रिजर्व+सरप्लस।
  8. नॉन करेंट लायबिलिटी या लांग टर्म लायबिलिटी वो हैं जिसे कंपनी को अगले 365 दिनों में नहीं चुकाना है। 
  9. डेफर्ड टैक्स लायबिलिटी डेप्रिसिएशन को एक खास तरह से देखे जाने की वजह से पैदा होती है। कंपनी के अकाउंट और इनकम टैक्स विभाग के नज़रों में डेप्रिसिएशन को अलग-अलग तरीके से देखा जाता है, इसलिए डेफर्ड टैक्स लायबिलिटी पैदा होती है। 
  10. करेंट लायबिलिटी वो जिम्मेदारी है जिसे कंपनी को 365 दिनों के अंदर पूरा करना होता है। 
  11. आमतौर पर लांग और शॉर्ट टर्म प्रॉविजन में वो लायबिलिटी होती है जो कर्मचारियों की सुविधाओं से जुड़ी होती है। 
  12. कुल लायबिलिटी = शेयर होल्डर्स फंड + नॉन करेंट लायबिलिटी + करेंट लायबिलिटी। ये वो रकम है जो कंपनी को दूसरे लोगों को अदा करनी है। 

 

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कैश फ्लो स्टेटमेंट https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b6-%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%8b-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b6-%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%8b-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:51:44 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5899 8.1 – संक्षिप्त विवरण कंपनी का कैश फ्लो स्टेटमेंट एक बहुत ही महत्वपूर्ण वित्तीय स्टेटमेंट होता है। इससे पता चलता है कि कंपनी कितना कैश/नगदी कमा रही है। आप पूछ सकते हैं कि क्या यह जानकारी P&L स्टेटमेंट में नहीं होती है, इसका जवाब हां भी है और ना भी। एक कॉफी शॉप का उदाहरण देखते हैं , जहाँ लेन-देन नगद में होता है। अगर आपको कॉफी चाहिए या खाने के लिए कुछ चाहिए तो आपके पास उतने पैसे होने चाहिए। मान लीजिए किसी एक दिन इस कॉफी शॉप में 2500 रुपए की कॉफी और ₹3000 की खाने की चीजें बिकीं।    इसका मतलब है कि कंपनी की उस दिन की कमाई ₹5500 हुई। यह ₹5500 कंपनी के P&L में आमदनी के रूप में दिखाई देंगे। इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं होगी। अब एक दूसरा उदाहरण लेते हैं मान लीजिए एक दुकान है जो लैपटॉप बेचती है। मान लेते हैं कि इस दुकान पर सिर्फ एक तरीके का लैपटॉप बिकता है, जिसकी कीमत है ₹25000। मान लीजिए किसी एक दिन इस दुकान पर 20 लैपटॉप बिके यानी कुल ₹500000 की कमाई हुई लेकिन अगर इसमें से पांच लैपटॉप क्रेडिट पर बिके तो क्या होगा? क्रेडिट पर बिक्री का मतलब है कि ग्राहक सामान को अपने घर ले जाता है और पैसे बाद में एकमुश्त या किस्तों पर चुकाता है। अब यह बिक्री का आंकड़ा कैसा दिखेगा?  नगद में बिक्री : 15 × 25000 = 375,000 रूपये क्रेडिट में बिक्री : 5 × 25000 = 125,000 रूपये  कुल बिक्री :  500,000 रूपये इस दुकान के P&L स्टेटमेंट में आपको कुल कमाई ₹500,000 दिखेगी, जो कि देखने में अच्छी लगेगी। लेकिन इन ₹500,000 में से कितनी रकम […]

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8.1 – संक्षिप्त विवरण

कंपनी का कैश फ्लो स्टेटमेंट एक बहुत ही महत्वपूर्ण वित्तीय स्टेटमेंट होता है। इससे पता चलता है कि कंपनी कितना कैश/नगदी कमा रही है। आप पूछ सकते हैं कि क्या यह जानकारी P&L स्टेटमेंट में नहीं होती है, इसका जवाब हां भी है और ना भी।

एक कॉफी शॉप का उदाहरण देखते हैं , जहाँ लेन-देन नगद में होता है। अगर आपको कॉफी चाहिए या खाने के लिए कुछ चाहिए तो आपके पास उतने पैसे होने चाहिए। मान लीजिए किसी एक दिन इस कॉफी शॉप में 2500 रुपए की कॉफी और ₹3000 की खाने की चीजें बिकीं।   

इसका मतलब है कि कंपनी की उस दिन की कमाई ₹5500 हुई। यह ₹5500 कंपनी के P&L में आमदनी के रूप में दिखाई देंगे। इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं होगी।

अब एक दूसरा उदाहरण लेते हैं मान लीजिए एक दुकान है जो लैपटॉप बेचती है। मान लेते हैं कि इस दुकान पर सिर्फ एक तरीके का लैपटॉप बिकता है, जिसकी कीमत है ₹25000। मान लीजिए किसी एक दिन इस दुकान पर 20 लैपटॉप बिके यानी कुल ₹500000 की कमाई हुई लेकिन अगर इसमें से पांच लैपटॉप क्रेडिट पर बिके तो क्या होगा? क्रेडिट पर बिक्री का मतलब है कि ग्राहक सामान को अपने घर ले जाता है और पैसे बाद में एकमुश्त या किस्तों पर चुकाता है। अब यह बिक्री का आंकड़ा कैसा दिखेगा? 

नगद में बिक्री : 15 × 25000 = 375,000 रूपये

क्रेडिट में बिक्री : 5 × 25000 = 125,000 रूपये 

कुल बिक्री :  500,000 रूपये

इस दुकान के P&L स्टेटमेंट में आपको कुल कमाई ₹500,000 दिखेगी, जो कि देखने में अच्छी लगेगी। लेकिन इन ₹500,000 में से कितनी रकम कंपनी के बैंक अकाउंट में नगद होगी, यह साफ पता नहीं चलेगा अगर कंपनी के पास ₹400,000 का कर्ज है, जिसको उसे तुरंत अदा करना है। कंपनी ऐसा नहीं कर पाएगी क्योंकि उसके बैंक अकाउंट में सिर्फ ₹375,000 हैं हालाँकि उसने बिक्री ₹500,000 की है। इसका मतलब यह हुआ कि कंपनी अपने देनदारियां पूरी नहीं कर पाएगी क्योंकि उसके पास पर्याप्त नकद नहीं है।

इस तरह की जानकारी सिर्फ कैश फ्लो स्टेटमेंट में ही मिलती है। इसीलिए कंपनी का कैश फ्लो स्टेटमेंट महत्वपूर्ण माना जाता है और किसी भी कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट के तौर पर इसे ध्यान से देखना चाहिए क्योंकि तभी आपको कंपनी की नगद या कैश की स्थिति पता चलेगी।

ध्यान रखिए कि कंपनी की आर्थिक हालत का पता सिर्फ उसके मुनाफे से नहीं चलता बल्कि यह भी देखना होता है कि कंपनी के पास कितना कैश या नगद है और कंपनी का कैश फ्लो कैसा है? ये कंपनी की हालत जानने का ज़्यादा अच्छा तरीक़ा है।

8.2 – कंपनी के कामकाज (एक्टिविटीज- Activities)

हम कैश फ्लो को आगे और समझे इसके पहले यह जानना जरूरी है कि कंपनी के कामकाज में किस किस तरीके की चीजें होती हैं। अगर आप ध्यान से सोचेंगे तो आपको दिखेगा कि कंपनी के कारोबार को तीन मुख्य हिस्सों में बांटा जा सकता है। हम एक उदाहरण से समझते हैं

मान लीजिए एक ऐसी कंपनी है जो कि फिटनेस सेंटर चलाती है। आपको क्या लगता है वहाँ किस किस तरीके का कामकाज होता है। मैं इसके कामकाज की लिस्ट बनाता हूं।

  1. नए ग्राहकों को लुभाने के लिए विज्ञापन देना  
  2. ग्राहकों को सेवा देने के लिए फिटनेस ट्रेनर को नौकरी पर रखना 
  3. पुरानी हो चुकी मशीनों की जगह नई फिटनेस मशीनों को लगाना 
  4. बैंक से इस काम के लिए छोटी अवधि के कर्ज लेना 
  5. और पैसे जुटाने के लिए कुछ सर्टिफिकेट आफ डिपॉजिट जारी करना 
  6. पैसे जुटाने के लिए कुछ दोस्तों को और शेयर जारी करना 
  7. नए-नए इनोवेशन लाने की कोशिश में लगी कुछ नई स्टार्टअप कंपनियों में पैसे लगाना 
  8. बचे हुए पैसों को किसी फिक्स्ड डिपॉजिट में रखना 
  9. किसी नए इलाके में बिल्डिंग में पैसे लगाना जिससे वहां पर एक फिटनेस सेंटर खोला जा सके 
  10. और फिटनेस सेंटर में नया साउंड सिस्टम लगाना 

आप देख सकते हैं कि यह सब उसके बिजनेस से जुड़ा हुआ काम काज है। लेकिन यह बहुत अलग-अलग तरीके की चीजें हैं।

इनको हम तीन हिस्सों में बांट सकते हैं:

ऑपरेशनल एक्टिविटीज (Operational activities/ OA) यानी कारोबारी कामकाज : यह वह काम काज है जो हर दिन के मुख्य बिजनेस या कारोबार से जुड़ा हुआ काम है। इसे ऑपरेशनल एक्टिविटी कहते हैं। इसमें सेल्स यानी बिक्री, मार्केटिंग, मैन्युफैक्चरिंग यानी उत्पादन, टेक्नोलॉजी और रिसोर्स हायरिंग यानी लोगों को या मशीनों को काम पर लाना आदि शामिल होता है 

इन्वेस्टिंग एक्टिविटी (Investing activities/ IA)यानी  निवेश से जुड़ा कामकाज: इसमें वह काम का शामिल होता है जो कंपनी इस इरादे से करती है कि उसे बाद में इसका फायदा मिलेगा। जैसे ब्याज कमाने के लिए निवेश करना, जमीन या प्रॉपर्टी में निवेश करना, मशीनों, इनटैंजिबल एसेट या नॉन करेंट एसेट में निवेश करना।

फाइनेंसिंग एक्टिविटीज (Financing activities /FA) यानी वित्तीय कामकाज: इसमें वह काम का शामिल होता है जो कंपनी वित्तीय तौर पर करती है जैसे डिविडेंड बांटना, कर्ज का ब्याज अदा करना, नए कर्ज उठाना या कॉरपोरेट बांड जैसी चीजों को जारी करना

किसी भी अच्छी कंपनी के कामकाज को इन तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है।

इन तीन हिस्सों के आधार पर हम पहले बताई गई कंपनी के कामकाज को बांटते हैं।

  1. नए ग्राहकों को लुभाने के लिए विज्ञापन देना  OA
  2. ग्राहकों को सेवा देने के लिए फिटनेस ट्रेनर को नौकरी पर रखना OA
  3. पुरानी हो चुकी मशीनों की जगह नई फिटनेस मशीनों को लगाना OA
  4. बैंक से इस काम के लिए छोटी अवधि के कर्ज लेना FA
  5. और पैसे जुटाने के लिए कुछ सर्टिफिकेट आफ डिपॉजिट जारी करना FA
  6. पैसे जुटाने के लिए कुछ दोस्तों को और शेयर जारी करना FA 
  7. नए नए इनोवेशन लाने की कोशिश में लगी कुछ नई स्टार्टअप कंपनियों में पैसे लगाना IA
  8. बचे हुए पैसों को किसी फिक्स्ड डिपॉजिट में रखना IA
  9. किसी नए इलाके में बिल्डिंग में पैसे लगाना जिससे वहां पर एक फिटनेस सेंटर खोला जा सके IA
  10. और फिटनेस सेंटर में नया साउंड सिस्टम लगाना OA

अब यह सोचिए कि कंपनी जो भी काम कर रही है उसका कंपनी की कैश की स्थिति पर क्या असर पड़ेगा क्योंकि या तो कैश निकल रहा होगा या कैश आ रहा होगा। कंपनी जो कुछ भी करती है उसका एक असर कैश/नगद की स्थिति पर जरूर पड़ता है। उदाहरण के लिए अगर कंपनी को साउंड उपकरण खरीदने हैं तो इसके लिए कंपनी को पैसे अदा करने होंगे और उसकी नगदी की स्थिति या कैश बैलेंस कम होगा। साथ ही, यह साउंड सिस्टम कंपनी के लिए एक एसेट के तौर पर काम करेगा।

इस परिप्रेक्ष्य में अब हम उपर के उदाहरण को फिर देखते हैं और समझते हैं कि हर काम कैसे कैश बैलेंस और बैलेंस शीट पर असर डालता है। 

नंबर

एक्टिविटी का प्रकार जरूरत कैश बैलेंस बैलेंस शीट में
01 OA विज्ञापन पर खर्च घटाएगा एक एसेट है, कंपनी की ब्रांड वैल्यू बढ़ाता है
02 OA नए लोगों को नौकरी पर रखने का खर्च घटेगा एक एसेट है, कंपनी की इंटेलेक्चुअल वैल्यू बढ़ाता है
03 OA नई मशीनों पर खर्च घटेगा एक एसेट है
04 FA कर्ज का मतलब बिजनेस में कैश आएगा बढ़ेगा कर्ज यानी लायबिलिटी
05 FA CD के जरिए डिपॉजिट का मतलब कैश आएगा बढ़ेगा CD यानी लायबिलिटी
06 FA नई पूंजी जारी करने से कैश आएगा बढ़ेगा शेयर कैपिटल बढ़ना मतलब लायबिलिटी
07 IA स्टार्टअप कंपनियों में पैसे लगाने से कैश जाएगा घटेगा निवेश एक एसेट है
08 IA FD में पैसे डालने से कैश जाएगा घटेगा कैश जैसा ही निवेश है इसलिए एक एसेट है
09 IA बिल्डिंग में निवेश का मतलब बिजनेस से कैश जाएगा  घटेगा ग्रॉस ब्लॉक एक एसेट है
10 OA साउंड सिस्टम पर खर्च घटेगा एक एसेट है

ऊपर की सारणी में हमने उसको कलर से कोड किया है:

  1. कैश बढ़ने का मतलब है नीला रंग 
  2. कैश घटने का मतलब है लाल रंग 
  3. एसेट के लिए है हरा रंग 
  4. लायबिलिटी जोड़ने का मतलब है बैंगनी रंग

अगर आप ऊपर की सारणी को कैश बैलेंस और एसेट/लायबिलिटी के संबंधों के हिसाब से देखेंगे तब आपको पता चलेगा कि: 

  1. जब भी कंपनी की लायबिलिटी बढ़ती है तो कंपनी का कैश बैलेंस भी बढ़ता है
    1. इसका यह भी मतलब है कि जब कंपनी कोई लायबिलिटी करती है तो कैश बैलेंस भी घटता है
  1. जब भी कंपनी के एसेट बढ़ते हैं तो कैश बैलेंस घटता है 
    1. एसेट कम होते हैं तो कैश बैलेंस बढ़ता है

ये निष्कर्ष कैश फ्लो स्टेटमेंट बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि कंपनी का हर काम, चाहे वो ऑपरेटिंग एक्टिविटी हो, फाइनेंस एक्टिविटी हो या फिर इन्वेस्टिंग एक्टिविटी, इन सब से या तो कंपनी का कैश बढ़ता है या घटता है।

इस तरह से अब कंपनी का कैश फ्लो ऐसे जोड़ा जाएगा।

कंपनी का कैश फ्लो = ऑपरेटिंग ऐक्टिविटी का नेट कैश फ्लो + इन्वेस्टिंग ऐक्टिविटी का नेट कैश फ्लो + फाइनेंसिंग ऐक्टिविटी का नेट कैश फ्लो   

8.3 – कैश फ्लो स्टेटमेंट

कैश फ्लो स्टेटमेंट के बारे में यह जरूरी बातें जानने के बाद अब आप कैश फ्लो स्टेटमेंट को ज्यादा अच्छे तरीके से समझ पाएंगे।

कोई भी कंपनी जब अपना कैश फ्लो स्टेटमेंट बनाती है तो उस स्टेटमेंट को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। जिससे यह साफ साफ दिख सके कि कंपनी ने ऊपर बताए गए तीनों कामकाज के अंदर कितना कैश बनाया या खर्च किया। इसी आधार पर अब हम ARBL के कैश फ्लो स्टेटमेंट पर नजर डालते हैं।

मैंने यहां कई लाइन आइटम को इसलिए छोड़ा है क्योंकि उसके बारे में समझाने के लिए की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन यहां ध्यान दीजिए कि ARBL ने ऑपरेटिंग ऐक्टिविटी से 278.7 करोड़ जुटाए हैं। याद रखने वाली बात यह है कि किसी भी कंपनी के पास अगर मुख्य कारोबार यानी ऑपरेटिंग एक्टिविटीज से पॉजिटिव कैश फ्लो है तो यह बताता है कि कंपनी अच्छा काम काज कर रही है।

यहाँ आप ARBL के ऑपरेटिंग ऐक्टिविटी से हुए कैश फ्लो को देख सकते हैं।

जैसा कि आप देख सकते हैं कि ARBL ने इन्वेस्टिंग एक्टिविटी यानी निवेश में 344.8 करोड रुपए खर्च किए हैं। आपको समझ में आ ही गया होगा कि इस वजह से कंपनी के पास कैश कम हुआ है। साथ ही, ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अगर कंपनी अच्छा निवेश कर रही है तो इसका मतलब साफ है कि कंपनी आगे चलकर अपने कारोबार को बढ़ाना चाहती है। लेकिन कंपनी ने अच्छा निवेश किया है या बुरा इसे हम आगे समझेंगे।

अब ARBL की फ़ाइनेंसिंग एक्टिविटी के कैश बैलेंस को देखते हैं। 

आप देख सकते हैं कि फाइनेंसिंग एक्टिविटी के तहत ARBL ने 53.1 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इसमें से ज्यादातर कैश को डिविडेंड देने में खर्च किया गया है। अगर कंपनी आगे चलकर और कर्ज लेती है, तो इसकी वजह से कंपनी के पास कैश बैलेंस बढ़ जाएगा (लायबिलिटी बढ़ाने पर कैश बैलेंस बढ़ता है) । लेकिन हमें ARBL की बैलेंस शीट से पता है कि कंपनी ने कोई नया क़र्ज नहीं लिया है। 

एक बार सभी तीनों एक्टिविटी के तहत कैश फ्लो स्टेटमेंट पर नजर डालते हैं।

किसका कैश फ्लो

करोड़ रूपए (2013-14)

करोड़ रूपए (2012-13)

ऑपरेटिंग एक्टिविटीज 278.7 335.4
इन्वेस्टिंग एक्टिविटीज (344.8) (120.05)
फ़ाइनेंसिंग एक्टिविटीज (53.1) (34.96)
कुल (119.19) 179.986

इसका मतलब है कि कंपनी ने वित्त वर्ष 2013-14 में  119.19 करोड़ रूपये खर्च किए हैं। लेकिन पिछले साल के कैश का क्या हुआ? जैसा कि आप देख सकते हैं कि कंपनी ने पिछले साल 179.986 करोड़ रूपये का कैश पैदा किया था। एक बार  ARBL की कैश फ्लो स्टेटमेंट पर फिर से नजर डालते हैं।

हरे रंग में हाईलाइट किए गए हिस्से को देखिए। यहां बताया गया है कि इस साल (2013-14) का ओपनिंग बैलेंस 409.46 करोड रूपये है, यह रक़म कहां से आई?  वास्तव में यह पिछले साल का क्लोजिंग बैलेंस है (तीर से दिखाया गया है) । इसमें जब इस साल के कैश का आंकड़ा मिलाया जाता है जो कि 119.19 करोड़ है और विदेशी मुद्रा विनिमय का 2.58 करोड़ इसमें जोड़ा जाए तो हमें कंपनी के कुल कैश पोजीशन का पता चलता है जो कि 292.86 करोड़ है। इससे पता चलता है कि कंपनी सालाना रूप से काफ़ी कैश खर्च किया है लेकिन इसके बावजूद कंपनी के पास पिछले साल की नगदी की वजह से काफी कैश मौजूद है।

याद रखिए कि 2013-14 का क्लोजिंग बैलेंस अब 2014-15 का ओपनिंग बैलेंस होगा।जब आप  ARBL के 31 मार्च 2015 के आंकड़ों पर नजर डालेंगे तो आपको यह रक़म देखनी चाहिए।

अब हम कुछ सवालों और उनके जवाब पर नजर डालते हैं।

  1. 292.8.6 करोड़ रुपये का आँकड़ा क्या बताता है?
    • यह बताता है कि इस समय ARBL के पास कितना कैश कंपनी के बैंक अकाउंट में रखा हुआ है।
  2. कैश यानी नगद क्या है?
    • इसका मतलब है वह नगद जो कंपनी के पास है या जो डिमांड डिपॉजिट में रखा है। यह कंपनी के लिक्विड एसेट होते हैं।
  3. लिक्विड एसेट्स क्या होते हैं?
    • ये वो एसेट होते हैं जो आसानी से कैश या कैश जैसी चीज़ (Cash Equivalent) में बदले जा सकते हैं।
  4. क्या हम लिक्विड असेट्स को करंट आइटम्स के तौर पर देख सकते हैं, जिनको बैलेंस शीट में दिखाया जाता है?
    • आप इन्हें करेंट आइटम के तौर पर देख सकते हैं।
  5. अगर कैश करेंट है और कैश एक एसेट है तो क्या इसको बैलेंस शीट में करेंट एसेट के तहत देखना चाहिए?
    • बिल्कुल सही। यह करेंट एसेट है और यह वहीं पर दिखता है। आइए बैलेंस शीट पर एक नजर डालते हैं। 

इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कैश फ्लो स्टेटमेंट और बैलेंस शीट में संबंध होता है। हमने पहले भी चर्चा की थी कि तीनों वित्तीय स्टेटमेंट आपस में जुड़े होते हैं। 

8.4 वित्तीय स्टेटमेंट संक्षेप में

पिछले कुछ अध्यायों में हमने कंपनी के 3 सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय स्टेटमेंट पर चर्चा की है P&L स्टेटमेंट, बैलेंस शीट और कैश फ्लो स्टेटमेंट। कैश फ्लो स्टेटमेंट और P&L स्टेटमेंट को स्टैंडअलोन तरीके से तैयार किया जाता है जबकि बैलेंस शीट को फ्लो तरीके से बनाया जाता है।

कंपनी ने कितना कमाया, कितनी आमदनी की और कितना खर्च किया इस पर P&L स्टेटमेंट में चर्चा की जाती है। कंपनी की आमदनी में से जो पैसे खर्च करने के बाद बचते हैं (सरप्लस या रीटेन्ड इनकम) उसे कंपनी अपने बैलेंस शीट में आगे ले जाती है।  P&L स्टेटमेंट में कंपनी के डेप्रिसिएशन के आंकड़े भी होते हैं और डेप्रिसिएशन कि यह आंकड़े P&L स्टेटमेंट से बैलेंस शीट में आगे ले जाए जाते हैं। 

बैलेंस शीट कंपनी की एसेट और लायबिलिटी को दिखाता है। बैलेंस शीट के एसेट वाले हिस्से में कंपनी शेयर होल्डर्स फंड को भी दिखाया जाता है। एसेट हमेशा लायबिलिटी के बराबर होना चाहिए, तभी बैलेंस शीट को बैलेंस्ड माना जाता है। किसी भी बैलेंस शीट में एक महत्वपूर्ण जानकारी होती है कि कंपनी के पास कैश या कैश इक्विवैलेंट कितना है। इससे पता चलता है कि कंपनी के बैंक के अकाउंट में कितना पैसा है। यह आंकड़ा कंपनी के कैश फ्लो स्टेटमेंट से आता है।

कैश फ्लो स्टेटमेंट में कंपनी के कैश या कैश इक्विवैलेंट पैदा करने की क्षमता के बारे में बताया जाता है। साथ ही, यह भी बताया जाता है कि कंपनी को कितने कैश की जरूरत होगी। इसमें पुराने ऐतिहासिक आँकड़े को भी लिया जाता है। मतलब इसमें पिछले साल के आंकड़े भी डाले जाते हैं और कैश या कैश इक्विवैलेंट के बारे में ऑपरेटिंग, इन्वेस्टिंग और फाइनेंसिंग एक्टिविटी के नज़रिये से, सब जानकारी दी जाती है। ये भी बताया जाता है कि अभी कंपनी के बैंक अकाउंट में कितना पैसा है।

अब तक हमने जान लिया कि कंपनी के फाइनेंसियल स्टेटमेंट को कैसे पढ़ा जाता है, उसमें क्या जानकारियां होती है और हमें उन में हमें क्या देखना चाहिए। लेकिन हमने अभी तक यह नहीं सीखा कि इन आंकड़ों का विश्लेषण कैसे किया जाए? इनकी विश्लेषण का एक तरीका है कि हम कुछ महत्वपूर्ण वित्तीय (फाइनेंशियल) रेश्यो पर नजर डालें। हम अगले कुछ अध्यायों में फाइनेंशियल रेश्यो पर नजर डालेंगे।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. कैश फ्लो स्टेटमेंट हमें कंपनी की कैश पोजीशन के बारे में जानकारी देता है 
  2. किसी भी अच्छी कंपनी के कामकाज को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है- ऑपरेटिंग एक्टिविटीज (कारोबारी कामकाज), इन्वेस्टिंग एक्टिविटीज (निवेश का कामकाज), फाइनेंसिंग एक्टिविटीज (वित्तीय कामकाज) 
  3. किसी भी तरह के कामकाज से पैसे खर्च होते हैं या पैसे कमाए जाते हैं। 
  4. कंपनी का नेट कैश फ्लो इन तीनों कामकाज, ऑपरेटिंग , इन्वेस्टिंग और फाइनेंसिंग के कैश फ्लो को मिलाकर बनाया जाता है। 
  5. किसी भी निवेशक को कंपनी के ऑपरेटिंग एक्टिविटी यानी कारोबारी कामकाज के कैश फ्लो को ध्यान से देखना चाहिए।
  6. जब कंपनी की लायबिलिटी बढ़ती है तो कैश बढ़ता है और अगर लायबिलिटी घटती है तो कैश घट जाता है। 
  7. एसेट बढ़ता हैं तो कैश कम होता है एसेट कम करते हैं तो कैश बढ़ता है।
  8. कंपनी का नेट कैश फ्लो आप बैलेंस शीट में भी देख सकते हैं।
  9. कैश फ्लो स्टेटमेंट एक कंपनी के कारोबार की सही स्थिति को बताने वाला वित्तीय स्टेटमेंट है।

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फाइनेंशियल रेश्यो की एनालिसिस (भाग 1) https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a4%be%e0%a4%87%e0%a4%a8%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%b2-%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%8f%e0%a4%a8%e0%a4%be/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%ab%e0%a4%be%e0%a4%87%e0%a4%a8%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%b6%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%b2-%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%8b-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%8f%e0%a4%a8%e0%a4%be/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:51:39 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5901 9.1 – फाइनेंशियल रेश्यो की भूमिका पिछले कुछ अध्यायों में हमने फाइनेंशियल स्टेटमेंट को पढ़ना सीखा है। अब हम इनकी एनालिसिस या विश्लेषण करना सीखेंगे। इसके लिए हमें सबसे पहले फाइनेंशियल रेश्यो को समझना होगा। फाइनेंशियल रेश्यो का प्रचलन सबसे पहले बेंजामिन ग्राहम नाम के फंडामेंटल एनालिस्ट ने किया था। उन्हें फाइनेंशियल रेश्यो का पिता […]

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9.1 – फाइनेंशियल रेश्यो की भूमिका

पिछले कुछ अध्यायों में हमने फाइनेंशियल स्टेटमेंट को पढ़ना सीखा है। अब हम इनकी एनालिसिस या विश्लेषण करना सीखेंगे। इसके लिए हमें सबसे पहले फाइनेंशियल रेश्यो को समझना होगा। फाइनेंशियल रेश्यो का प्रचलन सबसे पहले बेंजामिन ग्राहम नाम के फंडामेंटल एनालिस्ट ने किया था। उन्हें फाइनेंशियल रेश्यो का पिता माना जाता है।फाइनेंशियल रेश्यो के जरिए हम कंपनी के वित्तीय नतीजों का आकलन कर सकते हैं। मौजूदा प्रदर्शन को पिछले सालों, पिछले तिमाही और दूसरी कंपनियों के प्रदर्शन के मुकाबले नाप सकते हैं।  
फाइनेंशियल रेश्यो में आमतौर पर कंपनी के वित्तीय स्टेटमेंट या फाइनेंशियल स्टेटमेंट के डेटा का इस्तेमाल किया जाता है। फाइनेंशियल रेश्यो को समझने के पहले हमें इसके कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को जानना जरूरी है।
अपने आप में फाइनेंशियल रेश्यो में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं देते है। उदाहरण के तौर पर अगर मुझे बताया जाए कि अल्ट्राटेक सीमेंट का मुनाफा 15 % का है तो इससे मुझे क्या पता चलेगा? ये सही है कि 15 % का मुनाफा एक अच्छा मुनाफा है, लेकिन क्या यह इस सेक्टर का सबसे अच्छा मुनाफा है? 
मान लीजिए कि आपको पता हो कि एसीसी सीमेंट का मुनाफा 12 % है और जब हम इस मुनाफे की तुलना अल्ट्राटेक सीमेंट के मुनाफे से करेंगे, तो हमें पता चलेगा कि अल्ट्राटेक का मुनाफा एसीसी सीमेंट के नाते के मुकाबले ज्यादा है।इससे आपको समझ में गया होगा कि रेश्यो अपने आप में ज्यादा कुछ नहीं बताते, लेकिन जब उसका इस्तेमाल किसी तुलना के लिए किया जाता है तो आपको पूरी तस्वीर दिखाई देती है। यानी इसका मतलब यह हुआ कि जब भी आप रेश्यो निकालेंगे तो उसका इस्तेमाल किसी तुलना के लिए करेंगे, तो बेहतर होगा।
 रेश्यो निकालते समय एक और महत्वपूर्ण बात जो आपको याद रखी है वह यह है कि हर कंपनी की अपनी एक अलग अकाउंटिंग पॉलिसी होती है। अलगअलग वित्तीय वर्ष में भी अकाउंटिंग पॉलिसीयां अलग अलग हो सकती हैं।  इसलिए रेश्यो का इस्तेमाल करते समय आपको इसकी यह जानकारी होनी चाहिए।

9.2 – फाइनेंशियल रेश्यो

मोटे तौर पर फाइनेंशियल रेश्यो को 4 हिस्सों में बांटा जा सकता है।

  1. मुनाफे से जुड़े रेश्यो यानी प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो (Profitability Ratios)
  2. लीवरेज रेश्यो (Leverage Ratios)
  3. वैल्यूएशन रेश्यो और (Valuation Ratios)
  4. ऑपरेटिंग रेश्यो  (Operating Ratios)


प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो, जैसा कि नाम से ही साफ़ है कि, प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो से कंपनी के प्रॉफिटेबिलिटी यानी मुनाफे का पता चलता है। इससे यह भी पता चलता है कि कंपनी कितनी अच्छी चल रही है, उसका  मैनेजमेंट कितना अच्छा है? प्रॉफिटेबिलिटी से यानी मुनाफे से ही कंपनी के विस्तार की योजनाएं चलती हैं, शेयर होल्डर को डिविडेंड दिया जाता है इसीलिए प्रॉफिट या मुनाफा शेयर होल्डर के लिए सबसे महत्वपूर्ण रेश्यो होता है। 


लेवरेज रेश्यो को कई बार सॉल्वेंसी रेश्यो (Solvency Ratio) या गियरिंग रेश्यो (Gearing Ratio) भी कहते हैं। इस रेश्यो से पता चलता है कि कंपनी आने वाले समय में लंबी अवधि तक अपना कारोबार कितने अच्छे तरीके से चला सकती है। इससे यह भी पता चलता है कि कंपनी को अपने विस्तार के लिए कितने कर्ज इस्तेमाल कर रही है। याद रखिए कि कंपनी को अपना कारोबार ठीक से चलाने के लिए कई तरीके के बिल अदा करने पड़ते हैं और अपनी दूसरी जिम्मेदारियां पूरी करनी पड़ती हैं। सॉल्वेंसी रेश्यो से हमें यही पता चलता है कि कंपनी इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में कितनी सक्षम है।


वैल्यूएशन रेश्यो का इस्तेमाल कंपनी के शेयरों की कीमत की तुलना उसके मुनाफ़े के साथ करने के लिए किया जाता है। इससे पता चलता है कि कंपनी के शेयरों की कीमत उसके मुनाफे के मुकाबले कम है या ज्यादा? शेयर महंगे हैं या सस्ते? इससे यह भी पता चलता है कि कंपनी की कुल वास्तविक कीमत कितनी है और उसके मुकाबले शेयरों की कीमत कितनी हैशेयर खरीदने के पहले कंपनी के इस रेश्यो को काफी करीब से देखा जाता है। 


ऑपरेटिंग रेश्यो, जिसको एक्टिविटी रेश्यो (Activity Ratio) भी कहते हैं यह बताता है कि कंपनी कितने अच्छे से अपने एसेट का इस्तेमाल अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए कर सकती है। इससे ये भी पता चलता है कि कंपनी का मैनेजमेंट कैसा है। इसीलिए कई बार इसे मैनेजमेंट रेश्यो भी कहते हैं।
वास्तव में हर रेश्यो एक कंपनी की वित्तीय हालत के बारे में एक संदेश देता है जैसे प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो कंपनी की कामकाज की कुशलता के बारे में बताता है। कई बार ऑपरेटिंग रेश्यो से भी इसका पता चलता है। इसीलिए रेश्यो को अलगअलग श्रेणियों में बांटना थोड़ा मुश्किल काम है, लेकिन फिर भी मोटा मोटी तौर पर इन को ऊपर बताए गए चार हिस्सों में बांटा जा सकता है।

9.3 – प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो 

प्रॉफिटेबिलिटी रेश्यो के तहत हम निम्न रेश्यो को देखेंगे: 
1. EBITDA मार्जिन (ऑपरेटिंग प्रॉफिट मार्जिन- Operating Profit Margin)
– EBITDA वृद्धि दर (CAGR Growth)

2. PAT मार्जिन
 – PAT वृद्धि दर (CAGR Growth)

3. रिटर्न ऑन इक्विटी (ROE)
4. रिटर्न ऑन एसेट (ROA)
5. रिटर्न ऑन कैपिटल एम्प्लॉयड (ROCE)

EBITDA मार्जिन :

अर्निंग बिफोर इंटरेस्ट टैक्स डिप्रेशिएशन एंड अमॉर्टाइजेशन (EBITDA) मार्जिन कंपनी के मैनेजमेंट की कुशलता को बताता है। यह ये भी बताता है कि कंपनी का कारोबार कैसा चल रहा है। कंपनी कारोबारी तौर पर कितना मुनाफा (प्रतिशत में) कमा रही है। कंपनी के इस मार्जिन को दूसरी कंपनी से तुलना करके हमें पता चलता है कि कंपनी अपने खर्चों को किस तरह से काबू में रख रही है।
EBITDA मार्जिन को जानने के लिए हमें पहले कंपनी का EBITDA पता करना होगा। 

EBITDA = [ऑपरेटिंग आमदनी (Operating Revenues) –  ऑपरेटिंग खर्च (Operating Expenses)]

ऑपरेटिंग आमदनी = [कुल आमदनी (Total Revenue) –  अन्य आमदनी (Other Income)]

ऑपरेटिंग ख़र्च = [कुल खर्च (Total Expense)फ़ाइनेंस कॉस्ट (Finance Cost)डेप्रिशिएसन और अमॉर्टाइजेशन (Depreciation & Amortization) ]

EBITDA मार्जिन = EBITDA /  [कुल आमदनी –  अन्य आमदनी]

उदाहरण के लिए अमारा राजा बैटरीज का FY 14 का EBITDA मार्जिन निकालते हैं: 

पहले EBITDA :
[कुल आमदनी –  अन्य आमदनी] – [कुल खर्चफ़ाइनेंस कॉस्टडेप्रिशिएसन और अमॉर्टाइजेशन ]
याद रखें कि अन्य आमदनी निवेश और दूसरी ग़ैर कारोबारी स्त्रोतों से आती है इसीलिए EBITDA में इसे शामिल करने से सही तस्वीर पता नहीं चलेगी।
[3482-46] – [2942-0.7-65]
= [3436] -[2876]
= 560 करोड़ रूपए

EBITDA मार्जिन  560/3436 = 16.3%

यहां 2 सवाल हैं :

  1. 560 करोड़ रूपये का EBITDA क्या बताता है और 16.3% का EBITDA मार्जिन क्या दिखाता है?
  2. 16.3% का EBITDA मार्जिन अच्छा है या बुरा?

पहले सवाल का जवाब काफी आसान है कंपनी ने 3436 करोड़ की ऑपरेटिंग आमदनी की और उसमें से 560 बचा लिए। इसका यह भी मतलब है कि कंपनी ने 3436 की आमदनी में से 2876 करोड़  खर्च किए। प्रतिशत में देखें तो कंपनी ने अपनी आमदनी का 83.7% खर्च किया और 16.3% आमदनी को कारोबार के लिए बचा लिया। 

अब दूसरे सवाल का जवाब देखते हैं। हमने पहले भी बात की है कि फाइनेंशियल रेश्यो अपने आप में कुछ खास जानकारी नहीं देते हैं। इसमें से काम की जानकारी निकालने के लिए हमें इसकी तुलना पिछले साल से या किसी दूसरी कंपनी से करनी पड़ती है। कंपनी के 16.3% EBITDA मार्जिन का मतलब समझने के लिए हम अमारा राजा बैटरी के EBITDA मार्जिन के 4 साल के ट्रेंड को देखते हैं।

साल

ऑपरेटिंग आमदनी ऑपरेटिंग खर्च EBITDA

EBITDA मार्जिन

2011 1761 1504 257 14.6%
2012 2364 2025 340 14.4%
2013 2959 2508 451 15.2%
2014 3437 2876 560 16.3%

ऐसा लगता है कि ARBL का EBITDA  आमतौर पर औसतन 15% के आस पास बना हुआ है। गौर से देखने पर पता चलता है कि इसका EBITDA मार्जिन धीमेधीमे बढ़ रहा है। यह एक अच्छा संकेत है जो यह बताता है कि कंपनी का प्रदर्शन ना केवल स्थिर है बल्कि लगातार बेहतर हो रहा है। यह कंपनी के मैनेजमेंट की कुशलता को भी दिखाता है। 

साल 2011 में कंपनी का EBITDA 257 करोड़ रूपये था और 2014 में यह 560 करोड़ पर है। इसका मतलब है कि 4 साल में EBITDA की सीएजीआर (CAGR) ग्रोथ (वृद्धि) 21% रही है।

यह साफ है कि EBITDA मार्जिन और EBITDA  CAGR  बढ़ोतरी सब कुछ काफी अच्छी है लेकिन हमें यह नहीं पता कि यह दूसरी कंपनियों की तुलना में कैसी है ARBL के मामले में आपको इसकी तुलना एक्साइड बैटरीज लिमिटेड के EBITDA से करनी चाहिए।

PAT मार्जिन

EBITDA मार्जिन को कंपनी के कारोबारी या ऑपरेटिंग लेवल पर नापा जाता है जबकि PAT मार्जिन को कंपनी के अंतिम मुनाफे के तौर पर देखा जाता है। ऑपरेटिंग मार्जिन में हम सिर्फ ऑपरेटिंग खर्चों को ही शामिल करते हैं , इसमें डिप्रेशिएशन और फाइनेंशियल कॉस्ट को शामिल नहीं किए जाता। टैक्स ख़र्च भी अलग रहते हैं जबकि PAT मार्जिन में इन सबको शामिल करते हैं। जब PAT मार्जिन की गणना की जाती है तो सभी तरह के खर्चों को कुल आमदनी में से घटाया जाता है तब कंपनी का कुल अंतिम मुनाफा पता किया जाता है। 

PAT मार्जिन =  [PAT / कुल आमदनी (Total Revenue)]
कंपनी का PAT वार्षिक रिपोर्ट में बहुत साफसाफ बताया जाता है। यह ARBL का FY 14 का PAT 367 करोड़ रूपये था जबकि कंपनी की आमदनी 3482 करोड़ रूपये थी। इस आधार पर कंपनी का PAT मार्जिन हुआ: 
367 / 3482
= 10.5%
पिछले कुछ सालों में ARBL का PAT और PAT मार्जिन कैसा रहा है इस पर एक नज़र डालते हैं: 

साल

PAT (करोड़ रू में)

PAT मार्जिन

2011 148 8.4%
2012 215 8.9%
2013 287 9.6%
2014 367 10.5%


कंपनी
का शेयर और PAT मार्जिन का प्रदर्शन काफी अच्छा दिख रहा है। हम देख सकते हैं कि कंपनी का मार्जिन लगातार बढ़ रहा है, पिछले 4 साल में यह 25.48% CAGR से बढ़ रहा है जो कि काफी अच्छा है। लेकिन मुक़ाबला करने वाली दूसरी कंपनियों से इसकी तुलना करने के बाद ही हमें सही तस्वीर का पता चलेगा।

रिटर्न ऑन इक्विटी (ROE)

रिटर्न ऑन इक्विटी एक बहुत ही महत्वपूर्ण रेश्यो है यह हमें बताता है कि कंपनी के शेयर होल्डर को उनके निवेश पर कितनी कमाई हो रही है। ये बताता है कि कंपनी शेयरधारकों के निवेश पर कितना मुनाफ़ा कमा रही है। ROE जितना ज्यादा होगा शेयरहोल्डर्स के लिए उतना ही अच्छा होगा। वास्तव में एक निवेश योग्य कंपनी पहचानने के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण आधार बन जाता है। आपकी जानकारी के लिएभारत की बेहतरीन कंपनियों में ROE 14% से 16% के बीच में होता है, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मैं उन कंपनियों को पसंद करता हूं जिनका ROE 18% से भी ज्यादा हो। 
इस रेश्यो की भी उस इंडस्ट्री में काम करने वाली दूसरी कंपनियों से तुलना की जाती है। पिछले ऐतिहासिक आँकड़ों से भी इसकी तुलना की जाती है  
यह भी ध्यान दीजिए कि ROE अधिक होने का मतलब है कि कंपनी के पास काफी मात्रा में नकदी रहा है और कंपनी को बाहर से कर्ज लेने या पैसे जुटाने की जरूरत कम पड़ने वाली है। इसलिए अच्छे ROE का मतलब है कि कंपनी का मैनेजमेंट अच्छा काम कर रहा है।

ROE निकालने का समीकरण: [ कुल मुनाफ़ा (नेट प्रॉफिट) / शेयर होल्डर्स इक्विटी *100]

ROE एक अच्छा रेश्यो है लेकिन कई दूसरे रेश्यो की तरह इसमें भी कुछ कमियां हैं। इनको अच्छे से समझने के लिए एक उदाहरण देखते हैं
मान लीजिए विशाल एक पिज़्ज़ा स्टोर चलाता है। पिज़्ज़ा बनाने के लिए उसको एक ओवन की जरूरत है जिसकी कीमत 10000 है। ओवन विशाल के लिए एक एसेट है। इसको खरीदने के लिए वो कोई कर्ज नहीं लेता बल्कि अपने पैसों से ही खरीदता है। ऐसे में उसके बैलेंस शीट पर शेयर होल्डर इक्विटी होगी 10000 और एसेट भी होंगे 10000 के।
अब मान लीजिए पहले साल के कारोबार में विशाल को 2500 का मुनाफा होता है। उसका ROE क्या हुआ? ये काफी आसान है : 
ROE = 2500 /10000 *100
=25.0%

अब स्थिति में थोड़ा बदलाव करते हैं। मान लीजिए विशाल के पास 8000 है और वह 2000 अपने पिताजी से क़र्ज़ लेता है ताकि 10000 का ओवन खरीद सके। अब उसकी बैलेंस शीट कैसी दिखेगी। बैलेंस शीट के लायबिलिटी के हिस्से में शेयरहोल्डर इक्विटी होगी 8000 की और कर्ज होगा 2000 का। इस तरह विशाल की कुल लायबिलिटी होगी 10000। इसको बैलेंस करने पर एसेट के हिस्से में भी उसके पास 10000 के एसेट होंगे। अब देखते हैं कि उसकी ROE कितनी है: 
लायबिलिटी के हिस्से में उसके पास होगा:
शेयरहोल्डर्स इक्विटी = 8000 रूपये
क़र्ज़ = 2000 रूपये
अब विशाल की कुल लायबिलिटी हुई 10000 रूपये और एसेट भी हुए 10000 रूपये. अब ROE देखते हैं : 
ROE = 2500/ 8000*100
=31.25%

इस क़र्ज़ की वजह से विशाल का ROE काफी ज्यादा बढ़ गया है। अब मान लीजिए विशाल के पास सिर्फ 5000 होते और उसे अपने पिता से 5000 का कर्ज लेना पड़ता, तब उसकी बैलेंस शीट कैसी दिखती? हो लायबिलिटी के हिस्से में उसके पास होता :
शेयर होल्डर्स इक्विटी = 5000
कर्ज = 5000 
कुल मिलाकर उसके लायबिलिटी होती 10000 और का एसेट के हिस्से में भी होता 10000
ऐसे में उसकी  ROE कैसी दिखती :
ROE =2500 / 5000*100
= 50%
आप देख सकते हैं कि जैसे जैसे विशाल  का कर्ज बढ़ता जा रहा है वैसेवैसे उसका ROE भी बढ़ रहा है। ऊंचा ROE अच्छा होता है लेकिन कर्ज के साथ नहीं क्योंकि जैसेजैसे कर्ज बढ़ता है वैसेवैसे बिजनेस को चलाना रिस्की होता जाता है क्योंकि फाइनेंशियल कॉस्ट बढ़ती जाती है। इसको पता करने का एक अच्छा तरीका है ड्यूपॉन्ट मॉडल (Dupont Model) लागू करना, जिसको ड्यूपॉन्ट आइडेन्टिटी (Dupont Identity) भी कहते हैं।

इस मॉडल को 1920 में ड्यूपॉन्ट नाम की कंपनी ने विकसित किया था। इस मॉडल में ROE के फार्मूले को तीन हिस्सों में बांटा जाता है और हर हिस्सा बिजनेस के एक खास भाग को दिखाता है। ड्यूपॉन्ट एनालिसिस में बिजनेस के बैलेंस शीट और P&L स्टेटमेंट दोनों का इस्तेमाल किया जाता है। 
इस मॉडल के तहत ROE इस तरह से निकाला जाता है :

अगर आप ध्यान से देखेंगे इस फार्मूले में अंश और विभाजक (Denominator & Numerator) एक दूसरे को काट देते हैं और अंतत: हमारे पास ओरिजिनल यानी पहले वाला ROE फॉर्मूला ही बचता है: 
ROE = कुल मुनाफ़ा (नेट प्रॉफिट) / शेयर होल्डर्स इक्विटी *100
लेकिन इसका फायदा यह होता है कि हमें  बिजनेस के तीन अलगअलग हिस्सों में देखने का मौका मिलता है। इस मॉडल के तीनों हिस्सों को देखते हैं :

  • नेट प्रॉफिट मार्जिन (Net Profit Margin) = नेट प्रॉफिट (Net Profit)नेट सेल्स (Net Sales) * 100
    यह ड्यूपॉन्ट मॉडल का पहला हिस्सा है इस कंपनी के प्रॉफिट बनाने की क्षमता को दिखाता है। लेकिन वास्तव में यह और कुछ नहीं सिर्फ PAT मार्जिन है जिनके कम होने का मतलब है कि कंपनी की लागत ज्यादा है और उसको एक कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है।
  • एसेट टर्नओवर (Asset Turnover)नेट सेल्स (Net Sales) / ऐवरेज टोटल एसेट (Average Total Asset)  
    एसेट टर्नओवर रेश्यो यह दिखाता है कि कंपनी अपने एसेट का इस्तेमाल अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए कितने अच्छे तरीके से कर रही है। ये रेश्यो जितना ऊंचा होता है कंपनी को उतना ही कुशल माना जाता है। जब ये रेश्यो कम होता है तो यह माना जाता है कि कंपनी का मैनेजमेंट ठीक नहीं है या उसके उत्पादन में मुश्किल रही है। इसको दिखाने के लिए प्रति साल की संख्या बतायी जाती है।
  • फाइनेंशियल लेवरेज (Financial Leverage) = ऐवरेज टोटल एसेट (Average Total Assets) / शेयरहोल्डर्स इक्विटी (Shareholders Equity)
    फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो में हमें पता चलता है कि कंपनी के शेयर होल्डर इक्विटी के प्रति यूनिट पर कंपनी के पास कितने प्रति यूनिट एसेट हैंउदाहरण के लिए अगर फाइनेंशियल लेवरेज 4 है तो इसका मतलब है कि हर 1 की इक्विटी पर कंपनी के पास 4 का एसेट है। कंपनी का फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो ज्यादा हो और कंपनी ने काफ़ी क़र्ज़ भी ले रखा हो तो निवेशकों को ऐसी कंपनी में निवेश करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए।

जैसा कि आप देख सकते हैं कि ड्यूपॉन्ट मॉडल ROE फार्मूले को तीन विशेष हिस्सों में बांटता है हर हिस्सा कंपनी के कामकाज और वित्तीय क्षमता के बारे में एक तस्वीर देता है।
अब हम इस मॉडल का इस्तेमाल अमारा राजा बैटरी के FY14 के ROE को निकालने के लिए करते हैं।  

नेट प्रॉफिट मार्जिन: जैसा कि पहले बता चुके हैं यह और कुछ नहीं सिर्फ PAT मार्जिन है।  हम अमारा राजा बैटरीज यानी ARBL का PAT मार्जिन पहले भी निकाल चुके हैं और यह 9.2% है  
एसेट टर्नओवरनेट सेल्स / ऐवरेज टोटल एसेट  
हम जानते हैं कि FY14की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक ARBLकी कुल बिक्री 3437 करोड़ रूपये है
यहां विभाजक (Denominator) के तौर पर ऐवरेज टोटल एसेट है। हम जानते हैं कि हम बैलेंस शीट से एसेट का आँकड़ा निकाल सकते हैंलेकिन यहां  ऐवरेज यानी औसत का क्या मतलब है? 
ARBL की बैलेंस शीट में कुल एसेट्स 2139 करोड़ रूपये के दिखाए गए हैं। लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह आंकड़ा वित्त वर्ष 2014 का है जो 1 अप्रैल 2013 को शुरू होता है और 31 मार्च 2014 को खत्म होता है। इसका मतलब यह है कि कंपनी ने वित्त वर्ष के शुरू में (अप्रैल 2013) जब कामकाज शुरू किया था तो उसके पास कुछ एसेट थे जो कि FY13 के थे और जिनको वहां से आगे ले आया गया था। बाद में (FY14 में) कुछ नए एसेट भी जोड़े गए और ये सारे एसेट मिला कर 2139 करोड़ रूपये के हुए। इसका मतलब यह है कि साल की शुरुआत में कंपनी के पास जो एसेट थे उनकी कीमत कुछ और थी और साल के अंत में एसेट की कीमत कुछ और थी।

इस को ध्यान में रखते हुए हम अब एसेट टर्नओवर रेश्यो निकालेंगे, तो हमें अब एसेट की कौन सी कीमत लेनी चाहिएसाल की शुरुआत वाली या साल के अंत वाली क़ीमतइसी दुविधा को दूर करने के लिए एसेट की औसत कीमत निकाली जाती है।
किसी लाइन आइटम का औसत निकालने की इस तकनीक को याद रखिए, दूसरे रेश्यो निकालने में भी इसका इस्तेमाल करना होगा। ARBL की वार्षिक रिपोर्ट से हमें पता है कि: 
FY14 नेट सेल्स = 3437 करोड़ रूपये
FY13 कुल एसेट = 1770 करोड़ रूपये
FY14 कुल एसेट = 2139 करोड़ रूपये
औसत कुल एसेट = (1770+2139) / 2
= 1954.50
एसेट टर्नओवर = 3437 / 1954.50
= 1.75 
इसका मतलब ये हुआ कि हर 1 रूपये के एसेट पर कंपनी 1.75 रूपये की कमाई कर रही है।

अब फाइनेंशियल लेवरेज के अंतिम हिस्से की गणना करते हैँ: 
फाइनेंशियल लेवरेज = औसत टोटल एसेट / शेयरहोल्डर्स इक्विटी

हमें पता है कि कुल एसेट का औसत कीमत 1955 करोड़ रूपये है। हमें सिर्फ शेयर होल्डर इक्विटी निकालना है। जिस तरह हमने मौजूदा एसेट को देखने के बजाय औसत एसेट को देखा है उसी तरीके से हम औसत शेयरहोल्डर्स इक्विटी देखेंगे ना कि सिर्फ मौजूदा साल की शेयरहोल्डर्स इक्विटी।
FY13 शेयरहोल्डर्स इक्विटी = 1059 करोड़ रूपये
FY14 शेयरहोल्डर्स इक्विटी  = 1362 करोड़ रूपये 
औसत शेयरहोल्डर्स इक्विटी  = 1211 करोड़ रूपये 
फाइनेंशियल लेवरेज = 1955 / 1211
= 1.61

क्योंकि ARBL के पास बहुत कम कर्ज है इसलिए फाइनेंशियल लेवरेज 1.61 है जो कि एक अच्छा आंकड़ा है। इसका मतलब है कि शेयर होल्डर की हर एक रूपये की इक्विटी के सामने ARBL के पास 1.61 रूपये के एसेट हैं।
अब हम ARBL की ROE निकालते हैं : 
ROE = नेट प्रॉफिट मार्जिन x एसेट टर्नओवर x फाइनेंशियल लेवरेज
= 9.2%*1.75*1.61
25.9%

यह  ROE निकालने का यह एक लंबा तरीका है। लेकिन यह शायद सबसे अच्छा तरीका भी है क्योंकि इसकी वजह से हम किसी भी बिजनेस के कई अलगअलग हिस्सों के बारे में अच्छी से जानकारी प्राप्त कर पाते हैं। ड्यूपॉन्ट मॉडल से केवल हमें कंपनी के रिटर्न के बारे में पता चलता है बल्कि उस रिटर्न की गुणवत्ता के बारे में भी पता चलता है।
वैसे अगर आप ROE निकालने की जल्दी में हैं तो इस समीकरण का उपयोग करें :
ROE = नेट प्रॉफिट / औसत शेयर होल्डर इक्विटी
वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ FY14 का PAT 367 करोड़ है
ROE=367 / 1211
= 30.31%

रिटर्न ऑन एसेट (ROA) 

ड्यूपॉन्ट मॉडल को समझने के बाद अगले दो फाइनेंशियल रेश्यो को समझना आसान होगा। रिटर्न ऑन एसेट या ROA हमें यह बताता है कि कंपनी अपने एसेट का इस्तेमाल करके कितना मुनाफा कमा सकती है। एक अच्छी कंपनी ऐसे एसेट में निवेश नहीं करती जिससे उसको फायदा ना हो इसलिए ROA हमें बताता है कि कंपनी का मैनेजमेंट किस तरह के एसेट में पैसे लगा रहा है। कंपनी का ROA जितना ज्यादा होगा कंपनी के लिए उतना ही बेहतर होगा।
ROA = [नेट इनकम +इन्टरेस्ट *(1-टैक्स दर)] / कुल औसत एसेट (Total Average Assets)
वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ : 
FY14 नेट आमदनी (इनकम) = 367.4 करोड़ 
कुल औसत एसेट हमने निकाला था = 1955 करोड़

लेकिन इन्टरेस्ट *(1-टैक्स दर) का मतलब यहाँ क्या है? ज़रा सोचिए, कंपनी ने जो कर्ज लिया है उससे जो एसेट खरीदा जाएगा उसका इस्तेमाल कंपनी मुनाफा कमाने के लिए करेगी। तो इस तरह से वह लोग भी कंपनी के हिस्सेदार बन जाते हैं जिन्होंने कंपनी को कर्ज दिया है। साथ ही कंपनी को टैक्स भी कम देना पड़ता है क्योंकि ब्याज चुकाया जा चुका है। इसे टैक्सशील्ड (Tax shield) कहते हैं। इस वजह से जब भी हम कंपनी के ROA निकालते हैं तो हमें हमें ब्याज को (टैक्स शील्ड के नज़रिए से) भी जोड़ना पड़ता है।
अगर कुल ब्याज (फ़ाइनेंस कॉस्ट) 7 करोड़ है तो टैक्स शील्ड होगा : 
= 7 *(1-32%), यहाँ औसत टैक्स दर 32% मानी गयी है। 
=4.76 करोड़, 
तो, 
ROA = [367.4 + 4.76] /1955
~ 372.16 / 1955
~ 19.03%

रिटर्न ऑन कैपिटल एंप्लॉयड (Retirn  on Capital Employed-ROCE)

रिटर्न ऑन कैपिटल एंप्लॉयड हमें यह बताता है कि कंपनी में जितना कैपिटल या पूंजी लगा रखी है उससे कंपनी कितना मुनाफा कमा रही है। कुल कैपिटल या पूंजी में इक्विटी और डेट यानी इक्विटी और कर्ज दोनों शामिल होते हैं।

ROCE = [ प्रॉफिट बिफोर इन्टरेस्ट एंड टैक्स (Profit before Interest & Taxes) / कुल कैपिटल एम्प्लॉयड (Overall Capital Emplyed) ]
कुल कैपिटल एम्प्लॉयड = शार्ट टर्म क़र्ज़ + लाँग टर्म क़र्ज़ + इक्विटी
ARBL की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक :
प्रॉफिट बिफोर इन्टरेस्ट एंड टैक्स = 537.7 करोड़ 
कुल कैपिटल एम्प्लॉयड : 
शार्ट टर्म क़र्ज़ = 8.3 करोड़
लाँग टर्म क़र्ज़ = 75.9 करोड़
शेयर होल्डर इक्विटी = 1362 करोड़
कुल कैपिटल एम्प्लॉयड : 8.3 + 75.9 + 1362 = 1446.2 करोड़
ROCE = 537.7 / 1446.2 
= 37.18 % 

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. फाइनेंशियल रेश्यो किसी भी कंपनी को जांचने या नापने का एक बहुत महत्वपूर्ण तरीका है लेकिन फाइनेंशियल रेश्यो खुदखुद बहुत कम जानकारी देते हैं।
  2. रेश्यो का सबसे अच्छा इस्तेमाल तब होता है जब आप उसकी तुलना पिछले डाटा से करें या इंडस्ट्री की किसी दूसरी कंपनी से करें जो इस कंपनी से मुकाबला कर रही है।
  3. फाइनेंशियल रेश्यो को प्रॉफिटेबिलिटी, लेवरेज, वैल्यूएशन और ऑपरेटिंग रेश्यो के 4 हिस्सों में बांटा जा सकता है। यह चारों हिस्से कंपनी के बारे में किसी एनालिस्ट को अलगअलग तरीके की जानकारी देते हैं
  4. ऑपरेटिंग  कमाई में से ऑपरेटिंग खर्चा निकालने के बाद जो रकम बचती है उसे EBITDA कहते हैं।
  5. EBITDA मार्जिन ऑपरेटिंग स्तर पर कंपनी का प्रतिशत मुनाफा दिखाता है।
  6. PAT मार्जिन से कंपनी के कुल मुनाफे का पता चलता है
  7. रिटर्न ऑन इक्विटी यानी ROE एक बहुत महत्वपूर्ण रेश्यो है जो बताता है कि कंपनी के शेयर होल्डर शुरूआती निवेश पर कितने पैसे कमा रहे हैं
  8. एक ऊंचा ROE और ऊंचा कर्ज बहुत अच्छा संकेत नहीं होता है
  9. कंपनी के ROE को अलगअलग हिस्सों में बांटने के लिए ड्यूपॉन्ट मॉडल का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कंपनी के बिजनेस के अलगअलग हिस्सों के बारे में ठीक से जानकारी मिलती है। 
  10. किसी कंपनी का ROE निकालने के लिए ड्यूपॉन्ट मॉडल शायद सबसे अच्छा मॉडल होता है
  11. रिटर्न ऑन एसेट यह बताता है कि कंपनी अपने एसेट का कितना अच्छा इस्तेमाल कर रही है। 
  12. रिटर्न ऑन कैपिटल एंप्लॉयड बताता है कि कंपनी अपने कर्ज और इक्विटी का कैसा इस्तेमाल कर रही है और उस पर कितना रिटर्न कमा रही है
  13. किसी भी रेश्यो का अच्छा इस्तेमाल तब होता है जब उसको किसी तरीके की तुलना में इस्तेमाल किया जाए
  14. रेश्यो किसी एक जगह पर या एक समय पर तुलना के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और एक लंबी अवधि के तुलना के लिए भी।

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10.1 लेवरेज रेश्यो ( The Leverage Ratios)

हमने रिटर्न ऑन इक्विटी और ड्यूपॉन्ट एनालिसिस पर चर्चा करते समय फाइनेंशियल लेवरेज की बात की थी। लेवरेज यानी कर्ज़ का इस्तेमाल दो धारी तलवार की तरह होता है।

अच्छी से अच्छी कंपनियां कर्ज़ लेती हैं, खासकर तब जब यह देखती हैं कि वह कर्ज पर देने वाले ब्याज के मुकाबले ज्यादा पैसा कर्ज के पैसों से कमा सकती हैं। आप जानते ही हैं कि कर्ज के जरिए बनाया गया एसेट भी रिटर्न और इक्विटी को बढ़ाता है।

लेकिन जब कंपनी बहुत ज्यादा कर्ज ले लेती है तो कर्ज पर ब्याज देने की वजह से शेयर होल्डर को मिलने वाला मुनाफा कम हो जाता है। इसीलिए एक अच्छे और बुरे कर्ज में बहुत कम अंतर होता है। लेवरेज रेश्यो हमें यही बताता है कि कंपनी के पास कितना कर्ज है और उसके कर्ज की स्थिति कैसी है।

हम निम्न लेवरेज रेश्यो को देखेंगे:

  1. इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो (Interest Coverage Ratio)
  2. डेट टू इक्विटी रेश्यो (Debt to Equity Ratio)
  3. डेट टू एसेट रेश्यो (Debt to Asset Ratio)
  4. फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो (Financial Leverage Ratio)

अभी तक हमने अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड (ARBL) को उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल किया है। लेकिन लेवरेज को बेहतर समझने के लिए हमें एक ऐसी कंपनी चाहिए जिसकी बैलेंस शीट पर काफी कर्ज हो। इसलिए मैंने जैन इरिगेशन सिस्टम्स लिमिटेड को चुना है। आप अपनी पसंद की कंपनी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो

इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो को कभी-कभी डेट सर्विस रेश्यो (Debt Service Ratio) या डेट सर्विस कवरेज रेश्यो (Debt Service Coverage Ratio) भी कहते हैं। इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो हमें बताता है कि कंपनी अपने कर्ज के भार की तुलना में कितनी कमाई कर रही है। इससे हमें पता चलता है कि कंपनी अपने ब्याज का भुगतान कितनी आसानी से कर सकती है। उदाहरण के तौर पर अगर कंपनी के पास 100 रूपये का कर्ज है और कमाई 400 रूपये की है तो हम आसानी से देख सकते हैं कि कंपनी के पास अपना कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त पैसे हैं। लेकिन अगर इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो कम है तो इसका मतलब है कंपनी के पास कर्ज का बोझ ज्यादा है और कंपनी के दिवालिया होने की आशंका ज्यादा है।

इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो निकालने का फार्मूला :

अर्निंग बिफोर इंटरेस्ट एंड टैक्स (Earnings Before Interest & Tax) / ब्याज (Interest Payment)

अर्निंग बिफोर इंटरेस्ट एंड टैक्स (EBIT) =

EBITDA – डेप्रेशिएसन और अमॉरटाइजेशन (Depreciation & Amortization)

जैन इरिगेशन सिस्टम्स लिमिटेड पर इस रेश्यो का इस्तेमाल करते हैं। नीचे के चित्र में जैन इरिगेशन सिस्टम्स का FY14 का P&L स्टेटमेंट दिया गया है। मैंने कंपनी का फाइनेंस कॉस्ट लाल रंग से हाईलाइट किया है। हमें पता है कि EBITDA =  [आमदनी – खर्च]

खर्च की गणना करने के लिए हमें 5730.34 रूपये के कुल खर्च में से फाइनेंस कॉस्ट (467.64 करोड़) और डिप्रेशिएशन और अमॉरटाइजेशन कॉस्ट (204.54 करोड़) को उसमें से घटाना होगा।

अब EBITDA = 5828.13 – 5058.15

= 769.98 करोड़ रूपये

हमें पता है कि

EBIT = EBITDA – डेप्रेशिएसन और अमॉरटाइजेशन

= 769.98 – 204.54

= 565.44 करोड़ रूपये

कंपनी का फाइनेंस कॉस्ट है = 467.64

इसलिए इंटरेस्ट कवरेज होगा : 

= 565.44 / 467.64

= 1.209 X

मतलब 1.209 गुना।

इसका मतलब है कि कंपनी को अगर ₹1 का ब्याज अदा करना है, तो वह इसका 1.209 गुना ही कमा रही है।

डेट टू इक्विटी रेश्यो

इस रेश्यो को निकालना काफी आसान है| इसमें इस्तेमाल होने वाले दोनों आंकड़े आपको बैलेंस शीट में आसानी से मिल जाएंगे। इसमें आपको यह नापना होता है कि कंपनी के कर्ज की पूंजी और इक्विटी की पूंजी में कितना अंतर है। यहां 1 के अनुपात का मतलब है कि कंपनी के पास कर्ज और इक्विटी बराबर-बराबर है। अगर यह आंकड़ा 1 से ज्यादा होता है तो इसका मतलब है कि कंपनी में लेवरेज यानी कर्ज ज्यादा है और आपको थोड़ा सा सावधान रहने की जरूरत है। अगर यह आंकड़ा 1 से नीचे होता है तो इसका मतलब है कि कंपनी के पास इक्विटी ज्यादा है और कर्ज कम।

डेट इक्विटी रेशों निकालने का फार्मूला है :

 टोटल डेट मतलब कुल कर्ज (Total Debt) / टोटल इक्विटी मतलब कुल इक्विटी (Total Equity)

ध्यान रखिए कि टोटल डेट यानी कुल कर्ज का मतलब शॉर्ट टर्म कर्ज और लांग टर्म कर्ज दोनों से है।

एक बार फिर JSIL की बैलेंस शीट को देखते हैं:
कुल कर्ज (टोटल डेट) = लांग टर्म कर्ज + शॉर्ट टर्म कर्ज

= 1497.663 + 2188.915

= 3686.578 करोड़

कुल इक्विटी है 2175.549 करोड़

तो, अब डेट टू इक्विटी रेश्यो होगा 

= 3686.578 / 2175.549

= 1.69

डेट टू एसेट रेश्यो

यह रेश्यो हमें बताता है कि कंपनी अपने एसेट को कैसे फाइनेंस कर रही है यानी यह पता चलता है कि कितना एसेट कर्ज के जरिए लाया जा रहा है।

इसको निकालने का फार्मूला है :

टोटल डेट / टोटल एसेट्स 

हमें पता है टोटल डेट 3686.578 करोड़

बैलेंस शीट के मुताबिक टोटल एसेट 8204.447 करोड़

तो अब डेट टू एसेट रेश्यो हुआ :

=3686.578 / 8204.44

= 0.449 या 45%

 इसका मतलब है कि कि करीब 45% एसेट कर्ज के जरिए लाये गए हैं, जबकि सिर्फ 55% एसेट ही प्रमोटर या मालिकों के जरिए लाये गए हैं। यह प्रतिशत जितना ज्यादा होगा निवेशकों के लिए उतनी ही ज्यादा चिंता की बात होगी।

 फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो

हमने पिछले अध्याय में भी इसके बारे में संक्षेप में चर्चा की थी जब हम रिटर्न ऑन इक्विटी की बात कर रहे थे। यह रेश्यो हमें बताता है कंपनी के शेयर होल्डर इक्विटी के प्रति यूनिट पर कंपनी के पास कितने प्रति यूनिट एसेट हैं

फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो को निकालने का फार्मूला है : एवरेज टोटल एसेट (Average Total Asset) / एवरेज टोटल इक्विटी (Average Total Equity)

JISL की FY14 की बैलेंस शीट से हमें पता है कि एवरेज टोटल एसेट है 8012.615 जबकि एवरेज टोटल इक्विटी है 2171.755 करोड़। तो फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो या लेवरेज रेश्यो होगा:

8012.615 / 2171.755

= 3.68

 इसका मतलब है कि JISL ने ₹1 की इक्विटी पर 3.68 रुपये का एसेट बनाया हुआ है। याद रखिए यह आँकड़ा जितना ज्यादा ऊपर होगा कंपनी की उतनी ही ज्यादा लेवरेज होगी।

10.2 – ऑपरेटिंग रेश्यो

ऑपरेटिंग रेश्यो यह बताते हैं कि कंपनी का ऑपरेटिंग कारोबार कैसा चल रहा है। इसे एक्टिविटी रेश्यो या मैनेजमेंट रेश्यो भी कहते हैं। ऑपरेटिंग रेश्यो कुछ हद तक यह भी बताते हैं कि कंपनी का मैनेजमेंट कितना कुशल है। इस रेश्यो को असेट मैनेजमेंट रेश्यो भी कहते हैं और यह बताता है कि कंपनी के एसेट का इस्तेमाल कितने अच्छे तरीके से किया जा रहा है।

 कुछ जाने-माने ऑपरेटिंग रेश्यो हैं :

  1. फिक्स्ड ऐसेट टर्नओवर रेश्यो (Fixed Assets Turnover Ratio)
  2. वर्किंग कैपिटल टर्नओवर रेश्यो (Working Capital Turnover Ratio)
  3. टोटल एसेट टर्नओवर रेश्यो (Total Asset Turnover Ratio)
  4. इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो (Inventory Turnover Ratio)
  5. इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज (Inventory Number of Days)
  6. रिसिवेबल टर्नओवर रेश्यो (Receivable Turnover Ratio)
  7. डेज सेल्स आउटस्टैंडिंग (Days Sales Outstanding – DSO)

इन सारे रेश्यो के लिए आंकड़ा P&L स्टेटमेंट और बैलेंस शीट से लिया जाता है। इन रेश्यो को समझने के लिए हम ARBL के डेटा का इस्तेमाल करेंगे।

कंपनी के रेश्यो अच्छे हैं या बुरे- यह जानने के लिए कंपनी के रेश्यो का की तुलना किसी मुकाबला करने वाली कंपनी के रेश्यो से की जानी चाहिए।

फिक्स्ड एसेट टर्नओवर

यह रेश्यो बताता है कि कंपनी अपने फिक्स्ड एसेट में जो निवेश किया है उसके मुकाबले कंपनी को उससे कितनी आमदनी हो रही है। इससे पता चलता है कि कंपनी अपने प्लांट और इक्विपमेंट का कितना अच्छा इस्तेमाल कर रही है। फिक्स्ड एसेट में प्रॉपर्टी, प्लांट और उपकरण आते हैं। कंपनी अपने एसेट का जितना ज्यादा अच्छे से इस्तेमाल कर रही होगी यह रेश्यो उतना ही ऊपर होगा। 

फिक्स्ड एसेट टर्नओवर (Fixed Asset Turnover) = ऑपरेटिंग रेवेन्यू (Operating Revenue) / टोटल एवरेज एसेट (Total Average Asset)

फिक्स्ड एसेट निकालते हुए हमें उसमें से कंपनी के एक्युमुलेटेड डेप्रिसिएशन (Accumulated Depreciation) को घटा देना चाहिए क्योंकि यह कंपनी का नेट ब्लॉक होता है। इस गणना में कैपिटल वर्क इन प्रोग्रेस (Capital work in progress) भी जोड़ दिया जाना चाहिए। ध्यान रखें कि हम गणना करते वक्त एवरेज एसेट ही लेंगे। हमने इस बारे में पिछले अध्याय में चर्चा की थी। 

अब ARBL का बैलेंस शीट देखते हैं: 

कुल औसत एसेट

= (767.864+461.847) / 2

= 614.855 करोड़ रूपये

FY 14 का ऑपरेटिंग रेवेन्यू 3436.7 करोड़ रूपये है

तो अब, फिक्स्ड ऐसेट टर्नओवर रेश्यो हुआ: 

3436.7 / 614.85

= 5.59

इस रेश्यो के आधार पर कंपनी का आकलन करते हुए जरूर याद रखिए कि कंपनी अपने विकास के किस स्तर पर है। हो सकता है कि एक जमी जमाई कंपनी फिक्स्ड एसेट में बहुत ज्यादा निवेश ना कर रही हो लेकिन एक बढ़ती हुई कंपनी अपने फिक्स्ड एसेट में जरूर निवेश करेगी और हो सकता है कि इस एसेट की कीमत साल दर साल बढ़ती रहे। आप ARBL में यह देख सकते हैं FY13 में फिक्स्ड एसेट की कीमत 461.8 करोड़ थी FY14 में बढ़ कर ये 767.8 करोड़ हो गई।

जिस इंडस्ट्री में फिक्स्ड एसेट काफी ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं और जिसमें काफी पूंजी की जरूरत होती है, वैसी इंडस्ट्री में ही इस रेश्यो का ज्यादा इस्तेमाल होता है।

वर्किंग कैपिटल टर्नओवर

कंपनी के कारोबार को चलाने के लिए हर दिन जिस पूंजी की जरूरत पड़ती है, उसे वर्किंग कैपिटल कहते हैं। इस तरह के काम के लिए कंपनी को एक खास तरीके के एसेट की जरूरत होती है। जैसे इन्वेंटरी, रिसिवेबल, कैश यानी नकद। आपको पता ही है कि इन्हें करेंट एसेट कहते हैं। एक अच्छी कंपनी करेंट एसेट को जुटाने के लिए करेंट लायबिलिटी का इस्तेमाल करती है। करेंट ऐसेट और करेंट लायबिलिटी के अंतर को कंपनी का वर्किंग कैपिटल कहते हैं।

 वर्किंग कैपिटल = करेंट एसेट्स – करेंट लायबिलिटी

अगर वर्किंग कैपिटल एक पॉजिटिव संख्या है तो इसका मतलब है कि कंपनी के पास सरप्लस वर्किंग कैपिटल है और वो अपने कारोबार को आसानी से चला सकती है।  लेकिन अगर कंपनी का वर्किंग कैपिटल निगेटिव है तो इसका मतलब है कि कंपनी के पास वर्किंग कैपिटल का डेफिसिट यानी कमी है। कंपनी में यदि कैपिटल की कमी होती है तो उनको बैंक से वर्किंग कैपिटल लोन या कर्ज लेना पड़ता है।

कॉरपोरेट फाइनेंस के क्षेत्र में वर्किंग कैपिटल मैनेजमेंट एक बहुत बड़ा टॉपिक है। इसमें इन्वेंटरी मैनेजमेंट, कैश मैनेजमेंट, कर्जदार (Debtor) का मैनेजमेंट, सब कुछ आता है। किसी भी कंपनी का CFO यानी चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर यह कोशिश करता है कि वह वर्किंग कैपिटल की जरूरतों को अच्छे से निपटा सके। लेकिन हमें इस वक्त इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है।

वर्किंग कैपिटल टर्नओवर रेश्यो को नेट सेल्स टू वर्किंग कैपिटल (Net sales to working capital) भी कहते हैं। वर्किंग कैपिटल टर्नओवर हमें बताता है कि कंपनी अपने वर्किंग कैपिटल की हर यूनिट से कितनी कमाई या आमदनी कर रही है। मान लीजिए कि ये रेश्यो 4 है, तो इसका मतलब है कि कंपनी हर एक रूपये के वर्किंग कैपिटल पर 4 रूपये की कमाई कर रही है। तो साफ है कि यह रेश्यो जितना ऊपर होगा कंपनी के लिए उतना ही बेहतर है। यह भी याद रखिए कि हर रेश्यो की तुलना कंपनी से मुकाबला करने वाली कंपनी के रेश्यो से करना चाहिए है, या फिर आप कंपनी के पिछले रिकॉर्ड से भी इसकी तुलना कर सकते हैं। इससे आप कंपनी का सही आकलन कर पाएंगे।

वर्किंग कैपिटल टर्नओवर निकालने का फार्मूला है 

वर्किंग कैपिटल टर्नओवर = रेवेन्यू (आमदनी) / एवरेज वर्किंग कैपिटल

अब हम अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड के लिए वर्किंग कैपिटल टर्नओवर पर नजर डालेंगे। इसके लिए सबसे पहले हमें FY13 और FY14 का वर्किंग कैपिटल निकालना पड़ेगा और फिर उसका एवरेज यानी औसत निकालना होगा। एक नजर डालिए ARBL की बैलेंस शीट पर, मैंने इसमें करेंट ऐसेट को लाल रंग से और करेंट लायबिलिटी को हरे रंग से हाईलाइट किया है।

दो वित्तीय वर्ष के एवरेज (औसत) वर्किंग कैपिटल को इस तरह से निकाला जा सकता है

FY13 का करेंट एसेट Rs.1256.85
FY13 का करेंट लायबिलिटी Rs.576.19
FY13 का वर्किंग कैपिटल Rs.680.66
FY14 का करेंट एसेट Rs.1298.61
FY14 का करेंट लायबिलिटी Rs.633.70
FY14 का वर्किंग कैपिटल Rs.664.91
एवरेज वर्किंग कैपिटल Rs.672.78

हमें पता है कि ARBL की कमाई 3437 करोड़ रुपए है। इसलिए वर्किंग कैपिटल टर्नओवर रेश्यो होगा

= 3437 / 672.78

= 5.11

इससे हमें पता चलता है कि कंपनी हर एक रुपये के वर्किंग कैपिटल पर 5.11 रूपये  की आमदनी कर रही है। यह हमें पता है कि वर्किंग कैपिटल टर्नओवर रेश्यो जितना ऊपर होगा कंपनी के लिए उतना ही अच्छा है। इसका मतलब है कि कंपनी अपनी बिक्री में जितने पैसे खर्च कर रही है उससे ज्यादा की कमाई कर रही है।

टोटल एसेट टर्नओवर

यह रेश्यो बताता है कि कंपनी अपने एसेट से कितनी आमदनी कर रही है। यहां पर एसेट में फिक्स्ड एसेट और करेंट एसेट दोनों ही शामिल हैं। टोटल एसेट टर्नओवर का ऊंचा होना यह बताता है कि कंपनी अपने एसेट का इस्तेमाल अपनी बिक्री बढ़ाने में ठीक से कर रही है।

टोटल एसेट टर्नओवर = ऑपरेटिंग रेवेन्यू / एवरेज टोटल एसेट 

ARBL के एवरेज टोटल एसेट हैं :

 FY13 के टोटल ऐसेट 1770.5 करोड़ और FY14 के टोटल ऐसेट 2139.4 करोड़। इसलिए औसत यानी एवरेज एसेट होगा 1954.95 करोड़ रूपये

FY14 का ऑपरेटिंग रेवेन्यू है 3437 करोड़ रूपये इसलिए टोटल ऐसेट टर्नओवर होगा:

3437 / 1954.95

= 1.75

इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो

कंपनी जब अपने तैयार माल को स्टोर में या शोरूम में रखती है और यह उम्मीद करती है कि इसे बाद में ग्राहकों को बेचा जाएगा तो इस माल को इन्वेंटरी कहते हैं। कंपनी आमतौर पर अपने स्टोर के अलावा अपने गोदाम में भी कुछ तैयार माल रखती है।

अगर कंपनी का माल काफी लोकप्रिय है तो इसकी इन्वेंटरी जल्दी खत्म हो जाती है और कंपनी को बार-बार नई इन्वेंटरी तैयार करनी पड़ती है। इसे ही इन्वेंटरी टर्नओवर कहते हैं।

उदाहरण के लिए सोचिए कि एक ऐसी बेकरी है जो ब्रेड बेचती है। बेकरी काफी लोकप्रिय है। उसके मालिक को पता है कि हर दिन वह कितने ब्रेड बेचता है। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि वह दिन में 200 ब्रेड बेचता है। इसका मतलब है कि उसे अपने पास हर दिन 200 ब्रेड इन्वेंटरी के तौर पर रखने होंगे। इस उदाहरण में इन्वेंटरी टर्नओवर काफी ऊंचा होगा।

लेकिन हर तरीके के बिजनेस में ऐसा होना जरूरी नहीं है। उदाहरण के तौर पर एक कार बनाने वाली कंपनी को लीजिए। कार की बिक्री ब्रेड की तरह नहीं होती। अगर वह कंपनी 50 कार बनाती है तो उसे इसको बेचने में कुछ समय लगेगा। मान लीजिए उसे 3 महीने का समय लगता है। इसका मतलब है कि हर 3 महीने में उसको अपनी इन्वेंटरी का टर्नओवर करना होगा। उसे साल में सिर्फ 4 बार ही इन्वेंटरी का टर्नओवर करना होगा। हां यह जरूरी है कि अगर कंपनी का माल लोकप्रिय है तो उसका इन्वेंटरी टर्नओवर थोड़ा ज्यादा होगा। इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो यही बताता है।

इसे निकालने का फार्मूला है: 

इन्वेंटरी टर्नओवर = कॉस्ट आफ गुड्स सोल्ड (Cost of goods sold) / एवरेज इन्वेंटरी (Average inventory) 

कॉस्ट आफ गुड्स सोल्ड का मतलब है तैयार माल बनाने में हुआ खर्च। यह हमें P&L स्टेटमेंट में दिखाई देता है। आइए इसे ARBL में देखते हैं।

कॉस्ट आफ गुड्स सोल्ड जानने के लिए हमें कंपनी के खर्चों पर नजर डालनी होगी: 

कॉस्ट आफ मटेरियल कंज्यूम्ड (Cost of material consumed) 2101.19 करोड़ रुपए है और स्टॉक इन ट्रेड (stock-in-trade) की खरीद की कीमत है 211.36 करोड़। यह सारे लाइन आइटम कॉस्ट ऑफ गुड्स सोल्ड से जुड़े हुए हैं। इसके साथ मैं देखना चाहूंगा कि कंपनी के अन्य खर्चे यानी अदर एक्सपेंसेस क्या हैं? जिससे मुझे पता चल सके कि और कोई खर्च तो नहीं है जो कॉस्ट ऑफ गुड्स सोल्ड में जुड़ना चाहिए। यहां पर नोट 24 में इसके बारे में जानकारी दी गई है।

उत्पादन से जुड़े दो और खर्च हैं – स्टोर्स  और स्पेयर्स। यह खर्च 44.4 करोड़ का है। इसके अलावा बिजली और ईंधन का खर्चा है 92.25 करोड़।

इस तरह कॉस्ट आफ गुड्स सोल्ड = कॉस्ट ऑफ मेटेरियल कंज्यूम्ड + परचेज ऑफ स्टॉक इन ट्रेड +  स्टोर एंड स्पेयर्स कंज्यूम्ड + पावर (बिजली) और ईंधन 

= 2101.19+ 211.36+ 44.94 + 92.25

COGS = 2449.74 करोड़

इस तरीके से हमें अंश मिल गया है। अब विभाजक के लिए हमें चाहिए- FY13 और FY14 की औसत इन्वेंटरी। बैलेंस शीट में बताया गया है कि FY13 की इन्वेंटरी है 292. 85 करोड़ FY14 की इन्वेंटरी है 335 करोड़। ऐसे में औसत बनता है 313.92 करोड़।

इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो है :

2449.74 / 313.92

= 7.8

~ 8 बार (साल में)

इसका मतलब है कि अमारा राजा बैटरी अपनी इन्वेंटरी का टर्नओवर साल में 8 बार करती है यानी है डेढ़ महीने में एक बार। यह आंकड़ा अच्छा है या बुरा इसको जानने के लिए हमें इसे इस कंपनी कामुकाबला करने वाली कंपनी से इसकी तुलना करनी होगी।

इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज

इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो हमें बताता है कि कंपनी को अपने इन्वेंटरी को कितनी बार भरना पड़ता है। इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज हमें बताता है कि कंपनी अपनी इन्वेंटरी को कितनी जल्दी नगद में बदल सकती है, मतलब कंपनी के इन्वेंटरी कितनी जल्दी बिक सकती है। इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज जितने कम होंगे कंपनी के लिए उतना ही अच्छा है। इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज कम होने का मतलब है कि कंपनी के उत्पाद जल्दी से जल्दी बिक जाते हैं।

इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज को पता करने का फार्मूला है :

इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज = 365 / इन्वेंटरी टर्नओवर 

इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज की गणना सालाना तौर पर की जाती है। इसीलिए ऊपर के फार्मूला में हमने साल के 365 दिनों का इस्तेमाल किया है।

ARBL का इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज देखते हैं:

365 / 7.8

= 46.79

~ 47 दिन

इसका मतलब है कि ARBL को अपनी सारी इन्वेंटरी बेचने में लगभग 47 दिन लगते हैं। हमें इस इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज की तुलना ARBL से मुकाबला करने वाली कंपनी से करनी चाहिए तभी हमें पता चलेगा कि कंपनी के उत्पाद कितनी जल्दी बिकते हैं।

अब आपसे कुछ अभ्यास कराते हैं। जरा सोचिए:

  1. एक कंपनी  का इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो काफी ऊंचा है 
  2. इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो ऊंचा होने की वजह से कंपनी का इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज काफी कम है

यह सुनकर आपको लगेगा कि कंपनी का इन्वेंटरी मैनेजमेंट काफी अच्छा है। इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो ऊंचा होने का मतलब है कि कंपनी अपने इन्वेंटरी को दोबारा जल्दी से भर देती है, जो कि बहुत अच्छी बात है। इसके साथ ही, इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज कम होने से पता चलता है कि कंपनी में अपनी इन्वेंटरी को काफी जल्दी से बेच पाती है और नकद में बदल लेती है। कंपनी के इन्वेंटरी मैनेजमेंट के लिए यह भी बहुत अच्छा संकेत है।

 लेकिन भले ही कंपनी का इन्वेंटरी टर्नओवर ऊंचा हो और इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज कम हों लेकिन उत्पादन क्षमता कम होने से कंपनी के लिए कई सवाल खड़े हो जाते हैं।

  1. कंपनी अपना उत्पादन क्यों नहीं बढ़ा पा रही है?
  2. क्या वो अपना उत्पादन इसलिए नहीं बढ़ा पा रही है क्योंकि कंपनी के पास पैसों की कमी है? 
  3. अगर उनके पास पैसों की कमी है तो वह बैंक से कर्ज क्यों नहीं ले रहे हैं?
  4. क्या वह बैंक के पास गए थे और बैंक ने उन्हें कर्ज देने से मना कर दिया है?
  5. अगर बैंक ने उन्हें कर्ज देने से मना कर दिया है तो ऐसा क्यों हुआ है? 
  6. क्या कंपनी के मैनेजमेंट के रिकॉर्ड में कुछ ऐसा है जिसकी वजह से बैंक ने उन्हें कर्ज देने से मना किया है? 
  7. अगर पैसों की समस्या नहीं है तो कंपनी अपना उत्पादन क्यों नहीं बढ़ा रही है? 
  8. क्या कंपनी को कच्चा माल आसानी से नहीं मिल रहा है?
  9. क्या कच्चे माल की कमी कंपनी की विस्तार योजनाओं पर रोक लगा सकती है?

जैसा कि आप देख सकते हैं कि अगर ऊपर दिए गए सवालों में से कोई भी चीज सही है तो यह कंपनी के लिए बहुत बड़ा खतरे का निशान है। ऐसी कंपनी में निवेश करना अच्छा नहीं होगा। कंपनी के उत्पादन से जुड़े किसी भी समस्या के बारे में जानने के लिए फंडामेंटल एनालिसिस को वार्षिक रिपोर्ट  को ध्यान से पढ़ना चाहिए। खासकर मैनेजमेंट डिस्कशन और एनालिसिस रिपोर्ट को जरूर शुरू से अंत तक पढ़ना चाहिए।

इसका यह भी मतलब है कि जब भी आपको किसी कंपनी का इन्वेंटरी के आंकड़े बहुत अच्छे दिखें तो यह जरूर चेक कीजिए कि कंपनी का उत्पादन कैसा चल रहा है।

एकाउंट रिसीवेबल टर्नओवर रेश्यो

एकाउंट्स रिसिवेबल टर्नओवर रेश्यो भी इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो की तरह की ही चीज है। रिसिवेबल टर्नओवर रेश्यो बताता है कि एक दिए गए समय में कंपनी अपने ग्राहकों और कर्जदारों से कितनी बार नगद  प्राप्त करती है। इस रेश्यो का ऊंचा होना यह बताता है कि कंपनी को बार बार नकद मिलता रहता है। 

इसकी गणना करने का फार्मूला है : 

      अकाउंट रिसिवेबल टर्नओवर रेश्यो = रेवेन्यू यानी आमदनी / एवरेज रिसिवेबल्स

ARBL की बैलेंस शीट से हमें पता है कि : 

FY13 का ट्रेड रिसीवेबल: 380.67 करोड़ 

FY14 का ट्रेड रिसीवेबल: 452.78 करोड़ 

FY13 – 14 का एवरेज रिसीवेबल: 416.72 करोड़

FY14 का ऑपरेटिंग रेवेन्यू: 3437 करोड़ 

इसलिए रिसिवेबल टर्नओवर रेश्यो होगा: 

3437 / 416.72

=8.24 बार हर साल

~ 8 बार

इसका मतलब है कि कंपनी को साल में लगभग 8 बार नकद मिलता है।

डेज़ सेल्स आउटस्टैंडिंग ( DSO)/ एवरेज कलेक्शन पीरियड/ डे सेल्स इन रिसीवेबल्स

यह रेश्यो हमें बताता है कि कंपनी की बिलिंग और उससे पैसे आने के बीच में कितने दिनों का अंतर है। इससे कंपनी के कलेक्शन डिपार्टमेंट की कुशलता का पता चलता है। कंपनी जितनी जल्दी पैसे कलेक्ट करेगी, उतनी ही जल्दी उस पैसे को किसी दूसरे काम में लगा पाएगी।

इसको इसकी गणना करने का फार्मूला है :

डेज सेल्स आउटस्टैंडिंग = 365 / रिसिवेबल टर्नओवर रेश्यो

आइए ARBL के लिए इसे निकालते हैं:

= 365 / 8.24

= 44.29 दिन

इसका मतलब है कि ARBL बिल निकालने के 45 दिनों के बाद ही पैसे वसूल कर पाती है। 

इससे कंपनी की क्रेडिट पॉलिसी का भी पता चलता है। अच्छी कंपनी में क्रेडिट पॉलिसी और अपने ग्राहकों को क्रेडिट देने के बीच में संतुलन बनाकर रखना होता है।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. लेवरेज रेश्यो में इंट्रेस्ट कवरेज, डेट टू इक्विटी, डेट टू एसेट और फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो शामिल होते हैं। 
  2. लेवरेज रेश्यो हमें कंपनी के कर्जों के बारे में जानकारी देता है। ये बताता है कि कंपनी अपने लांग टर्म डेट या कर्ज को चुकाने में कितनी सक्षम है। 
  3. इंट्रेस्ट कवरेज रेश्यो कंपनी की कमाई की क्षमता को दिखाता है। इसे EBIT के स्तर पर, फाइनेंस कॉस्ट की तुलना में दिखाया जाता है। 
  4. डेट टू इक्विटी रेश्यो, कंपनी की इक्विटी कैपिटल और डेट कैपिटल की तुलना करता है। डेट टू इक्विटी 1 होने का मतलब होता है कि कंपनी की इक्विटी और कर्ज बराबर है। 
  5. डेट टू एसेट रेश्यो हमें कंपनी के एसेट फाइनेंसिंग (एसेट बनाने के लिए पैसे कहां से आ रहे हैं) के बारे में बताता है, खासकर कर्ज के संदर्भ में। 
  6. फाइनेंशियल लेवरेज रेश्यो हमें ये बताता है कि कंपनी के कौन से एसेट मालिकों की इक्विटी से बने हैं। 
  7. ऑपरेटिंग रेश्यो को एक्टिविटी रेश्यो भी कहते हैं। इसमें फिक्स्ड एसेट टर्नओवर, वर्किंग कैपिटल टर्नओवर, टोटल एसेट टर्नओवर, इन्वेंटरी टर्नओवर, इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज, रिसीवेबल टर्नओवर और डेज सेल्स आउटस्टैंडिंग रेश्यो शामिल होते हैं। 
  8. फिक्स्ड एसेट टर्नओवर रेश्यो ये बताता है कि कंपनी अपने फिक्स्ड एसेट में किए गए निवेश के मुकाबले कितनी कमाई कर रही है। 
  9. वर्किंग कैपिटल टर्नओवर रेश्यो बताता है कि कंपनी अपने वर्किंग कैपिटल की हर यूनिट की तुलना में कितनी कमाई कर रही है। 
  10. टोटल एसेट टर्नओवर रेश्यो बताता है कि कंपनी दिए गए एसेट से कितनी कमाई कर रही है। 
  11. इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो बताता है कि कंपनी को अपनी इन्वेंटरी कितनी बार दोबारा भरनी पड़ती है। 
  12. इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज से पता चलता है कि कंपनी अपनी इन्वेंटरी को कितनी जल्दी नकद में बदल पाती है। 
    1. इन्वेंटरी टर्नओवर का ऊपर होना और इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज का नीचे होना, कंपनी के लिए अच्छा होता है। 
    2. लेकिन ध्यान रहे कि ये कंपनी की उत्पादन क्षमता में कमी के साथ नहीं होना चाहिए।
  13. रिसीवेबल टर्नओवर रेश्यो बताता है कि दी गई समय अवधि में कंपनी अपने कर्जदारों और ग्राहकों से कितनी बार नकद प्राप्त करती है।
  14. डेज सेल्स आउटस्टैंडिंग (Day sales outstanding- DSO) रेश्यो हमें बताता है कि कंपनी का औसत नकद कलेक्शन की अवधि कितनी है, मतलब कंपनी के बिल निकालने और पैसे वसूलने के बीच कितने दिनों का अंतर होता है।

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11.1 वैल्यूएशन रेश्यो (The Valuation Ratio)

किसी चीज की कीमत निकालने को उस चीज का वैल्यूएशन करना कहते हैंशेयर बाजार में जब किसी शेयर की कीमत को निकाला जाता है तो उसको शेयर का वैल्यूएशन करना कहते हैं। किसी भी बिजनेस में निवेश करने के पहले यह देखा जाता है उसकी वैल्यूएशन कितनी होनी चाहिए। किसी बिजनेस को खरीदने के लिए भी उसकी वैल्यूएशन को देखा जाता है। कई बार कम वैल्यूएशन पर एक साधारण बिजनेस में ज्यादा अच्छा निवेश माना जाता है बजाय इसके एक बहुत अच्छा बिजनेस को बहुत ऊंचे वैल्यूएशन पर खरीदा जाए।

वैल्यूएशन रेश्यो हमें यही बताता है कि किसी भी शेयर की कीमत को बाजार कैसे देख रहा है? यानी उसकी कितनी वैल्यूएशन कर रहा है। इससे हमें पता चलता है कि निवेश के लिए अच्छा शेयर कौन सा हैये रेश्यो हमें बताता है कि इस शेयर को इस कीमत पर खरीदने पर हमें किस तरह का फायदा हो सकता है। बाकी सारे रेश्यो की तरह इसमें रेश्यो की दूसरी कंपनी के रेश्यो से तुलना करनी चाहिए।

वैल्यूएशन रेश्यो में आमतौर पर किसी बिजनेस के किसी खास हिस्से की तुलना उसके शेयर की कीमत से करते हैं। हम यहां पर इन 3 वैल्यूएशन रेश्यो को देखेंगे

  1. प्राइस टू सेल्स रेश्यो (Price to Sales – P/S ratio)
  2. प्राइस टू बुक वैल्यू रेश्यो (Price to Book Value – P/BV Ratio)
  3. प्राइस टू अर्निंग रेश्यो (Price to Earnings – P/E Ratio)

हम फिर से अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड का उपयोग उदाहरण के तौर पर करेंगे और उसमें इन तीनों रेश्यो को देखेंगे। इस उदाहरण में अमारा राजा बैटरी के शेयरों की कीमत का बहुत महत्व है। यहां मैं 28 अक्टूबर 2014 के शेयर कीमत को लूंगा जो कि ₹661 है।

हमें यह रेश्यो निकालने के लिए ARBL के कुल आउटस्टैंडिंग शेयरों की संख्या को भी जानना होगा। हमने अध्याय 6 में शेयरों की आउटस्टैंडिंग शेयरों की संख्या निकाली थी। यह संख्या थी 17,08,12,500 यानी 17.08 करोड़।

प्राइस टू सेल्स रेश्यो (P/S ratio)

कई बार निवेशक अपने निवेश के लिए कंपनी चुनते वक्त कंपनी की कमाई से ज्यादा कंपनी की बिक्री पर ध्यान देते हैं। क्योंकि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कंपनी की कमाई में किसी खास वजह से कमी आ गई हो। कई बार किसी के एकाउंटिंग फैसले की वजह से भी कंपनी के मुनाफे या कमाई में कमी दिखाई पड़ती है, जैसे किसी बड़े भुगतान की वजह से या किसी दूसरी वजह से। ऐसे में कंपनी की बिक्री पर ध्यान देना निवेशक के लिए बेहतर होता है। इस रेश्यो के तहत कंपनी की बिक्री और कंपनी के शेयरों की कीमत के बीच का अनुपात देखा जाता है प्राइस टू सेल्स रेश्यो को निकालने का फार्मूला है।

प्राइस टू सेल्स रेश्यो = शेयर की मौजूदा कीमत / प्रति शेयर सेल्स या बिक्री

अब ARBL के लिए उसका प्राइस टू सेल्स रेश्यो निकालते हैं। इसके लिए हमें पहले विभाजक/हर (denominator) को निकालना होगा। 

सेल्स (बिक्री) प्रति शेयर = कुल आमदनी /शेयरों की कुल संख्या

ARBL की बैलेंसशीट के मुताबिक

कुल आमदनी = 3482 करोड़

शेयरों की कुल संख्या = 17.08 करोड़

सेल्स (बिक्री) प्रति शेयर = 3482/ 17.081

= 203.86 रूपये

इससे पता चलता है कि प्रति शेयर कंपनी 203.86 रूपये की बिक्री कर रही है।

प्राइस टू सेल्स रेश्यो = 661 / 203.86

= 3.24x या 3.24 गुना

3.24 का प्राइस टू सेल्स रेश्यो बताता है कि हर एक रूपये की बिक्री के सामने शेयर की कीमत 3.24 गुना ज्यादा है। प्राइस टू सेल्स रेश्यो जितना ज्यादा होगा कंपनी की वैल्यूएशन उतनी ज्यादा होगी। इस इंडस्ट्री की दूसरी कंपनियों के प्राइस टू सेल्स रेश्यो से मुकाबला करने पर हमें पता चलेगा कि यह शेयर महंगा है या सस्ता।

प्राइस टू सेल्स रेश्यो की तुलना करके कंपनी के बारे में निवेश करने का फैसला कैसे करते हैं, इसको एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए दो कंपनियां A और B एक ही तरीके का उत्पाद बाजार में बेचती हैं। दोनों कंपनियों की आमदनी भी मान लीजिए 1000 रूपये है। कंपनी A 250 रूपये  PAT के तौर पर कमाती है जबकि कंपनी B का PAT 150 रूपये है। इसका मतलब साफ है कि कंपनी A का प्रॉफिट मार्जिन 25 परसेंट है जबकि कंपनी B का प्रॉफिट मार्जिन 15 परसेंट है। इसका ये भी मतलब है कि कंपनी A की सेल्स या बिक्री कंपनी B की बिक्री के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए कंपनी A का प्राइस टू सेल्स रेश्यो ऊपर है और उसका वैल्यूएशन भी ऊपर है क्योंकि कंपनी A हर रूपये की बिक्री के लिए ज्यादा मुनाफा कमा कर दे रही है।

अगर कभी आपको लगे कि किसी कंपनी के शेयर की कीमत उसके प्राइस टू सेल्स रेश्यो के नजरिए से ज्यादा ऊंची दिख रही है तो कंपनी का मुनाफा या प्रॉफिट मार्जिन जरूर चेक कीजिए।

प्राइस टू बुक वैल्यू रेश्यो ( P/BV ratio)

 प्राइस टू बुक वैल्यू रेश्यो समझने के पहले हमें यह जानना होगा कि बुक वैल्यू क्या होती है।

मान लीजिए एक कंपनी को बंद करना पड़ा है और उसे अपने सारे एसेट बेचने पड़ते हैं। सारे एसेट बेचने पर कंपनी को कम से कम जितने पैसे मिलेंगे, उसे उस कंपनी की बुक वैल्यू माना जाता है।

साधारण भाषा में कहें तो सब कुछ बेच देने के और अपनी देनदारियों को पूरा करने के बाद कंपनी के पास जितने पैसे बचेंगे उसे उसकी बुक वैल्यू माना जाता है। अगर कंपनी की बुक वैल्यू 200 करोड़ रूपये है, तो इसका मतलब है कि कंपनी को सब कुछ बेचने पर जो पैसे मिले और उसमें से कंपनी ने अपनी सभी देनदारियां पूरी कर दी, तो यह बची हुई रकम है। आमतौर पर बुक वैल्यू को प्रति शेयर के तौर पर बताया जाता है। यदि किसी कंपनी की बुक वैल्यू प्रति शेयर 60 रूपये है तो इसका मतलब है कि कंपनी के हर शेयर धारक को कंपनी के बिकने की स्थिति में 60 रूपये की उम्मीद रखनी चाहिए। बुक वैल्यू को निकालने का फार्मूला है:

बुक वैल्यू (BV)= शेयर कैपिटल + रिजर्व्स (रिवैल्युएशन रिजर्व्स निकालने के बाद)/ शेयरों की कुल संख्या 

अब इसे ARBL के लिए निकालते हैं:

ARBL की बैलेंस शीट से हमें पता है:

शेयर कैपिटल = 17.1 करोड़ रूपये

रिजर्व्स = 1345.6 करोड़ रूपये

रिवैल्युएशन रिजर्व्स = 0

शेयरों की संख्या = 17.081 करोड़ रूपये

प्रति शेयर बुक वैल्यू  = [17.1+1345.6-0] /17.081

= Rs 79.8 प्रति शेयर

इसका मतलब है कि अगर ARBL को अपना सब कुछ बेचना पड़े तो और कर्ज चुका देने के बाद कंपनी के हर शेयर धारक को हर शेयर पर 79.8 रूपये मिलने की उम्मीद रखनी चाहिए। यदि हम कंपनी के मौजूदा शेयर कीमत को कंपनी की बुक वैल्यू से विभाजित करेंगे तो हमें प्राइस टू बुक वैल्यू पता चल जाएगी इससे पता चलता है कि कंपनी के शेयर अपने बुक वैल्यू के कितने गुना पर बिक रहे हैं। प्राइस टू बुक वैल्यू जितना ऊपर होगा कंपनी के शेयर उतने ही महंगे माने जाएंगे।

अब ARBL के लिए प्राइस टू बुक वैल्यू निकालते हैं :

ARBL के शेयर की कीमत = 661 रूपये प्रति शेयर

ARBL की बुक वैल्यू (BV) = 79.8

प्राइस टू बुक वैल्यू (P/BV) = 661/79.8

=8.3 गुना

इसका मतलब है कि ARBL के शेयर अपनी बुक वैल्यू की 8.3 गुना पर बिक रहे हैं।

एक ऊंची प्राइस टू बुक वैल्यू का मतलब है कि कंपनी के शेयर अपनी बुक वैल्यू के मुकाबले महंगे हैं और एक कम प्राइस टू बुक वैल्यू होने का मतलब है कि कंपनी के शेयर अपने बुक वैल्यू के मुकाबले सस्ते में मिल रहे हैं।

प्राइस टू अर्निंग रेश्यो (P/E ratio)

प्राइस टू अर्निंग रेश्यो शायद सबसे ज्यादा प्रचलित फाइनेंशियल रेश्यो है। हर कोई कंपनी के प्राइस टू अर्निंग रेश्यो को जानना चाहता है। इसे फाइनेंशियल रेश्यो का सुपरस्टार भी कहा जाता है।

प्राइस टू अर्निंग रेश्यो निकालने के लिए कंपनी की मौजूदा शेयर कीमत को उसके EPS यानी अर्निंग प्रति शेयर से विभाजित किया जाता है। आगे बढ़ने के पहले हम एक बार यह जान लेते हैं कि EPS क्या होता है। 

कंपनी के मुनाफे को अगर प्रति शेयर के हिसाब से बांटा जाए तो जो आंकड़ा मिलेगा, उसे कंपनी का ईपीएस (EPS) कहते हैं। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कंपनी के पास 1000 शेयर हैं और कंपनी 200000 रूपये का मुनाफा कमाती है। अब इस कंपनी का EPS यानी अर्निंग प्रति शेयर होगा

200,000 /1000

=200 प्रति शेयर  

EPS हमें बताता है कि कंपनी हर शेयर के लिए कितना मुनाफा कमा रही है। कंपनी का EPS जितना ज्यादा होगा  शेयरधारकों के लिए उतना ही अच्छा होगा। अगर आप कंपनी के मौजूदा शेयर कीमत को कंपनी के EPS से विभाजित करेंगे तो आपको P/E रेश्यो मिलेगा। इस रेश्यो से पता चलता है कि बाजार के खिलाड़ी कंपनी के मुनाफे के मुकाबले उसकी शेयर कीमत पर कितना गुना प्रीमियम देने को तैयार हैं। उदाहरण के तौर पर 15 की P/E रेश्यो का मतलब है कि कंपनी के मुनाफे की 15 गुना कीमत उसके शेयर को देने के लिए बाजार के खिलाड़ी तैयार हैं। कंपनी का P/E रेश्यो जितना ज्यादा होगा वह शेयर उतना ही ज्यादा महंगा होगा।

ARBL का P/E रेश्यो निकालते हैं: 

ARBL की वार्षिक रिपोर्ट से हमें पता है: 

PAT = 367 करोड़ रूपये 

शेयरों की कुल संख्या = 17.081 करोड़

EPS = PAT / शेयरों की कुल संख्या

= 367 / 17.081

= Rs 21.49

ARBL के शेयरों का मौजूदा कीमत = 661 रूपये  

इसलिए P/E रेश्यो = 661 / 21.49

= 30.76

इसका मतलब है कि ARBL जितना मुनाफा कमा रही है उसके हर एक हिस्से पर बाजार के खिलाड़ी 30.76 रूपये दे कर शेयर लेने को तैयार हैं। अब मान लीजिए कि कि शेयर की कीमत 750 रूपये हो जाती है जबकि EPS 21.49 ही रहता है। अब नया P/E होगा:

= 750 / 21.49

= 34.9 

अगर EPS 21.49 प्रति शेयर रहा और शेयर का P/E ऊपर चला गया है तो आपको क्या लगता है क्या हुआ होगा?

P/E इसलिए ऊपर चला गया क्योंकि शेयर की कीमत बढ़ गयी। हमें पता है कि शेयर की कीमत तब बढ़ती है जबकि कंपनी से उम्मीदें बढ़ जाती हैं। 

याद रखिए कि P/E रेश्यो की गणना करते समय कंपनी के मुनाफे को विभाजक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। P/E रेश्यो को देखते समय इन चीजों का ध्यान रखिए:

  1. P/E रेश्यो हमें बताता है कि कोई शेयर कितने महंगे या सस्ते दामों पर मिल रहा है। बहुत ऊंचे वैल्यूएशन पर कभी भी शेयर मत खरीदें। व्यक्तिगत तौर पर मैं कभी भी 25 या 30 के P/E रेश्यो के ऊपर के शेयर नहीं खरीदता हूं, चाहे वह किसी भी कंपनी या सेक्टर के हों।
  2. P/E रेश्यो निकालते समय कमाई हमेशा विभाजक/हर (denominator) के तौर पर होती है और कमाई को कंपनी अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ सकती है।
  3. ध्यान दीजिए कि कंपनी अपनी अकाउंटिंग पॉलिसी को तो बार-बार नहीं बदल रही है अगर यह वह ऐसा कर रही है तो इसका मतलब है वह अपनी कमाई को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश कर रही है| 
  4. कंपनी के डेप्रिसिएशन पर भी नजर रखिए। कई बार कंपनियां कम डिप्रेशिएशन दिखाकर अपनी कमाई ज्यादा दिखा लेती हैं। 
  5. अगर कंपनी की कमाई बढ़ रही है लेकिन उसका कैशफ्लो और बिक्री नहीं बढ़ रही है तो इसका मतलब है कहीं ना कहीं कुछ गड़बड़ है।

11.2 – इंडेक्स का वैल्युएशन

शेयरों की तरह स्टॉक मार्केट के इंडेक्स जैसे BSE सेंसेक्स और CNX निफ़्टी 50 का भी अपना वैल्यूएशन होता है। जिनको आप P/E, P/B, डिविडेंड यील्ड रेश्यो जैसी चीजों से नाप सकते हैं। आमतौर पर स्टॉक एक्सचेंज अपने इंडेक्स की वैल्यूएशन हर दिन बताते हैं। इंडेक्स की वैल्यूएशन से हमें पता चलता है कि बाजार इस समय महंगा है या सस्ता। CNX निफ़्टी 50 का P/E रेश्यो निकालने के लिए नेशनल स्टॉक एक्सचेंज अपने  इंडेक्स में शामिल 50 शेयरों के मार्केट कैपीटलाइजेशन को जोड़ता है और उसको सभी 50 कंपनियों की कमाई यानी मुनाफे से विभाजित करता है। इंडेक्स का P/E रेश्यो देखने से हमें पता चलता है कि बाजार के खिलाड़ी इस समय बाजार को किस तरह से देख रहे हैं। निफ़्टी 50 के P/E रेश्यो के चार्ट को देखिए:

* स्रोत– Creytheon

ऊपर के चार्ट को देखकर हमें कुछ जरूरी बातें पता चलती हैं:

  1. इंडेक्स का सबसे ऊंचा वैल्यूएशन 28 गुना था जो कि 2008 की शुरुआत में आया था। इसके बाद बाजार में तेज गिरावट आई थी।
  2. इस गिरावट के बाद बाजार की वैल्यूएशन करीब 11 गुना रह गई थी जो कि 2008 के अंत और 2009 की शुरुआत में थी। पिछले कुछ समय में भारतीय शेयर बाजार की ये सबसे कम वैल्यूएशन थी। 
  3. आम तौर पर भारतीय शेयर बाजार के इंडेक्स का P/E रेश्यो 16 से 20 गुना के बीच में होता है यानी औसतन 18 गुना। 
  4. 2014 में यह 22 गुना पर ट्रेड कर रहा था जो की औसत P/E से ऊपर है।

 इसके आधार पर हम कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

  1. शेयर बाजार में 22 के P/E रेश्यो  के ऊपर निवेश करते समय हमें सावधानी बरतनी चाहिए।
  2. शेयर बाजार में निवेश का सबसे अच्छा समय तब होता है जब वैल्यूएशन 16 के आसपास हो।

इंडेक्स के P/E रेश्यो को पता करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आप नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) की वेबसाइट पर जाएं, जहां पर यह हर दिन बताया जाता है।

NSE के होम पेज पर प्रोडक्ट को क्लिक करें> इंडेक्स को क्लिक करें >हिस्टोरिकल डाटा को क्लिक करें>P/E, P/B & Div> search

(NSE’s home page click on Products > Indices > Historical Data > P/E, P/B & Div > Search)

सर्च के दायरे के तौर पर अपनी आज की तारीख को डालें और आप को सबसे ताजा P/E वैल्यूएशन दिख जाएगा| याद रखें कि NSE इसे हर दिन शाम को 6:00 बजे अपडेट करता है। सर्च रिजल्ट का एक चित्र देखें:  

यहां आपको दिखेगा कि शेयर बाजार का अपने सबसे ऊंचे P/E के आसपास ट्रेड कर रहा है। इस स्तर पर निवेश करने के पहले हमें ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत होती है।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. वैल्यूएशन का आमतौर पर मतलब होता है किसी चीज की कीमत को पता करना।
  2. वैल्यूएशन रेश्यो निकालने के लिए हमें P&L स्टेटमेंट और बैलेंस शीट दोनों के आंकड़ों की जरूरत पड़ सकती है। 
  3. प्राइस टू सेल्स रेश्यो में कंपनी के शेयर कीमत की तुलना कंपनी के प्रति शेयर सेल्स से की जाती है।
    1. प्रति शेयर सेल्स का मतलब है कि कंपनी की कुल बिक्री के आंकड़े को शेयरों की संख्या से विभाजित कर दिया जाए।
  4. ज्यादा प्रॉफिट मार्जिन वाली कंपनी की सेल्स या बिक्री उस कंपनी के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण होती है जिसका प्रॉफिट मार्जिन कम हो। 
  5. बुक वैल्यू का मतलब है कि अगर कोई कंपनी दिवालिया हो गई है और उसने अपनी देनदारियां पूरी कर दी हैं तो उसके पास कुल कितने पैसे बचे हैं। 
  6. आमतौर पर बुक वैल्यू को प्रति शेयर के तौर पर बताया जाता है।
  7. प्राइस टू बुक वैल्यू रेश्यो यह बताता है कि कंपनी के शेयर अपने बुक वैल्यू के कितने गुना कीमत पर बिक रहे हैं। 
  8. EPS से कंपनी के मुनाफे को प्रति शेयर आधार पर नापते हैं। 
  9. P/E रेश्यो बताता है कि बाजार के खिलाड़ी कंपनी के मुनाफे के लिए प्रति शेयर कितनी कीमत देने को तैयार हैं। 
  10. P/E रेश्यो को देखते समय मुनाफे में फेरबदल की आशंका पर नज़र रखनी चाहिए।
  11. शेयर बाजार के इंडेक्स का वैल्यूएशन भी P/E, P/B  या डिविडेंड यील्ड रेश्यो से नापा जा सकता है। 
  12. जब इंडेक्स 22  गुना से ज्यादा की वैल्यूएशन पर हो तो निवेश करते समय थोड़ा सावधान रहना चाहिए।
  13. इंडेक्स की 16 गुना वैल्यूएशन निवेश के लिए काफी अच्छी होती है। 
  14. इंडेक्स की वैल्यूएशन हर दिन NSE अपनी वेबसाइट पर डालती है।

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12.1- स्टॉक चुनने का आधार

पिछले कुछ अध्यायों में हमने समझा है कि फाइनेंशियल स्टेटमेंट को कैसे पढ़ा जाए और कुछ जरूरी फाइनेंशियल रेश्यो को कैसे निकाला जाए।  इन सब का इस्तेमाल करके हम फंडामेंटल एनालिसिस के आधार पर शेयर चुनने का अपनी शर्तें बनाना शुरू कर सकते हैं। हमने पहले भी बात की है कि हर कंपनी में निवेश के पहले यह देखना होता है कि वह निवेश के लायक कंपनी है या नहीं।  हर वह कंपनी जो निवेश योग्य कंपनी की शर्तों को पूरा करती है उसमें निवेश किया जा सकता है।

 सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि निवेश के योग्य कंपनी कौन सी होती है? हो सकता है कि मेरे लिए जो निवेश योग्य कंपनी हो आप के लिए वो निवेश योग्य ना हो और जो आपके लिए निवेश योग्य कंपनी हो वह मेरे लिए निवेश योग्य ना हो। उदाहरण के तौर पर मैं ऐसी कंपनियों को चुनना पसंद कर सकता हूं जिसमें कॉरपोरेट गवर्नेंस के पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा हो। लेकिन कोई दूसरा निवेशक हो सकता है जो कॉरपोरेट गवर्नेंस ध्यान ना दे वह कह सकता है कि सब कंपनियों में कुछ ना कुछ गड़बड़ होती ही है जब तक कंपनी के नतीजे और बाकी आंकड़े अच्छे दिख रहे हैं मैं  उनमें निवेश करने के लिए तैयार हूं।

इस बात का मतलब यह है कि शेयरों को चुनने के लिए कोई एक तय चेक लिस्ट नहीं होती है। हर निवेशक को अपने हिसाब से अपने पसंदीदा शर्तें बनानी होती हैं जिनके आधार पर वह निवेश करेगा। हर निवेशक अपने अनुभव के आधार पर यह शर्तें तय करता है। लेकिन यह ध्यान देना चाहिए कि यह शर्तें किसी तर्क पर आधारित हों। वैसे इस अध्याय के अंत में मैं अपनी चेक लिस्ट आपको दिखाऊंगा। अगर आप निवेश करना अभी शुरू कर रहे हैं तो आप मेरी इस चेकलिस्ट इसका इस्तेमाल कर सकते हैं और उसमें से अपनी पसंद की शर्तें चुन सकते हैं।

12.2- स्टॉक चुनना कैसे शुरू करें

 हम स्टॉक में निवेश के लिए एक चेक लिस्ट बनाएं, उसके पहले कुछ जरूरी बातों पर ध्यान देना चाहिए। स्टॉक चुनने की  प्रक्रिया की शुरुआत के तौर पर हमें सबसे पहले कुछ ऐसे शेयर तलाशने चाहिए जो हमें पसंद आ रहे हों। कुछ शेयरों को पसंद करने के बाद हमें देखना चाहिए कि वो हमारी चेक लिस्ट की शर्तों को पूरा करते हैं या नहीं। अगर वह शर्तें पूरी करते हैं तो उसमें निवेश करना चाहिए और अगर नहीं तो हमें दूसरे शेयरों की ओर देखना चाहिए।

तो सबसे पहला सवाल यह है कि हम वह स्टॉक कैसे चुनें जिनके बारे में हम कह सकें कि वो हमें पसंद आ रहे हैं और  जिनको हम अपने चेक लिस्ट की शर्तों पर जांचना चाहते हैं। इसको करने के कुछ रास्ते हैं:

  1. जनरल ऑब्जर्वेशन (General Observation) यानी आर्थिक गतिविधियों पर नजर-  सुनने में यह बहुत साधारण सी बात लगेगी लेकिन स्टाक चुनने के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तरीका है। आपको सिर्फ यह करना है कि अपने आसपास हो रही आर्थिक गतिविधियों पर नजर रखें और अपने आंख और कान खुले रखें। देखें कि लोग क्या खरीद रहे हैं, क्या बेच रहे हैं? किस तरह के उत्पाद की मांग ज्यादा है? आपके पड़ोस में लोग किन उत्पादों के बारे में बातचीत कर रहे हैं? अमेरिकी शेयर बाजार के बहुत जाने-माने निवेशक पीटर लिंच ने अपनी किताब “वन अप ऑन वॉल स्ट्रीट(One up on Wall Street)” में इस तरीके की चर्चा की है। व्यक्तिगत तौर पर मैंने भी इस तरीके का इस्तेमाल किया है। मैंने PVR सिनेमा का स्टॉक निवेश के लिए चुना (क्योंकि मुझे दिख रहा था कि मेरे आस-पास PVR के मल्टीप्लेक्स काफी तेजी से खुल रहे हैं) कमिंस इंडिया का स्टॉक (मुझे दिखा कि मेरे आस-पास की हर कंपनी बिल्डिंग में कमिंस का डीजल जनरेटर लगा हुआ है), इंफोएज लिमिटेड का स्टॉक (क्योंकि मुझे दिखा कि ये को भारत में सबसे लोकप्रिय जॉब वेबसाइट naukri.com को चलाती है)
  2. स्टॉक स्क्रीनर (Stock Screener)- इसे आप एक ऐसी छननी के तौर पर मान सकते हैं जिससे आप बहुत सारे स्टॉक्स में से अच्छे स्टॉक्स निकाल सकते हैं।  इसका मतलब है कि स्टॉक चुनने के लिए ऐसी प्रक्रिया बनाना जिसको आप खुद तय करेंगे। इसके जरिए आप अच्छी क्वालिटी के शेयर चुन सकते हैं। उदाहरण के तौर पर आप एक ऐसा स्क्रीनर बना सकते हैं जिसमें आपने शर्त रखी हो कि शेयर का ROE 25% और PAT मार्जिन 20% से कम ना हो। इस तरीके से आप बहुत सारे स्टॉक्स में से कुछ काम के स्टॉक चुन सकते हैं। वैसे काफी स्टॉक स्क्रीनर ऑनलाइन मौजूद हैं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मैं गूगल फाइनेंस का स्टॉक स्क्रीनर और screener.in को पसंद करता हूं।
  3. अर्थव्यवस्था के संकेत-  अच्छे स्टॉक चुनने का एक बेहतरीन तरीका है कि आप अर्थव्यवस्था के हालात पर नजर बनाए रखें। इसे एक उदाहरण से समझते हैं- आप देखेंगे कि इन दिनों भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने पर काफी ज्यादा जोर दिया जा रहा है। नए नए पुल, सड़कें और ऐसी तमाम चीजें बनाई जा रही है।देश में काम कर रही सीमेंट कंपनियों को इसका सीधा फायदा मिलेगा । इसलिए मैं ऐसी सीमेंट कंपनियों को और की ओर देखूंगा जो मेरी चेक लिस्ट की शर्तों को पूरा करती है और इस नए चलन का फायदा उठा सकती हैं।
  4. सेक्टर के ट्रेंड (चलन)- इसमें आप उन सेक्टरों  को पहचानने की कोशिश करते हैं जहां पर नए चलन दिखाई पड़ रहे हैं। फिर उन सेक्टर में काम कर रही कंपनियों को पहचानने की कोशिश करते हैं जिनको इस चलन का फायदा मिल सके। उदाहरण के तौर पर हम जानते हैं कि 3 तरह के पेय पदार्थ भारत में काफी ज्यादा बिकते हैं  कॉफी, चाय और बोतल का पानी। लेकिन अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पिछले दिनों एक नया चलन शुरू हुआ है वह एनर्जी ड्रिंक का। यह बाजार काफी तेजी से बढ़ा है और इसमें काफी संभावनाएं नजर आ रही है। अब आप इस सेक्टर की उन कंपनियों को खोजने की कोशिश कर सकते हैं जो एनर्जी ड्रिंक के कारोबार में जुड़ी हुई हैं या इसमें घुसने की तैयारी में है।
  5. खास घटना या खास स्थिति-  शेयर आईडिया निकालने का यह एक थोड़ा मुश्किल तरीका है। इसके लिए आपको कंपनियों, कंपनियों से जुड़ी खबरों और  कंपनी की ऐसी घटनाओं पर नजर रखनी पड़ती है, जिससे आगे चलकर कंपनी को फायदा हो सकता है। मुझे एक उदाहरण याद है। सन 2013 में देश के बड़े टूर ऑपरेटर्स में से एक कॉक्स एंड किंग्स ने एचडीएफसी के केकी मिस्त्री को अपने एडवाइजरी बोर्ड में शामिल किया। केकी मिस्त्री की बिजनेस और इंडस्ट्री में काफी इज्जत है माना जाता है कि उनको बिजनेस की अच्छी समझ है। मेरे एक दोस्त ने कहा कि केकी मिस्त्री के आने से कॉक्स एंड किंग्स को फायदा होगा। इसलिए उसने कंपनी के बारे में और रिसर्च करना शुरू किया ताकि वह देख सके कि निवेश की दूसरी शर्तें पूरी होती है या नहीं। फिर उसने उस शेयर में निवेश किया और आज वह 200% के मुनाफे पर बैठा है।
  6. सर्किल ऑफ कांपीटेंस (Circle of Competence)/ अपनी योग्यता का इस्तेमाल- यह स्टॉक आईडिया निकालने का वह तरीका है जहां पर अपनी आप अपनी जानकारी या अपनी योग्यता का फायदा उठाते हैं। यह एक नए निवेशक के लिए सबसे आसान और भरोसेमंद तरीका है। उदाहरण के तौर पर आप बैंक में काम करते हैं तो आपको बैंकिंग इंडस्ट्री की अच्छी समझ होगी आप अपने आसपास देखेंगे या अपने सहकर्मियों से बात करेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सा बैंक ज्यादा अच्छी स्थिति में है और आगे चलकर बड़ा मुनाफा कमा सकता है। इसी तरह से मेडिकल इंडस्ट्री में काम करने वाले लोग हेल्थ केयर से जुड़ी कंपनियों के बारे में दूसरों के मुकाबले ज्यादा बेहतर जानकारी रखते हैं। उन्हें बस करना यह है कि वह देखें कि उनकी इंडस्ट्री में कौन सी लिस्टेड कंपनियां हैं और इनमें से किस में यह क्षमता है कि आगे चलकर वह मुनाफा कमा सके। इस तरह आप अपनी क्षमता का इस्तेमाल करके स्टाक आइडिया निकाल सकते हैं।

कहने का मतलब यह है कि स्टाक आइडिया कहीं से भी मिल सकता है। आपको जब भी कोई स्टाक पसंद आए तो उसको अपनी लिस्ट में शामिल कर लीजिए और उस पर नजर रखिए क्योंकि हो सकता है कि वह स्टॉक उस समय आपके निवेश की शर्तों को पूरा ना कर रहा हो। लेकिन उस पर नजर रखेंगे तो हो सकता है कि आने वाले समय में वह निवेश की शर्तों को पूरा करे और आपके लिए एक अच्छा निवेश का आईडिया बन सके। आपको ऐसे स्टॉक्स की एक लिस्ट हमेशा अपने पास रखनी चाहिए जिन पर आप नजर रख रहे हैं।

12.3 – The Moat 

शेयरों को पहचानने के बाद अगला काम होता है, यह देखना कि शेयर चेक लिस्ट की शर्तों पर खरे उतर रहे हैं या नहीं। निवेश के पहले का यह जरूरी काम बहुत ही महत्वपूर्ण होता है और इसके हर हिस्से पर आपको बहुत ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।

चेक लिस्ट पर दोबारा नजर डालने के पहले एक और सिद्धांत को समझना चाहिए जिसे कहते हैं मोट (The Moat)। इसको वारेन बफेट ने प्रचलित किया है। यह बताता है कि कंपनी अपने प्रतिद्वंदियों के मुकाबले कितनी ज्यादा दूरी पर है और ये स्थिति कंपनी कब तक बनाए रख सकती है। आपको पता ही होगा कि मोट का मतलब वह खाई होता है जो पुराने जमाने में किले के बाहर चारों तरफ इसलिए बनाई जाती थी जिससे दुश्मन उसको पार करके किले तक ना पहुंच सके। वॉरेन बफेट ने इसी के आधार पर यह कहा है कि कंपनियां को एक ऐसा मोट बनाना चाहिए जिससे उनके और उनके प्रतिद्वंदियों के बीच में एक खाई बनी रहे और उनका मुनाफा प्रभावित ना हो। यह खाई जितनी चौड़ी होगी कंपनी के लिए उतना ही बेहतर होगा।

मोट को समझने के लिए उदाहरण लेते हैं। आयशर मोटर्स लिमिटेड कंपनी कमर्शियल व्हेकिल यानी गाड़ियां बनाती है और साथ ही रॉयल एनफील्ड बाइक भी बनाती है। रॉयल एनफील्ड बाइक देश और विदेश, दोनों में बहुत ही लोकप्रिय हैं। एक खास तरीके के ग्राहकों को ये बाइक बहुत ही ज्यादा पसंद आती है। यह बाइक ना तो हार्ली डेविडसन की तरह बहुत महंगी है और ना ही टीवीएस की बाइक की तरह बहुत सस्ती। किसी भी दूसरी कंपनी के लिए रॉयल एनफील्ड के मुकाबले में एक नई बाइक लाना और उसका मुकाबला करना आसान नहीं होगा। इसका मतलब है कि आयशर मोटर्स का मोट काफी चौड़ा है, उसके प्रतिद्वंदियों के लिए उसको मुकाबला देना आसान नहीं होगा।

आज बहुत सारी कंपनियां हैं जिनके पास ऐसे मोट हैं। शेयर बाजार में पैसा बना कर देने वाली हर कंपनी के पास कहीं ना कहीं एक ऐसा मोट जरूर होता है। उदाहरण के तौर पर इंफोसिस को देखिए जिसके पास ये मौका था कि वह भारत से वही सेवा दे सके जो कि अमेरिका में बहुत ही ऊंचे दाम पर मिल रही थी। पेज इंडस्ट्री के पास ये मोट बनाथा जब उसे जॉकी इनरवियर के लिए भारत का लाइसेंस मिला था। भारत में प्रेशर कुकर बेचने वाली कंपनी प्रेस्टीज के पास भी ऐसा ही एक मोट है। आपको ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाएंगे।

12.4 – जरूरी काम और सावधानियां

शेयर बाजार पर रिसर्च और निवेश करने के पहले का सबसे जरूरी काम है 

  1. बिजनेस को समझना जिसमें वार्षिक रिपोर्ट को पढ़ना भी शामिल है। 
  2. अपनी चेकलिस्ट की शर्तों को पर नजर डालना और निवेश करने योग्य हर कंपनी को उस कसौटी पर कसना।  
  3. कंपनी का वैल्यूएशन करना जिससे उस बिजनेस को पूरी तरह से समझा सके।

किसी कंपनी के बारे में जानने के लिए हमें उसके हर पहलू को ठीक से जानना और पहचानना होगा। हमें अपने प्रश्नों की एक लिस्ट बनानी होगी जिसके जवाब में ढूंढने होंगे। जैसे सबसे पहला सवाल यही होगा कि कंपनी करती क्या है? इन सवालों का जवाब हमें गूगल पर नहीं ढूंढना है, जवाब मिलेंगे कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट में या कंपनी की वेबसाइट पर। इससे हमें यह भी पता चलेगा कि कंपनी को अपने बारे में और अपने बिजनेस के बारे में क्या कहना है। व्यक्तिगत तौर पर मैं ऐसी कंपनियों में निवेश पसंद करता हूं जिसमें कंपटीशन यानी प्रतियोगिता कम हो और सरकार के हस्तक्षेप की संभावना भी कम हो। उदाहरण के तौर पर जब मैंने PVR सिनेमा में निवेश किया तो उस समय केवल तीन कंपनियां थी जो इस क्षेत्र में काम करती थी PVR, आईनॉक्स और सिनेमैक्स। बाद में सिनेमैक्स का PVR में विलय हो गया बाजार में सिर्फ दो ही कंपनियां रह गयीं। अब और कई नए खिलाड़ी इस बाजार में आ गए हैं।  इसलिए अब समय है कि मैं PVR में अपने निवेश को एक बार फिर से देखूं और तय करूं कि आगे मुझे क्या करना है। कंपनी के बिजनेस को जानने के बाद अगला कदम होता है यह देखना कि कंपनी हमारी चेक लिस्ट की शर्तों में से कितनी शर्तें पूरा कर रही है। एक नजर डालिए मेरी चेक लिस्ट पर जिसमें 10 शर्ते हैं।

 

क्रम संख्या

काम की शर्त टिप्पणी

इसका अर्थ

1 ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन (GPM) > 20% GPM जितना अधिक हो उतना अच्छा, कंपनी का मोट या खाई उतनी बड़ी होगी
2 आमदनी में बढत मुनाफे की दिशा में होनी चाहिए मुनाफे के बराबर की रफ्तार से बढ़नी चाहिए
3 EPS EPS को नेट प्रॉफिट की रफ्तार से बढ़ना चाहिए अगर कोई कंपनी नई इक्विटी जारी कर रही है तो ये अच्छी बात नहीं है। मौजूदा शेयरधारकों का हिस्सा कम हो जाएगा 
4 कर्ज का स्तर कंपनी बहुत कर्ज में ना डूबी हो ज्यादा कर्ज का मतलब होता है कि कंपनी कारोबार के लिए कर्ज पर निर्भर है। इससे फाइनेंस कॉस्ट बढ़ती है और मुनाफा इसमें जाने लगता है
5 इन्वेंटरी मैन्युफैक्चरिंग या उत्पादन से जुड़ी कंपनियों पर लागू इन्वेंटरी और  PAT मार्जिन का साथ साथ बढ़ना एक अच्छा संकेत होता है। इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज जरूर चेक करें 
6 सेल्स vs रिसीवेबल्स रिसीवेबल्स के भरोसे सेल्स (बिक्री) आ बढ़ना अच्छा संकेत नहीं है ऐसा होने का मतलब है कि कंपनी सिर्फ बिक्री के आंकड़े ज्यादा दिखाने की कोशिश में लगी है
7 ऑपरेशन का कैश फ्लो कैश फ्लो पॉजिटिव होना चाहिए अगर कंपनी के पास उसके कारोबार से कैश नहीं आ रहा तो साफ है कि कंपनी पर दबाव है।
8 रिटर्न ऑन इक्विटी >25% ROE जितना अधिक हो निवेशक के लिए उतना अच्छा है , लेकिन साथ ही में कर्ज का स्तर भी जांच लें।
9 कारोबार में विविधता कंपनी सिर्फ 1 या 2 तरह के कारोबार में हो सी कंपनियों से बचें जिनके कई तरह के धंधे हों। सिर्फ एक या दो तरह का कारोबार करने वाली कंपनी बेहतर होती है
10 सब्सिडियरी कम होनी चाहिए अगर कंपनी की बहुत सारी सब्सिडियरी कंपनियां हैं तो ये एक संकेत हो सकता है कि कंपनी उनके बहाने पैसे निकाल रही है। ऐसी कंपनी में निवेश से बचें

अगर कोई स्टॉक इन शर्तों को पूरा करता है तो आपको उसकी कीमत देखनी चाहिए। अगर वह सही कीमत पर नहीं मिल रहा है तो शेयर को खरीदने का कोई मतलब नहीं है। सही कीमत का मतलब क्या है आप इसे कैसे पता करेंगे? यही हमारे लिए स्टेज 3 या तीसरा चरण होगा। हमें कुछ वैल्यूएशन प्रयोग करना होगा। वैल्यूएशन के लिए सबसे जाना-माना तरीका है डिस्काउंटेड कैश फ्लो एनालिसिस (Discounted Cash Flow- DCF)।

अगले कुछ अध्यायों में हम यह देखेंगे कि किसी कंपनी के बारे में रिसर्च यानी इक्विटी रिसर्च करने के लिए क्या करना चाहिए। इक्विटी रिसर्च पर हम जो चर्चा करेंगे वो स्टेज 2 और 3 का हिस्सा होगा। मुझे लगता है कि स्टेज 1 में हमें वार्षिक रिपोर्ट को सही तरीके से और विस्तार से पढ़ना चाहिए। 

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. एक स्टॉक आइडिया कहीं से भी आ सकता है 
    1. आप अपनी आंख-कान खुले रख कर या अपनी योग्यता का इस्तेमाल करके भी आईडिया पा सकते हैं 
  2. वॉच लिस्ट यानी ऐसी लिस्ट बनाकर रखें जिसमें आप उन स्टॉक को रखें जिस पर आप की नजर है। 
  3. एक बार आपने उन स्टॉक्स को चुन लिया जिस पर आप की नजर है तो फिर देखिए कि उनमें किसके पास मोट (Moat) है। 
  4. इसके बाद आती है जांच की प्रक्रिया यानी जरूरी काम की प्रक्रिया जिसमें हम कंपनी के बिजनेस के बारे में और उसके चेक लिस्ट की शर्तों को पूरा करने के बारे में देखते हैं और साथ ही हमें यह पता करते हैं कि कंपनी का अब तक का परफॉर्मेंस कैसा रहा है और उसकी वैल्यूएशन कितनी है। 
  5. जब हम बिजनेस को समझने की कोशिश कर रहे होते हैं तो हमें कंपनी के बिजनेस के हर पहलू की जांच करनी चाहिए। 
  6. जैसे जैसे आपको बाजार में अनुभव होता जाए वैसे वैसे अपनी चेक लिस्ट में बदलाव और सुधार करते रहिए।
  7. किसी कंपनी के वैल्यूएशन को पता करने के लिए DCF यानी डिस्काउंटेड कैश फ्लो का तरीका सबसे अच्छा तरीका माना जाता है।

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इक्विटी रिसर्च (भाग 1) https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9a-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9a-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:51:25 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5913 13.1 –  क्या उम्मीद रखें? अब हम इक्विटी रिसर्च  करने का तरीका सीखेंगे। याद रखिए कि हमारे और आपके जैसा आम आदमी जब इक्विटी रिसर्च करता है तो उसको यह काम सीमित साधनों से करना होता है। इक्विटी रिसर्च करने के लिए साधनों में हमारे पास इंटरनेट, कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट और माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल ही […]

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13.1 –  क्या उम्मीद रखें?

अब हम इक्विटी रिसर्च  करने का तरीका सीखेंगे। याद रखिए कि हमारे और आपके जैसा आम आदमी जब इक्विटी रिसर्च करता है तो उसको यह काम सीमित साधनों से करना होता है। इक्विटी रिसर्च करने के लिए साधनों में हमारे पास इंटरनेट, कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट और माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल ही होंगे। यही इक्विटी रिसर्च जब कोई कंपनी या संस्था करती है तो उसके पास इस काम  के लिए एक अलग से इंसान होता है,उसे कंपनी से मैनेजमेंट से बात करने का मौका मिलता है, कई तरीके के वित्तीय डाटा जैसे इंडस्ट्री की रिपोर्ट आदि उपलब्ध होते हैं जिसे वह ब्लूमबर्ग, रॉयटर्स या ऐसी दूसरी किसी कंपनी से पैसे देकर खरीदती है। तो हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि अपने सीमित साधनों से कैसे ज्यादा से ज्यादा बेहतर तरीके से यह काम करें और किसी कंपनी के शेयर को खरीदने का फैसला अच्छे से तरीके से कर सकें। 

हम इक्विटी रिसर्च को तीन अलग-अलग चरणों में बाटेंगे।

 

  1. बिजनेस को समझना
  2. चेक लिस्ट के हिसाब से जाँचना
  3. कंपनी की वैल्यूएशन करना जिससे शेयर की सही कीमत पता चल सके

 

इनमें से हर चरण में कई कदम होंगे जो हमें उठाने होंगे। इसके लिए कोई शॉर्टकट  नहीं है।

13.2 – शेयर की कीमत vs बिजनेस की सेहत

जिस भी कंपनी को रिसर्च के लिए चुनते हैं, तो सबसे पहले उस कंपनी के बिजनेस को जितना ज्यादा समझ सके उतना बेहतर होगा। ज्यादातर लोग सीधे कंपनी के स्टॉक की कीमत के विश्लेषण में लग जाते हैं। अगर शॉर्ट टर्म यानी कम वक्त के नज़रिए से आप सीधे स्टॉक प्राइस के विश्लेषण में घुसते हैं, तो फिर भी ठीक है लेकिन लंबे नज़रिए के हिसाब से कंपनी के बिजनेस को समझना बहुत ज़रूरी है। 

आप सोच रहे होंगे कि ये इतना ज़रूरी क्यों है? वजह बहुत साफ है, अगर आप कंपनी के करोबार के बारे में अच्छे से जानेंगे, तो बेयर मार्केट यानी मंदी के दौर में आप स्टॉक की कीमत को लेकर परेशान नहीं होंगे। याद रखिए कि मंदी के बाज़ार में कीमत बदलती है, या कह सकते हैं कि प्रतिक्रिया करती है, कंपनी का मूलभूत बिजनेस नहीं। अगर आप कंपनी और उसके बिजनेस को जानेंगे और समझेंगे तो आपके पास गिरते बाज़ार में भी स्टॉक में बने रहने की ठोस वजहें होंगी। कहते हैं बेयर मार्केट में शेयर खरीदने के मौके बनते हैं, तो अगर आप कंपनी के बारे में अच्छे से जानते हैं, कंपनी के मूलभूत कारोबार पर आपको विश्वास है तो आप गिरते बाज़ार में और स्टॉक खरीदेंगे ना कि बेचेंगे। ये कहना यहां ज़रूरी है कि इस दृष्टिकोण को सही तरह से अमल में लाने में काफी वक्त लग सकता है। 

खैर, किसी भी कंपनी के बिजनेस से जुड़ी जानकारी पाने का सबसे बढ़िया स्त्रोत है कंपनी की वेबसाइट और उसकी वार्षिक रिपोर्ट। हमें कम से कम पिछले 5 साल के वार्षिक रिपोर्ट को पढ़ना चाहिए, ये समझने के लिए कि कंपनी अलग अलग बिजनेस साइकिल यानी आर्थिक चक्र में किस तरह से विकसित हुई है। 

13.3 – बिजनेस या कारोबार को समझना Understanding the Business

बिजनेस को समझने के लिए हमें सबसे पहले कुछ सवालों की सूची या लिस्ट बनानी होगी, जिसका जवाब हमें ढूंढ़ना है। नोट कीजिए कि इन सारे सवाल के जवाब कंपनी की वेबसाइट और वार्षिक रिपोर्ट में मिल जाएगी। 

नीचे सवालों की सूची है जो हमें बिजनेस को समझने में मदद करेगी। हर सवाल के पीछे के तर्क को भी मैंने बताया है। 

 

क्रमांक

सवाल

सवाल का तर्क

1 कंपनी काम क्या करती है? बिजनेस की हालत को समझने के लिए
2 कंपनी के प्रमोटर्स कौन हैं और उनका बैकग्राउंड क्या है?  ये पता करने के लिए कि कोई आपराधिक रिकार्ड तो नहीं है, कोई राजनीतिक संबंध तो नहीं है
3 कंपनी क्या मैन्यूफैक्चर (उत्पाद) करती है? (अगर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी है तो) कंपनी के उत्पाद को जानने से ये पता चलता है कि बाजार में माँग कितनी है और सप्लाई कितनी?
4 कंपनी के कितने कारखाने हैं और कहां-कहां हैं? इससे पता चलता है कि कंपनी किन जगहों पर मौजूद है। साथ ही, अगर कंपनी के कारखाने बहुत महंगे इलाकों में हैं तो इनकी कीमत भले ही बैलेंश शीट पर ना दिख रही हो लेकिन ये कंपनी को काफी मूल्यवान बनाने वाली जानकारी है।
5 क्या सारे कारखाने पुरी उत्पादन क्षमता के साथ काम कर रहे हैं? कामकाज की क्षमता का पता लगता है, ये भी पता चलता है कि माँग बढ़ने पर कंपनी उसे पूरा कर पाएगी या नहीं
6 उत्पादन के लिए लिए किस तरह के कच्चे माल की ज़रूरत होती है? कंपनी के कच्चे माल को सरकार नियंत्रित तो नहीं करती, कंपनी का कच्चा माल आयात तो नहीं करना होता? इससे कंपनी के करोबार पर असर पड़ सकता है।
7 कंपनी का माल कौन खरीदता है, या कंपनी के क्लायंट कौन हैं?  इससे कंपनी के बिजनेस साइकिल का पता चलता है,ये भी पता चलता है कि माल बेचने में कितना मुश्किल है।
8 कंपनी के प्रतिद्वंदी कौन हैं? अगर कई प्रतिद्वंदी हैं तो कंपनी के मार्जिन पर असर पड़ सकता है। अगर कम हैं तो कंपनी का मार्जिन लंबे समय तक बना रह सकता है। 
9 कंपनी के महत्वपूर्ण शेयरहोल्डर कौन-कौन हैं? अगर कुछ बड़े और सफल निवेशकों ने कंपनी में निवेश कर रखा है तो ये अच्छा संकेत है
10 क्या कपंनी नया प्रोडक्ट लांच करने वाली है? इससे कंपनी के इरादे और नया करने की इच्छा का पता चलता है। अगर कंपनी अपनी कुशलता वाले क्षेत्र से हट कर नया उत्पाद ला रही है तो कंपनी के फोकस पर सवाल उठ सकता है
11 क्या कंपनी की विदेशों में विस्तार करने की योजना है? इससे कंपनी के इरादे और नया करने की इच्छा का पता चलता है। अगर कंपनी अपनी कुशलता वाले क्षेत्र से हट कर नया उत्पाद ला रही है तो कंपनी के फोकस पर सवाल उठ सकता है
12 कंपनी का रेवेन्यू मिक्स (revenue mix)क्या है?कौन सा प्रोडक्ट सबसे ज्यादा बिकता है? पता चलता है कि किस उत्पाद से कंपनी सबषे ज्यादा कमा रही है। इससे कंपनी के भविष्य का अंदाजा लगता है।
13 क्या कंपनी काफी ज्यादा नियंत्रण वाले कारोबार में है? ये अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। नियंत्रण अधिक होने का मतलब है कि नया प्रतिद्वंदी आसानी से नहीं आ सकता। लेकिन ज्यादा नियंत्रण कंपनी के आगे कुछ नया करने की क्षमता को कम करता है।
14 उनके बैंकर्स और ऑडिटर्स कौन हैं? इससे ये पता चलता है कि कंपनी में किसी गड़बड़ी की संभावना कितनी है।
15 कंपनी में कितने कर्मचारी है? कंपनी में श्रमिकों और कर्मचारियों से जुड़ी समस्या तो नहीं है?  पता चलता है कि कंपनी कर्मचारियों और उनकी कुशलता पर कितनी निर्भर है। अगर किसी खास कुशलता के कर्मचारियों की जरूरत है तो ये कंपनी के लिए एक खतरा बन सकता है।
16 इंडस्ट्री में नए खिलाड़ी के आने में क्या क्या बाधाएं या रुकावटें हैं? पता चलेगा कि कंपनी के सामने नए प्रतिद्वन्दी का आना कितना आसान या मुश्किल है
17 क्या कंपनी का प्रोडक्ट बहुत आसनी से दूसरे देशों में बनाया जा सकता है, जहाँ श्रम सस्ता हो? अगर हाँ, तो कंपनी कभी भी मुश्किल में पड़ सकती है
18 क्या कंपनी की बहुत सारी सब्सिडियरी यानी सहायक कंपनी है? यदि हाँ, तो ये सवाल जरूरी है कि इसकी जरूरत है या नहीं? कहीं कंपनी ने पैसे का घालमेल करने के लिए तो ऐसा नहीं किया है?

इन सवालों के जरिए आपको कंपनी के बारे में समझने में मदद मिलेगी। इन सवालों को पूछते और इनका जवाब ढूंढते हुए आपके दिमाग में कई और नए सवाल आएंगे जिनका जवाब आप को ढूंढना होगा। अगर आप इनका जवाब सही तरीके से ढूंढ पाएंगे तो अब कंपनी को अच्छे से जान सकेंगे। याद रखिए यह इक्विटी रिसर्च का पहला चरण है, अगर आपको इसी चरण में खतरे के संकेत दिखाई पड़ेंगे तो उस कंपनी पर आगे काम करने की जरूरत नहीं है भले ही कंपनी कितनी भी आकर्षक क्यों ना लग रही हो। 

मैं अपने अनुभव से बता सकता हूं कि किसी भी एक कंपनी के इक्विटी रिसर्च के पहले चरण में कम से कम 15 घंटे लगते हैं। इसके बाद मैं सारी जरूरी चीजों को एक पन्ने पर लिख लेता हूं। यह जानकारी बहुत ही सोची समझी और फोकस वाली होनी चाहिए। अगर आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तो यह मान लीजिए कि कंपनी के बारे में अभी आपको पूरी जानकारी नहीं है। पहला चरण पूरा होने के बाद ही मैं इक्विटी रिसर्च के दूसरे चरण की और बढ़ता हूं। 

अब हम इक्विटी रिसर्च के दूसरे चरण की तरह बढ़ेंगे। इसको समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि किसी एक कंपनी को हम अपनी चेकलिस्ट के आधार पर जाँचें। 

हमने पहले अमारा राजा बैटरी के बारे में बात की है, अच्छा होगा कि हम उसी कंपनी पर अपनी चेक लिस्ट को लगाएं और जाँचें। आप यह चेक लिस्ट किसी भी कंपनी का लगाकर उस कंपनी को जाँच सकते हैं

 बस याद रखिए कि हम यहां ये जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आगे कि चर्चा और बातचीत ARBL के इर्द-गिर्द रहेगी, ताकि हमें इस कंपनी को अच्छे से समझ सकें। कंपनी अच्छी है या बुरी, यहाँ ये मुद्दा नहीं है, बल्कि आपको उस ढांचे से अवगत कराना है जिसके ज़रिए आप इक्विटी रिसर्च की प्रक्रिया सही तरीके से पूरी कर सकते हैं।

13.4 – चेकलिस्ट का उपयोग

इक्विटी रिसर्च का पहला चरण हमें किसी भी कारोबार का कैसे, क्या, कौन और क्यों समझने में मदद करता है। इस तरह हम कंपनी के हर पहलू को ध्यान में रखते हुए एक संपूर्ण नजरिया बना पाएंगे। लेकिन इसके बाद जितना कारोबार आकर्षित लगता हो, कारोबार के नंबर्स भी उतने ही आकर्षक लगने चाहिए। 

इक्विटी रिसर्च के दूसरे चरण का उद्देश्य कि हमें नंबर्स को समझने में मदद मिले और हम ये आंक या जांच सके कि कंपनी जिस तरह का काम करती है और उसका फाइनेंशियल परफॉरमेंस दोनों एक दूसरे के पूरक है या नहीं।  अगर ये एक दूसरे के पूरक नहीं हैं तो हम मानेंगे कि कंपनी में निवेश करने के लिए जो गुण चाहिए, वो नहीं है। 

हमने पिछले अध्याय में चेकलिस्ट को देखा था। उसे एक बार फिर से देखते हैं। 

क्रम सं कौन सा आंकड़ा टिप्पणी क्या बताता है
1 नेट प्रॉफिट में बढत  कुल या ग्रॉस प्रॉफिट से मेल खाती हुई  आमदनी में भी प्रॉफिट के साथ बढत
2 EPS नेट प्रॉफिट के साथ EPS भी बढ़ना चाहिए अगर कंपनी अपने इक्विटी शेयर बढ़ा रही है तो ये शेयरधारकों लिए अच्छा नहीं है।
3 ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन (GPM) > 20% ज्यादा बड़ा मारजिन बताता है कि कंपनी के पास एक अच्छा खासा मोट (खाई) है
4 कर्ज का स्तर कंपनी कर्ज में डूबी नहीं होनी चाहिए अधिक कर्ज का मतलब है कि कंपनी अच्छी हालत में नहीं है फाइनेंस कॉस्ट भी ऊपर होगा और इससे कंपनी की कमाई कम होगी।
5 इन्वेंटरी मैन्यूफैक्चरिंग करने वाली कंपनियों के लिए इन्वेंटरी और PAT का साथ में बढ़ना अच्छा संकेत है। इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज जरूर चेक करें
6 सेल्स Vs रिसीवेबल्स रिसीवेबल्स के रास्ते बिक्री बढ़ना अच्छा नहीं है इससे पता चलता है कि कंपनी सिर्फ कमाई दिखाने के लिए जबरदस्ती बिक्री बढा रही है
7 ऑपरेशन से कैश फ्लो पॉजिटिव होना चाहिए अगर कंपनी के ऑपरेशन यानी करोबार से कैश नहीं आ रहा तो ये ऑपरेशन पर दबाव का संकेत है
8 रिटर्न ऑन इक्विटी >25% ROE, जितना ऊपर होगा निवेशक के लिए उतना बेहतर होगा लेकिन कर्ज का स्तर चेक कर लें

अब हम चेकलिस्ट के सारे बिन्दुओं को अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड के संदर्भ में जांचेंगे। सबसे पहले देखते हैं P&L आइटम – ग्रास प्रॉफिट, नेट प्रॉफिट और कंपनी का EPS 

रेवेन्यू और PAT ग्रोथ – Revenue & Pat Growth

किसी भी कंपनी के निवेश योग्य होने के कस का सबसे पहला संकेत होता है कि वह कंपनी बढ़ रही है यानी उसमें ग्रोथ हो रही है। यहां पर बढ़ने का मतलब यह होता है कि कंपनी की आमदनी बढ़ रही है और उसका PAT भी बढ़ रहा है। इसको हम दो नजरिए से देखते हैं – 

  1. साल दर साल बढ़त (Year on Year Growth)- इससे हमें पता चलता है कि कंपनी में हर साल कितनी बढ़त हो रही है। कई बार कंपनी किसी बिजनेस साइकिल की वजह से भी नहीं बढ़ पाती है। इसलिए आपको यह देखना है कि कंपनी में किस तरह की बढ़त हो रही है। कई बार कंपनी की बढ़ोतरी बहुत कम होती है या साल दर साल बढ़ती नहीं है। ऐसे में आप यह जरूर चेक करें कि कंपनी के बाकी प्रतिद्वंदी या इंडस्ट्री में किस तरीके की बढ़ोतरी हो रही है अगर वहां भी ऐसी ही बढ़ोतरी है तो कंपनी की बढ़ोतरी सही मानी जाएगी।
  2. कम्पॉउंडेड एनुअल ग्रोथ रेट (Compounded Annual Growth Rate-CAGR) – इससे हमें पता चलता है कि कंपनी बिजनेस साइकिल नीचे होने के बावजूद भी बढ़ पा रही है या नहीं। बिजनेस साइकिल नीचे होने के बावजूद बढ़ने वाली कंपनी निवेश के योग्य सबसे अच्छी कंपनियों में से मानी जाती है। यह बढ़त CAGR में दिखाई देती है।

व्यक्तिगत तौर पर मैं ऐसी कंपनियों में निवेश करना पसंद करता हूं जिनकी आमदनी और PAT 15% CAGR की रफ्तार से बढ़ती है। 

एक बार नजर डालते हैं  कि ARBL कैसा कर रही है …

FY 09 -10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12 -13 FY 13 – 14
रेवेन्यू/आमदनी (करोड़ रु.) 1481 1769 2392 3005 3482
आमदनी में बढ़त (Revenue Growth) 19.4% 35.3% 25.6% 15.9%
PAT (करोड़ रु) 167 148 215 287 367
PAT में बढ़त  (11.3%) 45.2% 33.3% 27.8

5 साल की आमदनी में CAGR 18.6% और 5 साल की PAT में CAGR 17.01% की बढ़त दिख रही है। यह आंकड़े बहुत अच्छे दिख रहे हैं। लेकिन इनको हमें अपनी चेक लिस्ट के दूसरे पैमानों पर भी चेक करना होगा। 

प्रति शेयर कमाई – Earnings per Share (EPS)

अर्निंग पर शेयर या अर्निंग प्रति शेयर हमें बताता है कि कंपनी हर शेयर पर कितना  मुनाफा कमा रही है। अगर EPS और PAT एक रफ्तार से बढ़ रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि कंपनी ने अपने शेयरों की संख्या नहीं बढ़ा दी है जो कि एक अच्छी बात है। इससे यह पता चलता है कि कंपनी का मैनेजमेंट अच्छा है।

FV Rs.1 FY 09 -10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12 -13 FY 13 – 14
EPS (रुपये) 19.56 17.34 12.59 16.78 21.51
शेयर कैपिटल (करोड़ रुपये) 17.08 17.08 17.08 17.08 17.08
EPS ग्रोथ/बढ़त   – -11.35%  – 27.39% 33.28% 28.18%

 

 5 साल का EPS 1.90% CAGR से बढ़ रहा है। 

ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन – Gross Profit margins

ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन हमेशा प्रतिशत में दिखाया जाता है। इसको निकालने का फार्मूला है 

ग्रॉस प्रॉफिट / नेट सेल्स

यहाँ ग्रॉस प्रॉफिट = नेट सेल्स –  बेची गई वस्तुओं की कीमत – तैयार वस्तुओं की कीमत 

Gross Profits = [Net Sales – Cost of Goods Sold]

असल में तैयार वस्तुओं की कीमत वह रकम है जो कंपनी के उत्पाद बनाने में खर्च हुई है। इसको निकालने का तरीका हमे इन्वेंटरी टर्नओवर रेश्यो निकालने के समय देखा था। आइए देखते हैं कि ARBL का ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन कैसा रहा है।

करोड़ रुपये में FY 09-10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12 -13 FY 13 – 14
नेट सेल्स 1464 1757 2359 2944 3404
COGS 1014 1266 1682 2159 2450
ग्रॉस प्रॉफिट 450 491 677 785 954
ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन 30.7% 27.9% 28.7% 26.7% 28.0%

यहां पर कंपनी का ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन बहुत अच्छा दिख रहा है। हमारी चेकलिस्ट के हिसाब से कंपनी का ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन कम से कम 20% होना चाहिए।  ARBL का ग्रॉस प्रॉफिट मार्जिन इससे काफी ज्यादा है। इसका मतलब है कि 

  1. ARBL के प्रतिद्वंदी काफी कम है इसलिए कंपनी का मार्जिन काफी ऊपर है। 
  2. कंपनी काफी अच्छे से काम कर रही है  और मैनेजमेंट भी काफी अच्छे से काम कर रहा है जिसकी वजह से कंपनी का मार्जिन ऊपर है। 

कर्ज का लेवल – बैलेंस शीट चेक (Debt level – Balance Sheet check)

चेकलिस्ट के पहले तीन बिंदु कंपनी के प्रॉफिट एंड लॉस स्टेटमेंट से जुड़े हुए थे। अब हम ऐसी बिंदुओं पर नजर डालेंगे जो बैलेंस शीट से जुड़े हुए हैं। बैलेंस शीट में देखने वाली सबसे महत्वपूर्ण चीजों में से एक होती है – कंपनी का कर्ज़। यह जितना ज्यादा होगा कंपनी के लिए उतनी ही बड़ी मुश्किल होगी। अगर एक कंपनी अपनी बढ़त के लिए ज्यादा कर्ज ले रही हो तो ये खतरनाक हो सकता है। ज्यादा कर्ज का मतलब है कि कंपनी का फाइनेंस कॉस्ट काफी ऊपर होगा जिससे कंपनी की रिटेन्ड अर्निंग कम हो जाएगी

ARBL का कर्ज –

कर्ज/Debt 91.19 95.04 84.07 87.17 84.28
EBIT 261 223 321 431 541
Debt/EBIT (%) 35% 42.61% 26.19% 20.22% 15.57%

कंपनी का कर्ज़ 85 करोड़ के आसपास है। अच्छी बात यह है कि कंपनी का कर्ज 2009-10 के मुकाबले नीचे आया है। इंटरेस्ट कवरेज रेश्यो चेक करने के बाद मैं व्यक्तिगत तौर पर कंपनी के कर्ज को अर्निंग बिफोर इंटरेस्ट एंड टैक्सेस (EBIT) के प्रतिशत के रूप में चेक करना चाहता हूं। इससे पता चलता है कि कंपनी अपनी वित्तीय हालत कितने अच्छे से संभालती है। हम देख सकते हैं कि कंपनी का debt/ EBIT लगातार घट रहा है इसका मतलब है कि ARBL ने इस मामले में अच्छा काम किया है। 

Inventory Check इन्वेंटरी चेक

अगर कंपनी मैन्युफैक्चरिंग करती है यानी उत्पाद बनाती है तो इन्वेंटरी डेटा चेक करना चाहिए। इससे हमें कई बातें पता चलती है: 

  1. इन्वेंटरी बढ़ना और साथ में PAT का बढ़ना बताता है कि कंपनी बढ़ रही है 
  2. इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज का स्थिर रहना हमें बताता है कि कंपनी अपने कारोबार को ठीक ढंग से चला रही है।

ARBL के इन्वेंटरी के डेटा को देखते हैं

FY 09-10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12 -13 FY 13 – 14
इन्वेंटरी ( करोड़ रु) 217.6 284.7 266.6 292.9 335.0
इन्वेंटरी डेज 68 72 60 47 47
PAT (करोड़ रु) 167 148 215 287 367

कंपनी का इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज स्थिर है। वास्तव में यह थोड़ा नीचे भी जा रहा है। इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज को निकालना हमने पिछले अध्याय में सीखा था। कंपनी इन्वेंटरी और PAT साथ में बढ़ रहे हैं जो कि एक अच्छा संकेत है ।

सेल्स vs रिसीवेबल्स Sales vs Receivables

अब हम कंपनी के बिक्री के आंकड़ों को देखेंगे। इन आंकड़ों को से रिसीवेबल्स के साथ देखा जाएगा। कंपनी के सेल्स यानी बिक्री अगर रिसीवेबल्स के साथ बढ़ रही है तो यह अच्छा संकेत नहीं है। इसका मतलब है कि कंपनी अपना माल क्रेडिट पर बेच रही है और जिसकी वजह से कई सवाल उठ सकते हैं। कंपनी के कर्मचारी जबरदस्ती माल तो नहीं बेच रहे हैं? कंपनी कहीं मुफ्त में क्रेडिट तो नहीं दे रही है?

FY 09-10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12-13 FY 13-14
कुल बिक्री 1464 1758 2360 2944 3403
रिसीवेबल 242.3 305.7 319.7 380.7 452.6
रिसीवेबल – प्रतिशत में 16.5% 17.4% 13.5% 12.9% 13.3%

कंपनी का ये आंकड़ा भी स्थिर दिख रहा है। ऊपर के चार्ट को देखने से पता चलता है कि कंपनी की ज्यादातर बिक्री रिसीवेबल्स की वजह से नहीं है। वास्तव में इन्वेंटरी नंबर ऑफ डेज की तरह रिसीवेबल्स भी नेट सेल्स के प्रतिशत के तौर पर गिर रहा है जो कि अच्छी बात है। 

कारोबार से नकद या कैश फ्लो Cash flow from Operations

किसी कंपनी में निवेश करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज जो देखनी होती है वह है ऑपरेशंस यानी कारोबार से आने वाला कैश फ्लो। कंपनी को अपने ऑपरेशन से अच्छा कैश फ्लो बनाना चाहिए। जो कंपनी अपने ऑपरेशंस में कैश गंवा रही हो वह एक बहुत ही बुरी हालत में है।

करोड़ रुपये में FY 09-10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12-13 FY 13-14
ऑपरेशन से कैश फ्लो 214.2 86.1 298.4 335.4 278.7

यहां कैश फ्लो थोड़ा सा ऊपर नीचे होता दिख रहा है फिर भी यह पिछले 5 साल में लगातार पॉजिटिव बना हुआ है। मतलब कंपनी का बिजनेस ठीक-ठाक चल रहा है और कैश पैदा कर रहा है यानी कंपनी सफल है

रिटर्न ऑन इक्विटी (Return on Equity- ROE)

हमने इसी मॉड्यूल के अध्याय 9 में रिटर्न ऑन इक्विटी पर विस्तार से बात की है। मैं चाहूंगा कि आप एक बार फिर से उसे पढ़ लें। ROE बताता है कि कंपनी ने शेयरधारकों के लिहाज से कितना प्रतिशत मुनाफा कमा कर दिया है। एक तरह से ये बताता है कि प्रमोटर्स ने अपना पैसा लगा कर कितना कमाया है। 

ABRL के पिछल पांच साल के ROE को नीचे दिखाया गया है- 

करोड़ रुपये में FY 09-10 FY 10-11 FY 11-12 FY 12-13 FY 13-14
PAT 167 148 215 287 367
शेयरहोल्डर इक्विटी 543.6 645.7 823.5 1059.8 1362.7
ROE 30.7% 22.9% 26.1% 27.1% 27.0%

ऊपर दिए गए ROE के नंबर काफी अच्छे हैं। मैं खुद उन कंपनियों में निवेश करना पसंद करता हूं जिनका ROE 20 परसेंट से ऊपर हो। 

निष्कर्ष

याद रखिए कि हम इक्विटी रिसर्च के दूसरे चरण में हैं। ARBL दूसरे चरण में ज़रूरत के सभी मापदंडों पर खरा उतरा है। अब एक इक्विटी रिसर्च एनालिस्ट के तौर पर आपको दूसरे चरण के आउटपुट को पहले चरण में जुटाई गई जानकारी के संदर्भ में रख कर देखना है। दोनों चरणों के बाद अगर आप तथ्यों के आधार पर कंपनी के बारे में पॉजिटिव राय बना पा रहे हैं, तो कंपनी में वो गुण मौजूद है जो इसे निवेश करने के लायक बनाती है। 

हालांकि स्टॉक खरीदने से पहले ये चेक कर लें कि कीमत सही है। और हम यही काम इक्विटी रिसर्च के तीसरे चरण में करते हैं। 

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. इक्विटी रिसर्च “लिमिटेड रिसोर्स” 3 चरणों में किया जा सकता है

    1. कारोबार को समझना
    2. चेकलिस्ट के ऐप्लिकेशन से
    3. वैल्युएशन 
  2. पहले चरण का उद्देश्य है – कंपनी के बिजनेस को समझना और उसके लिए ज़रूरी जानकारी जुटाना। और इसके लिए सबसे अच्छा तरीका है- Q&A तरीका यानी सवाल-जवाब का तरीका। 
  3. Q&A तरीके में, हम सरल और स्पष्ट सवालों से शुरूआत करते हैं और उसके जवाब ढूंढ़ते हैं। 
  4. पहले चरण के अंत तक हमारे पास कारोबार से जुड़ी सभी जानकारी होनी चाहिए। 
  5. पहले चरण में जितने भी जवाब की हमें तलाश होती है, उसमें से ज्यादातर कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट और वेबसाइट पर मिल जाएगी। 
  6. पहले चरण में ही अगर कभी भी किसी जानकारी पर आपको संदेह हो, या फिर यकीन ना हो तो रिसर्च वहीं पर रोक देना बेहतर होगा। 
  7. पहले चरण में बहुत ज़रूरी है कि आपकी जुटाई हुई जानकारी से आपका कंपनी के ऊपर दृढ़ विश्वास हो। यही विश्वास आपको मंदी के वक्त स्टॉक में बने रहने की वजह देगा। 
  8. इक्विटी रिसर्च के दूसरे चरण में  आपको कंपनी के परफॉरमेंस को अलग-अलग मापदंडो पर जांचना है। 
  9. और ज़ाहिर सी बात है कि पहले दो चरण को पूरा करने के बाद ही आप तीसरे चरण की तरफ बढ़ पाएंगे।

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DCF का सिद्धांत https://zerodha.com/varsity/chapter/dcf-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4/ https://zerodha.com/varsity/chapter/dcf-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:51:21 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5915 14.1 – शेयर की कीमत पिछले अध्याय में हमने इक्विटी रिसर्च के पहले दो चरणों को समझा। पहला चरण जहां हमने कंपनी के बिजनेस को और दूसरा चरण जहां हमने कंपनी के वित्तीय परफॉर्मेंस यानी प्रदर्शन को देखा। इक्विटी रिसर्च का तीसरा चरण है, कंपनी के शेयर की वैल्यूएशन पता करना। लेकिन यह तभी किया […]

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14.1 – शेयर की कीमत

पिछले अध्याय में हमने इक्विटी रिसर्च के पहले दो चरणों को समझा। पहला चरण जहां हमने कंपनी के बिजनेस को और दूसरा चरण जहां हमने कंपनी के वित्तीय परफॉर्मेंस यानी प्रदर्शन को देखा। इक्विटी रिसर्च का तीसरा चरण है, कंपनी के शेयर की वैल्यूएशन पता करना। लेकिन यह तभी किया जाना चाहिए जब आप पहले दो चरणों के बाद कंपनी के बिजनेस के बारे में पूरी तरह आश्वस्त हों।

एक निवेश अच्छा निवेश तभी माना जाता है जब आप उस बिजनेस के लिए सही कीमत अदा करें यानी आपको वह शेयर एक बहुत अच्छी कीमत पर मिले। कई बार एक बहुत अच्छी कंपनी के बजाय एक मध्यम दर्जे की कंपनी भी अगर बहुत अच्छी कीमत पर मिले तो यह माना जाता है कि वह बहुत अच्छा निवेश है। कहने का मतलब यह है कि निवेश के मामले में कीमत बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

अगले दो अध्यायों में हम यही कोशिश करेंगे कि आपको कीमत के बारे में ज्यादा से ज्यादा बताया जा सके। शेयर की कीमत को वैल्यूएशन तकनीक से पता करते हैं। वैल्यूएशन का मतलब यह है पता कि यह पता करना कि कंपनी की वास्तविक कीमत क्या होनी चाहिए? कंपनी के शेयर की वैल्यूएशन पता करने के लिए हम जिस तकनीक का इस्तेमाल करेंगे उसे कहते हैं डिस्काउंटेड कैश फ्लो (DCF) इस तकनीक में भविष्य के कैश फ्लो के नजरिए से कंपनी के शेयर की सही कीमत का अंदाजा लगाया जाता है।

DCF मॉडल में बहुत सारे सिद्धांत हैं जिनको आपस में एक दूसरे से जोड़ा गया है। हमें इन सारे सिद्धांतों को अलग-अलग समझना पड़ेगा और फिर उसको DCF के नजरिए से देखना होगा। इस अध्याय में हम खास करके DCF के सबसे मूल सिद्धांत यानी नेट प्रेजेंट वैल्यू (NPV) पर नजर डालेंगे इसके बाद हम दूसरे सिद्धांतों पर जाएंगे और अंत में DCF को समझेंगे।

14.2- फ्यूचर कैश फ्लो  

DCF मॉडल का आधार है फ्यूचर कैश फ्लो। इसको हम एक उदाहरण से समझते हैं:

मान लीजिए कि विशाल नाम का एक पिज़्ज़ा बेचने वाला है जो शहर में सबसे अच्छा पिज़्ज़ा बनाता है। पिज़्ज़ा बनाना उसे इतना अच्छा लगता है कि उसने एक नया आविष्कार कर दिया एक ऑटोमेटिक पिज़्ज़ा मेकर। इस पिज़्ज़ा मेकर में सारी जरूरत की चीजें डाल देने पर अपने आप 5 मिनट में पिज़्ज़ा बनकर बाहर निकल आता है। विशाल को लगता है कि इस पिज्जा मशीन से 1 साल में ₹500000 की आमदनी कर सकता है और मशीन अगले 10 साल तक चल सकती है।

विशाल के दोस्त जॉर्ज को विशाल की मशीन बहुत पसंद आती है और वह उसे खरीदने के लिए विशाल को एक ऑफर देता है।

आपको क्या लगता है जॉर्ज को विशाल को मशीन की क्या कीमत देनी चाहिए? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हमें यह समझना होगा कि जॉर्ज को इस मशीन से कितना फायदा हो सकता है। मान लीजिए वो इस मशीन से अगले 10 साल तक हर साल ₹500000 कमाता है।

 अब जॉर्ज का कैश फ्लो कैसा दिखेगा

2015 2016 2017 2018 2019 2020 2021 2022 2023 2024
500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000

तो हम देख सकते हैं कि 2015 से अगले 10 सालों तक जॉर्ज को मशीन से कैश मिलता रहेगा।

इसका मतलब है कि जॉर्ज को अगले 10 सालों में मशीन से  ₹50,00,000 की कमाई होगी यानी वो मशीन के लिए ₹50,00,000 से ज्यादा ही कीमत नहीं दे सकता। हम किसी भी चीज के लिए वह कीमत नहीं दे सकते हैं जो उससे मिलने वाले फायदे से ज्यादा हो।

अब मान लीजिए कि विशाल ने जॉर्ज से मशीन के लिए ₹X  मांगे। अब जॉर्ज के सामने दो विकल्प हैं या तो वह मांगे गए ₹ X दे दे और मशीन खरीद ले या फिर उन रुपयों को एक फिक्स डिपॉजिट स्कीम में डाल दे जहां पर उसे पैसे तो वापस मिलेंगे ही साथ में 8.5% का ब्याज भी मिलेगा। मान लीजिए जॉर्ज ने मशीन खरीदने का फैसला किया तो फिक्स डिपॉजिट में पैसे ना डालना उसकी अवसर कीमत यानी अपॉर्चुनिटी कॉस्ट (Opportunity Cost) हुई।

ऑटोमेटिक पिज़्ज़ा मेकर की कीमत निकालने के इस प्रयास में हमने तीन चीजों को पता किया

  1. 10 साल में इस मशीन का कुल कैश फ्लो होगा 50,00,000 रुपये।  
  2. हमें इस मशीन का कुल कैश फ्लो पता है इसलिए मशीन की कीमत कुल कैश फ्लो से कम होनी चाहिए। 
  3. इस मशीन को खरीदने का अपॉर्चुनिटी कॉस्ट एक ऐसा निवेश है जो 8.5% का रिटर्न देता है।

 इन तीनों बातों को ध्यान में रखते हुए अब आगे बढ़ते हैं क्योंकि हमें पता है कि अगले 10 सालों तक जार्ज को ₹500,000 प्रति साल इस मशीन से मिलेंगे तो इसका मतलब यह हुआ कि जॉर्ज 2014 में अगले 10 सालों के भविष्य को देखने की कोशिश रहा है

    1. 2016 में ₹500,000 की क्या कीमत होगी? 
    2. 2018 में ₹500,000 की आज की तुलना में क्या कीमत होगी?
    3. 2020 में ₹500,000 की आज की तुलना में क्या कीमत होगी?
    4. कुल मिलाकर जो भी कैश फ्लो मिलेगा उसकी आने वाले समय में क्या कीमत होगी?

 इन सवालों का जवाब छुपा है टाइम वैल्यू ऑफ मनी (Time Value of Money) में। इसका मतलब यह है कि अगर मैं कैश फ्लो के भविष्य के पैसों की कीमत को आज आज पता कर सकूं तो मेरे लिए मशीन की कीमत को निकालना आसान होगा।

 अभी कुछ देर के लिए हो सकता है कि हम पिज्जा मशीन वाले उदाहरण से दूर जाएं लेकिन अंत में हम इसी उदाहरण पर लौटेंगे।

14.3 – टाइम वैल्यू ऑफ मनी (TMV)

टाइम वैल्यू ऑफ मनी एक बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्धांत है इसका उपयोग हर तरीके के वित्तीय सिद्धांतों में होता है फिर चाहे वह डिस्काउंटेड कैश फ्लो एनालिसिस हो फाइनेंशियल डेरिवेटिव्स प्राइसिंग हो प्रोजेक्ट फाइनेंस हो, एनुअटी हो या कुछ और। 

टाइम वैल्यू ऑफ मनी का सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि पैसे की कीमत समय के साथ बदलती रहती है। इसका मतलब यह है कि आज अगर आपके पास ₹100 है तो 2 साल बाद उस ₹100 की कीमत कुछ और होगी।  जैसे-जैसे समय बदलता है वैसे वैसे अवसर कीमत भी बदलती है और उस अवसर कीमत को पैसे की कीमत के साथ जोड़कर देखना पड़ता है।

अगर हमें आज के पैसे की कीमत की तुलना भविष्य की कीमत से करनी है, तो हमें इस पैसे को भविष्य में ले जाकर उसकी कीमत को देखना होगा। इस तरीके को कहते हैं फ्यूचर वैल्यू (future value – FV) इसी तरीके से भविष्य में मिलने वाले पैसे की कीमत अगर हमें आज देखनी है तो हमें उस पैसे को आज के हिसाब से तौलना होगा और इसको कहते हैं प्रेजेंट वैल्यू (present value – PV).

दोनों ही मामले में समय बदलने के साथ साथ हमें पैसे की कीमत में अवसर कीमत या अपॉर्चुनिटी कॉस्ट को जोड़ना होगा। जब इस तरीके से हम पैसे की भविष्य की कीमत निकालते हैं तो उसे कंपाउंडिंग कहते हैं। इसी तरह, जब भविष्य के पैसे की कीमत आज की कीमत में निकालते हैं तो उसे डिस्काउंटिंग कहते हैं।

अब हम इस FV और PV को निकालने का फार्मूला देखते हैं

उदाहरण 1आज के ₹5000 की कीमत 5 साल बाद कितनी होगी, अगर अवसर कीमत 8.5% है?

इस उदाहरण में फ्यूचर वैल्यू (FV) होगी:

फ्यूचर वैल्यू = कुल रकम*(1+ अपॉर्चुनिटी कास्ट दर)^ कुल साल

Future Value = Amount * (1+ opportunity cost rate) ^ Number of years.

= 5000*(1+8.5%)^5

= 7518.3

 इसका मतलब है कि आज के ₹5000 की कीमत 5 साल बाद 7518.3 रुपये होगी अगर अपॉर्चुनिटी कॉस्ट 8.5% है

उदाहरण 2आज से 6 साल बाद मिलने वाला ₹10000 आज की कीमत में कितना होगा अगर अपॉर्चुनिटी कॉस्ट 8.5 प्रतिशत है ?

यहाँ पर हम PV की गणना कर रहे हैं।

प्रेजेंट वैल्यू = रकम / (1+ डिस्काउंट रेट)^कुल साल 

Present Value = Amount / (1+Discount Rate) ^ Number of years

= 10,000 / (1+8.5%)^6

= 6129.5

इसका मतलब है कि यदि डिस्काउंट रेट 8.5% है तो आज से 6 साल बाद मिलने वाले ₹10000 की कीमत आज 6129.5 रुपये होगी ।

उदाहरण 3 अगर मैं पहले उदाहरण का सवाल बदल दूं और यह पूछूं कि 5 साल मैं मिलने वाले 7518.3 रुपये की कीमत आज कितनी होगी, अगर अपॉर्चुनिटी कॉस्ट 8.5% है तो। हमें पता है कि इसके लिए हमें प्रेजेंट वैल्यू निकालनी होगी। यह भी पता है कि जब पहले उदाहरण में इस गणना को हमने उल्टे तरीके से किया था तो हमें हमारा उत्तर था ₹5000। इसकी गणना करके PV  देखते हैं:

= 7518.3/ (1+8.5%)^5

=5000

अब आपको टाइम वैल्यू ऑफ मनी समझ में आ गया होगा इसलिए हम अपने पिज़्ज़ा वाले उदाहरण पर वापस लौटते हैं।

14.4- नेट प्रेजेंट वैल्यू ऑफ कैश फ्लो (The Net Present Value of Cash Flow)

पिज़्ज़ा वाले उदाहरण में एक बार फिर से देखते हैं कि जॉर्ज को मशीन खरीदने के बाद किस तरीके का कैश फ्लो मिलने वाला है।

2015 2016 2017 2018 2019 2020 2021 2022 2023 2024
500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000 500,000

 

अब सवाल फिर से वही है कि भविष्य के कैश फ्लो की कीमत आज कितनी मानी जानी चाहिए? 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि  कैश फ्लो एक समान तरीके से सालों तक फैला हुआ है। इस कैश फ्लो को हमें उसकी अपॉर्चुनिटी कॉस्ट या अवसर कीमत के हिसाब से डिस्काउंट करना होगा। 

नीचे के टेबल पर नजर डालिए जिसमें हर साल के कैश फ्लो को 8.5% की अवसर कीमत के हिसाब से डिस्काउंट किया गया है:

साल कैश फ्लो

(रू)

भुगतान

(साल)

PV /प्रेजेंट वैल्यू

( रू)

2015 500,000 1 460,829
2016 500,000 2 424808
2017 500,000 3 391481
2018 500,000 4 360802
2019 500,000 5 332535
2020 500,000 6 306485
2021 500,000 7 282470
2022 500,000 8 260,335
2023 500,000 9 239,946
2024 500,000 10 221151
Total 50,00,000 32,80,842

हर साल की प्रेजेंट वैल्यू (PV) को जोड़ने पर जो संख्या मिलती है ,उसको नेट प्रेजेंट वैल्यू या NPV कहते हैं। इस उदाहरण में हमारा NPV है ₹32,80,842 इसका मतलब है कि कैश फ्लो की कुल कीमत आज ₹32,80,842 है। इससे साफ है कि जॉर्ज अगर यह मशीन खरीदता है तो उसे ₹32,80,842 या उससे कम कीमत देना चाहिए।

अब इसको किसी कंपनी के नजरिए से देखिए। अगर यह पिज्जा मशीन नहीं होती कोई कंपनी होती तो आप उसका फ्यूचर कैश फ्लो कैसे निकालेंगे और उसके आधार पर कंपनी के शेयर की कीमत कैसे पता करेंगे? वास्तव में डिस्काउंटेड कैश फ्लो मॉडल में हम यही करते हैं।

इस अध्याय की खास बातें 

  1. DCF जैसा वैल्युएशनशन मॉडल हमें कंपनी के शेयर की कीमत पता करने में मदद करता है।
  2. DCF मॉडल कई तरीके के वित्तीय सिद्धांतों के आधार पर बनता है।
  3. टाइम वैल्यू ऑफ मनी वित्तीय सिद्धांतों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है इसका उपयोग DCF जैसी तमाम चीजों में होता है।
  4. पैसे की कीमत समय के साथ साथ बदलती रहती है। पैसे की आज की कीमत भविष्य में बदल जाती है।
  5. पैसे की सही कीमत निकालने के लिए हमें पैसे को समय के हिसाब से देखना होता है और उसकी अवसर कीमत को भी ध्यान में रखना होता है।
  6. फ्यूचर वैल्यू (FV) में हम पैसे की भविष्य की कीमत पता करते हैं। 
  7. प्रेजेंट वैल्यू (PV) में हम भविष्य में मिलने वाले पैसे की कीमत को आज की कीमत में पता करते हैं।
  8. नेट प्रेजेंट वैल्यू (NPV) में हम भविष्य में मिलने वाले सभी कैशफ्लो के कुल जमा की कीमत आज की कीमत में पता करते हैं।

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15.1 – DCF एनालिसिस का उपयोग 

पिछले अध्याय में हमने नेट प्रेजेंट वैल्यू (Net Present Value – NPV) की बात की थी। DCF वैल्यूएशन मॉडल में NPV एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अब हमें DCF मॉडल से जुड़े कुछ और सिद्धांतों को समझना जरूरी है। हम अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड पर DCF मॉडल को लागू करेंगे और इस से जुड़े हुए दूसरे सिद्धांतों को समझेंगे। ऐसा करने से हमें इक्विटी रिसर्च के तीसरे चरण यानी वैल्यूएशन का तरीका भी समझ में आएगा।

पिछले अध्याय में हमने पिज्जा मशीन की कीमत के आधार पर यह जानने की कोशिश की थी कि कैश फ्लो कितना होगा और उसको डिस्काउंट करके हमने PV निकाला था। हमने सभी प्रेजेंट वैल्यू को जोड़कर नेट प्रेजेंट वैल्यू (NPV) निकाला था। साथ ही हमने यह भी सोचने की कोशिश की थी कि अगर पिज्जा मशीन की जगह यही चीज किसी कंपनी के शेयर पर लागू किया जाए तो क्या पता चलेगा? सच तो यह है कि किसी भी कंपनी के फ्यूचर कैश फ्लो को देखकर हम उस शेयर की कीमत को पता कर सकते हैं। लेकिन हम किस कैश फ्लो की बात कर रहे हैं? हम कंपनी का फ्यूचर कैश फ्लो कैसे पता कर सकते हैं?

15.2 – फ्री कैश फ्लो (Free Cash Flow- FCF)

कंपनी के DCF एनालिसिस में हम जिस कैश फ्लो का इस्तेमाल करते हैं उसको फ्री कैश फ्लो (FCF) कहते हैं। यह वो नगद होता है जो कंपनी के पास अपने पूंजीगत खर्च यानी कैपिटल एक्सपेंडिचर के बाद, जैसे जमीन, मकान या मशीनों को खरीदने के बाद, बचता है। यह वो रकम है जो शेयरहोल्डर्स के लिए रखी जाती है। एक अच्छे बिजनेस की पहचान यही है कि वह कितना फ्री कैश फ्लो बना रहा है।

तो फ्री कैश फ्लो वह रकम है जो कंपनी अपने तमाम खर्च और निवेश के बाद बचा पाती है। 

कंपनी के पास फ्री कैश होता है तो इसका मतलब है कि कंपनी की सेहत अच्छी है। इसीलिए निवेशक हमेशा ऐसी कंपनियों की तलाश में रहते हैं जिनकी कीमत कम है लेकिन उनका फ्री कैश फ्लो काफी अच्छा है। उनको लगता है कि आने वाले समय में शेयर की कीमत और कैश फ्लो के बीच का अंतर खत्म हो जाएगा और शेयर की कीमत अच्छे कैश फ्लो के मुताबिक ऊपर चढ़ जाएगी।

 फ्री कैश फ्लो को निकालने का फार्मूला है:

FCF = कारोबार से मिला कैश पूंजीगत खर्च

FCF = Cash from Operating Activities – Capital Expenditures

ARBL का तीन साल FCF निकालते हैं– 

विवरण

2011 -12 2012 -13

2013 -14

कारोबारी गतिविधि का नकद (इनकम टैक्स के बाद) 296.28 करोड़ Rs.335.46 Rs.278.7
पूंजीगत खर्च Rs.86.58 Rs.72.47 Rs.330.3
फ्री कैश फ्लो(FCF) Rs.209.7 Rs.262.99 (Rs.51.6)

 

ARBL की FY14 की वार्षिक रिपोर्ट पर नजर डालिए और फ्री कैश फ्लो की गणना कीजिए:

ध्यान दीजिए कि ऑपरेटिंग एक्टिविटीज के नेट कैश की गणना करते समय इनकम टैक्स उसमें से निकाला जा चुका है। ऑपरेटिंग एक्टिविटीज के नेट कैश को स्कोर हरे रंग से और कैपिटल एक्सपेंडिचर को लाल रंग से हाईलाइट किया गया है।

यहां पर आपके दिमाग में एक सवाल उठ सकता है कि जब हम फ्यूचर फ्री कैश फ्लो निकाल रहे हैं तो हमें इस ऐतिहासिक फ्री कैश फ्लो निकालने की क्या जरूरत है? इसका जवाब बहुत सीधा है हमें DCF मॉडल में फ्यूचर फ्री कैश फ्लो की भविष्यवाणी करनी है। इसको करने के लिए हमें यह देखना होगा कि अब तक ऐतिहासिक रूप से फ्री कैश फ्लो किस औसत से बढ़ता रहा है और उसी के आधार पर हम फ्यूचर फ्री कैश फ्लो की भविष्यवाणी कर सकते हैं।

अब सवाल यह है कि फ्री कैश फ्लो के बढ़ने की किस रफ्तार की भविष्यवाणी की जाए। क्या यह स्थिर दर से बढ़ सकती है? यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि इसके बढ़ोतरी की दर बहुत ज्यादा नहीं रखनी है। व्यक्तिगत तौर पर मैं ही हमेशा चाहता हूं कि FCF कम से कम 10 साल के लिए निकाला जाए। ऐसा करने के लिए मैं शुरुआत के 5 साल एक निश्चित दर की भविष्यवाणी करता हूं और उसके बाद के 5 साल के लिए दर पहले से कम मानता हूं। इसको ठीक से समझने के लिए नीचे के उदाहरण को देखिए:

पहला कदम औसत फ्री कैश फ्लो का अनुमान कीजिए 

सबसे पहले ARBL के पिछले 3 साल का एक औसत निकालते हैं – 

(209.7+ 262.99 + 51.6)/3

= 140.36 

पिछले 3 साल के फ्री कैश फ्लो का औसत लेने का फायदा यह है कि हमें हर तरीके की स्थिति का एक अंदाज मिल जाता है और बिजनेस में आ रहे उतार-चढ़ाव का भी असर निकल जाता है। उदाहरण के लिए ARBL का सबसे ताजा कैश फ्लो 51.6 करोड़ है जो कि नेगेटिव है। जाहिर है कि ये ARBL के कैश फ्लो की सही तस्वीर नहीं बताएगा। इसीलिए जरूरी है कि औसत फ्री कैश फ्लो को ही लिया जाए।

दूसरा कदम बढ़ोतरी की रफ्तार को पहचानिए 

बढ़ोतरी के लिए कोई भी एक दर ले लीजिए जो आपको लगता है कि सही और तार्किक है और आपको लगता है कि औसत कैश फ्लो इसी रफ्तार से बढ़ सकती है। मैं आमतौर पर कैश फ्लो की रफ्तार को दो हिस्सों में बांटता हूं। पहला हिस्सा 5 साल का रखता हूं, उसके बाद के 5 साल को दूसरे हिस्से में रखता हूं। ARBL के मामले में मैं पहले 5 साल में 18% की दर की बढ़ोतरी का अनुमान लगाता हूं उसके बाद के 5 साल के लिए 10% की रफ्तार से बढ़ोतरी का अनुमान रखता हूं। अगर किसी कंपनी का काम काज अच्छा है और वह एक बड़ी कंपनी बन चुकी है तो मैं शायद 15% और 10% की रफ्तार रखता।  आप अपने अनुमान में जितना कम से कम उम्मीद रखें उतना ही अच्छा।

तीसरा कदम फ्यूचर कैश फ्लो का अनुमान करें 

हमें पता है कि 2013 14 का औसत कैश फ्लो 140.36 करोड़ था अब 18% की विकास दर के साथ 2014 15 के लिए कैश फ्लो दर का अनुमान होगा:

= 140.36 *(1+18%)

= 165.62 करोड़

सन 2015-16 के लिए फ्री कैश फ्लो होगा :

= 165.62*(1+18%)

= 195.43 करोड़

इसी तरह आप आगे की गणना भी कर सकते हैं।

फ्यूचर कैश फ्लो का अनुमान – 

क्रम सं वर्ष बढत की अनुमानित दर फ्यूचर कैश फ्लो (रू. करोड़)
01 2014 – 15 18% 165.62
02 2015 – 16 18% 195.43
03 2016 – 17 18% 230.61
04 2017 – 18 18% 272.12
05 2018 – 19 18% 321.10
06 2019 – 20 10% 353.21
07 2020 – 21 10% 388.53
08 2021 – 22 10% 427.38
09 2022 – 23 10% 470.11
10 2023 – 24 10% 517.12

आप हमारे पास फ्यूचर प्राइस फ्री कैश फ्लो का एक अच्छा खासा अनुमान है। लेकिन आप पूछ सकते हैं कि ये अनुमान कितना सही है। आखिरकार हम फ्री कैश फ्लो का अनुमान लगाते हुए कंपनी की बिक्री, खर्च, बिजनेस साइकिल और ऐसी तमाम चीजों के बारे में भी अनुमान लगा रहे हैं। इसीलिए फ्री कैश फ्लो का यह अनुमान भी सिर्फ और सिर्फ एक अनुमान है। इसीलिए यह जरूरी है कि आप फ्री कैश फ्लो के अनुमान लगाते समय जितना संभलकर कम से कम अनुमान करें उतना ही अच्छा होगा। हमने यहां 18% और 10% का अनुमान रखा है जो कि एक अच्छी और बढ़ती हुई कंपनी के हिसाब से काफी कम है।

15.3  – टर्मिनल वैल्यू (The Terminal Value)

हमने अगले 10 साल के लिए फ्यूचर फ्री कैश फ्लो का अनुमान लगाने की कोशिश की है। लेकिन 10 साल के बाद कंपनी का क्या होगा? यह कंपनी चलती रहेगी या नहीं? कंपनी को एक ऐसी वस्तु माना जाता है जो लगातार चलती रहे। इसका मतलब यह भी है कि कंपनी जब तक चलती रहेगी तब तक कुछ ना कुछ फ्री कैश आता रहेगा। लेकिन जैसे-जैसे कंपनी बड़ी होती जाती है वैसेवैसे फ्री कैश की रफ्तार कम होती जाती है।

10 साल के बाद कंपनी के फ्री कैश फ्लो के बढ़ोतरी की रफ्तार को टर्मिनल ग्रोथ रेट कहते हैं। आमतौर पर टर्मिनल ग्रोथ रेट को 5% से कम माना जाता है। व्यक्तिगत तौर पर मैं टर्मिनल ग्रोथ रेट को 3% से 4% के बीच में ही मानता हूं । 10 साल के बाद के सभी फ्यूचर कैश फ्लो के कुल जमा को टर्मिनल वैल्यू कहते हैं। इसको निकालने के लिए हमें 10वें साल के कैश फ्लो को टर्मिनल ग्रोथ रेट की रफ्तार से बढ़ाना होता है। इसे निकालने का फार्मूला थोड़ा अलग है:

टर्मिनल वैल्यू = FCF*(1 + टर्मिनल ग्रोथ रेट) / (डिस्काउंट रेटटर्मिनल ग्रोथ रेट)

Terminal Value = FCF * (1 + Terminal Growth Rate) / (Discount Rate – Terminal growth rate)

याद रहे कि यहाँ FCF 10वें साल का है। अब 9% के डिस्काउंट रेट और 3.5% के टर्मिनल ग्रोथ रेट से  ARBL का टर्मिनल वैल्यू निकालते हैं:

= 517.12*(1+3.5%)/(9%-3.5%)

= 9731.25 करोड़ रुपये

15.4 – नेट प्रेजेंट वैल्यू (NPV)

अब हमें 10 साल का फ्यूचर फ्री कैश फ्लो भी पता है और हमें टर्मिनल वैल्यू भी पता है (जो कि ARBL का 10 साल के बाद से अनंत तक का फ्री कैश फ्लो है )। आप हमें इस फ्री कैश फ्लो की कीमत आज के कीमत में पता करनी है। आपको याद होगा कि इसको हम प्रेजेंट वैल्यू कहते हैं। अगर हमने प्रेजेंट वैल्यू निकाल लिया तो हम नेट प्रेजेंट वैल्यू भी निकाल सकेंगे। 

इसके लिए हम 9% का डिस्काउंट रेट मान लेते हैं। 

उदाहरण के लिए 201516 में ARBL को 195.29 को मिलने हैं 9% के डिस्काउंट रेट पर इसकी प्रेजेंट वैल्यू होगी:

= 195.29/(1+9%)^2

=164.37 करोड़ रू

फ्यूचर कैश फ्लो की प्रेजेंट वैल्यू इस तरह से होगी:

क्रं वर्ष बढत की दर फ्यूचर कैश फ्लो (करोड़ रू) प्रेजेंट वैल्यू (करोड़ रू)
1 2014 – 15 18% 165.62 151.94
2 2015 – 16 18% 195.29 164.37
3 2016 – 17 18% 230.45 177.94
4 2017 – 18 18% 271.93 192.72
5 2018 – 19 18% 320.88 208.63
6 2019 – 20 10% 352.96 210.54
7 2020 – 21 10% 388.26 212.48
8 2021 – 22 10% 427.09 214.43
9 2022 – 23 10% 470.11 216.55
10 2023 – 24 10% 517.12 218.54
फ्यूचर कैश फ्लो की नेट प्रेजेंट वैल्यू (NPV)  Rs.1968.14 Crs

इसके साथ ही हमें टर्मिनल वैल्यू के लिए भी नेट प्रेजेंट वैल्यू को निकालना होगा। इसके लिए हमें टर्मिनल वैल्यू को डिस्काउंट रेट से डिस्काउंट करना होगा।

=9731.25/(1+9%)^10

= 4110.69 करोड़ रुपये

 इस तरह  कैश फ्लो की कुल प्रजेंट वैल्यू होगी:

= 1968.14+ 4110.69

= 6078.83 करोड़ रुपये

 इसका मतलब है कि आज यहां से हम देख सकते हैं कि ARBL  भविष्य में बहुत सारा फ्री कैश फ्लो बनाने वाला है यानी ARBL के शेयरधारकों को 6078.83 करोड़ रुपये मिलेंगे।

15.5 – शेयर की कीमत

अब हम DCF एनालिसिस के अंत में पहुंच गए हैं, इसलिए अब हम ARBL की फ्यूचर फ्री कैश फ्लो के हिसाब से शेयर की कीमत निकालेंगे।

हमें यह पता है कि ARBL कुल कितना फ्री कैश फ्लो बनाने वाला है, हमें ARBL के कुल आउटस्टैंडिंग शेयरों की संख्या भी पता है, कुल फ्री कैश फ्लो को कुल शेयरों की संख्या से विभाजित करने पर हमें ARBL की प्रति शेयर कीमत पता चल जाएगी। 

लेकिन यह करने के पहले हमें कंपनी के नेट डेट यानी कुल कर्ज को भी पता करना होगा। यह आंकड़ा हमें कंपनी के बैलेंस शीट से मिलेगा। इसे निकालने के लिए इस साल के कुल कर्ज में से इस साल के कैश और कैश इक्विवैलेंट से घटाना होगा।  

नेट कर्ज (नेट डेट) =  इस साल का कुल कर्ज (टोटल डेट) कैश और कैश बैलेंस

Net Debt = Current Year Total Debt – Cash & Cash Balance

ARBL का नेट कर्ज (FY14 के बैलेंस शीट के मुताबिक)

नेट कर्ज = 75.94-294.5

= (218.6 करोड़ रुपये)

इस आंकड़े का निगेटिव होने का मतलब है कि कंपनी के पास कर्ज से ज्यादा नकद (कैश) है। अब इसे कैश फ्लो के कुल प्रेजेंट वैल्यू में जोड़ना होगा।

= 6078.83 – (218.6)

= 6297.43 करोड़ रुपये

इस संख्या को शेयरों की कुल संख्या से विभाजित करने पर हमें कंपनी के शेयर की कीमत मिल जाएगी। इसे कंपनी की आंतरिक कीमत (intrinsic value) भी कहते हैं।

शेयर कीमत = फ्री कैश फ्लो की कुल प्रेजेंट वैल्यू/ शेयरों की कुल संख्या

Share Price = Total Present Value of Free Cash flow / Total Number of shares

ARBL की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी के शेयरों की कुल संख्या 17.081 करोड़ है। इसलिए कंपनी की आंतरिक कीमत है

6297.43/ 17.08

= 368 रुपये प्रति शेयर 

इस तरीके से DCF मॉडल का इस्तेमाल किया जाता है।

15.6- मॉडलिंग त्रुटि (Modeling Error) और इंट्रन्सिक वैल्यू बैन्ड (Intrinsic Value Band)

DCF मॉडल वैज्ञानिक तरीके से तो बना है लेकिन ये बहुत सारे अनुमानों के आधार पर काम करता है। इसलिए इसमें हमेशा थोड़ी गलतियां होने की संभावना रहती है। इसलिए यह मान लेना चाहिए कि हमने अपने अनुमानों में कुछ न कुछ गलतियां की होंगी और उन गलतियों को सुधार कर ही हमें इंट्रन्सिक वैल्यू यानी आंतरिक कीमत पर पर नजर डालनी चाहिए।  गलतियों का असर कम करने के लिए आंतरिक कीमत को एक बैंड के तौर पर देखा जा सकता है। व्यक्तिगत तौर पर मैं शेयर की आंतरिक कीमत में 10% ऊपर और 10% नीचे होने की गुंजाइश रखता हूं।

ऊपर की अपनी गणना को देखें और उसमें यह फॉर्मूला लगाएं तो :

आंतरिक कीमत का निचला बैंड होगा = 368*(1-10%) = 331 रुपये

आंतरिक कीमत का ऊपरी बैंड होगा = 405 रुपये

इस तरह से शेयर की आंतरिक कीमत 368 रुपये मानने के बजाय मैं मानूंगा कि कीमत 331 और 405 के बीच में होनी चाहिए।

कीमत के इस बैंड को ध्यान में रखते हुए हम शेयर की बाजार कीमत पर नजर डालते हैं। जिससे हमें पता चलता है कि

  1. अगर शेयर की कीमत आंतरिक कीमत के बैंड से नीचे है तो इसका मतलब है कि शेयर अंडरवैल्यूड है या कम कीमत पर मिल रहा है। ऐसे में शेयर को खरीदना चाहिए। 
  2. अगर शेयर की कीमत ऊपरी बैंड और नीचे के बैंड के बीच में है तो इसका मतलब है कि शेयर की कीमत सही है और इस कीमत पर नई खरीदारी की जरूरत नहीं है। आप चाहे तो शेयर को होल्ड कर सकते हैं। 
  3. अगर शेयर की बाजार कीमत आंतरिक कीमत के ऊपरी बैंड से ऊपर है तो इसका मतलब है कि शेयर महंगा मिल रहा है। ऐसे में निवेशक को या तो प्रॉफिट बुक कर लेना चाहिए या शेयर में बने रहना चाहिए। ऐसे में खरीदारी बिल्कुल नहीं करनी चाहिए।

 इन बातों का ध्यान रखते हुए हम एक बार अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड के कीमत पर नजर डालते हैं 2 दिसंबर 2014 को NSE की वेबसाइट पर इस कीमत को दिखाया गया है।

हम देख सकते हैं कि शेयर ₹726.70 पर बिक रहा है जो कि शेयर की आंतरिक कीमत के बैंड से काफी ऊपर है। साफ है कि इस कीमत पर शेयर को खरीदना इसे काफी ऊंचे वैल्यूएशन पर खरीदना होगा।

 15.7 –खरीदने के मौकों की पहचान

लंबे समय का निवेश एक धीमी चलने वाली गाड़ी की तरह होता है जबकि एक्टिव ट्रेडिंग एक बहुत तेज चलने वाली बुलेट ट्रेन की तरह। इसीलिए जब लंबी अवधि के निवेश का मौका आता है तो वह मौका बाजार में कुछ समय के लिए बना रहता है, वह अचानक गायब नहीं हो जाता। उदाहरण के तौर पर हमें यहां पता है कि अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड का शेयर ओवरवैल्यूड है यानी महंगी कीमत पर बिक रहा है। एक साल पहले यही शेयर एक अलग ही कीमत पर मिल रहा था। इस चार्ट को देखिए और याद रखिए कि ARBL के शेयर की आंतरिक कीमत का बैंड ₹331 से ₹405 के बीच का है।

नीले रंग से हाईलाइट किए गए हिस्से में आप देख सकते हैं कि यह शेयर अपने आंतरिक कीमत के बैंड में 5 महीने तक टिका हुआ था। अगर आपने उस समय इस शेयर को खरीदा होता तो बस आपको शेयर को लेकर भूल जाना था और अब आप एक अच्छे खासे रिटर्न पर बैठे होते।

शायद इसीलिए कहा जाता है कि बेयर मार्केट में या मंदी के बाजार में बहुत सारी चीजें अच्छी कीमत पर मिलती हैं। आपको याद रखना चाहिए कि सन 2013 में बाजार मंदी के दौर में था।

15.8-  निष्कर्ष 

पिछले 3 अध्यायों में हमने इक्विटी रिसर्च के अलग-अलग आयामों को देखा है। आपको समझ में आ गया होगा कि इक्विटी रिसर्च का मतलब है कि कंपनी को तीन अलग-अलग चरणों में देखा जाए।

 पहले चरण में हम कंपनी की गुणवत्ता को देखते हैं। इसमें हम कब,क्यों, और कैसे जैसे सवालों से कंपनी पर नजर डालते हैं। मेरे हिसाब से यह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है इक्विटी रिसर्च के इस चरण में अगर आप कंपनी की गुणवत्ता से संतुष्ट नहीं है तो आगे नहीं बढ़ना चाहिए। याद रखिए कि बाजार में मौकों की कमी नहीं होती इसलिए किसी मौके को जबरदस्ती निकालने की जरूरत नहीं है।

पहले चरण के नतीजों से पूरी तरह से संतुष्ट हो जाने के बाद में दूसरे चरण में जाते हैं जहां कंपनी के प्रदर्शन को देखना होता है। इसके लिए मैंने चेक लिस्ट बनाई है और आपको दिखाई है। वह मेरी चेक लिस्ट है और मुझे लगता है कि वह एक अच्छी चेक लिस्ट है। लेकिन मैं उम्मीद करता हूं कि आप अपनी खुद की चेक लिस्ट बनाएंगे और उसे अपने तर्कों के आधार पर बनाएंगे। 

दूसरे चरण के बाद इक्विटी रिसर्च का अंतिम भाग में तीसरा चरण आता है जिसमें हम कंपनी के आंतरिक कीमत या इंट्रिसिक वैल्यू को देखते हैं और शेयर की बाजार कीमत से इसकी तुलना करते हैं। अगर शेयर की बाजार कीमत इंट्रिसिक वैल्यू से कम है तो साफ है कि ये शेयर को खरीदने का अच्छा समय है। अगर तीनों चरण आप को संतुष्ट कर देते हैं तो इसका मतलब है कि आप को शेयर के बारे में पूरी जानकारी हो चुकी है और आप अपना मन बना चुके हैं। एक बार शेयर खरीदने के बाद उसमें बने रहिए और रोज-रोज की उठापटक से परेशान मत हों।

मैंने ARBL का DCF मॉडल का एक एक्सेलशीट बनाया है जिसे आप यहां से डाउनलोड कर सकते हैं और इस के आधार पर दूसरी कंपनियों के लिए भी गणना कर सकते हैं।

इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. कंपनी का फ्री कैश फ्लो निकालने के लिए हमें कारोबारी गतिविधियों में से मिलने वाले कैश में से कैपिटल एक्सपेंडिचर या पूंजीगत खर्च घटाना होता है।
  2. फ्री कैश फ्लो हमें बताता है कि कंपनी के निवेशकों के लिए कितना पैसा बच रहा है।
  3. मौजूदा साल के फ्री कैश फ्लो के आधार पर आने वाले वर्षों के लिए फ्री कैश फ्लो की भविष्यवाणी की जाती है।
  4. अपनी भविष्यवाणी में फ्री कैश फ्लो के बढ़ने की दर के अनुमान को कम रखना बेहतर होता है।
  5. टर्मिनल ग्रोथ रेट वह दर होती है जिस दर पर कंपनी का कैश फ्लो टर्मिनल वर्ष के बाद बढ़ता है।
  6. टर्मिनल वैल्यू वह वैल्यू है जिस दर पर कंपनी का कैश फ्लो टर्मिनल वर्ष के बाद से अनंत तक बढ़ता है।
  7. फ्यूचर फ्री कैश फ्लो और टर्मिनल वैल्यू दोनों को आज की कीमत पर डिस्काउंट करना होता है। 
  8. सभी डिस्काउंटेड कैश फ्लो के कुल जमा (टर्मिनल वैल्यू सहित) को कैश फ्लो का कुल नेट प्रेजेंट वैल्यू कहते हैं।
  9. कैश फ्लो की कुल नेट प्रेजेंट वैल्यू में से कुल कर्ज को घटाने के बाद इसको अगर हम शेयरों की कुल संख्या से विभाजित कर दे तो हमें कंपनी की हर शेयर की आंतरिक कीमत मिल जाएगी। 
  10. आंतरिक शेयर कीमत निकालने के बाद हमें उसमें मॉडलिंग त्रुटि को ध्यान में रखना चाहिए इसके लिए एक 10% का बैंड बना सकते हैं 
  11. इस 10% के बैंड को इंट्रिसिक वैल्यू बैंड कहते हैं 
  12. इस बैंड के नीचे की कीमत पर मिलने वाला शेयर एक अच्छी खरीद होता है जबकि इस जबकि इस बैंड के ऊपर मिलने वाला शेयर महंगा माना जाता है
  13. अंडरवैल्यूड कम कीमत पर मिलने वाले शेयर को खरीदने से आप की दौलत बढ़ती है 
  14. इसका मतलब है कि DCF एनालिसिस से निवेशकों को पता चलता है कि मौजूदा  कीमत पर शेयर को खरीदना सही है या नहीं।

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16.1- DCF एनालिसिस की खामियां

इस अध्याय में हम कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों की बात करेंगे जो आपके निवेश के फैसलों पर बहुत असर डाल सकते हैं। पिछले अध्याय में हमने देखा था कि कैसे DCF मॉडल से  कंपनी के शेयर की आंतरिक कीमत पता कर सकते हैं। किसी कंपनी की आंतरिक कीमत निकालने के लिए DCF शायद सबसे अच्छा तरीका हैलेकिन इस तरीके की अपनी कमियां भी हैं। आपको इन कमियों के बारे में भी जानना चाहिए। जैसा कि हम पहले भी बात कर चुके हैं कि DCF मॉडल आप के अनुमानों पर आधारित होता है। अगर आपके अनुमान ठीक नहीं है तो यह मॉडल ठीक से काम नहीं करेगा और आपको शेयर की ठीक कीमत पता नहीं चलेगी।

  1. DCF के लिए भविष्यवाणी करनी पड़ती है आप जानते ही हैं कि DCF मॉडल में हमें फ्यूचर कैश फ्लो और बिजनेस साइकिल के बारे में भविष्यवाणी करनी पड़ती है। ना केवल फंडामेंटल एनालिसिस के लिए ऐसा करना एक बड़ी चुनौती होता है बल्कि कंपनी के टॉप मैनेजमेंट के लिए भी एक महत्वपूर्ण चुनौती होता है।  
  2. यह टर्मिनल ग्रोथ रेट से बहुत ज्यादा प्रभावित होता है DCF मॉडल टर्मिनल ग्रोथ रेट से बहुत ही ज्यादा प्रभावित होता है। टर्मिनल ग्रोथ रेट में आने वाले छोटा सा बदलाव भी इस पर बहुत ज्यादा असर डालता है। उदाहरण के तौर पर ARBL के मामले में हमने टर्मिनल ग्रोथ रेट का अनुमान 3.5% का रखा जिसके बाद शेयर की कीमत ₹368 निकली। लेकिन अगर हम टर्मिनल ग्रोथ रेट को 3.5% की जगह 4% कर दें तो शेयर की कीमत बदल कर ₹394 हो जाएगी। 
  3. मॉडल में लगातार बदलाव की जरूरत होती है DCF मॉडल बन जाए तो भी एनालिस्ट को इसमें लगातार सुधार करना पड़ता है। जैसे-जैसे तिमाही और वार्षिक डेटा आता है एनालिस्ट को यह डेटा डालकर इस मॉडल में बदलाव करना पड़ता है और अपने अनुमानों को भी बदलना पड़ता है। 
  4. इसका फोकस लांग टर्म होता है DCF मॉडल पूरी तरीके से लंबी अवधि के निवेश की ओर देखता है कोई भी निवेशक जो एक साल से कम के लिए निवेश करना चाहता है उसके लिए DCF मॉडल से कोई काम की बात नहीं निकलती है।

इसके अलावा DCF मॉडल की वजह से आप कई मौके चूक भी सकते हैं क्योंकि यह मॉडल बहुत ही कठोर मानदंडों का पालन करता है। इन कमजोरियों से बचने के लिए यह जरूरी है कि आप इस इस मॉडल का इस्तेमाल करते समय अपने अनुमान कम से कम रखने की कोशिश करें। अच्छा अनुमान करने के कुछ दिशा निर्देश:

  1. फ्री कैश फ्लो (FCF) की विकास दरफ्री कैश फ्लो विकास दर कभी भी 20% से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। कोई भी कंपनी लगातार 20% की दर से फ्री कैश फ्लो को नहीं बढ़ा सकती। अगर कंपनी नई है और तेजी से बढ़ रही है तो आप उसे 20% की विकास दर दे सकते हैं लेकिन 20% के ऊपर की दर किसी कंपनी के लिए भी नहीं।  
  2. कितने वर्ष का अनुमान लगाएं  आप मान सकते हैं कि जितने ज्यादा सालों के लिए आप अनुमान लगाएंगे उतना ही बेहतर है। लेकिन यह भी सच है कि आपका अनुमान जितना लंबा होगा उसमें गलतियों की संभावना उतनी ज्यादा होगी। इसीलिए मैं आमतौर पर 10 साल तक का ही अनुमान लगाता हूं। और उसमें भी DCF दो चरणों में निकालता हूं।
  3. DCF दो चरणों में निकालें DCF एनालिसिस को दो चरणों में बांटना एक अच्छा तरीका है। ARBL के उदाहरण में हमने पिछले अध्याय में इस तरीके का उपयोग किया था। 10 सालों में से पहले एक चरण यानी 5 साल में FCF की एक अलग दर रखी थी और बाद के 5 साल यानी दूसरे चरण में एक दूसरी उससे कम विकास दर रखी थी। 
  4. टर्मिनल ग्रोथ रेट जैसा कि हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं कि DCF मॉडल में टर्मिनल ग्रोथ रेट बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है क्योंकि इसमें आया थोड़ा सा भी बदलाव इस मॉडल में बहुत ज्यादा बदलाव ला देता है। इसलिए जरूरी है कि टर्मिनल ग्रोथ रेट को कम से कम रखें। व्यक्तिगत तौर पर मैं कभी भी टर्मिनल ग्रोथ रेट को 4% से ज्यादा नहीं रखता हूं।

16.2 – मार्जिन ऑफ सेफ्टी यानी सुरक्षा दायरा (Margin of Safety)

याद रखिए आप कितना भी संभलकर अनुमान लगाएं लेकिन गलती फिर भी हो सकती है। इस गलती के असर से बचने के लिए मार्जिन आफ सेफ्टी या सुरक्षा दायरे का एक सिद्धांत सामने आता है। इस सिद्धांत को बैंक बेंजामिन ग्राहम नाम के एक व्यक्ति ने अपनी पुस्तक “इंटेलिजेंट इन्वेस्टर” में प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत में कहा गया है कि किसी भी निवेशक को शेयर तभी खरीदने चाहिए जब वह शेयर अपने आंतरिक कीमत से भी सस्ते में मिल रहा हो। वैसे ध्यान रखिए कि सुरक्षा दायरा लगाना आपको सफल निवेशक नहीं बना सकता, लेकिन हां, आप की गलतियों का असर जरूर काम कर सकता है। 

सुरक्षा सीमा या सुरक्षा दायरा का सिद्धांत मैं अपने निवेश में कैसे इस्तेमाल करता हूं इसका एक उदाहरण दिखाता हूं। एक बार फिर से अमारा राजा बैटरीज लिमिटेड का उदाहरण लेते हैं। शेयर की आंतरिक कीमत है ₹368 प्रति शेयर इसमें हमने 10% का मॉडलिंग त्रुटि (Modeling error) लगाया था जिससे कि हमें इंट्रिसिक वैल्यू बैंड यानी आंतरिक कीमत बैंड मिला था। इस बैंड की निचली कीमत है ₹ 331। सुरक्षा दायरे का सिद्धांत हमें कहता है कि हमें आंतरिक कीमत के निचले  बैंड से भी सस्ते में शेयर खरीदना चाहिए। आमतौर पर मैं निचले बैंड की कीमत से भी 30% नीचे मिलने पर ही शेयर खरीदता हूं।

आप पूछ सकते हैं कि इसकी क्या जरूरत है? कहीं हम ज्यादा संभलकर तो काम नहीं कर रहे हैं? शायद हां, लेकिन अपने आप को गलत अनुमानों और उसके परिणामों से बचाने के लिए जरूरी है। इसको इस तरह से देखिए, मान लीजिए कोई शेयर आपको ₹100 पर अच्छा लग रहा है अगर वह ₹70 पर मिले तो यह वाकई बहुत अच्छी बात होगी। अच्छा वैल्यू निवेशक या वैल्यू इनवेस्टर हमेशा ऐसे ही सोचता है। 

एक बार फिर से ARBL पर लौटते हैं।

  1. शेयर की आंतरिक कीमत है ₹368 
  2. मॉडलिंग त्रुटि से बचने के लिए 10% का बैंड रखने के बाद निचले बैंड की कीमत आती है ₹331 
  3. इसको 30% और कम करने के बाद यानी मार्जिन आफ सेफ्टी यानी सुरक्षा दायरा लगाने के बाद यह कीमत हो जाती है ₹230 
  4. ₹230 पर यह एक बहुत ही अच्छा निवेश साबित हो सकता है 

याद रखिए जैसे ही कोई अच्छा शेयर अपनी आंतरिक कीमत से नीचे मिलने लगता है वैल्यू इन्वेस्टर उसको खरीदने आ जाते हैं और ऐसे में अगर वह शेयर मार्जिन आफ सेफ्टी के साथ में और भी नीचे मिल रहा हो तो यह मौका हाथ से गंवाना नहीं चाहिए। ऐसा मौका बहुत कम मिलता है। यह भी याद रखें कि ऐसे मौके आमतौर पर बेयर मार्केट यानी मंदी के बाजार में ही मिलते हैं, जब लोग शेयरों से दूर रहना चाहते हैं या बाजार को लेकर उनकी सोच बहुत ही निराशाजनक होती है। इसलिए मंदी के बाजार में अगर आपके पास पैसे हैं तब आपको निवेश का अच्छा मौका मिल सकता है।

16.3 – कब बेचें?

इस पूरे मॉड्यूल में हमने शेयर खरीदने के बारे में बात की है। लेकिन बेचने के बारे में क्या? हमें कब बेचना चाहिए? कब प्रॉफिटबुक करना चाहिए? मान लीजिए आप ने ARBL का शेयर ₹250 पर खरीदा है और अब यह ₹730 प्रति शेयर पर मिल रहा है, इसका मतलब है कि आपने 192% का मुनाफा कमा लिया है, जो कि एक बहुत ही अच्छा रिटर्न माना जाएगा, खासकर तब जब आपने इसको 1 साल में कमाया है। तो क्या इसका मतलब है कि अब आपको यह शेयर बेच देना चाहिए और मुनाफा कमा लेना चाहिए? किसी शेयर को बेचने का समय तब होता है जब उसमें कोई ऐसी खामी आ जाए कि वह निवेश योग्य ना रह जाए।

निवेश लायक ना रह जाना याद रखिए शेयर को खरीदने का फैसला कीमत से नहीं होता। हम ARBL का शेयर सिर्फ इसलिए नहीं खरीद रहे कि वह पर 15% गिर गया है। इसे हम इसलिए खरीद रहे हैं क्योंकि वह शेयर निवेश की सारी शर्तों को पूरा करता है और इस वजह से वह निवेश योग्य शेयर है। लेकिन अगर वह शेयर निवेश योग्य ना रह जाए तो, क्या हम उसे खरीदेंगे? शायद नहीं इसी बात को आगे बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं कि शेयर तब तक रखना चाहिए जब तक कि वह निवेश योग्य शेयर है। हो सकता है कि किसी कंपनी के शेयर में वह सारी चीजें  कई सालों तक बनी रहें जिसकी वजह से वह निवेश योग्य शेयर बना रहे। कहने का मतलब यह है कि जब तक वह शेयर निवेश योग्य है तब तक शेयर में बने रहना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से शेयर की कीमत बढ़ती रहती है और आपके लिए कमाई होती रहती है।

16.4 – पोर्टफोलियो में कितने शेयर होने चाहिए?

आपके पोर्टफोलियो में कितने शेयर होने चाहिए? इस पर बहुत बहस होती है, कुछ लोग कहते हैं कि ज्यादा शेयर रखकर आप अपने पोर्टफोलियो को डायवर्सिफाई (Diversify) कर सकते हैं यानी विविधता ला सकते हैं और कुछ कहते हैं कि अगर शेयर कम हो तो आप ज्यादा कमाई कर सकते हैं। हम नजर डालते हैं कि कुछ जाने-माने निवेशकों का इस बारे में क्या कहना है:

सेट काल्रमैन – 10 से 15 स्टॉक्स

वॉरेन बफेट – 5 से 10 स्टॉक्स 

बेन ग्राहम – 10 से 30 स्टॉक्स

जॉन कींस – 2 से 3 स्टॉक्स 

मेरे अपने पोर्टफोलियो में मेरे पास 13 शेयर हैं और मैं कभी भी 15 शेयर से ज्यादा अपने पास  रखना नहीं चाहता हूं। 20 से ज्यादा शेयर तो शायद किसी के पास भी नहीं होने चाहिए।

 16.5 – अंतिम निष्कर्ष 

पिछले 16 अध्यायों में हमने बहुत सारे मुद्दों पर बातचीत की है जिससे कि बाजार के फंडामेंटल एनालिसिस को समझा जा सके। अब एक बार फिर से नजर डाल लेते हैं उन महत्वपूर्ण बातों को जिनको हमें याद रखना चाहिए

  1. तर्कसंगत बनें बाजार में उठापटक होती रहती है। लेकिन अगर आप में बाजार में बने रहने का धीरज है तो बाजार से आपको फायदा मिलेगा। आपको 15 से 18% तक की कमाई हो सकती है जो कि एक बहुत अच्छी कमाई है। याद रखें कि 50% या 100% कमाने के चक्कर में ना रहे क्योंकि कुछ समय के लिए भले ही आप ऐसी ऐसी कमाई कर लें लेकिन यह लंबे समय तक नहीं हो सकता। 
  2. लंबे समय का नजरिया रखें  हमने अध्याय 2 में इस बारे में बात की थी कि किसी भी निवेशक को लंबे समय का नजरिया क्यों रखना चाहिए। याद रखिए कि आप जितने लंबे समय तक निवेशित रहेंगे बाजार में आपको कंपाउंडिंग का फायदा उतना ही ज्यादा मिलेगा। 
  3. निवेश योग्य शर्तों को देखिए बाजार में हमेशा ऐसे शेयरों या स्टॉक्स की तलाश कीजिए जिसमें निवेश योग्य शर्तें पूरी हो रही हों। जब तक उन शेयर में वो शर्तें पूरी होती है तब तक उन में बने रहें और जब आपको लगे कि यह कंपनी अब निवेश योग्य नहीं रह गई है तो उसमें से निकल जाएं। 
  4. कंपनी की गुणवत्ता को हमेशा महत्व दीजिए गुणवत्ता या चरित्र हमेशा आंकड़ों से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। निवेश करने योग्य कंपनियों को चुनते समय यह देखिए कि प्रमोटर्स का चरित्र कैसा है। 
  5. शोरगुल से बचिए और चेक लिस्ट का इस्तेमाल कीजिए टीवी पर या समाचार पत्रों में जो भी कहा जा रहा हो उसकी चिंता किए बगैर अगर आप अपनी चेक लिस्ट पर नजर डालते रहेंगे और उसका उपयोग करेंगे तो आप निश्चित रूप से एक अच्छी कंपनी में निवेश कर पाएंगे। 
  6. मार्जिन आफ सेफ्टी का का इस्तेमाल याद रखिए यह आपको बुरे भाग्य से बचाएगा 
  7. आईपीओ/IPO- आईपीओ खरीदने से बचें। आईपीओ आमतौर पर महंगे होते हैं। अगर आपको कोई आईपीओ खरीदना भी है तो उसको इन्हीं तीन चरणों की इक्विटी रिसर्च के हिसाब से देखिए।
  8. सीखना जारी रखिए बाजार को समझना आसान नहीं है इसमें पूरी जिंदगी निकल जाती है इसलिए हमेशा कोशिश कीजिए कि आप ज्यादा से ज्यादा जानकारी पा सके और सीख सकें।

अब मैं आपको चार ऐसी किताबों के बारे में बताना चाहता हूं जो आपको निवेश समझने में मदद करेंगी।

  1. एसेज ऑफ वारेन बफेट: लेशंस फॉर इन्वेस्टर्स एंड मैनेजर्स (The Essays of Warren Buffet : Lessons for Investors & Managers)
  2. द लिटिल बुक दैट बीट्स द मार्केटजोएल ग्रीनब्लैट (The Little Book that Beats the Market – By Joel Greenblatt)
  3. द लिटिल बुक ऑफ वैल्यूएशंस  अश्वथ दामोदरन (The Little Book of Valuations – By Aswath Damodaran)
  4. द लिटिल बुक दैट बिल्डस वेल्थ पैट डोरसी(The Little Book that Builds Wealth – By Pat Dorsey)

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