शेयर बाजार से परिचय – Varsity by Zerodha https://zerodha.com/varsity/module/शेयर-बाजार-से-परिचय/ Markets, Trading, and Investing Simplified. Wed, 15 Sep 2021 05:44:01 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.4.5 अतिरिक्त जानकारी- 20 मार्केट डेप्थ या लेवल 3 डेटा https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%85%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-20-%e0%a4%a1%e0%a5%87%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a5/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%85%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-20-%e0%a4%a1%e0%a5%87%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a5/#comments Thu, 21 Nov 2019 05:48:13 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=6088 20 मार्केट डेप्थ (लेवल 3 डेटा) विंडो मैं कई सालों से कार चला रहा हूं और कार को कई बार बदल भी चुका हूं। जब भी मैंने कार बदली है, तो इंजन करीब-करीब वैसा ही रहता है लेकिन कार का रुप और कार के बहुत सारे फीचर बदलते रहते हैं। एयर कंडीशनिंग, पावर स्टीयरिंग और […]

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20 मार्केट डेप्थ (लेवल 3 डेटा) विंडो

मैं कई सालों से कार चला रहा हूं और कार को कई बार बदल भी चुका हूं। जब भी मैंने कार बदली है, तो इंजन करीब-करीब वैसा ही रहता है लेकिन कार का रुप और कार के बहुत सारे फीचर बदलते रहते हैं। एयर कंडीशनिंग, पावर स्टीयरिंग और पावर विंडो आदि पहले लग्जरी फीचर माने जाते थे, लेकिन आज ये सारे फीचर जरूरी बन गए हैं। लेकिन मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है – पार्किंग असिस्ट। कार के पीछे लगा हुआ यह छोटा कैमरा मुझे बताता है कि पीछे पार्किंग के लिए कितनी जगह बची है। अब मुझे खिड़की से बाहर निकाल कर पीछे देखने की जरूरत नहीं होती और ना ही किसी दूसरे से नीचे उतर कर कार को पार्क करने में मदद करने के लिए कहना होता है। पार्किंग असिस्ट फीचर के आने के बाद से मेरे लिए कार को पार्क करने का तरीका एकदम बदल गया है। 

इसी तरीके से, लेवल 3 डेटा को देखने के बाद से शेयर बाजार में ट्रेड करने का अनुभव एकदम बदल गया है।

लेवल 3 या 20 मार्केट डेप्थ एक अनोखा फीचर है। इसके कई इस्तेमाल है। आपने अगर किसी संस्था के इंस्टीट्यूशनल डेस्क पर बैठकर ट्रेडिंग की है, तो, लेवल 3 मार्केट विंडो का महत्व आपको समझ में आएगा। आम रीटेल ट्रेडर के लिए इस फीचर को समझना बहुत आसान नहीं है क्योंकि अभी तक यह फीचर कहीं पर उपलब्ध नहीं था। जीरोधा ने हाल ही में इस फीचर को भारतीय रीटेल ट्रेडर के लिए उपलब्ध कराया है। 

इस अध्याय में हम इसी फीचर के बारे में बताएंगे और यह बताएंगे कि इसके आधार पर आप अपनी ट्रेडिंग स्ट्रैटजी कैसे बना सकते हैं। 

अगर आप इसको बिल्कुल भी नहीं समझते तो मैं सलाह दूंगा कि आप इस ब्लॉग को पढ़ें, इससे आपको लेवल 3 डाटा के बारे में कुछ जरूरी बातें पता चल जाएंगी।

अगर आप इसके बारे में जानते हे तो ये अध्याय आपको इसके बहुत सारे उपयोगों के बारे में बताएगा।

कॉन्ट्रैक्ट की उपलब्धता

20 मार्केट डेप्थ ऑर्डर बुक ऑप्शन ट्रेडर को कॉन्ट्रैक्ट की उप्लभ्धि की बेहतर जानकारी देती है और इन सौदों के लिए सही कीमत चुनने में मदद करती है। इस मदद के बिना इललिक्विड कॉन्ट्रैक्ट (illiquid contract) को ट्रेड करना एक मुश्किल काम होता है। मैं भले ही यहां पर सिर्फ ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट की बात कर रहा हूं लेकिन आप फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट में भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं, खासकर ऐसे फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट जिनमें लिक्विडिटी कम हो। 

इस को बेहतर समझने के लिए 13000 CE जो कि जनवरी 2020 में एक्सपायर होने वाला है उसके

आम मार्केट डेप्थ को देखते हैं जिसमें टॉप 5 बिड और आस्क को दिखाया जाता है। 

बाईं तरफ के कॉलम में हम देख सकते हैं कि बहुत करीब करीब के बिड दिखाई दे रहे हैं जबकि दाहिनी तरफ, ऑफर थोड़े बेहतर हैं। अगर आप निफ्टी के कुछ लॉट ट्रेड करना चाहते हैं तो आप इस कॉन्ट्रैक्ट में ट्रेड करने से शायद थोड़ा हिचकिचाएंगे। 

अब लेवल 3 डेटा को खोल कर देखते हैं कि वहाँ क्या जानकारी मिलती है- 

आप देख सकते हैं कि वहां पर और बहुत सारे कॉन्ट्रैक्ट उपलब्ध हैं जो कि साधारण मार्केट डेप्थ में दिखाई नहीं देते। वास्तव में बिड और ऑफर की मात्रा 8 आठवीं पंक्ति में काफी ज्यादा हैं। 

इस स्ट्राइक पर उपलब्ध कॉन्ट्रैक्ट को देखने के बाद ट्रेड करने या न करने का आपका फैसला बिल्कुल ही बदल सकता है। अब यह पूरी तरीके से आपकी ट्रेडिंग स्ट्रेटजी पर निर्भर करेगा कि आप क्या फैसला करते हैं।

एक्जक्यूशन कंट्रोल (ट्रेड करने या ना करने के फैसले पर पूरा नियंत्रण)- Execution Control

लेवल 3 डाटा आपको यह भी बता देता है कि आपका ट्रेड किस कीमत पर पूरा होगा। यह खासकर तब बहुत काम आता है जब आप मार्केट को स्कैल्प (Scalp) करना चाहते हैं। जब आप मार्केट को स्कैल्प करते हैं तो 

  • आप बड़ी मात्रा में ट्रेड करते हैं मतलब आप बहुत बड़ी मात्रा में खरीदते और बेचते हैं और ये काम जल्दी-जल्दी करते हैं जिससे कीमत में होने वाले छोटे  से बदलाव का भी फायदा आपको मिल सके। 
  • चूंकि इसमें बहुत जल्दी-जल्दी ट्रेड करना होता है इसलिए आमतौर पर आप मार्केट ऑर्डर ही डालते हैं।

मान लीजिए आप हिंदुस्तान जिंक के 5000 शेयर खरीदना और बेचना चाहते हैं। साधारण मार्केट डेप्थ विंडो आपको ये सूचना देती है-

आप देख सकते हैं कि यहां पर आपको यह नहीं पता चल रहा कि आपको 5000 शेयर कहां से मिलेंगे। अब जरा 20 डेप्थ विंडो पर नजर डालिए-

20 डेप्थ विंडो एक अलग ही तस्वीर पेश करता है। यह सिर्फ यह नहीं बताता कि मुझे 5000 शेयर मिल जाएंगे, यह ये भी बताता है कि मेरे लिए इनकी खरीद की कीमत कितनी होगी। अगर मुझे 5000 शेयर खरीदने हैं तो मैं मुझे इस आर्डर बुक में ₹ 210.5 से ₹ 211.25 के बीच में खरीदना होगा। मुझे ये भी दिख रहा है कि ₹ 211 पर 2425 शेयर उपलब्ध हैं। इसका मतलब यह है कि मैं उम्मीद कर सकता हूं कि मेरी औसत कीमत 211 के आसपास होगी ।

अब अगर मैं स्टॉक को स्कैल्प करना चाहता हूं तो मेरे लिए स्टॉक की कीमत 211 से ऊपर होनी चाहिए। शायद 211.5 या उससे ऊपर। आपके लिए सही कीमत क्या होगी और किस कीमत पर आप मुनाफा कमाएंगे (सारे चार्जेस देने के बाद) यह आपको ब्रोकरेज कैलकुलेटर से पता चल सकता है।

पोजीशन साइजिंग (पोजीशन कितनी बड़ी रखें)

लेवल 3 मार्केट विंडो से आपको यह भी पता चल सकता है कि स्टॉक की लिक्विडिटी को देखते हुए आपको कितने शेयर ट्रेड करने चाहिए। अपनी चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए हम मान लेते हैं कि इस ट्रेड के लिए पैसे या पूंजी की कमी नहीं है। 

एक नजर डालते हैं बाजार के साधारण मार्केट डेप्थ पर-

आपको उम्मीद है कि अगले एक घंटे में सीमेंस 1675 से 1690 तक जाएगा। चूंकि आपको पूंजी यानी पैसे की कमी नहीं है तो आप कितने शेयर खरीदेंगे 

इस ट्रेड के लिए साधारण मार्केट डेप्थ विंडो यह बता रही है कि आप करीब 175 शेयर खरीद सकते हैं। लेकिन 20 डेप्थ एक अलग तस्वीर पेश करता है – 

वास्तव में, इस स्टॉक में लिक्विडिटी बेस्ट बिड और आस्क के नीचे है और इंपैक्ट कॉस्ट भी ठीक है। साधारण मार्केट डेप्थ विंडो यह दिखा नहीं दिखा रहा था। मान लीजिए कि आप करीब 1500 शेयर खरीदना चाहते हैं तो इसके लिए आपको 1675.5 से 1678 के बीच में कीमत अदा करनी पड़ेगी। यानी इसका स्प्रेड हुआ 0.149

अब अगर आपको यह पक्का है कि स्टॉक आपकी टारगेट कीमत 1690 तक पहुंच जाएगा, तो आप बाजार में उस समय मौजूद सभी शेयर खरीद सकते हैं।

ऑर्डर प्लेसमेंट (ऑर्डर लगाना) – Order Placement

पोजीशन साइजिंग के ही सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए आप 20 डेप्थ का इस्तेमाल स्टॉप लॉस पता करने और लिमिट ऑर्डर के लिए भी कर सकते हैं। मान लीजिए आपको वीएसटी टिलर्स (VST Tillers) में 1313.8 पर एक इंट्राडे पोजीशन लेनी है।

सवाल यह है कि आप इस ट्रेड के लिए अपना स्टॉपलॉस कहां लगाएंगे क्या 20 मार्केट डेप्थ इसमें आपकी मदद कर सकता है 

हां आप जरा वीएसटी टिलर्स के लिए 20 मार्केट डेप्थ विंडो पर नजर डालिए। जैसा कि आप देख सकते हैं कि 1290 पर बहुत सारे बिड हैं। अच्छी बात यह है कि इसी कीमत पर आस्क की संख्या भी सबसे ज्यादा है। 

इसका मतलब है कि बहुत सारे ट्रेडर ने 1290 पर आर्डर डाल रखा है और इस जगह पर प्राइस एक्शन होने की उम्मीद है। यह हमें बताता है कि यहां पर स्टॉपलॉस रखा जा सकता है। 

एक समझदार ट्रेडर शायद 1290 पर स्टॉपलॉस नहीं रखेगा, उससे थोड़ा सा नीचे रखेगा। 

अगर मैं एक ट्रेडर हूं तो 20 डेप्थ को देख कर शायद मैं अपना स्टॉपलॉस 1290 या उससे नीचे रखूंगा। शायद 1287 पर। इसी तर्क का इस्तेमाल करते हुए अपना टारगेट 1340 या 1338.8 पर रखूंगा।

सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर की पुष्टि करना- Validate the support & resistance level

ऊपर के उदाहरण में हमने 1290 को स्टॉपलॉस कीमत माना क्योंकि वहां पर बहुत ज्यादा बिड थे। दूसरे शब्दों में कहें तो हमने 1290 को सपोर्ट कीमत माना। 

मुझे यह पता करना बहुत ही रोचक लगा कि अगर यह सच है तो यह चार्ट में भी दिखना चाहिए। आइए चार्ट पर नजर डालते हैं –

साफ दिख रहा है कि 1296 के आसपास प्राइस एक्शन हो रहा है। आपको याद ही होगा कि सपोर्ट और रेजिस्टेंस एक निश्चित कीमत नहीं होता बल्कि कीमत का एक दायरा या रेंज होते हैं। इसलिए 1290 से 1300 तक इस स्टॉक के लिए एक इंट्राडे सपोर्ट दिखता है। 

बाजार में प्राइस एक्शन का सिद्धांत कैसे काम करता है, इसका यह एक सही उदाहरण दिख रहा है। 

इसको देखने का एक दूसरा तरीका यह हो सकता है कि पहले आप सपोर्ट और रेजिस्टेंस के स्तर को देखें और उसके बाद 20 डेप्थ में जाकर देखें कि क्या वहाँ पर बिड और ऑफर ज्यादा हैं

 

उम्मीद है कि अब तक आपको ट्रेडिंग में 20 डेप्थ ऑर्डर बुक के फायदों के बारे में समझ में आ गया होगा। 

याद रखिए कि आप बाजार पर अपनी राय बनाने के लिए किसी भी तकनीक (टेक्निकल या क्वांटिटेटिव एनालिसिस) का इस्तेमाल कर रहे हों, अंत में फैसला, कीमत पर आकर ही होता है। हर ट्रेड कीमत के आधार पर ही किया जाता है।

इसलिए प्राइस एक्शन को समझने के लिए 20 डेप्थ विंडो आपकी सबसे बड़ी कुंजी या चाभी है। इसका अच्छे से इस्तेमाल कीजिए। 

आप इस विंडो का इस्तेमाल कैसे करेंगे और कैसे इसके जरिए आप ट्रेड के लिए मौके तलाशेंगे, इसके बारे में अपने कमेंट हमें लिखिए।

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रेगुलेटर्स – नियामक https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b2%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%95/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%b2%e0%a5%87%e0%a4%9f%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b8-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%95/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:58:13 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5635 2.1 शेयर बाज़ार क्या है?   हमने पहले अध्याय में पढ़ा था कि इक्विटी निवेश का एक ऐसा विकल्प है जिसमें महंगाई दर से कहीं ज्यादा रिटर्न देने की क्षमता है। अब सवाल ये आता है कि इसमें निवेश करे कैसे? इसका जवाब जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि इक्विटी में निवेश कौन […]

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2.1 शेयर बाज़ार क्या है?  

हमने पहले अध्याय में पढ़ा था कि इक्विटी निवेश का एक ऐसा विकल्प है जिसमें महंगाई दर से कहीं ज्यादा रिटर्न देने की क्षमता है। अब सवाल ये आता है कि इसमें निवेश करे कैसे? इसका जवाब जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि इक्विटी में निवेश कौन कौन से लोग करते हैं और ये पूरा सिस्टम कैसे काम करता है। 

जैसे हम अपने बगल के किराना दुकान जा कर ज़रूरत की चीजें खरीदते हैं, वैसे ही हम इक्विटी में निवेश, या खरीद बिक्री  स्टॉक मार्केट या शेयर बाज़ार में करते हैं। इक्विटी में निवेश करते वक्त एक शब्द – ट्रांजैक्ट (Transact) आप बार बार सुनेंगे। ट्रांजैक्ट का मतलब है खरीद-बिक्री करना। और इक्विटी की ये खरीद-बिक्री आप बिना स्टॉक मार्केट के नहीं कर सकते। 

स्टॉक मार्केट इक्विटी खरीदने वाले और बेचने वाले को मिलाता है। लेकिन ये स्टॉक मार्केट किसी दुकान या इमारत के रूप में नहीं दिखता, जैसा कि आपके किराने के दुकान दिखते हैं। स्टॉक मार्केट इलेक्ट्रॉनिक रूप में होता है। आप कंप्यूटर के ज़रिए इस पर जाते हैं और वहाँ खरीद बिक्री का काम करते हैं। एक बात का यहाँ ध्यान रखें कि ये शेयरों की खरीद बिक्री का काम आप बिना स्टॉक ब्रोकर के नहीं कर सकते। स्टॉक ब्रोकर एक रजिस्टर्ड मध्यस्थ होता है, जिसके बारे में हम आगे विस्तार से बताएंगे। 

भारत देश में दो मुख्य स्टॉक एक्सचेंज हैं- बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज ( Bombay Stock Exchange- BSE) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (National Stock Exchange- NSE) । इसके अलावा कुछ क्षेत्रीय स्टॉक एक्सचेंज भी हैं जैसे बैंगलोर स्टॉक एक्सचेंज,  मद्रास स्टॉक एक्सचेंज। क्षेत्रीय स्टॉक एक्सचेंज पर अब ना के बराबर लोग हिस्सा लेते हैं। 

2.2 शेयर बाज़ार में कौन लोग हिस्सा लेते हैं और उन्हें रेगुलेट करने की ज़रूरत क्यों है? 

शेयर बाज़ार में एक व्यक्ति से लेकर कंपनियाँ तक निवेश करती हैं। जो लोग भी शेयर बाज़ार में खरीद बिक्री करते हैं उन्हे मार्केट पार्टिसिपेंट्स (Market Participants) कहा जाता है। इन मार्केट पार्टिसिपेंट्स को कई कैटेगरी या वर्ग में बाँटा गया है। कुछ कैटेगरी की जानकारी नीचे दी गई है। 

  1. डोमेस्टिक रिटेल पार्टिसिपेंट्स – भारतीय मूल के नागरिक जो भारत में ही रहते हैं, जैसे हम और आप। 
  2. NRI’s और OCI – भारतीय मूल के नागरिक जो विदेशों में बसे हैं। 
  3. घरेलू संस्थागत निवेशक (Domestic Institutions) –  इसके तहत बड़ी भारतीय कंपनियाँ आती हैं, जैसे भारतीय जीवन बीमा निगम ( Life Insurance Company of India- LIC)।
  4. घरेलू ऐसेट मैनेजमेंट कंपनियाँ ( Asset Management Companies) – इस वर्ग में आमतौर पर घरेलू म्युचुअल फंड कंपनियाँ होती हैं जैसे SBI म्युचुअल फंड, DSP ब्लैक रॉक, फिडेलटी इंवेस्टमेंट्स, HDFC AMC वगैरह। 
  5. विदेशी संस्थागत निवेशक (Foreign Institutional Investors) – इसमें विदेशी कंपनियाँ, विदेशी ऐसेट मैनेजमेंट कंपनियाँ, हेज फंड्स वगैरह आते हैं। 

निवेशक किसी भी कैटेगरी या वर्ग का हो, शेयर बाज़ार में भाग लेने वाली हर एंटिटी मुनाफा कमाना चाहती है। और जब पैसे की बात आती है, तो इंसान के अंदर लालच और डर दोनों बहुत ज्यादा होता है। कोई भी इंसान बड़े आराम से लालच और डर के चक्कर में पड़ कर गलत काम कर सकता है। भारत में इस तरह के घोटाले भी हुए हैं, जैसे हर्षद मेहता घोटाला वगैरह। इसलिए ज़रूरी है कि एक ऐसी बॉडी हो, जो नियम कानून बनाए और ये सुनिश्चित करे कि किसी तरह की गलत हरकतें बाज़ार में न हो, और सभी को पैसा कमाने का सही मौका मिले। इसीलिए रेगुलेटर की ज़रूरत होती है।

2.3 रेगुलेटर 

भारत में शेयर बाज़ार का रेगुलेटर है भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड ( The Securities and Exchange Board of India- SEBI) जिसे हम सेबी के नाम से जानते हैं। सेबी का उद्देश्य है प्रतिभूतियों (सिक्योरिटीज़) में निवेश करने वाले निवेशकों के हितों का संरक्षण करना, प्रतिभूति बाजार (सिक्योरिटीज़ मार्केट) के विकास का उन्नयन करना तथा उसे विनियमित करना और उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों का प्रावधान करना । सेबी ये सुनिश्चित करती है कि

  1. दोनों स्टॉक एक्सचेंज – NSE और BSE, अपना काम सही तरीके से करें
  2. स्टॉक ब्रोकर्स और सब ब्रोकर्स नियमानुसार काम करें 
  3. शेयर बाज़ार में हिस्सा लेने वाली कोई एंटिटी गलत काम न करे
  4. कंपनियाँ शेयर बाज़ार का इस्तेमाल सिर्फ खुद के फायदे के लिए न करें – जैसा सत्यम कम्प्यूटर्स ने किया था
  5. छोटे निवेशकों के हित की रक्षा हो
  6. बड़े निवेशक, जिनके पास बहुत पूंजी है, वो अपने हिसाब से बाजार में हेर-फेर न करें 
  7. पूरे शेयर बाज़ार का विकास हो

 

इन उद्देश्यों को देखते हुए ये ज़रूरी है कि सेबी सभी एंटिटी को रेगुलेट करे। नीचे दिए गए सभी एंटिटी शेयर बाजर से सीधे तौर पर जुड़े होते हैं। किसी एक की गलत हरकत से शेयर बाज़ार में उठा पटक मच सकती है। 

सेबी ने इन एंटिटी के लिए अलग अलग नियम और कानून बनाए है। सभी को इन नियम कानून के दायरे में रह कर काम करना होता है। इन नियम कानून की विस्तार में जानकारी सेबी के वेबसाइट पर “कानूनी ढाँचा” सेक्शन में आपको मिल जाएगी। 

एंटिटी कंपनियों के उदाहरण क्या करती हैं ये कंपनियाँ आसान शब्दों में समझिए
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी (Credit Rating Agency- CRA) CRISIL, ICRA, CARE कॉरपोरेट्स और सरकार के उधार लेने की योग्यता को रेट करती है अगर सरकार या कोई कंपनी लोन लेना चाहती है, तो ये कंपनियाँ चेक करती हैं कि सरकार या कंपनी के पास लोन चुकाने की क्षमता है या नहीं।
डिबेंचर ट्रस्टीज ( Debenture Trustees) तकरीबन सारे बैंक कॉरपोरेट डिबेंचर के ट्रस्टी की तरह काम करते हैं जब किसी कंपनी को पैसे की ज़रूरत होती है तो वो डिबेंचर इश्यू कर सकती हैं, जिस पर वो तय ब्याज देने की बात करते हैं। निवेशक ये डिबेंचर खरीद सकते हैं। डिबेंचर ट्रस्टी ये सुनिश्चित करता है कि कंपनी ने जो ब्याज देने की बात की थी, वो वक्त पर दे।
डेपोसिटोरीज़ ( Depositories) NSDL, CDSL डेपोसिटोरीज़ निवेशकों की सेक्यूरिटीज़ को सुरक्षित रखती हैं और इसकी रिपोर्टिंग और सेटलमेंट करती हैं जब आप शेयर खरीदते हैं, तो वो आपके डिपॉजिटरी अकाउंट में आ जाते हैं, जिसे डीमैट अकाउंट भी कहते है। इन डीमैट अकाउंट को मैनेज करने का काम ये दो कंपनियाँ करती हैं।
विदेशी संस्थागत निवेशक ( Foreign Institutional Investors- FII) विदेशी कंपनियाँ, फंड्स और विदेशी नागरिक भारत में निवेश करना ये विदेशी एंटिटी होते हैं, जो भारत मे निवेश करना चाहते हैं। ये निवेश के लिए काफी बड़ी रकम लगाते हैं और इनके निवेश का असर भारतीय शेयर बाज़ार की चाल पर साफ-साफ दिखता है।
मर्चेंट बैंकर्स कार्वी, एक्सिस बैंक, एडलवाइज कैपिटल कंपनियों की मदद करना प्राइमरी मार्केट से पैसा जुटाने में अगर कंपनी आईपीओ IPO के ज़रिए पैसा जुटाना चाहती है, तो मर्चेंट बैंकर इस पूरी प्रक्रिया में कंपनियों की मदद करते हैं।
ऐसेट मैनेजमेंट कंपनी- Asset Management companies -AMC HDFC AMC, रिलायंस कैपिटल, SBI कैपिटल म्युचुअल फंड स्कीम्स बेचती हैं AMC लोगों से पैसे लेता है, उसे एक अकाउंट में डालता है, और उस पैसे को शेयर बाज़ार में निवेश करता है। उद्देश्य ये होता है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बना कर निवेशकों को फायदा पहुंचाया जाए।
पोर्टफोलियो मैनेजर्स, पोर्टफोलियो मैनेजमेंट सिस्टम (Portfolio management system- PMS) रेलिगेयर वेल्थ मैनेजमेंट, पराग पारिख PMS PMS स्कीम्स बेचती हैं ये है तो म्युचअल फंड की तरह लेकिन यहाँ आपको कम से कम 25 लाख रुपये का निवेश करना होता है। म्युचुअल फंड में ऐसी कोई शर्त नहीं होती।
स्टॉक ब्रोकर्स और सब ब्रोकर्स Zerodha, शेयरखान, ICICI डायरेक्ट निवेशक और स्टॉक एक्सचेंज के बीच मध्यस्थ का काम आप शेयर की खरीद-बिक्री रजिस्टर्ड ब्रोकर के ज़रिए ही कर सकते हैं। सब-ब्रोकर, ब्रोकर के लिए एजेंट की तरह काम करता है।

 


इस अध्याय की ज़रूरी बातें

  1. अगर आपको शेयर खरीदना-बेचना है तो शेयर बाज़ार या स्टॉक मार्केट के ज़रिए करना होगा।
  2. शेयर बाजार में शेयर खरीदना-बेचना इलेक्ट्रॉनिक तरीके से होता है और आप किसी स्टॉक ब्रोकर के ज़रिए ये काम कर सकते हैं।
  3. शेयर बाज़ार में कई भागीदार/खिलाड़ी या पार्टिसिपेंट्स (participants) होते हैं।
  4. शेयर बाज़ार में भाग लेने या ऑपरेट करने वाले सभी एंटिटी को रेगुलेट करना ज़रूरी है और सबको रेगुलेटर द्वारा बनाए गए नियमों को पालन करना होता है।
  5. SEBI – सेबी सिक्योरिटी बाज़ार का रेगुलेरटर है। वो नियम- कानून बना कर शेयर बाज़ार में हिस्सा लेने वाले सभी एंटिटी को रेगुलेट करता है।
  6. सबसे ज़रूरी बात- सेबी को पता होता है कि आप शेयर बाज़ार में क्या कर रहे हैं, अगर आपने कुछ भी गैर-कानूनी किया तो आपके खिलाफ एक्शन लिया जाएगा। 

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3.1 संक्षिप्त विवरण

शेयर बाजार में आपके एक शेयर खरीदने से ले कर उस शेयर के आपके डीमैट एकाउंट में आने तक कई तरह की कॉरपोरेट एंटिटीज (Corporate Entities) यानी कई संस्थाएं बैकएंड में काम कर रही होती हैं, जिससे ये काम सही तरीके से हो जाए। पर्दे के पीछे काम कर रहीं ये एंटिटीज सेबी के कायदे कानूनों के मुताबिक आपके सौदे को मुमकिन बनाती हैं जिससे आपको कोई दिक्कत न हो। इन एंटिटीज को फाइनेंशियल इन्टरमीडियरीज (Financial Intermediaries) के नाम से जाना जाता है। 

ये इन्टरमीडियरीज एक दूसरे के काम पर निर्भर होती हैं और एक साथ मिल कर वो इकोसिस्टम तैयार करती हैं जिसके बिना वित्तीय बाजार का चलना असंभव है। इस अध्याय में आपको इन इन्टरमीडियरीज के बारे में बताया जाएगा।

3.2 शेयर दलाल/स्टॉक ब्रोकर (The Stock Broker)

ब्रोकर या दलाल शायद शेयर बाजार का सबसे महत्वपूर्ण इन्टरमीडियरी है, इसके बारे में जाने बगैर आपका काम नहीं चलेगा। ये एक कॉपोरेट एंटिटी  (Corporate Entity) है जो शेयर एक्सचेंज में ट्रेडिंग मेंबर के तौर पर रजिस्टर्ड होते हैं और इनके पास स्टॉक ब्रोकिंग का लाइसेंस होता है। और ये सेबी के नियमों के तहत काम करते हैं।

एक तरह से स्टॉक ब्रोकर आपके लिए शेयर बाजार का दरवाजा है। शेयर बाजार में आने के लिए आपको किसी ब्रोकर के पास ट्रेडिंग एकाउंट खोलना जरूरी होता है। आप ब्रोकर अपनी मर्जी से या अपनी पसंद का चुन सकते हैं। 

आपका ट्रेडिंग एकाउंट आपके ब्रोकर के पास होता है जिसके जरिए आप शेयर खरीद या बेच सकते हैं। 

तो मान लीजिए कि आपने ट्रेडिंग एकाउंट खोल लिया है और आप कोई सौदा करना चाहते हैं जिसके लिए आपको अपने ब्रोकर से संपर्क करना है तो इसके क्या तरीके हैं?

  1. आप खुद ब्रोकर के ऑफिस में जाएं और वहां बैठे डीलर से मिल कर उसे बताएं कि आपको क्या सौदा करना है। डीलर वहां इस तरह के ऑर्डर को पूरा करने के लिए ही बैठता है। 
  2. आप अपने ब्रोकर को फोन कर सकते हैं, अपनी पहचान, क्लायंट कोड जैसी जानकरी देने के बाद अपना ऑर्डर बता सकते हैं। इसके बाद डीलर आपके सौदे को पूरा करेगा। फिर आपको फोन पर ही बता देगा कि आपका ऑर्डर पूरा हो गया। 
  3. आप खुद भी सौदा कर सकते हैं। एक ट्रेडिंग टर्मिनल साफ्टवेयर के जरिए। आपको अपने कम्प्यूटर पर सिर्फ लॉग इन करना होगा और आप खुद शेयर की लाइव (LIVE) यानी उस वक्त की कीमत देख सकेंगे और ऑर्डर कर सकेंगे। इसीलिए ये सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला तरीका है।

 

ब्रोकर आपको कुछ जरूरी सुविधाएं देता है, जैसे:

    1. बाजार में शेयर खरीदने बेचने की सुविधा।
    2. ट्रेडिंग के लिए मार्जिन। इसकी हम बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे।
    3. अगर फोन पर ट्रेडिंग करनी है तो वहाँ ब्रोकर आपको मदद करेगा। साथ ही सॉफ्टवेयर का सपोर्ट भी जिससे आपके ट्रेडिंग में दिक्कत ना आए।
    4. हर सौदे का कॉन्ट्रैक्ट नोट जारी करना। ये नोट उस दिन के सौदे का लिखित प्रमाण होता है।
    5. आपके बैंक एकाउंट और ट्रेडिंग एकाउंट के बीच पैसा ट्रांसफर करना।
    6. बैक ऑफिस का लॉग इन बनाना, जिससे आप अपने एकाउंट की पूरी जानकारी देख सकें।
    7. अपनी तरफ से दी गयी इन सुविधाओं के लिए ब्रोकर आपसे एक फीस लेता है जिसे ब्रोकरेज चार्ज कहते हैं। हर ब्रोकर के यहां ये फीस अलग अलग होती है। आपको वो ब्रोकर चुनना होता है जहाँ फीस और सुविधाओं का सही संतुलन हो।

3 .3 डिपॉजिटरी और डिपॉजिटरी पॉर्टिसिपेंट (Depository and Depository Participants)

जब आप कोई प्रॉपर्टी खरीदते हैं तो उसके कागज संभाल कर रखते हैं जिसे समय आने पर आप दिखा सकें कि आपने कब और कहाँ से उसे खरीदा था। इसलिए कागज को सुरक्षित जगह पर रखना महत्वपूर्ण होता है। 

इसी तरह जब आप शेयर खरीदते हैं (जो कि वास्तव में उस कंपनी में आपकी हिस्सेदारी है) तो आपको अपनी हिस्सेदारी साबित करने के लिए शेयर सर्टिफिकेट को संभाल कर रखना होता है। क्योंकि उसी में सारी जानकरी लिखी होती है कि आपके पास कंपनी का कितना हिस्सा है। 

1996 तक शेयर सर्टिफिकेट कागज का होता था। लेकिन उसके बाद से शेयर सर्टिफिकेट डिजिटल तरीके से जारी होने लगा। कागज के शेयरों को डिजिटल में बदलने की प्रक्रिया को डीमैटेरियलाइजेशन (Dematerialization) कहा जाता है जिसे छोटे में डीमैट (DEMAT) कहा जाने लगा।

1996 के बाद इन डीमैट शेयरों को डिजिटली रखने की जरूरत आ पड़ी और तब से एक डीमैट एकाउंट जरूरी हो गया। डीमैट एकाउंट की सुविधा देने के लिए डिपॉजिटरी को बनाया गया। डिपॉजिटरी आपके डीमैट एकाउंट आपके सभी शेयरों को डिजिटल फॉर्म में रखने का काम करती है। इसे आप अपनी डिजिटल तिजोरी भी मान सकते हैं। 

आपके ब्रोकर के पास खोला गया ट्रेडिंग एकाउंट और डिपॉजिटरी के पास खुला डीमैट एकाउंट आपस में जुड़े होते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर आप इन्फोसिस का शेयर खरीदना चाहते हैं तो आप अपने ट्रेडिंग एकाउंट पर लॉग इन करेंगे, अपनी कीमत डालेंगे और खरीदने का ऑर्डर डालेंगे और शेयर खरीद लेंगे। यहाँ आ कर ट्रेडिंग एकाउंट का काम खत्म। इसके बाद इन्फोसिस का शेयर अपने आप आपके डीमैट एकाउंट में आ जाएगा। 

इसी तरह बेचते समय आपको शेयर की कीमत और ऑर्डर ट्रेडिंग एकाउंट पर डालना होगा और शेयर आपके डीमैट एकाउंट से अपने आप निकल जाएंगे।

अभी देश में डीमैट एकाउंट की सर्विस देने वाली सिर्फ दो डिपॉजिटरी हैं। एन एस डी एल (NSDL) यानी नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड (The National Securities Depository Limited) और सी डी एस एल (CDSL) यानी सेन्ट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज लिमिटेड (Central Depository Services- India- Limited)। दोनों मे एक जैसी सर्विस मिलती है और दोनों सेबी के नियमों के तहत काम करती हैं। 

जैसे आप शेयर ट्रेडिंग एकाउंट खोलने के लिए ब्रोकर के पास जाते हैं, NSE या BSE नहीं, उसी तरह डीमैट एकाउंट खोलने के लिए आप NSDL या CDSL के पास नहीं किसी डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट (Depository Participant- DP) के पास जाएंगे। ये DP आपका एकाउंट खोलने के लिए डिपॉजिटरी के एजेंट की तरह काम करते हैं और सेबी के नियमों के अधीन होते हैं। 

 

3.4 बैंक (Banks)

शेयर बाजार के मामले में बैंक की भूमिका काफी सीधी होती है। ये बैंक से ट्रेडिंग एकाउंट और ट्रेडिंग एकाउंट से बैंक के बीच पैसों का ट्रांसफर करते हैं। इसके लिए ट्रेडिंग एकाउंट और बैंक एकाउंट में एक ही नाम होना जरूरी है।

आप अपने कई बैंक एकाउंट अपने ट्रेडिंग एकाउंट से जोड़ सकते हैं। जैसे जेरोधा (Zerodha) पर एक प्राइमरी बैंक एकाउंट और तीन सेकेंडरी बैंक एकाउंट आपके ट्रेडिंग एकाउंट से जोड़ने की सुविधा है। आप शेयर खरीदने के लिए पैसे इनमें से किसी भी बैंक एकाउंट से डाल सकते हैं। लेकिन बेचते समय पैसे सिर्फ प्राइमरी बैंक एकाउंट में ही जाएंगे। आपका प्राइमरी बैंक एकाउंट आपके ट्रेडिंग एकाउंट, डिपॉजिटरी और रजिस्ट्रार एंड ट्रांसफर एजेंट (Registrar and transfer agents- RTA) से भी जुड़ा होता है। 

तो ट्रेडिंग, बैंक और डिपॉजिटरी एकाउंट आपस में इलेक्ट्रानिक तरीके से जुड़े होते हैं जिससे आप आसानी से सौदे कर सकें। 

3.5 एन एस सी सी एल (NSCCL)  और आई सी सी एल (ICCL)

नेशनल सेक्योरिटीज क्लियरिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड (National Security Clearing Corporation Limited- NSCCL) नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE)की और इंडियन क्लियरिंग कारपोरेशन लिमिटेड BSE यानी बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज की सब्सिडियरी हैं। इनका काम है एक्सचेंज पर होने वाले हर सौदे का सेटेलमेंट करना। अगर आपने बॉयोकॉन का एक शेयर 446 के भाव पर खरीदा है तो किसी ने आपको ये शेयर 446 रूपए में बेचा होगा। क्लियरिंग कॉरपोरेशन का काम ये सुनिश्चित करना है कि शेयर बेचने वाले के डीमैट एकाउंट से निकल कर खरीदने वाले के डीमैट एकाउंट में पहुंच जाए। और पैसे खरीदने वाले के बैंक से निकल कर बेचने वाले के बैंक एकाउंट में। तो कुल मिलाकर क्लियरिंग कॉरपोरेशन किसी भी सौदे में ये काम करता है:

  1. खरीदार और बेचने वाले की पहचान करना और उनके एकाउंट में पैसे और शेयर का हिसाब किताब जोड़ना।
  2. ये पक्का करना कि सौदा पूरा हो और कोई भी पार्टी सौदे से पीछे ना हट जाए।

वैसे किसी भी निवेशक के लिए क्लियरिंग कॉरपोरेशन के बारे में बहुत विस्तार से जानना जरूरी नहीं है। उसे कभी सीधे इनसे काम नहीं पड़ने वाला। उसे सिर्फ इतना पता होना चाहिए कि एक प्रोफेशनल संस्था पूरे नियम कानूनों के साथ ये काम कर रही है। 


इस अध्याय की ज़रूरी बातें: 

  1. बाजार में कई इन्टरमीडियरी अलग अलग काम करते हैं जिसके मिलने से वो पूरा तंत्र बनता है जिससे बाजार में आसानी से कामकाज हो सके।
  2. शेयर बाजार में आपके घुसने का रास्ता ब्रोकर से हो कर जाता है। इसलिए जरूरी है कि आप अपनी जरूरत और सुविधा को ध्यान में रख कर सही ब्रोकर चुनें।
  3. ब्रोकर आपको ट्रेडिंग एकाउंट की सुविधा देता है जिसके जरिए आप शेयर खरीद या बेच सकते हैं।
  4. डिपॉजिटरी एक ऐसी संस्था है जो आपके शेयर डिजिटल फार्म में रखती है और इसके लिए आपका डीमैट एकाउंट बनाती है।
  5. देश में दो डिपॉजिटरी है एन एस डी एल (NSDL) और सी डी एस एल (CDSL)
  6. डीमैट एकाउंट खोलने के लिए आपको डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट से संपर्क करना होगा। वो डिपॉजिटरी के एजेंट के तौर पर काम करते हैं।
  7. क्लियरिंग कॉरपोरेशन आपके सौदे को क्लियर करने और सेटल करने का काम करता है।

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आईपीओ (IPO) बाज़ार- भाग 1 https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%86%e0%a4%88%e0%a4%aa%e0%a5%80%e0%a4%93-ipo-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%86%e0%a4%88%e0%a4%aa%e0%a5%80%e0%a4%93-ipo-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97-1/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:58:04 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5652 4.1 संक्षिप्त विवरण शुरूआत के 3 अध्याय में वो सभी आधारभूत जानकारी दी गई है जो किसी भी निवेशक को शेयर बाज़ार के बारे में होनी चाहिए। अब इस पड़ाव पर एक सवाल का जवाब देना/जानना ज़रूरी हो जाता है, और वो सवाल है – आखिर कंपनियाँ IPO क्यों लाती हैं? इस सवाल के जवाब […]

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4.1 संक्षिप्त विवरण

शुरूआत के 3 अध्याय में वो सभी आधारभूत जानकारी दी गई है जो किसी भी निवेशक को शेयर बाज़ार के बारे में होनी चाहिए। अब इस पड़ाव पर एक सवाल का जवाब देना/जानना ज़रूरी हो जाता है, और वो सवाल है – आखिर कंपनियाँ IPO क्यों लाती हैं?

इस सवाल के जवाब को सही तरीके से समझने पर आगे के विषयों को समझना काफी आसान हो जाएगा। इस अध्याय में हम कुछ नए वित्तिय अवधारणाओं (फाइनेंशियल कॉन्सेप्ट्स- Financial Concepts) के बारे में जानेंगे। 

4.2 बिजनेस की शुरूआत

इसके पहले कि हम इस सवाल का जवाब दें कि कंपनियाँ IPO क्यों लाती हैं, हमें कुछ मूलभूत अवधारणाओं को जानना और समझना होगा, जैसे किसी भी कंपनी की शुरूआत कैसे होती है। इसको एक कहानी के ज़रिए समझते हैं, और इस कहानी को कुछ अलग अलग सीन में बाँटते है, ताकि बिजनेस यानी कारोबार और फंडिंग यानी पूंजी जुटाने का सिस्टम कैसे काम करता है, कैसे बनता और बढ़ता है, ये सब सही तरीके से समझ में आ जाए। 

 

सीन 1 – एंजेल्स (The Angels)

मान लीजिए कि एक व्यवसायी या उद्यमी है, जिसके पास बहुत ही बढ़िया बिजनेस आइडिया है। वो बिजनेस आइडिया है –  जैविक कपास यानी ऑरगैनिक कॉटन (Organic Cotton) के फैशनेबल टी-शर्ट्स बना कर बेचने का। इन टी-शर्ट्स के डिजाइन सबसे अलग होंगे, इनके दाम भी ग्राहकों के लिए लुभावने होंगे और इनके उत्पादन में सबसे बढ़िया क्वालिटी का कॉटन इस्तेमाल किया जाएगा। उस उद्यमी को यकीन है कि ये कारोबार सफल होगा और वो इस आइडिया को कारोबार में बदलने के लिए बहुत उत्साहित भी है। 

जैसा कि बाकी उद्यमियों के साथ होता है, कुछ भी करने से पहले उसके पास भी एक सवाल होगा- कि इस कारोबार के लिए पैसे कहाँ से आएंगे। मान लीजिए कि उसके पास बिजनेस चलाने का अनुभव भी नहीं है। ऐसे में किसी ऐसे इंसान को ढूंढ़ना बहुत मुश्किल है, जो उसके आइडिया में पैसे लगाए। तो वो क्या करेगा? वो अपने परिवार, रिश्तेदार या फिर दोस्तों से मदद लेगा। वो बैंक में लोन के लिए भी अर्जी दे सकता है लेकिन इस पड़ाव पर ये अच्छा विकल्प नहीं होगा। 

फिर मान लेते हैं कि वो अपनी जमा-पूंजी लगाता है और साथ ही अपने दो दोस्तों को कारोबार में पैसा लगाने के लिए मना लेता है। ये दोनों दोस्त कारोबार में कमाई शुरू होने से पहले ही पैसा लगा रहे हैं और उद्यमी पर एक तरह से दांव लगा रहे हैं। ऐसे हालात में इन दोनों दोस्तों को एंजेल इंवेस्टर्स (Angel Investors) कहा जाएगा। यहाँ पर आप ध्यान दें कि जो पैसा एंजेल इंवेस्टर्स लगाते हैं वो कर्ज नहीं होता बल्कि कारोबार में निवेश होता है।

अब मान लें कि प्रमोटर ( जिसका बिजनेस आइडिया है) और एंजेल इवेंस्टर्स ने मिल कर 5 करोड़ रुपये पूंजी जोड़ी। इस पूंजी को कहेंगे “सीड फंड” (Seed Fund)। ये सीड फंड प्रमोटर के बैंक अकाउंट में नहीं बल्कि कंपनी के बैंक अकाउंट में रखी जाती है। जैसे ही ये सीड फंड कंपनी के बैंक अकाउंट में जमा की जाती है, इस पैसे को कंपनी के प्रारंभिक शेयर कैपिटल (Initial Share Capital) के नाम से जाना जाता है।

इस सीड निवेश के बदले तीनों हिस्सेदार ( प्रमोटर और 2 एंजेल इंवेस्टर्स) को कंपनी के शेयर सर्टिफिकेट्स इश्यू किए जाते है, जो ये दर्शाता है कि तीनों कंपनी के मालिक है या फिर मालिकाना हक (ownership) रखते हैं

अभी कंपनी के पास सिर्फ 5 करोड़ रुपये हैं, ये ही कंपनी की परिसंपत्ति यानी ऐसेट (Asset) है। इसलिए कंपनी की वैल्यू भी 5 करोड़ रुपये है। इसे कंपनी की वैल्यूएशन (Valuation) कहते हैं। 

शेयर इश्यू करना बहुत आसान है। कंपनी ये मानती है कि हर शेयर की कीमत 10 रुपये है और क्योंकि 5 करोड़ रुपये का शेयर कैपिटल है, तो 50 लाख शेयर होंगे और शेयर की कीमत 10 रुपये होगी। यहाँ पर ये जो शेयर की कीमत 10 रुपये है, उसे शेयर का फेस वैल्यू (Face Value) कहते हैं। फेस वैल्यू ज़रूरी नहीं है कि 10 रुपये ही हो, ये कम या ज्यादा भी हो सकती है। अगर फेस वैल्यू 5 रुपये है, तो शेयरों की संख्या 1 करोड़ हो जाएगी। 

ऊपर जो 50 लाख शेयर इश्यू किए गए, उसे कंपनी का ऑथराइज्ड शेयर (Authorized Shares) कहते हैं। इनमें से कुछ  हिस्सा तीनों यानी प्रमोटर और 2 एंजेल इंवेस्टर्स में बाँटा जाता है, साथ ही भविष्य को ध्यान में रखते हुए कुछ शेयर्स कंपनी के पास रखे जाते हैं। 

अब मान लें कि प्रमोटर को 40 परसेंट शेयर मिले, और दोनों एंजेल इंवेस्टर्स को 5-5 परसेंट। कंपनी के पास 50 परसेंट शेयर रखे गए। जो शेयर प्रमोटर और एंजेल इंवेस्टर्स को मिले, उसे इश्यूड शेयर (Issued Share) कहते हैं। 

कंपनी का शेयर होल्डिंग पैटर्न कुछ इस तरह का होगा…

क्रमांक शेयर होल्डर का नाम शेयरों की संख्या होल्डिंग (% में)
1 प्रमोटर 2,000,000 40
2 एंजेल 1 250,000 5
3 एंजेल 2 250,000 5
कुल 2,500,000 50%

य़ाद रखें कि बचे हुए 50 परसेंट शेयर कंपनी के पास है। ये ऑथराइज्ड शेयर हैं, लेकिन अलॉट (allot) यानी किसी को दिए नहीं गए हैं।

अब प्रमोटर के पास कंपनी है, और एक बढ़िया सीड फंड भी। प्रमोटर कारोबार शुरू करता है, लेकिन वो थोड़ा संभल कर आगे बढ़ता है और अपने प्रोडक्ट को बनाने और बेचने के लिए एक छोटी सी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट और सिर्फ एक रिटेल स्टोर खोलता है। 

 

सीन 2- वेंचर कैपिटलिस्ट ( The Venture Capitalist)

प्रमोटर की मेहनत रंग लाती है और दूसरे साल के अंत तक कंपनी के खर्च और आय बराबर हो जाते हैं। जब कंपनी के खर्च और आय बराबर हो जाए, तो कहते हैं कि कपंनी ब्रेक इवेन कर रही है। प्रमोटर के पास भी अब कंपनी चलाने का अनुभव है और पहले से कहीं ज्यादा आत्मविश्वास भी। अब प्रमोटर कारोबार थोड़ा फैलाना चाहता है। वह एक और मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट और कुछ नए रिटेल स्टोर खोलना चाहता है। एक बिजनेस प्लान बनाने के बाद उसे पता चलता है कि इस पूरे काम में 7 करोड़ रुपये की पूंजी लगेगी। 

प्रमोटर की हालत अब पहले से काफी अलग है।  कारोबार में लगातार कमाई हो रही है। इसलिए प्रमोटर उन निवेशकों के पास जा सकता है जो नए बिजनेस में पैसा लगाते हैं। मान लें, कि उसने एक ऐसे ही निवेशक से बात की, जो उसे कंपनी में 14% हिस्सेदारी के बदले 7 करोड़ रुपये देने को तैयार हो गया। 

ऐसे निवेशक जो कारोबार के शुरूआती सालों या फेज (phase) में पैसे निवेश करते हैं, उन्हें वेंचर कैपिटलिस्ट (Venture Capitalist- VC) कहा जाता है। कंपनी को जो पैसा इस फेज में मिलता है उसे सीरीज ए फंडिंग ( Series A funding) कहते हैं। 

 

जब कंपनी ऑथराइज्ड कैपिटल में से 14% शेयर VC को अलॉट कर देती है, तो शेयर होल्डिंग पैटर्न अब ऐसा होगा…

 

क्रमांक शेयर होल्डर का नाम शेयरों की संख्या होल्डिंग (% में)
1 प्रोमोटर 2,000,000 40
2 एंजेल 1 250,000 5
3 एंजेल 2 250,000 5
4 वेंचर कैपिटलिस्ट 700,000 14
कुल 3,200,000 64

 

याद रखिए कि बचे हुए 36 परसेंट शेयर अभी भी कंपनी के पास है और जारी यानी इश्यू नहीं किए गए हैं। 

अब कारोबार में VC का पैसा आने के बाद एक नई चीज हो रही है। VC  ने अपने 14 परसेंट हिस्सेदारी या शेयर के लिए 7 करोड़ देकर पूरी कंपनी को 50 करोड़ का वैल्यूएशन दे दिया है। शुरूआती 5 करोड़ के वैल्यूएशन से ये 10 गुना ज्यादा है। एक अच्छा बिजनेस प्लान और अच्छी आमदनी का फायदा कारोबार को ऐसे ही मिलता है। कारोबार इस तरह से ही बड़ा होता जाता है। कंपनी का वैल्यूएशन बढ़ने के साथ शुरूआती निवेशकों के निवेश पर भी असर पड़ता है, जिसको आप नीचे की सारणी से समझ सकते हैं। 

क्रमांक शेयर होल्डर का नाम शुरूआती शेयरहोल्डिंग शुरूआती वैल्यूएशन 2 साल के बाद शेयरहोल्डिंग 2 साल के बाद वैल्यूएशन संपत्ति निर्माण
1 प्रमोटर 40% 2 करोड़ 40% 20 करोड़ 10 गुना
2 एंजेल 1 5% 25 लाख 5% 2.5 करोड़ 10 गुना
3 एंजेल 2 5% 25 लाख 5% 2.5 करोड़ 10 गुना
4 वेंचर कैपिटलिस्ट 0% NA 14% 07 करोड़ NA
कुल 50% 2.5 करोड़ 64% 32 करोड़

 

कहानी के साथ आगे बढ़ें। प्रमोटर के पास अब वो अतिरिक्त पूंजी है जो उसे कारोबार बढ़ाने के लिए चाहिए थी। कंपनी को एक नया मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट और कुछ रिटेल आउटलेट मिल गए। सब कुछ बढ़िया चल रहा है। प्रोडक्ट की लोकप्रियता बढ़ रही है जिससे ज्यादा आमदनी हो रही है। मैनेजमेंट टीम और बेहतर हो रही है जिससे कामकाज में सुधार हो रहा है और कंपनी का मुनाफा बढ़ रहा है। 

सीन 3: बैंकर (The Banker)

3 साल और बीत गए । कंपनी सफलता के नए आयाम छू रही है। इस पड़ाव पर कंपनी तय करती है कि 3 और शहरों में रिटेल स्टोर्स शुरू किए जाए। और जाहिर सी बात है कि इसके लिए कंपनी को प्रोडक्शन कैपेसिटी भी बढ़ानी होगी और नए लोग भी भर्ती करने होंगे। इस तरह के खर्च, जो कंपनी बिजनेस बढ़ाने और बेहतर बनाने के लिए करती है उसे कैपिटल एक्सपेंडिचर या कैपेक्स कहते हैं। 

 

मैनेजमेंट को लगता है कि इस काम के लिए 40 करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। तो सवाल ये उठता है कि कंपनी इस ज़रूरत को पूरा कैसे करेगी? 

कंपनी के सामने इस पूंजी को जोड़ने के लिए कुछ विकल्प हैं

  1. कंपनी ने पिछले कुछ सालों में जो मुनाफा कमाया है उस पैसे से कैपेक्स की ज़रूरत को पूरा किया जा सकता है। इस रास्ते को Internal accruals या आंतरिक स्त्रोतों से पैसा जुटाना कहते हैं। 
  2. कंपनी किसी दूसरे VC के पास जा सकती है और फिर से VC फंडिंग माँग सकती है। इसके लिए उसे VC को शेयर देने होंगे। इसे सीरीज बी फंडिंग कहते हैं। 
  3. कंपनी किसी बैंक के पास जाकर कर्ज माँग सकती है। चूँकि कंपनी अच्छा कारोबार कर रही है, इसलिए कर्ज मिलने में कंपनी को मुश्किल नहीं होगी। 

 

कंपनी ने ऊपर के तीनों रास्ते अपनाए- आंतरिक स्त्रोतों से 15 करोड़, सीरीज बी में 5 परसेंट इक्विटी दे कर 10 करोड़ और एक बैंक से 15 करोड़ का कर्ज लिया। 

ध्यान दीजिए कि 5 परसेंट इक्विटी के बदले 10 करोड़ मिलने से कंपनी का वैल्यूएशन 200 करोड़ दिख रहा है। हो सकता है ये थोड़ा ज्यादा हो, लेकिन अभी हम कहानी के लिए इसको सही मान लेते हैं। 

अब कंपनी की शेयरहोल्डिंग और वैल्यूएशन कुछ ऐसी नज़र आएगी…

क्रमांक शेयर होल्डर का नाम शेयरों की संख्या होल्डिंग (% में) वैल्यूएशन (करोड़ रु में)
1 प्रमोटर 2,000,000 40 80
2 एंजेल 1 250,000 5 10
3 एंजेल 2 250,000 5 10
4 VC सीरीज A 700,000 14 28
5 VC सीरीज B 250,000 5 10

 

आप देखेंगे कि कंपनी ने 31 परसेंट शेयर अभी किसी शेयरहोल्डर को अलॉट नहीं किए हैं। इन शेयरों की कीमत अभी 62 करोड़ रुपए हैं। कंपनी की पूंजी इसी तरीके से बढ़ती है, खासकर तब जब किसी उद्यमी के पास अच्छा बिजनेस आइडिया हो और एक अच्छी मैनेजमेंट टीम। 

इस तरह के उदाहरण आपको इंफोसिस, पेज इंडस्ट्रीज, आयशर मोटर्स और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गूगल, फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सऐप आदि में दिखेंगे। 

 

सीन 4- प्राइवेट इक्विटी (The Private Equity- PE)

कुछ साल बीतते हैं और कंपनी सफलता की नई ऊंचाई पर पहुंच जाती है। सफलता के साथ ये 8 साल पुरानी 200 करोड़ की कंपनी और उत्साह से भर जाती है। कंपनी अब पूरे देश में अपना कारोबार फैलाना चाहती है। कंपनी अब खुद अपना कारखाना बनाने और फैशन एक्सेसरीज, डिजायनर कॉस्मेटिक्स और परफ्यूम बेचना चाहती है। 

इस नए काम के लिए कंपनी को 60 करोड़ के कैपेक्स की जरूरत दिखती है। कंपनी कर्ज नहीं लेना चाहती, क्योंकि ब्याज अदा करने से उसका मुनाफा घटेगा। 

कंपनी VC को कुछ और शेयर दे कर सीरीज सी फंडिंग लेना चाहती है। लेकिन वो किसी नॉरमल या आम VC के पास नहीं जा सकती क्योंकि VC फंडिंग कुछ करोड़ की ही मिल पाती है। इसलिए, अब कंपनी को एक प्राइवेट इक्विटी इंवेस्टर के पास जाना पड़ेगा। 

PE इंवेस्टर काफी जानकार होते हैं। उनका एक लंबा चौड़ा अनुभव होता है। वो बड़ी रकम निवेश करते हैं और साथ ही कंपनी के बोर्ड पर अपने लोग भी बिठा देते हैं, जिससे कंपनी एक निश्चित दिशा की ओर बढ़े। मान लीजिए कि वो 15 परसेंट हिस्सा लेते हैं और उसके लिए 60 करोड़ रुपये देते हैं। इस तरह से अब कंपनी की वैल्यूएशन 400 करोड़ तक पहुँच जाएगी। अब कंपनी की शेयर होल्डिंग और वैल्यूएशन पर नज़र डालते हैं…

क्रमांक शेयर होल्डर का नाम शेयरों की संख्या होल्डिंग (% में) वैल्यूएशन (करोड़ रु में)
1 प्रमोटर 2,000,000 40 160
2 एंजेल 1 250,000 5 20
3 एंजेल 2 250,000 5 20
4 VC A 700,000 14 56
5 VC B 250,000 5 20
6 PE सीरीज C 7,50,000 15 60
कुल 4,200,000 84 336

 

याद रखिए कि कंपनी ने अभी भी 16 परसेंट हिस्सा ऐसा रखा है जो किसी को एलॉट नहीं किया है। इसकी कीमत अब 64 करोड़ है। 

आमतौर पर जब एक PE इंवेस्ट करता है, तो वो कैपेक्स की बड़ी ज़रूरत के लिए रकम देता है। PE कभी भी बिजनेस की शुरूआती दौर में पैसे नहीं लगाता है बल्कि वो ऐसी कंपनियों में  पैसे लगाता है, जो कुछ सालों से काम कर रहीं हैं और जिनको आमदनी हो रही है। PE से पैसे लेना और उस पैसे को कैपेक्स में डालना एक लंबे समय का काम है और इसमें कुछ साल लग जाते हैं। 

 

सीन 5- आईपीओ (The IPO)

PE इंवेस्टमेंट के 5 साल के बाद कंपनी का कारोबार काफी बढ़ चुका है। उन्होंने कई प्रोडक्ट जोड़ लिए हैं और देश के कई बड़े शहरों में मौजूद है। आमदनी अच्छी हो रही है, मुनाफा स्थिर है और इंवेस्टर्स खुश हैं। लेकिन प्रमोटर इससे संतुष्ट नहीं है। प्रमोटर अब विदेशों में भी कारोबार फैलाना चाहता है। वो चाहता है कि दुनिया के सभी बड़े शहरों में उसके कम से कम दो आउटलेट या दुकानें हों।

इसका मतलब है कि अब कंपनी को अलग अलग देशों के बाज़ारों का रिसर्च करना पड़ेगा कि वहाँ के लोगों की पसंद क्या है। कंपनी को नए लोग नौकरी पर रखने पड़ेंगे और अपना उत्पादन भी बढ़ाना पड़ेगा। साथ ही पूरी दुनिया में रियल एस्टेट पर भी पैसे खर्च करने पड़ेंगे। 

इस बार कैपेक्स की ज़रूरत काफी बड़ी है और मैनेजमेंट का अनुमान है कि उसे 200 करोड़ रुपए चाहिए। कंपनी के सामने जो रास्ते हैं

  1. इंटरनल अक्रुअल्स (Internal Accruals)- आंतरिक स्त्रोत
  2. PE फंड से सीरीज डी (D) फंडिंग
  3. बैंक से और कर्ज 
  4. बॉन्ड इश्यू करना ( कर्ज का एक और तरीका)
  5. आईपीओ के ज़रिए शेयर जारी करना
  6. ऊपर के सभी रास्तों का मिश्रण

मान लीजिए कि कंपनी ने कैपेक्स का कुछ हिस्सा आंतरिक स्त्रोतों से और बाकी आईपीओ से जुटाने का फैसला किया। जब कंपनी आईपीओ लाती है तो वो अपने शेयर आम पब्लिक (जनता) को बेचती है। चूंकि कंपनी  अपने शेयर पब्लिक को पहली बार बेच रही है, इसलिए इसे Initial public Offer या आईपीओ कहते हैं। अब कुछ सवाल उठना लाजिमी है

  1. कंपनी ने आईपीओ लाने का फैसला क्यों किया और कंपनी ये रास्ता क्यों लेती हैं? 
  2. कंपनी ने पहले सीरीज ए, बी और सी के समय आईपीओ का रास्ता क्यों नहीं चुना?
  3. आईपीओ आने के बाद मौजूदा शेयरहोल्डर्स का क्या होगा? 
  4. आम जनता आईपीओ में पैसा लगाने के पहले क्या देखती है? 
  5. आईपीओ की ये पूरी प्रक्रिया कैसे आगे बढ़ती है?
  6. आईपीओ मार्केट में कौन सी फाइनेंशियल इंटरमीडियरीज काम करती हैं?
  7. जब कंपनी पब्लिक इश्यू लाती है, तो क्या होता है? 

अगले अध्याय में हम इन सवालों का जवाब देंगे और आईपीओ मार्केट से जुड़ी कुछ और बातें भी बताएंगे। उम्मीद है कि कंपनी के आईपीओ लाने के पहले तक का सफर आपको समझ में आ गया होगा।  


इस अध्याय की ज़रूरी बातें: 

  1. ये समझने से पहले कि कंपनी शेयर बाजार में क्यों आती है, ये समझना ज्यादा ज़रूरी है कि कंपनियां कैसे बनती हैं, उनकी शुरूआत कहाँ से और कैसे होती है।
  2. रेवेन्यू या आय आने से पहले जो लोग बिजनेस में निवेश करते हैं, उन्हें एंजेल निवेशक या इंवेस्टर्स (Angel Investors) कहा जाता है। 
  3. एंजेल इंवेस्टर्स सबसे ज्यादा जोखिम उठाते हैं। कह सकते हैं कि प्रोमोटर और एंजेल इंवेस्टर्स बराबर जोखिम उठाते हैं। 
  4. एंजेल इंवेस्टर्स बिजनेस शुरू करने के लिए जो पूंजी देते हैं, उसे सीड फंड (Seed Fund) कहते हैं। 
  5.  एंजेल इंवेस्टर्स बाकियों की तुलना में कम पैसे निवेश करते हैं।
  6. कंपनी की वैल्यूएशन ये बताती है कि कंपनी की कीमत कितनी आंकी जा रही है। कंपनी की एसेट और लायबलिटिज को ध्यान में रख कर कंपनी की कीमत निकाली जाती है। 
  7. फेस वैल्यू शेयर का वास्तविक मूल्य दर्शाता है। 
  8. कंपनी के पास जितने भी शेयर होते हैं, वो ऑथराइज्ड शेयर कहलाते हैं। 
  9. ऑथराइज्ड शेयर में से दिए गए शेयर इश्यूड शेयर कहलाते हैं। 
  10. कंपनी का शेयर होल्डिंग पैटर्न हमें बताता है कि कंपनी में किसका कितना हिस्सा है। 
  11. वेंचर कैपिटलिस्ट कंपनी के शुरूआती फेज में निवेश करता है, तो उनके द्वारा लिया गया जोखिम एंजेल इंवेस्टर्स से कम होता है।VC द्वारा निवेश की गई रकम आमतौर पर एंजेल और प्राइवेट इक्विटी निवेश के बीच में होता है। 
  12. जो पैसे कंपनी बिजनेस को बढ़ाने या फैलाने में करती है, उसे कैपिटल एक्सपेंडिचर या कैपेक्स कहते हैं। 
  13. जैसे जैसे कंपनी आगे बढ़ती है, वैसे वैसे उसे सीरीज ए, बी, सी इत्यादि फंडिंग की ज़रूरत होती है। आमतौर पर जितनी ऊँची सीरीज, उतनी ज्यादा बड़ी रकम की ज़रूरत
  14. एक सीमा के बाद VC कंपनी में निवेश नहीं कर सकते। ऐसे में कपंनी को प्राइवेट इक्विटी फर्म के पास जाना पड़ता है। 
  15. प्राइवेट इक्विटी फर्म बड़ी पूँजी निवेश करते हैं और वो आमतौर पर बिजनेस के शुरूआती फेज के बाद निवेश करते हैं, जब बिजनेस थोड़ा स्थिर हो जाता है। 
  16. जोखिम या रिस्क के मामले में प्राइवेट इक्विटी फर्म की जोखिम लेने की क्षमता, VC या एंजेल इंवेस्टर्स से कम होती है। 
  17. प्राइवेट इक्विटी फर्म जिस कंपनी में निवेश करते हैं, उसके बोर्ड में वो अपने लोग बैठाना चाहते हैं, ताकि बिजनेस सही दिशा में चले। 
  18. कंपनी की वैल्यूएशन उसके बिजनेस, आय और मुनाफे में बढ़ोतरी के साथ बढ़ती है।
  19. आईपीओ की प्रक्रिया के जरिए कंपनी पूंजी जुटा सकती है। इस पूंजी का इस्तेमाल कंपनी अलग अलग कामों में कर सकती है, जैसे – कैपेक्स, कर्ज का पुनर्गठन वगैरह। 

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5.1 संक्षिप्त विवरण

पिछले अध्याय में हमने देखा कि एक कंपनी कैसे आइडिया के स्तर से बढ़ते हुए धीरे धीरे IPO तक पहुंचती है। एक कहानी के जरिए हमने कंपनी के विकास का सफर देखा। कैसे अलग अलग स्तर पर कंपनी को पैसों की जरूरत पड़ती है और उसके पास पैसे जुटाने के क्या रास्ते होते हैं। IPO लाने से पहले कंपनी को किन हालातों से जूझना पड़ता है। 

ये सब जानना और समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि IPO मार्केट या प्राइमरी मार्केट में कई बार ऐसी कंपनियां भी आ जाती हैं जिन्होंने पहले कभी कहीं और से पैसा उठाया ही नहीं। IPO के पहले अच्छे VC, PE फंड या और कुछ बड़े निवेशकों से पैसे जुटा चुकी कंपनियों के प्रमोटर और बिजनेस के बारे में ज्यादा जानकारी मिल जाती है इसलिए उन पर कुछ अधिक भरोसा किया जा सकता है। 

 

5.2 कंपनियां पब्लिक से पैसा क्यों जुटाती हैं? (Why do companies go public?)

पिछले अध्याय में हमने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए थे। उनमें से एक था कि कंपनियां पैसे जुटाने के लिए पब्लिक के पास क्यों जाती हैं, क्यों IPO का रास्ता चुनती हैं?

जब भी कोई कंपनी IPO लाने का फैसला करती है तो आमतौर पर वो कारोबार बढ़ाने के लिए कैपेक्स जुटाना चाहती है। इस रास्ते में कंपनी को तीन फायदे होते हैं : 

  1. कंपनी को कैपेक्स के लिए पैसे मिल जाते हैं।
  2. कंपनी कर्ज लेने से बच जाती है, कर्ज पर ब्याज बचने से कंपनी के पास मुनाफे के तौर पर ज्यादा पैसे बचते हैं। 
  3. जब आप कंपनी का शेयर खरीदते हैं तो कंपनी के प्रमोटर की तरह रिस्क में आप भी हिस्सेदार बन जाते हैं। हालांकि रिस्क इस पर निर्भर करता है कि आपके पास कितने शेयर हैं। लेकिन प्रमोटर अपना रिस्क बहुत सारे लोगों में बाँटने में जरूर कामयाब हो जाता है। 

 इसके अलावा IPO के जरिए पूंजी जुटाने के कुछ और भी फायदे हैं: 

 

  1. कंपनी के शुरुआती निवेशकों को अपना निवेश निकालने का मौका मिल जाता है:  जब IPO के बाद कंपनी लिस्ट हो जाती है तो उसके शेयर कोई भी खरीद और बेच सकता है। इससे कंपनी के प्रमोटर, ऐंजल इन्वेस्टर, वेंचर कैपिटलिस्ट, PE फंड, जैसे तमाम लोगों को अपने शेयर बेचने का रास्ता मिल जाता है। इस तरह से वो अपना शुरूआती निवेश निकाल पाते हैं।
  2. कंपनी के कर्मचारियों को पुरस्कार:  कंपनी में पहले से काम कर रहे कर्मचारियों को कुछ शेयर एलॉट किए जा सकते हैं। इस तरह से जब कंपनी अपने कर्मचारियों को शेयर देती है तो इस समझौते को एम्पलाइज स्टॉक आप्शन  (Employee Stock Option) कहते हैं। कर्मचारियों को ये शेयर डिस्काउंट पर दिए जाते हैं। जब कंपनी के शेयर IPO के बाद लिस्ट होते हैं तो कर्मचारियों को शेयर के भाव बढ़ने से फायदा होता है। गूगल, इन्फोसिस, ट्विटर और फेसबुक जैसी कंपनियों के कर्मचारी इस तरह के स्टॉक आप्शन का फायदा पा चुके हैं। 
  3. कंपनी का नाम बढ़ता है:  पब्लिक लिस्टिंग के बाद कंपनी का नाम बड़ा हो जाता है क्योंकि उसके शेयरों में पब्लिक की हिस्सेदारी होती है और लोग उसे खरीद-बेच सकते हैं, और लोग उस कंपनी के बारे में ज्यादा जानने लगते हैं।  

 

तो अब पिछले अध्याय की कहानी पर वापस लौटते हैं और उसे आगे बढ़ाते हैं। आपको याद होगा कि कंपनी को कैपेक्स के लिए 200 करोड़ की जरूरत थी और मैनेजमेंट ने अपने खुद के स्त्रोतों और IPO के जरिए इस रकम को जुटाने का फैसला किया था।

याद रखिए कि कंपनी के पास ऑथराइज्ड कैपिटल का 16% हिस्सा यानी 800,000 शेयर अभी भी हैं जो किसी को एलॉट नहीं किए गए हैं। इन शेयरों की कीमत करीब 64 करोड़ आँकी गई थी जब PE फर्म ने निवेश किया था। PE फर्म के निवेश के बाद से कंपनी का करोबार काफी बेहतर रहा है और उम्मीद की जा सकती है कि इन शेयरों की कीमत और ज्यादा बढ़ी होगी। मान लेते हैं कि इन 16% शेयरों की कीमत अब 125 से 150 करोड़ के बीच कहीं है। यानी हर एक शेयर की कीमत 1562 से 1875 के बीच ( 125 करोड़ / 8 लाख)

तो अब अगर कंपनी इन 16% यानी 8 लाख शेयरों को पब्लिक को बेचती है तो उसे 125 से 150 करोड़ के आसपास की कोई रकम मिलेगी। बाकी रकम उसे अपने स्त्रोतों से जुटानी होगी। जाहिर है कि कंपनी चाहेगी कि उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे शेयर बेच कर मिलें।

5.3 मर्चेंट बैंकर (Merchant Banker): 

IPO लाने का फैसला करने के बाद कंपनी को कई काम करने होते हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा पैसे मिल सकें। इनमें सबसे पहला और जरूरी काम है मर्चेंट बैंकर की नियुक्ति। मर्चेंट बैंकर को बुक रनिंग लीड मैनेजर (Book Running Lead Manager) या सिर्फ लीड मैनेजर (Lead Manager) भी कहते हैं। इनका काम है कंपनी को उसके IPO में मदद करना। जैसे:

  • कंपनी का ड्यू डिलिजेंस करना और ड्यू डिलिजेंस सर्टिफिकेट देना । इनको ये भी देखना होता कि कंपनी ने कानून के हर नियम का पालन किया है।
  • कंपनी के साथ मिल कर ड्राफ्ट रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस (Draft Red Herring Prospectus-DRHP) समेत सारे लिस्टिंग डॉक्यूमेंट तैयार करना। इसके बारे में हम बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे। 
  • शेयर अंडरराइट करना। इसका मतलब होता है कि मर्चेंट बैंकर ने IPO के सारे या कुछ शेयर कंपनी से खरीदने और बाद में उसे पब्लिक को बेचने का समझौता कर लिया है।
  • IPO में शेयर की प्राइस बैंड तय करने में कंपनी की मदद करना। प्राइस बैंड का मतलब होता है शेयर की नीचे और ऊपर के कीमत की वो सीमा जिसके बीच की किसी कीमत पर शेयर बेचे जाएंगे। हमारी कहानी के उदाहरण में प्राइस बैंड 1562/- से 1875/- है।
  • कंपनी को उसके रोड शो में मदद करना। रोड शो कंपनी के IPO के प्रमोशन और मार्केटिंग को कहते हैं। मार्केटिंग का पूरा जिम्मा लीड मैनेजर का ही होता है।
  • IPO के लिए दूसरे इन्टरमीडियरीज जैसे रजिस्ट्रार, बैंकर, विज्ञापन एजेंसी आदि की नियुक्ति करना। 

मर्चेंट बैंकर के साथ आने के बाद कंपनी IPO का काम शुरू कर देती है। 

5.4 IPO से जुड़े कामों का घटनाक्रम ( IPO sequence of events): 

IPO में हर कदम सेबी के नियमों के मुताबिक ही उठाना होता है। और ये कदम इस क्रम में उठाए जाते हैं: 

 

  1. मर्चेंट बैंकर की नियुक्ति. बड़े पब्लिक इश्यू में एक से ज्यादा मर्चेंट बैंकर हो सकते हैं।
  2. सेबी को एक रजिस्ट्रेशन स्टेटमेंट के साथ एप्लीकेशन देना. रजिस्ट्रेशन स्टेटमेंट में ये बताया जाता है कि कंपनी क्या करती है, उसे IPO लाने की जरूरत क्यों है और कंपनी की वित्तीय स्थिति क्या है। 
  3. सेबी से IPO की मंजूरी लेना. रजिस्ट्रेशन स्टेटमेंट मिलने के बाद सेबी फैसला करती है कि मंजूरी देनी है या नहीं।
  4. DRHP- इश्यू को शुरूआती मंजूरी मिलने के बाद कंपनी को अपना DRHP यानी ड्राफ्ट रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस तैयार करना होता है। इसे पब्लिक के साथ भी शेयर किया जाता है। DRHP में जो जानकारी होनी जरूरी हैं वो हैं : 
  5. IPO का साइज यानी कितना बड़ा IPO होगा
  6. कुल कितने शेयर जारी किए जा रहे हैं
  7. कंपनी इश्यू क्यों ला रही है और उससे जुटाए गए पैसों का क्या इस्तेमाल किया जाएगा। 
  8. कंपनी के बिजनेस का पूरा ब्यौरा, बिजनेस मॉडल, खर्चे आदि
  9. सभी फाइनेंशियल कागजात
  10. मैनेजमेंट का नजरिया कि आने वाले समय में कंपनी का करोबार कैसा रहने वाला है। 
  11. बिजनेस से जुड़े सभी रिस्क
  12. मैनेजमेंट से जुड़े लोगों की पूरी जानकारी।

 

  • IPO की मार्केटिंग (Market the IPO)- कंपनी के IPO से जुड़े विज्ञापन जारी करना जिससे लोगों को आई पी ओ के बारे में पता चल सके। इसी काम को रोड शो भी कहते हैं। 
  • प्राइस बैंड तय करना- कंपनी बाजार की उम्मीद से बहुत अलग प्राइस बैंड नहीं बना सकती नहीं तो लोग इसको सब्सक्राइब नहीं करेंगे।
  • बुक बिल्डिंग (Book Building)- रोड शो पूरा हो जाने के बाद और प्राइस बैंड तय होने के बाद कंपनी को आधिकारिक तौर पर कुछ दिनों के लिए शेयर का सब्सक्रिप्शन खोलना होता है जिससे लोग इश्यू में पैसे लगा सकें। मान लीजिए प्राइस बैंड 100 से 120 का है तो बुक बिल्डिंग से पता चल जाएगा कि लोग किस कीमत पर पैसे लगा रहे हैं और कौन सी कीमत उन्हें सही लग रही है। इस सारी जानकरी को जमा करना ही बुक बिल्डिंग कहा जाता है। इससे सही कीमत का अंदाजा लगाया जाता है।
  • क्लोजर (closure)बुक बिल्डिंग पूरा हो जाने के बाद शेयर की लिस्टिंग कीमत तय की जाती है। ये कीमत आमतौर पर वो कीमत होती है जिस पर सबसे ज्यादा एप्लीकेशन या अर्जी आई हों। 
  • लिस्टिंग डे (Listing Day)- इस दिन कंपनी का शेयर एक्सचेंज पर लिस्ट होता है। लिस्टिंग कीमत उस दिन शेयर की माँग और सप्लाई के आधार पर तय होती है। इसके बाद शेयर अपने कट ऑफ कीमत से प्रीमियम, पार या डिस्काउंट पर लिस्ट होता है। 

5.5 IPO के बाद क्या होता है? (What happens after the IPO?)

जब तक IPO या इश्यू खुला रहता है तब तक निवेशक IPO के प्राइस बैंड के भीतर अपनी पसंद की कीमत पर शेयर के लिए बोली लगा सकते हैं या बिड कर सकते हैं, तब तक इसे प्राइमरी मार्केट कहते हैं। लेकिन जैसे ही शेयर एक्सचेंज पर लिस्ट हो जाता है कोई भी उस शेयर को खरीद बेच सकता है, इसे सेकेंडरी मार्केट  कहते हैं। इसके बाद शेयर की खरीद बिक्री रोजाना होने लगती है।

लोग शेयर क्यों खरीदते या बेचते हैं? शेयर की कीमत ऊपर नीचे क्यों होती है? ऐसे हर सवाल का जवाब हम आने वाले अध्याय में देने की कोशिश करेंगे। 

5.6 IPO से जुड़े खास शब्द (Few key IPO jargons)

अंडर सब्सक्रिप्शन (Under Subscription): मान लीजिए कंपनी पब्लिक को 100,000 शेयर बेचना चाहती है, लेकिन बुक बिल्डिंग के दौरान पता चलता है कि सिर्फ 90,000 शेयरों के लिए ही बिड आए हैं तो कहा जाता है कि इश्यू अंडर सब्सक्राइब हो गया। ये कंपनी के लिए अच्छी स्थिति नहीं मानी जाती क्योंकि ऐसे में ये माना जाएगा कि पब्लिक को इश्यू पसंद नहीं आया।

ओवर सब्सक्रिप्शन (Over Subscription): अगर 100,000 शेयरों के इश्यू के लिए 200,000 बिड आ गए तो कहा जाता है कि इश्यू दो गुना ओवर सब्सक्राइब हो गया।

ग्रीन शू ऑप्शन (Green Shoe Option): अंडर राइटिंग एग्रीमेंट के तहत इश्यूर को ओवर सब्सक्रिप्शन की स्थिति में अतिरिक्त शेयर एलॉट (आमतौर पर 15%) करने का अधिकार होता है। इसे ओवरएलॉटमेंट ऑप्शन भी कहते हैं।

फिक्स्ड प्राइस IPO (Fixed Price IPO): कई बार कंपनियां प्राइस बैंड की जगह शेयर की कीमत तय करके IPO लाती हैं। इसे फिक्स्ड प्राइस IPO कहते हैं । 

प्राइस बैंड और कट ऑफ प्राइस (Price Band & Cut off Price) : प्राइस बैंड उस दायरे को कहते हैं जिसे अंदर शेयर जारी किए जाते हैं। मान लीजिए प्राइस बैंड 100 से 130 का है और इश्यू बंद होने पर शेयर की कीमत 125 तय होती है तो 125 रूपए को कट ऑफ प्राइस कहा जाता है।

5.7 भारत के पिछले कुछ IPO ( Recent IPO’s in India): 

अब तक जो कुछ आपने जाना है वो आपको इस टेबल को समझने में मदद करेगा।

इश्यू का नाम कीमत बुक रनिंग लीड मैनेजर- BRLM तारीख साइज (लाख शेयर) प्राइस बैंड
1 वन्डरलॉ हालीडेज लिमिटेड 125 एडेलवाइज फाइनेंशियल सर्विसेज और ICICI सिक्योरिटीज लिमिटेड 21/04/2014 से 23/04/2014 14500000 115 से 125
2 पावरग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड 90 SBI, सिटी,ICICI, कोटक, UBS 03/12/2013 से 06/12/2013 787053309 85 से 90
3 जस्ट डॉयल लिमिटेड 530 सिटी, मार्गन स्टैनली 20/05/2013 से 22/05/2013 17493458 470 से 543
4 रेपको होम्स फाइनांस लिमिटेड 172 SBI, IDFC, JM फाइनेंशियल 13/03/2013 से 15/03/2013 15720262 165 से 172
5 वी मार्ट रिटेल लि. 210 आनंद राठी 01/02/2013 से 05/02/2013 4496000 195 से 215

 


इस अध्याय की ज़रूरी बातें:

  1. कंपनियां पैसे जुटाने के लिए, शुरूआती निवेशकों को पैसे निकालने का रास्ता देने के लिए, कर्मचारियों को इनाम देने के लिए और कंपनी की पहचान बढ़ाने के लिए पब्लिक इश्यू लाती हैं।
  2. IPO के लिए मर्चेंट बैंकर किसी भी कंपनी का सबसे जरूरी पार्टनर होता है।
  3. IPO मार्केट पूरी तरह से सेबी के अधीन है और सेबी ही तय करती है कि किसी कंपनी को IPO लाने की अनुमति दी जाए या नहीं।
  4. IPO में पैसा लगाने के पहले हर निवेशक को DRHP जरूर पढ़ना चाहिए जिससे कंपनी की पूरी जानकारी मिल जाए।
  5. भारत में ज्यादा से ज्यादा IPO बुक बिल्डिंग का रास्ता लेते हैं।

 

 

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6.1 संक्षिप्त विवरण 

IPO प्रक्रिया समझने के बाद और कंपनी के प्राइमरी और सेकेंडरी बाज़ार के पीछे होने वाली वास्तिवकता को जानने के बाद, आइए अब स्टॉक बाज़ार के अगले पड़ाव पर चलते हैं। 

एक सार्वजनिक कंपनी होने के नाते अब कंपनी को वो सभी जानकारी जो कि कंपनी से संबधित है, लोगों को बतानी होगी। पब्लिक लिमिटेड कंपनी के शेयरों में स्टॉक एक्सचेंज पर हर रोज़ खरीद-बिक्री होती है। 

शेयर बाजार में भाग लेने वाले या भागीदार क्यों शेयरों की खरीद-बिक्री करते हैं, इसकी वजहों को हम इस अध्याय में विस्तार में समझेंगे। 

6.2 स्टॉक मार्केट या शेयर बाज़ार आखिर है क्या? 

जैसा कि हमने अध्याय 2 में पढ़ा था कि शेयर बाजार एक इलेक्ट्रॉनिक बाज़ार है, जहाँ बेचने वाला और खरीदार मिल कर सौदा करते हैं। 

उदाहरण के तौर पर, इंफोसिस की अभी की स्थिती को लीजिए। इस अध्याय को लिखते वक्त इंफोसिस में अगला उत्तराधिकारी कौन होगा, ये बहुत बड़ा मसला बना हुआ है और कई सीनियर कर्मचारियों ने हाल फिलहाल में कंपनी से इस्तीफा भी दिया है। इस वजह से कंपनी की इज्जत/प्रतिष्ठा/मान पर असर पड़ रहा है। और इस वजह से कंपनी का शेयर 3,500 से गिर कर 3,000 रुपये पर आ गया।  जब भी मैनेजमेंट में बदलाव की कोई खबर आती है, कंपनी के शेयर की कीमत यानी शेयर प्राइस/स्टॉक प्राइस पर असर पड़ता है। 

मान लीजिए की दो ट्रेडर्स है – T1 और T2 

इंफोसिस पर T1 का नज़रिया- कंपनी का शेयर और नीचे जाएगा क्योंकि कंपनी को नया CEO चुनने में काफी दिक्कतें या चुनौतियाँ हो सकती है। 

अगर T1 इस नज़रिए के साथ सौदा करता है तो उसे इंफोसिस के शेयर का बिकवाल होना चाहिए या उसे इंफोसिस का शेयर बेचना चाहिए। 

लेकिन T2  इसी हालात को अलग तरह से देख रहा है और उसका नजरिया अलग है। उसके मुताबिक इंफोसिस के स्टॉक ने उत्तराधिकारी मसले पहले ही काफी प्रतिक्रिया दिखा दी है, अब जल्दी ही कंपनी को नया लीडर मिल जाएगा और उसके बाद उसके आने के बाद कंपनी का स्टॉक ऊपर जाएगा। 

अगर T2 इस नजरिए के साथ सौदे में उतरता है तो उसे इंफोसिस स्टॉक का खरीदार होना चाहिए। 

तो 3,000 रुपये के भाव पर T1 बेचने वाला या बिकवाल होगा और T2 इंफोसिस का खरीदार। 

अब दोनों, T1 और T2,  अपने-अपने स्टॉक ब्रोकर के ज़रिए खरीद-ब्रिकी के लिए निर्देश देंगे और ब्रोकर स्टॉक एक्सचेंज के ज़रिए इन सौदों को पूरा करेगा। 

स्टॉक एक्सचेंज इस बात को सुनिश्चित करेगा कि दोनों ऑर्डर मिलें और सौदा पूरा हो। यही स्टॉक मार्केट या बाज़ार का मुख्य अथवा प्राथमिक काम है- एक ऐसा प्लेटफॉर्म देना या बनाना जहाँ खरीदार और बेचने वाला शेयरों का सौदा कर सकें। 

स्टॉक मार्केट वो जगह जहाँ बाज़ार के भागीदार लिस्टेड कंपनियों में अपने-अपने नज़रिए के मुताबिक सौदा करते हैं। और सौदा तभी होगा जब भागीदारों के नज़रिए अलग अलग होंगे। नज़रिया या दृष्टिकोण अलग होने से ही बाजार में खरीद और बिक्री हो सकती है। 

 

6.3- शेयर के दाम ऊपर-नीचे कैसे होते हैं? या शेयर की कीमत में बदलाव कैसे और क्यों होता है?

इंफोसिस के उदाहरण से ही शेयर की चाल को समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए कि आप बाज़ार में खरीद-बिक्री करते हैं यानी शेयर बाज़ार के भागीदार है और इंफोसिस कंपनी पर बारीकी से नज़र बनाए हुए हैं। 

11 जून 2014 का दिन है, सुबह के 10 बजे हैं और इंफोसिस का भाव है 3000 रुपये। कंपनी का मैनेजमेंट मीडिया में ये खबर देता है कि कंपनी को नया CEO मिल गया है, जो कंपनी को नई ऊंचाई पर ले जाएगा। कंपनी को उस नए CEO की काबिलियत पर पूरा भरोसा है। 

दो सवाल यहाँ पर आते हैं- 

  1. इस खबर से इंफोसिस के स्टॉक के भाव या कीमत पर क्या असर होगा? 
  2. अगर आप इंफोसिस में सौदा करना चाहते हैं, तो आप शेयर खरीदेंगे या बेचेंगे? 

पहले सवाल का जवाब बहुत आसान है। इस खबर से कंपनी के शेयर के भाव में बढ़ोतरी होगी। 

इंफोसिस में कंपनी के नेतृत्व को लेकर दिक्कत चल रही थी, और अब वो दिक्कत दूर हो गई है। जब ऐसी सकारात्मक घोषणा की जाती है तो बाज़ार के भागीदार स्टॉक किसी भी कीमत पर खरीदने की कोशिश करते हैं और इसी वजह से स्टॉक में तेज बढ़ोतरी जिसे बाजार की भाषा में रैली (Rally) कहते हैं, देखने को मिलती है। 

इसको थोड़ा और विस्तार से समझते हैं.. 

क्रम संख्या समय लास्ट ट्रेडेड प्राइस- LTP बिकवाल या बेचनेवाले की कीमत खरीदार क्या करता है नया लास्ट ट्रेडेड प्राइस
1 10:00 3000 3002 खरीदता है 3002
2 10:01 3002 3006 खरीदता है 3006
3 10:03 3006 3011 खरीदता है 3011
4 10:05 3011 3016 खरीदता है 3016

ध्यान दीजिए कि बेचनेवाला जो भी कीमत मांग रहा है, खरीदार देने को तैयार है। ये जो प्रतिक्रिया होती है, बेचने और खरीदने वाले के बीच, इससे ही शेयर के भाव ऊपर जाते हैं। 

जैसा कि आप देख सकते हैं कि शेयर का भाव 5 मिनट में 16 रुपये बढ़ गया। हालांकि ये उदाहरण एक काल्पनिक परिस्थिती है, लेकिन ऐसा वाकई में होता है। किसी अच्छी खबर के आने या आने की उम्मीद पर स्टॉक की कीमत बढ़ जाती है। 

ऊपर के उदाहरण में शेयर के भाव ऊपर जाने की दो वजहें हैं। एक तो कंपनी के नेतृत्व का मसला हल हो गया। दूसरा, जो नया CEO आया है वो कंपनी को नई ऊंचाई तक ले कर जाएगा। 

अब दूसरे सवाल का जवाब बहुत आसान हो गया है, आप इंफोसिस का स्टॉक खरीदेंगे क्योंकि कंपनी के बारे में अच्छी खबर आई है। 

अब उसी दिन में आगे बढ़ते हैं। 12:30 PM पर ‘द नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनी’ यानी नैसकॉम (NASSCOM) ने एक स्टेटमेंट यानी अधिसूचना जारी किया। नैसकॉम भारत के सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों यानी IT कंपनियों का व्यापारिक संघ है और इसकी कही हुई बातें IT इंडस्ट्री के लिए बहुत ज्यादा मायने रखती हैं। 

तो नैसकॉम ने अधिसूचना में कहा कि ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि ग्राहकों के IT बजट में 15 परसेंट की गिरावट हुई है, और इसका असर IT इंडस्ट्री पर आगे देखने को मिल सकता है। 

12:30 PM पर मान लें कि इंफोसिस 3030 पर ट्रेड कर रहा है। आपके लिए कुछ सवाल…

  1. इस नई जानकारी का इंफोसिस के स्टॉक पर क्या असर पड़ेगा? 
  2. अगर इस खबर के बाद आपको नया सौदा करना हो, तो वो क्या होगा? 
  3. शेयर बाज़ार के दूसरे IT स्टॉक पर क्या असर होगा? 

इन सब सवालों के जवाब बहुत आसान है। लेकिन जवाब देने के पहले हम ज़रा नैसकॉम की अधिसूचना को विस्तार से समझते हैं। 

नैसकॉम ने कहा कि ग्राहकों के IT बजट में 15 परसेंट की गिरावट होने के आसार है। इसका मतलब कि IT कंपनियों के आय और मुनाफे में कमी होगी। तो ये IT इंडस्ट्री के लिए अच्छी खबर नहीं है। 

अब हम ऊपर के 3 सवालों के जवाब देने की कोशिश करते हैं…

  1. क्योंकि इंफोसिस IT सेक्टर की सबसे बड़ी कंपनी है, तो वहाँ प्रतिक्रिया तो ज़रूर दिखेगी। लेकिन ये प्रतिक्रिया किसी एक दिशा में शायद न दिखे क्योंकि उसी दिन, कुछ देर पहले कंपनी की तरफ से अच्छी खबर भी आई है। पर आय में 15 परसेंट तक की गिरावट कोई मामूली बात तो है नहीं, और इसलिए इंफोसिस के स्टॉक प्राइस में गिरावट देखने को मिल सकती है। 
  2. 3030 पर अगर किसी को नया सौदा करना है तो इंफोसिस को बेचने का सौदा होगा। 
  3. नैसकॉम की अधिसूचना में जो कहा गया है, वो सभी IT कंपनियों पर लागू होगा, सिर्फ इंफोसिस पर नहीं। तो ऐसे में सभी IT कंपनियों में बिकवाली का दबाव देखने को मिल सकता है। 

तो जैसा आपने देखा कि शेयर बाज़ार के भागीदार खबरों और घटनाओं पर प्रतिक्रिया करते हैं और उस प्रतिक्रिया से शेयरों के भाव में उठा-पटक होती रहती है। 

हो सकता है कि इस वक्त आपके दिमाग में एक बहुत ही वाजिब सवाल आए। आप सोच सकते हैं कि अगर आज किसी एक कंपनी के बारे में कोई खबर ना आए तो क्या होगा? क्या उस कंपनी के शेयर के भाव में कोई बदलाव नहीं होगा? 

इस सवाल का जवाब हाँ में भी हो सकता है और ना में भी और ये पूरी तरह से उस एक कंपनी के ऊपर निर्भर करता है, जिसकी बात हो रही है। 

उदाहण के लिए मान लेते हैं कि दो अलग-अलग कंपनियों के बारे में एक भी खबर नहीं आई…

  1. रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड
  2. श्री लक्ष्मी शुगर मिल्स

जैसा कि हम सब जानते हैं कि रिलायंस देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है और इस कंपनी के बारे में खबर आए या ना आए, बाज़ार के भागीदार इसके शेयर खरीदते और बेचते रहते हैं, इसलिए इसके शेयर की कीमत लगातार बदलती रहती है। 

जो दूसरी कंपनी है, उसे बहुत लोग नहीं जानते, तो अगर उस कंपनी पर कोई खबर न आए तो शेयर की कीमत शायद न बदले और अगर बदलाव होगा भी तो बहुत ही कम। 

संक्षेप में ये कह सकते हैं कि खबरों और घटनाओं की उम्मीद की वजह से कीमतों में बदलाव होता है। ये खबर और घटनाएं या तो सीधे तौर पर कंपनी या इंड्स्ट्री से जुड़ी हो सकती हैं या फिर पूरी अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई। जैसे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने को सकारात्मक या अच्छी खबर की तरह देखा गया और नतीजे के तौर पर पूरे शेयर बाज़ार में तेजी देखी गई। 

कुछ मामलों में हो सकता है कि कोई खबर ना हो फिर भी कीमतों में बदलाव देखने को मिले। ऐसा डिमांड-सप्लाई यानी मांग और आपूर्ति की वजह से हो सकता है। 

6.4 – शेयर की ट्रेडिंग कैसे होती है?

आपने इंफोसिस के 200 शेयर 3030 के भाव खरीदने और इस शेयर को 1 साल अपने पास रखने का फैसला किया। लेकिन ये होता कैसे है? शेयर खरीदने की पूरी प्रक्रिया कैसे चलती है? एक बार आप शेयर खरीद लेते हैं तो उसके बाद क्या होता है?

सौभाग्यवश इसके लिए एक बड़ी अच्छी प्रक्रिया है जो पूरा काम आसानी से कर देती है।

इंफोसिस खरीदने के लिए आपको अपनी ट्रेडिंग अकाउंट में लॉग-इन करना होगा (आपको ये सुविधा आपका ब्रोकर देता है)। शेयर खरीदने का ऑर्डर देने के बाद आपको ऑर्डर टिकट मिलेगा, जिसमें ये जानकारियां होंगी:

  1. आपके ट्रेडिंग अकाउंट की डिटेल जिसके जरिए आप इंफोसिस का शेयर खरीदना चाहते हैं। इस तरह से आपकी पहचान सामने आएगी।
  2. वह कीमत जिस पर आप इंफोसिस का शेयर खरीदना चाहते हैं।
  3. आप कितने शेयर खरीदना चाहते हैं।

आपका ब्रोकर यह जानकारी एक्सचेंज के पास आगे बढ़ाए, इसके पहले वह यह जानना चाहेगा कि आपके पास इन शेयरों को खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे हैं। जब वह संतुष्ट हो जायेगा कि आपके पास पैसे हैं तब आपका ऑर्डर टिकट स्टॉक मार्केट में भेजा जाएगा। आर्डर स्टॉक एक्सचेंज में पहुंचने के बाद एक्सचेंज एक ऐसे विक्रेता यानी बेचने वाले को खोजने की कोशिश करेगा ( अपने आर्डर मैचिंग साफ्टवेयर के जरिए) जो कि आपको 200 इन्फोसिस के शेयर 3030 के भाव पर बेचने को तैयार हो।

हो सकता है कि विक्रेता एक ही व्यक्ति हो जो कि पूरे 200 शेयर 3030 के भाव पर आप पर बेचने को तैयार हो या फिर 10 लोग हैं जिनमें से हर एक 20 शेयर बेचना चाहता हो या सिर्फ दो लोग हों जिनमें से एक 1 शेयर और दूसरा 199 शेयर बेचने को तैयार हो।  कितने लोग हैं जिनके बेचे हुए शेयर आप तक आ रहे हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, आपके लिए जरूरी यह है कि आपको 200 शेयर 3030 के भाव पर मिलें। आपने इसी का ऑर्डर दिया है। स्टॉक एक्सचेंज यही करने की कोशिश करता है कि अगर बाजार में बेचने वाले मौजूद हैं तो आपको शेयर मिल जाएं। एक बार सौदा हो गया तो यह सारे शेयर इलेक्ट्रॉनिक तरीके से आपके डीमैट अकाउंट में पहुंच जाएंगे और इलेक्ट्रोनिक तरीके से ही बेचने वाले के डिमैट अकाउंट से निकल जाएंगे।

6.5- शेयर आपके हो गए, अब?

आपके खरीदने के बाद शेयर आपके डीमैट अकाउंट में रहते हैं। अब कंपनी का एक हिस्सा आपका है यानी कंपनी में आप भी हिस्सेदार हैं। समझने के लिए आपको बता दें कि अगर आपने इंफोसिस के 200 शेयर खरीदे हैं तो आप इंफोसिस में 0.000035% के हिस्सेदार हैं। कंपनी के शेयर धारक होने की वजह से अब आपको डिविडेंड, स्टॉक स्प्लिट, बोनस, राइट्स इश्यू, वोटिंग राइट आदि तमाम सुविधाएं कंपनी की तरफ से मिलती रहेंगी। इन सब को हम आगे विस्तार से समझेंगे।

6.6- होल्डिंग पीरियड (Holding period) क्या है?

होल्डिंग पीरियड वह अवधि होती है जिस अवधि तक आप शेयर को अपने पास रखना चाहते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि होल्डिंग पीरियड कुछ मिनटों से लेकर हमेशा के लिए भी हो सकता है। जैसे जाने-माने निवेशक वारेन बफेट से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मेरे लिए होल्डिंग पीरियड का मतलब है शेयर को हमेशा के लिए अपने पास रखना। 

इस अध्याय में हमने एक उदाहरण में पहले देखा था कि कैसे इंफोसिस का शेयर 5 मिनट में 3000 से 3016 तक पहुंच गया। 5 मिनट के होल्डिंग पीरियड के लिए यह एक बहुत अच्छा रिटर्न है और अगर आप इससे संतुष्ट हैं तो आप इस सौदे को बंद कर इससे निकल सकते हैं और अपने लिए एक नया मौका ढूंढ सकते हैं। बाजार में ऐसा होना पूरी तरह संभव है। जब बाजार तेजी में होता है ऐसे सौदे कई बार होते हैं।

6.7- रिटर्न कैसे देखें?

बाजार में हर चीज एक खास मुद्दे के आसपास घूमती है और वह है कि आपको अपने निवेश पर अच्छा रिटर्न मिल रहा है या नहीं। अगर आप अपने सौदे में अच्छी कमाई कर रहे हैं या अच्छा रिटर्न पा रहे हैं तो आप की पुरानी सारी गलतियां माफ की जा सकती हैं क्योंकि रिटर्न पाना ही सबसे महत्वपूर्ण है। आमतौर पर रिटर्न को सालाना कमाई के तौर पर देखा जाता है। रिटर्न नापने के कई तरीके होते हैं जिनको आप को जानना जरूरी है। नीचे हम आपको कुछ तरीके के रिटर्न बता रहे हैं और यह भी बता रहे हैं कि उनको कैसे कैलकुलेट किया जाए।

ऐब्सल्यूट रिटर्न (Absolute Return)- यह रिटर्न आपको बताता है कि आपने अपने सौदे या निवेश पर कुल कितनी कमाई की है। आपको यह हिस्सा इस सवाल का जवाब देता है कि मैंने अगर इंफोसिस 3030 के भाव पर खरीदा 3550 के भाव पर बेचा तो मैंने कुल कितने प्रतिशत पैसे इस सौदे में बनाए।

इस रिटर्न को मापने का फार्मूला है:

{बेचने वाली कीमत÷खरीदने के समय की कीमत -1}×100

हमारे उदाहरण में

{3550÷3030-1}×100

= 0.1716×100

= 17.16%

यह एक काफी अच्छा रिटर्न माना जाएगा।

कम्पॉउंड ऐनुअल ग्रोथ रेट यानी सीएजीआर (Compound Annual Growt Rate-CAGR)- अगर आप अपने दो निवेश की तुलना करना चाहते हैं तो कुल रिटर्न यानी ऐब्सल्यूट रिटर्न एक बहुत अच्छा मापक नहीं है। इसके लिए आपको CAGR की मदद लेनी होगी। अगर मैंने इंफोसिस का शेयर 3030 के भाव पर खरीदा और शेयर को 2 साल के लिए अपने पास रखा और फिर उसे 3550 पर बेच दिया तो इन 2 सालों में मेरा निवेश किस रफ्तार से बढ़ा ये जानने के लिए CAGR काम आएगा। CAGR में समय एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है जबकि कुल रिटर्न यानी ऐब्सल्यूट रिटर्न में इसकी कोई भूमिका नहीं होती है।

CAGR को पता करने का फार्मूला है:

यहाँ Ending Value = बेचने वाली कीमत

Begining Value = खरीदने वाली कीमत

अब अगर इस फार्मूले को अपने सवाल में डालें तो

{[3550/3030]^(1/2)-1}= 8.2%

इसका मतलब है निवेश 8.2% की रफ्तार से दो साल तक बढ़ा। हम सब को पता है कि इस समय देश में कई जगहों पर फिक्स्ड डिपॉजिट (FD) पर 8.5% तक का रिटर्न मिल रहा है और वहाँ पर पूंजी भी सुरक्षित रहती है। ऐसे में 8.2%  का रिटर्न आकर्षक नहीं लगेगा।

इसीलिए जब भी कई सालों का रिटर्न जानना हो तो CAGR का इस्तेमाल करना चाहिए। जब आप एक साल या कम का रिटर्न जानना चाहते हैं तभी ऐब्सल्यूट रिटर्न का उपयोग कीजिए।

यदि आपने इन्फोसिस 3030 पर खरीदा और 6 महीने में ही उसे 3550 पर बेच दिया तो? उस स्थिति में आप 17.6% का रिटर्न कमाएंगे जो कि एक साल के लिए 34.32% (17.6%*2) का रिटर्न हुआ। 

तो रिटर्न को हमेशा सालाना तौर पर नापना सबसे अच्छा होता है।

6.8 बाज़ार में आप क्या हैं? / बाज़ार में आप कहाँ हैं?

बाज़ार का हर भागीदार अपनी एक अलग स्टाइल ले कर आता है। जैसे-जैसे वो बाज़ार में समय गुजारते हैं, वैसे-वैसे उनका स्टाइल बेहतर होता जाता है। बाज़ार में कोई इंसान कितना रिस्क ले सकता है उससे भी उसका स्टाइल प्रभावित होता है। हर भागीदार या तो ट्रेडर की कैटेगरी में आता है या फिर इंवेस्टर की। 

एक ट्रेडर वो व्यक्ति होता है जो मौके को पहचानता है और सौदा कर लेता है इस उम्मीद के साथ कि फायदा मिलते ही वो इस सौदे से बाहर निकल जाएगा। एक ट्रेडर का नज़रिया बहुत छोटे समय का होता है। एक ट्रेडर हमेशा सजग रहता है और बाजार के समय जिसे हम मार्केट आवर (Market Hour ) कहते हैं, हमेशा मौके की तलाश में रहता है और अपने रिस्क और रिवार्ड (Reward) यानी जोखिम और जोखिम लेने की वजह से मिलने वाले फायदे को आंकता रहता है। ट्रेडर तेजी और मंदी में किसी को प्राथमिकता नहीं देता, वह बस मौके तलाशता रहता है। ट्रेडर 3 तरीके के होते हैं। 

  1.  लेने में कोई दिक्कत नहीं होती। उदाहरण के तौर पर, वह TCS के 100 शेयर 2212 रुपये की कीमत पर  12 जून को खरीदेगा और 19 जून को इसे 2214 रुपये पर बेच देगा। 

दुनिया के कुछ मशहूर ट्रेडर हैं – जॉर्ज सोरॉस, एड सेयकोटा, पॉल ट्यूडॉर, वॉन के थार, स्टैनली ड्रकेन मिलर। 

एक इंवेस्टर वो होता है जो शेयर को इस उम्मीद के साथ खरीदता है कि उसमें उसको काफी मुनाफा होगा। वो अपने निवेश को लंबा समय देने को तैयार रहता है जिससे उसका निवेश बढ़ सके। एक निवेशक या इंवेस्टर के लिए होल्डिंग पीरियड कुछ सालों का भी हो सकता है। आमतौर पर निवेशक दो तरह के होते हैं…

  1. ग्रोथ इंवेस्टर (Growth Investor)– इस तरह के निवेशक की कोशिश होती है कि ऐसी कंपनियां तलाशी जाएं जिनके बड़े होने या बढ़ने के मौके हों। उभरती हुई इंडस्ट्री की वजह से या मौजूदा आर्थिक हालात की वजह से। भारत में हिंदुस्तान यूनिलीवर, इंफोसिस, जिलेट इंडिया जैसी कंपनियों को 1990 में खरीदना इसका एक उदाहरण होता। इन कंपनियोंने तब से लेकर अब तक काफी ग्रोथ दिखाई है क्योंकि इनकी पूरी इंडस्ट्री में काफी बड़े बदलाव आए हैं। इन कंपनियों ने इस ग्रोथ या बढ़ोतरी की वजह से अपने शेयरधारकों के लिए बहुत सारी दौलत कमा कर दी है। 
  2. वैल्यू इंवेस्टर (Value Investor)– एक वैल्यू इन्वेस्टर की कोशिश होती है कि वह अच्छी कंपनियों को पहचाने और उन में निवेश करे। कंपनी अपने शुरुआती दौर में है या बाजार की जमी जमायी कंपनी है उसके लिए ये महत्वपूर्ण शहीं होता। वैल्यू इन्वेस्टर हमेशा ऐसी कंपनी की तलाश में रहता है जो कि बाजार का मूड खराब होने की वजह से अपनी असली कीमत से नीचे मिल रही हो। इसका एक उदाहरण है l &t का शेयर। कुछ समय के लिए माहौल खराब होने की वजह से अगस्त- सितंबर 2013 में l&t का शेयर बुरी तरीके से गिरा यह शेयर ₹1200 से गिरकर ₹690 तक पहुंच गया था। ₹690 के भाव पर (कंपनी के फंडामेंटल के मद्देनज़र) इसकी वैल्यूएशन काफी सस्ती थी। इसलिए ये इसे खरीदने का बढिया मौका था। जिन निवेशकों ने इसे उस समय खरीदा उनको इसका इनाम भी मिला जब मई 2014 में ये शेयर 1440 पर पहुंच गया। 

कुछ नामी गिरामी वैल्यू इन्वेस्टर के नाम हैं: चार्ली मंगर, पीटर लिंच, बेंजामिन ग्राहम, थॉमस रो, वॉरेन बफेट, जॉन बोगल, जॉन टेम्प्लटन इत्यादि। 

तो आप शेयर बाज़ार में किस तरह के इंवेस्टर बनना चाहेंगे? 


इस अध्याय की खास बातें –

  1. स्टॉक मार्केट या शेयर बाज़ार वो जगह है, जहां पर कोई ट्रेडर या इंवेस्टर शेयर को खरीद या बेच सकता है। 
  2. स्टॉक मार्केट वे जगह है जहां बेचने वाला या खरीदने वाला इलेक्ट्रॉनिक्ली मिलते हैं। 
  3. मार्केट में अलग अलग विचारों और नज़रिया रखने वाले लोग होते हैं। 
  4. स्टॉक एक्सचेंज ये सुविधा मुहैया कराता है कि खरीदार और बिकवाल यानी बेचने वाला इलेक्ट्रॉनिकली मिल सकें। 
  5. घटनाएं और समाचार, शेयर कीमतों को हर दिन ऊपर-नीचे करते हैं। 
  6. मांग और आपूर्ति की वजह से भी शेयर की कीमतें ऊपर नीचे होती हैं। 
  7. जब आपके पास एक शेयर होता है, तो आप कंपनी से बोनस, डिविडेंड, राइट्स जैसी सुविधाएं पा सकते हैं। 
  8. होल्डिंग पीरियड (Holding Period) का मतलब है कि आप उस शेयर को कितने दिन अपने पास रखते हैं। 
  9. जब होल्डिंग पीरियड एक साल या उससे कम हो तो आपको कुल रिटर्न देखना चाहिए और अगर होल्डिंग पीरियड कई सालों का है तो आपको CAGR रिटर्न देखना चाहिए। 
  10. ट्रेडर और इंवेस्टर में दो मुख्य अंतर होते हैं – रिस्क लेने की क्षमता और होल्डिंग पीरियड।

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स्टॉक मार्केट इंडेक्स https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%89%e0%a4%95-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a5%87%e0%a4%9f-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b8/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%89%e0%a4%95-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a5%87%e0%a4%9f-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b8/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:57:51 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5680 7.1 -संक्षिप्त विवरण (Overview) अगर मैं आपसे पूछूं कि अपने शहर के ट्रैफिक का ताजा हाल बताओ तो आप क्या करेंगे? आपके शहर में हजारों सड़कें और चौराहे होंगे, क्या आप सबका हाल पता करेंगे और फिर जवाब देंगे? समझदारी तो इसी में होगी कि आप कुछ मुख्य सड़कों और चौराहों का हाल पता करें […]

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7.1 -संक्षिप्त विवरण (Overview)

अगर मैं आपसे पूछूं कि अपने शहर के ट्रैफिक का ताजा हाल बताओ तो आप क्या करेंगे?

आपके शहर में हजारों सड़कें और चौराहे होंगे, क्या आप सबका हाल पता करेंगे और फिर जवाब देंगे? समझदारी तो इसी में होगी कि आप कुछ मुख्य सड़कों और चौराहों का हाल पता करें जिनसे आप शहर की हर दिशा में ट्रैफिक का हाल बता सकें। अगर इन सड़कों पर भीड़ हो तो आप बोलेंगे कि शहर में बहुत ट्रैफिक है और नहीं तो कहेंगे कि ट्रैफिक सामान्य है। 

ठीक इसी तरह अगर आपसे स्टॉक मार्केट का हाल पूछा जाए तो, क्या करेंगे आप? बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE)  में करीब 5000 कंपनियां लिस्टेड हैं और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) में करीब 2000, इन सबका हाल पता करना कि उनके शेयर ऊपर जा रहे हैं या नीचे, अपने आप में काफी मुश्किल काम होगा।

इसकी जगह आसान तरीका होगा कि कुछ खास तरह की इंडस्ट्री या उद्योग से जुड़ी कंपनियों के शेयरों की हालत पता कर ली जाए। अगर इनमें से अधिकतर कंपनियों के शेयर नीचे हैं तो बाजार नीचे और अगर ज्यादातर कंपनियों के शेयर ऊपर हैं तो बाजार ऊपर कहा जाएगा। अगर कुछ नीचे और कुछ ऊपर तो बाजार को मिला-जुला कहा जा सकता है। 

इस तरह से कुछ कंपनियों को बाजार का प्रतिनिधि बनाया जा सकता है और उनका हाल देख कर बाजार का हाल बताया जा सकता है। इन कंपनियों का समूह शेयर बाज़ार सूचकांक यानी स्टॉक मार्केट इंडेक्स (Stock Market Index) बनाता है।

7.2- इंडेक्स- सूचकांक (The Index)

सौभाग्य से बाजार का हाल बताने के लिए इन चुनी हुई कंपनियों के समूह की हर कंपनी को भी अलग अलग देखना जरूरी नहीं है। इन सभी कंपिनयों को पहले ही एक साथ मिला दिया गया है और इस मिले हुए समूह पर लगातार निगाह रखी जाती है और उनके आधार पर बाजार का हाल बताया जाता है। कंपनियों के इस समूह को ही मार्केट इंडेक्स (Market Index) कहते हैं।

भारत में दो मुख्य मार्केट इंडेक्स हैं- S&P BSE Sensex जो बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज का इंडेक्स है और CNX Nifty जो NSE यानी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का हाल बताने वाला इंडेक्स है।

S&P यानी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स (Standard and Poor’s), एक अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी है। S&P इंडेक्स बनाने की विशेषज्ञ एजेंसी है और उन्होने BSE को लाइसेंस दिया है। इसलिए इस इंडेक्स में S&P का नाम जुड़ा है।

 

फ्टी (CNX Nifty) में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के सबसे बड़े और सबसे ज्यादा ट्रेड होने वाले (खरीदे बेचे जाने वाले) शेयर शामिल हैं। इस इंडेक्स को चलाने की जिम्मेदारी इंडिया इंडेक्स सर्विसेज एंड प्रॉडक्ट्स लिमिटेड (IISL) की है। ये NSE और CRISIL का ज्वाइंट वेंचर यानी संयुक्त उद्यम है। CNX का यहां मतलब है CRISIL और NSE.

एक अच्छा इंडेक्स हमें हर मिनट ये बताता है कि बाजार के खिलाड़ी बाजार का भविष्य कैसा देख रहे हैं। इंडेक्स का ऊपर-नीचे होना हमें बताता है कि बाजार से जुड़ी उम्मीदें किधर जा रही हैं। जब बाजार से जुड़े लोग मानते हैं कि भविष्य अच्छा है तो इंडेक्स ऊपर जाता है और जब ये लोग मानते हैं कि आने वाला समय खराब है तो इंडेक्स नीचे जाता है। 

7.3 – इंडेक्स के उपयोग (Practical Uses of Index)

नीचे इंडेक्स के कुछ खास उपयोग बताए जा रहे हैं।

सूचना (Information)- इंडेक्स एक समय विशेष में बाजार की दिशा को बताता है। इंडेक्स के आधार पर देश की अर्थव्यवस्था का भी अनुमान मिलता है। ऊपर चढ़ रहा इंडेक्स बताता है कि लोग भविष्य बेहतर होने की उम्मीद कर रहे हैं। जब स्टॉक मार्केट इंडेक्स नीचे होता है तो ये माना जा सकता है कि लोग भविष्य को ले कर उत्साहित नहीं हैं। 

उदाहरण के तौर पर 1 जनवरी 2014 को निफ्टी 6301 पर था और 24 जून 2014 को 7580। इसका मतलब है कि 1278 अंकों की बढोत्तरी यानी 20.3%  का बदलाव। इसका मतलब है कि इस दौरान बाजार मजबूती के साथ ऊपर गया जिससे पता चलता है लोग भविष्य को ले कर आशावादी थे। 

इंडेक्स का इस्तेमाल किसी भी समय सीमा के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए 25 जून 2014 को सुबह 9:30 बजे इंडेक्स 7583 पर था लेकिन एक घंटे बाद ये 7565 पर पहुंच गया, एक घंटे में आई ये 18 अंकों की गिरावट बताती है कि बाजार में लोग उत्साह में नहीं थे।

बेंचमार्क के लिए (Benchmarking)- आप ट्रेडिंग कर रहे हों या निवेश, इसके प्रदर्शन को कैसे नापेंगे? मान लीजिए आपने 100,000  रुपये लगाए और 20,000 कमाए, अब आपके पास 120,000 की रकम है। सुनने में तो ये बहुत अच्छा है कि आपको 20% का रिटर्न मिला। लेकिन इसी दौरान निफ्टी 6000 से 7800 पर आ गया यानी उसने 30% का रिटर्न दिया। 

अब आपको लगेगा कि आपका रिटर्न मार्केट से कम रहा। अगर आप ये तुलना नहीं कर पाते तो आपको पता नहीं चलता कि आपका प्रदर्शन कैसा रहा। इसीलिए इंडेक्स को बेंचमार्क की तरह इस्तेमाल करके प्रदर्शन नापा जाता है। बाजार से जुड़े हर व्यक्ति की कोशिश होती है इंडेक्स से बेहतर प्रदर्शन करने की।

ट्रेडिंग (Trading)– इंडेक्स का सबसे अधिक उपयोग ट्रेडिंग के लिए होता है। बाजार के ज्यादातर ट्रेडर इंडेक्स में ट्रेड करते हैं। वो अर्थव्यवस्था या बाजार के भविष्य का अनुमान लगाते हैं और उसी के आधार पर सौदा करते हैं।

उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि सुबह 10:30 पर वित्त मंत्री बजट भाषण देने वाले हैं। इससे एक घंटे पहले निफ्टी 6600 पर है। आपको लगता है कि बजट में कुछ ऐसी घोषणा होगी कि देश की अर्थव्यवस्था में सुधार होगा। ऐसा होने पर इंडेक्स किधर जाएगा? ऊपर ना? तब आप एक ट्रेडर के तौर पर इंडेक्स 6600 पर खरीदेंगे।

अब बजट भाषण आपकी उम्मीद के मुताबिक रहता है और निफ्टी 6900 पर पहुंच जाता है। अब आप 300 प्वाइंट ऊपर अपने फायदे के साथ सौदे से निकल सकते हैं। ऐसे ट्रेड यानी सौदे बाजार के डेरिवेटिव सेगमेंट (Derivative Segment) में किए जाते हैं। अभी डेरिवेटिव के बारे में सिर्फ इतना जान लीजिए कि यहाँ इंडेक्स का सौदा किया जा सकता है, इस पर विस्तार से बाद में जानेंगे।

पोर्टफोलियो हेजिंग (Portfolio Hedging)-  निवेशक आमतौर पर शेयरों का एक पोर्टफोलियो बनाते हैं। जिसमें 10-12 कंपनियों के शेयर होते हैं, जिन्हें लंबे समय के लिए खरीदा गया होता है। लेकिन कभी कभी बाजार में ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं (साल 2008 की तरह) जब काफी समय तक बाजार खराब रहने की आशंका रहती है। ऐसे में पोर्टफोलियो की पूंजी को कम होने से बचाने के लिए हेजिंग करनी पड़ती है और इसके लिए इंडेक्स का उपयोग किया जाता है। इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

 

7.4 – इंडेक्स बनाने का तरीका (Index construction methodology)

ये जानना जरूरी है कि इंडेक्स कैसे बनता है और उसकी गणना कैसे होती है, खासकर इंडेक्स ट्रेडर के लिए ये जानकारी काफी महत्वपूर्ण है। जैसा कि हम जान चुके हैं कि इंडेक्स कई सेक्टर के काफी सारे स्टॉक्स को मिला कर बनता है और ये पूरी अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इंडेक्स में शामिल करने के लिए स्टॉक में कुछ खासियतें देखी जाती हैं और जब तक उसमें वो खासियत मौजूद रहती हैं तब तक वो स्टॉक इंडेक्स में बना रहता है। लेकिन अगर उनमें से एक खासियत भी कम हो गयी तो उन खासियतों वाला दूसरा स्टॉक इंडेक्स में उसकी जगह ले लेता है। 

इंडेक्स बनाने के लिए ऐसे स्टॉक्स की एक लिस्ट बनाई जाती है जो उन खासियतों की सभी शर्तें पूरी करते हैं। इसके बाद हर स्टॉक का एक वजन (weightage) तय किया जाता है। वजन यानी वेटेज का मतलब होता है कि उस स्टॉक का इंडेक्स में दूसरे शेयरों की तुलना में कितना महत्व है। जैसे निफ्टी में ÌTC  का वजन यानी वेटेज 7.6% है, इसका मतलब ये हुआ कि निफ्टी के बढ़ने या गिरने में 7.6% भूमिका ITC की होती है।

अब सवाल ये है कि इंडेक्स में वजन यानी वेटेज तय कैसे किया जाता है?

इसके कई तरीके होते हैं लेकिन भारतीय बाजार यानी एक्सचेंज जिस तरीके का इस्तेमाल करते हैं उसे फ्री फ्लोट मार्केट कैपिटलाइजेशन ( Free Float Market Capitalisation)  कहते हैं। स्टॉक्स का वेटेज उनके फ्री फ्लोट मार्केट कैपिटलाइजेशन पर तय होता है, जितना बड़ा मार्केट कैपिटलाइजेशन उतना ज्यादा इंडेक्स में वजन। 

फ्री फ्लोट मार्केट कैपिटलाइजेशन निकालने के लिए शेयर बाजार में मौजूद उस कंपनी के शेयरों की संख्या को उसकी कीमत से गुणा कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर अगर एक कंपनी के 100 शेयर बाजार में हैं और उस शेयर की कीमत 50 रूपये है तो उस शेयर की फ्री फ्लोट मार्केट कैपिटलाइजेशन 100x 50= 5000 होगा।

इस अध्याय को लिखते वक्त निफ्टी के 50 शेयरों की लिस्ट और उनके इंडेक्स में वजन का चार्ट कुछ इस प्रकार है..

क्रमांक कंपनी का नाम इंडस्ट्री वेटेज (%)
1 ITCलिमिटेड सिगरेट 7.6
2 ICICIबैंक लि. बैंक 6.55
3 HDFCलि. हाउसिंग फाइनेंस 6.45
4 रिलायंस इंडस्ट्री लि. रिफाइनरीज 6.37
5 इन्फोसिस लि. कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर 6.26
6 HDFCबैंक लि. बैंक 5.98
7 TCSलि. कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर 5.08
8 L&Tलि. इंजीनियरिंग 4.72
9 टाटा मोटर्सलि. ऑटोमोबाइल 3.09
10 SBIलि. बैंक 2.9
11 ONGCलि. ऑयल एक्सप्लोरेशन 2.73
12 एक्सिस बैंक लि. बैंक 2.5
13 सन फार्मालि. फार्मास्युटिकल 2.29
14 M&Mलि. ऑटोमोबाइल 2.13
15 HULलि. FMCG 1.87
16 भारती एयरटेललि. टेलीकॉम 1.7
17 HCLटेक्नोलॉजिस लि. कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर 1.61
18 टाटा स्टील लि. मेटल-स्टील 1.42
19 कोटक महिन्द्रा बैंक लि. बैंक 1.4
20 सेसा स्टरलाइट लि. खनन 1.38
21 डॉ रेड्डीज लैब लि. फार्मा 1.37
22 विप्रो लि. कम्प्युटर सॉफ्टवेयर 1.37
23 मारूति सुजुकी इंडिया लि. ऑटो 1.29
24 टेक महिन्द्रा लि. कम्प्युटर सॉफ्टवेयर 1.24
25 हीरो मोटोकॉर्प लि. ऑटो 1.2
26 NTPCलि. पावर 1.15
27 पावर ग्रिड कॉर्प लि. पावर 1.13
28 एशियन पेन्ट्स लि. पेन्ट्स 1.1
29 ल्यूपिन लि. फार्मा 1.09
30 बजाज ऑटो लि. ऑटो 1.07
31 हिन्डालको इन्डस्ट्रीज लि. मेटल-अल्युमिनियम 0.95
32 अल्ट्राटेक सीमेन्ट्स लि. सीमेन्ट 0.95
33 इन्डसइंड बैंक लि. बैंक 0.94
34 कोल इंडिया लि. खनन 0.93
35 सिप्ला लि. फार्मा 0.89
36 BHELलि. बिजली उपकरण 0.79
37 ग्रासिमइंडस्ट्रीज लि. सीमेन्ट 0.79
38 गेल(इंडिया)लि. गैस 0.78
39 IDFCलि. फाइनेंशियल सर्विसेज 0.74
40 केर्न इंडिया लि. ऑयल एक्सप्लोरेशन 0.72
41 यूनाइटेड स्पिरिटीजलि. डिस्टीलरी 0.7
42 टाटा पावर कं.लि. पावर 0.68
43 बैंक ऑफ बड़ौदा बैंक 0.63
44 अम्बुजा सीमेंट्स लि. सीमेन्ट 0.61
45 BPCL रिफाइनरीज 0.58
46 पंजाब नेशनल बैंक बैंक 0.55
47 NMDCलि. खनन 0.52
48 ACCलि. सीमेंट 0.5
49 जिन्दल पॉवर एंड स्टील स्टील 0.38
50 DLFलि. कंस्ट्रक्शन 0.34

 

आप देख सकते हैं कि ITC  का वेटेज सब से ज्यादा है। इसका मतलब है कि निफ्टी पर सबसे अधिक असर ITC के शेयर की कीमत में बदलाव का पड़ता है और सबसे कम DLF की कीमत में बदलाव का।

7.5- सेक्टर इंडेक्स ( Sector specific index)

जैसे सेंसेक्स और निफ्टी पूरे बाजार की दिशा बताते हैं उसी तरह अलग अलग इंडस्ट्री का हाल बताने वाले इंडेक्स भी होते हैं, जिनको सेक्टर इंडेक्स कहते हैं। जैसे बैंक निफ्टी बैंकिंग इंडस्ट्री का हाल बताने वाला सेक्टर इंडेक्स है। इसी तरह CNX IT नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में IT इंडस्ट्री के शेयरों का हाल बताता है। BSE और NSE दोनों पर सेक्टर इंडेक्स हैं और ये निफ्टी और सेंसेक्स की तरह ही काम करते हैं।


इस अध्याय की मुख्य बातें

  1. बाजार के इंडेक्स पूरी अर्थव्यवस्था का हाल बताते हैं।
  2. इंडेक्स ऊपर जाने का मतलब है कि बाजार में लोग भविष्य को ले कर आशान्वित हैं।
  3. इंडेक्स के नीचे जाने का मतलब है कि बाजार के लोग भविष्य को ले कर निराश हैं।
  4. भारत में दो मुख्य इंडेक्स हैं BSE सेंसेक्स और NSE निफ्टी।
  5. इंडेक्स का उपयोग सूचना, बेंचमार्क, ट्रेडिंग और हेजिंग के लिए भी होता है।
  6. इंडेक्स का सबसे प्रचलित उपयोग ट्रेडिंग के लिए होता है।
  7. भारत में फ्री फ्लोट मार्केट कैपिटलाइजेशन तरीके का उपयोग करके इंडेक्स का निर्माण होता है।
  8. अलग अलग सेक्टर का हाल बताने के लिए सेक्टर इंडेक्स होते हैं।

 

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इस चैप्टर में आपको उन शब्दों का मतलब समझाया जाएगा जिनका इस्तेमाल शेयर बाज़ार के जानकार लोग लगातार करतें हैं। 

बुल मार्केट (तेजी): अगर किसी को लगता है कि बाजार ऊपर जाएगा और शेयरों की कीमत बढ़ेगी तो कहा जाता है कि वो तेजी में है। अगर एक तय समय में बाजार लगातार ऊपर की तरफ जाता रहता है तो कहा जाता है कि बाजार बुल मार्केट में है, या फिर बाज़ार में तेजी का माहौल है।  

बेयर मार्केट (मंदी):  तेजी के माहौल का ठीक उल्टा मंदी का माहौल होता है। अगर आपको लगता है कि आने वाले समय में बाजार नीचे की तरफ जाएगा तो कहा जाता है कि आप उस स्टॉक को लेकर बेयरिश (Bearish) हैं। इसी तरह जब एक लंबे समय तक बाजार नीचे की तरफ जा रहा होता है तो कहा जाता है कि बाजार बेयर मार्केट में है।

ट्रेंड:  बाजार की दिशा और उस दिशा की ताकत को ट्रेंड कहा जाता है । उदाहरण के लिए, अगर बाजार  तेजी से नीचे जा रहा है तो कहते हैं कि बाजार में गिरावट का ट्रेंड है या अगर बाजार ना उपर जा रहा है ना अधिक नीचे तो उसे “साइडवेज” या दिशाहीन ट्रेंड कहा जाता है। 

शेयर की फेस वैल्यू: किसी शेयर की तय कीमत को फेसवैल्यू या “पार वैल्यू” कहते हैं। इसे कंपनी तय करती है और ये उनके कॉरपोरेट फैसलों के लिए महत्वपूर्ण होता है, जैसे डिविडेंड देने या स्टॉक स्प्लिट करने के समय कंपनी शेयर की फेस वैल्यू को ही आधार बनाती है। उदाहरण के लिए, अगर इन्फोसिस के शेयर की फेस वैल्यू 5 रूपए है और कंपनी ने 65 रूपए का सालाना डिविडेंड दिया तो इसका मतलब है कि कंपनी ने 1260% डिविडेंड दिया। (65÷5)

52 हफ्तों की ऊँचाई/निचाई (52 week high/low) :  52 हफ्ते की ऊँचाई का मतलब है कि स्टॉक की पिछले 52 हफ्तों में सबसे ऊँची कीमत। इसी तरह 52 हफ्तों  की निचाई मतलब सबसे निचली कीमत 52 हफ्तों में। 52 हफ्तों की ऊँची या नीची कीमत स्टॉक की कीमत का दायरा बताता है। जब कोई स्टॉक अपने 52 हफ्तों की ऊँचाई के करीब होता है तो कई लोग ऐसा मानते हैं कि स्टॉक तेजी में रहने वाला है, इसी तरह जब स्टॉक अपने 52 हफ्ते के निचले स्तर के करीब होता है तो ऐसा माना जाता है कि स्टॉक मंदी में रहने वाला है। 

पूरे वक्त की ऊँचाई/निचाई (All time high/ low): ऑल टाइम हाई और ऑल टाइम लो भी 52 हफ्तों की ऊँचाई या निचाई की तरह स्टॉक की कीमत बताता है, फर्क सिर्फ इतना है कि ऑल टाइम हाई या लो किसी स्टॉक के बाजार में लिस्ट होने के बाद से अब तक की सबसे ऊँची कीमत या नीची कीमत बताता है। 

अपर सर्किट/लोअर सर्किट (Upper Ciruit / Lower circuit): स्टॉक एक्सचेंज हर स्टॉक के लिए कीमत की एक सीमा तय कर देते हैं। एक ट्रेडिंग दिन में स्टॉक की कीमत उस सीमा के बाहर नहीं जाने दी जाती है, ना ऊपर की तरफ और ना ही नीचे की तरफ। ऊपरी कीमत की सीमा को अपर सर्किट और कीमत की निचली सीमा को लोअर सर्किट कहते हैं। स्टॉक की सर्किट की सीमा 2%, 5%, 10%, या 20% में से कुछ भी हो सकती है जो एक्सचेंज अपने नियमों के हिसाब से तय करते हैं। एक्सचेंज सर्किट का इस्तेमाल स्टॉक में जरूरत से ज्यादा उतार चढ़ाव को काबू में रखने के लिए करते हैं ताकि किसी खबर की वजह से स्टॉक में बहुत ज्यादा गिरावट या तेजी ना आए।

लाँग पोजिशन (Long Position):  लाँग पोजीशन या लाँग होना आपके सौदे यानी ट्रेड की दिशा बताता है। उदाहरण के तौर पर अगर आपने बायोकॉन के शेयर खरीदे हैं या खरीदने वाले हैं तो आप बायोकॉन पर लाँग हैं। अगर आपने निफ्टी इंडेक्स इस उम्मीद पर खरीदा है कि इंडेक्स ऊपर जाएगा तो आपकी इंडेक्स पर लांग पोजीशन है। अगर आपकी किसी स्टॉक या इंडेक्स पर लाँग पोजीशन है तो आपको तेजी वाला ट्रेडर या बुलिश (Bullish) माना जाएगा।

शॉर्ट पोजिशन (Short Position): “शॉर्ट करना” या “शॉर्ट पोजीशन” एक खास तरह के ट्रेड या सौदे को बताता है। इसे समझाना थोड़ा मुश्किल है इसलिए इसे समझाने के लिए मैं एक घटना बताता हूँ जो मेरे ऑफिस में घटी। 

आपको शायद पता हो कि चीन की एक मोबाइल बनाने वाली कंपनी शाओमी ने फ्लिपकार्ट से अपने Mi3 फोन बेचने का एक एक्सक्लूसिव समझौता किया था। उम्मीद की जा रही थी इस फोन की कीमत 14000 रूपए के आसपास होगी। इस फोन को खरीदने के लिए आपको अपने आप को फ्लिपकार्ट पर रजिस्टर करना था क्योंकि बिना रजिस्ट्रेशन के ये फोन नहीं मिलता। रजिस्ट्रेशन बहुत कम समय के लिए खुला था। मैंने फोन खरीदने के लिए जल्दी से रजिस्ट्रेशन करा लिया, लेकिन मेरा दोस्त राजेश रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाया। 

राजेश को भी ये फोन चाहिए था इसलिए उसने मुझे एक ऑफर दिया। उसने कहा कि वो मुझसे ये फोन 16,500 में खरीदने को तैयार है। एक पक्का ट्रेडर होने के नाते मैंने फट से ये सौदा मंजूर कर लिया और उससे पैसे भी ले लिए। 

उसके बाद मुझे लगा कि मैंने ये क्या कर दिया? मैंने एक ऐसा फोन राजेश को बेच दिया जो मेरे पास अभी है ही नहीं। 

वैसे ये सौदा बुरा नहीं था, मुझे बस ये करना था कि फोन फ्लिपकार्ट पर खरीदते ही उसी समय राजेश को देना था। लेकिन मुझे डर एक ही था कि चूंकि फोन की कीमत अभी तक घोषित नहीं थी , ऐसे में अगर फोन की कीमत 16500 से ज्यादा निकली तो मैं क्या करूंगा? अगर फोन 18000 का मिला तो मुझे राजेश के साथ किए गए सौदे में 18000-16500=1500 का नुकसान हो जाएगा। 

लेकिन किस्मत अच्छी थी कि ऐसा नहीं हुआ, फोन की कीमत 14000 निकली। मैंने जल्दी से फोन फ्लिपकार्ट पर खरीदा और राजेश को दे दिया। और मुझे 16500-14000 = 2500 का फायदा हो गया। 

अब आप घटनाक्रम देखिए, मैंने पहले फोन बेचा जो मेरे पास था ही नहीं, बाद में फ्लिपकार्ट से खरीदा और राजेश को दिया। यानी बेचा पहले और खरीदा बाद में। 

इस तरह के सौदे ही शॉर्ट ट्रेड या शॉर्ट सौदे कहे जाते हैं।

चूंकि हम अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में ऐसा नहीं करते इसलिए ये थोड़ा अजीब जरूर लगता है, लेकिन ट्रेडर के लिए ये एक मौका होता है।

अब चलते हैं शेयर बाजार की तरफ , मान लीजिए एक दिन आपने विप्रो के शेयर 405 रूपए पर खरीदे और दो दिन बाद 425 पर बेच दिए। आपने इस सौदे में 20 रूपए कमा लिए। आपने पहले 405 पर विप्रो खरीदने का सौदा किया और बाद में 425 पर बेचने का सौदा किया। ऐसा आपने इसलिए किया क्योंकि विप्रो पर आप तेजी में थे यानी बुलिश (Bullish) थे,  आपको शेयर के दाम बढ़ने की उम्मीद थी।

अब मान लीजिए चौथे दिन आप विप्रो पर बेयरिश (Bearish) हैं और गिरावट की उम्मीद कर रहे हैं, शेयर अभी भी 425 पर ही है लेकिन आपको लगता है कि कुछ ही दिनों में ये शेयर 405 पर आ जाएगा। अब आप पैसा कैसे कमाएंगे? ऐसे मौके पर ही शार्ट ट्रेड किया जाता है। आप 425 पर बेचेंगे और मान लीजिए दो दिनों के बाद शेयर का दाम 405 पर आता है तो उस वक्त शेयर फिर से खरीदेंगे। 

तो, आपने पहले 425 पर बेचा और बाद में 405 पर खरीदा। शॉर्टिंग (shorting) या शॉर्ट करने में हमेशा ऐसा ही होता है जब कीमत ऊपर हो तो आप बेचते हैं और नीचे आने पर खरीदते हैं।

तो आपने अपने पहले दिन वाला ही सौदा किया- 405 पर खरीदा और 425 पर बेचा,  लेकिन इस बार सौदा उल्टी दिशा मे हुआ। 

एक सवाल आपके दिमाग में उठ सकता है- जब विप्रो का शेयर मेरे पास है ही नहीं तो उसको बेचेंगे कैसे? लेकिन वास्तव में आप उसे बेच सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे मैंने वो फोन बेचा जो मेरे पास था ही नहीं। 

वास्तव में, जब आप खरीदने के पहले बेचते हैं तो आप एक तरह से शेयर उधार ले रहे होते हैं और बाद में जब खरीदते हैं तो उस उधार को चुकाते हैं। एक्सचेंज आपको सुविधा देता है कि आप उधार पर शेयर बेच सकें और बाद में शेयर खरीद कर शेयर का उधार चुका सकें। 

तो कुल मिला कर,

  1. जब आप शॉर्ट करते हैं तो आपका नजरिया मंदी का होता है। शेयर या इंडेक्स नीचे जाने से आपको फायदा होता है। शॉर्ट करने के बाद भाव ऊपर जाने से आपको नुकसान होगा।
  2. जब आप शॉर्ट करते हैं तो बाजार का कोई दूसरा भागीदार आपको शेयर उधार दे रहा होता है, बस आपको बाद में शेयर दे कर उधार चुकाना होता है। लेकिन ये सब बैकएंड (Backend) सिस्टम में होता है।
  3. शॉर्ट करना काफी आसान होता है, बस आपको अपने ब्रोकर को फोन कर के शेयर को शॉर्ट करने को कहना होता है। या फिर आप खुद ऑनलाइन जा कर, शेयर चुनकर बेचने का सौदा कर सकते हैं। 
  4. अगर आप शॉर्ट करना चाहते हैं और शॉर्ट पोजीशन कुछ दिनों तक रखना चाहते हैं, तो बेहतर ये होगा कि ये सब वायदा बाजार (Derivative Market) में किया जाए।
  5. शॉर्ट करने वाले को कीमत नीचे जाने पर फायदा होता है और कीमत ऊपर जाने पर नुकसान। 
पोजीशन पहला सौदा दूसरा सौदा उम्मीद पैसा बनेगा जब पैसा डूबेगा जब
लाँग खरीदना बेचना तेजी शेयर ऊपर जाएगा शेयर नीचे जाएगा
शॉर्ट बेचना खरीदना मंदी शेयर नीचे जाएगा शेयर ऊपर जाएगा

स्कवेयर ऑफ (Square off) : स्कवेयर ऑफ का मतलब होता है कि आप अपनी पोजीशन खत्म करना चाहते हैं। अगर आप लाँग पोजीशन बना कर बैठे हैं तो आप स्कवेयर ऑफ करने के लिए शेयर बेच देते हैं। यहां आप शॉर्ट नहीं कर रहे अपने पास मौजूद पोजीशन को बेच रहे हैं। 

जब आप शॉर्ट पोजीशन को स्क्वेयर ऑफ करते हैं तो आप शेयर खरीदते हैं। यहां आप खरीद कर लाँग पोजीशन नहीं बना यहे हैं बल्कि आप शेयर खरीद कर शॉर्ट पोजीशन खत्म कर रहे हैं।

जब आप स्क्वेयर ऑफ करने पर
लाँग हैं शेयर बेचेंगे
शॉर्ट हैं शेयर खरीदेंगे

 

इन्ट्रा डे पोजीशन (Intra day position): जब आप ऐसी पोजीशन बनाते हैं जिसे आप उसी दिन स्क्वेयर ऑफ करना चाहते हैं तो ऐसी पोजीशन को इन्ट्रा डे पोजीशन कहते हैं। 

OHLC : ओ एच एल सी का मतलब है ओपन हाई लो क्लोज। इसके बारे में आप विस्तार से टेक्निकल एनालिसिस के मॉड्यूल में जानेंगे। अभी बस इतना समझ लीजिए कि शेयर का ओपन प्राइस यानी वो जहां खुला, जिस ऊँचाई तक उसकी कीमत गयी यानी हाई, जहाँ तक कीमत नीचे गयी यानी लो और बाजार बंद होते वक्त जो कीमत थी यानी क्लोज। जैसे 17 जून 2014 के दिन ACC का OHLC था 1486, 1511, 1467 और 1499। 

वॉल्यूम (Volume): किसी शेयर का वॉल्यूम किसी एक दिन उस शेयर में हुए कुल सौदों (बेचने और खरीदने दोनों) में शेयरों की संख्या को कहते हैं।  वॉल्यूम और शेयर कीमत पर इसके असर को समझना बहुत ज़रूरी है और इसे आप टेक्निकल एनालिसिस के मॉड्यूल में ज्यादा विस्तार से समझेंगे। 

मार्केट सेगमेंट (Market Segment):  बाजार के अलग अलग सेगमेंट होते है जिनमें अलग अलग तरह के वित्तीय सौदे होते हैं। सेगमेंट को रिस्क और रिवार्ड के आधार पर अलग अलग किया जाता है। एक्सचेंज में तीन मुख्य सेगमेंट होते हैं। 

  1. कैपिटल मार्केट (Capital Market) – इस सेगमेंट में शेयर, प्रेफरेंस शेयर, वारंट और एक्सचेंज ट्रेडेड फंड वगैरह खरीदे और बेचे जाते हैं। इस सेगमेंट को और हिस्सों में बाँटा जाता है। जैसे आम शेयरों को इक्विटी सेगमेंट में बेचा खरीदा जाता है। इस सेगमेंट को EQ निशान से पहचाना जा सकता है। अगर आप शेयरों को कैपिटल मार्केट सेगमेंट में खरीद बेच सकते हैं।
  2. फ्यूचर और ऑप्शंस (Futures and Options): फ्यूचर और ऑप्शंस सेगमेंट को शेयर वायदा बाजार कहते हैं। इस सेगमेंट में लीवरेज्ड प्रॉडक्ट के सौदे होते हैं। इस सेगमेंट को डेरिवेटिव माड्यूल में विस्तार से समझाया जाएगा।
  3. होलसेल डेट मार्केट (Whole sale debt market): बाजार के इस सेगमेंट में फिक्स्ड इन्कम प्रॉडक्ट के सौदे होते हैं, जैसे सरकारी या गवर्नमेंट सिक्योरिटीज, ट्रेजरी बिल्स, बॉन्ड्स और डिबेन्चर्स। 

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ट्रेडिंग टर्मिनल https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%97-%e0%a4%9f%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%b2/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%97-%e0%a4%9f%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%b2/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:57:40 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5684 9.1 संक्षिप्त विवरण जब कोई व्यक्ति बाज़ार में कारोबार या सौदा करना चाहता है, उसके सामने 3 विकल्प होते हैं।  अपने शेयर ब्रोकर को फोन करे, इस तरीके को कॉल एंड ट्रेड (Call & Trade) कहते हैं।  अपने कम्प्यूटर पर जेरोधा काइट जैसे किसी वेब एप्लीकेशन के रास्ते बाजार में सौदे करे।  किसी ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर […]

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9.1 संक्षिप्त विवरण

जब कोई व्यक्ति बाज़ार में कारोबार या सौदा करना चाहता है, उसके सामने 3 विकल्प होते हैं। 

  1. अपने शेयर ब्रोकर को फोन करे, इस तरीके को कॉल एंड ट्रेड (Call & Trade) कहते हैं। 
  2. अपने कम्प्यूटर पर जेरोधा काइट जैसे किसी वेब एप्लीकेशन के रास्ते बाजार में सौदे करे। 
  3. किसी ट्रेडिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करे जैसे पाई (Pi)

ये तीनों स्टॉक एक्सचेंज में घुसने के रास्ते हैं। इनके ज़रिए आप बहुत सारी चीजें कर सकते हैं, जैसे शेयरों की खरीद बिक्री, अपने फायदे-नुकसान का हिसाब किताब रखना, बाज़ार की चाल पर नज़र रखना, खबरों पर नज़र रखना, अपने फंड या पैसों को मैनेज करना, शेयरों के चार्ट देखना और ट्रेडिंग के तरीकों या टूल्स (tools) तक पहुंचना। इस अध्याय के ज़रिए हम आपको काइट (Kite) या इस तरह के दूसरे वेब प्लेटफॉर्म से आपको परिचित कराने की कोशिश करेंगे। 

ट्रेडिंग टर्मिनल तक पहुंचने के लिए आप अपने वेब ब्राउजर (Web Browser) में सीधे-सीधे URL यानी वेब एड्रेस भर सकते हैं। जेरोधा काइट के लिए URL है kite.zerodha.com। ये काफी सीधा-साधा ऐप्लीकेशन है। इसमें ज्यादातर काम दिए गए मेनू के ज़रिए कर सकते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि ट्रेडिंग टर्मिनल में पहुंचने के लिए आपके पास जरोधा का या किसी ब्रोकर का अकाउंट होना ज़रूरी है। 

एक अच्छा ट्रेडिंग टर्मिनल आपको बहुत सारी काम की सुविधाएं देता है। हम यहाँ पर कुछ एकदम ज़रूरी सुविधाओं को समझेंगे और ट्रेडिंग टर्मिनल के व्यवहारिक इस्तेमाल को समझने के लिए हम यहाँ पर दो काम करेंगे…

  1. ITC का एक शेयर खरीदना
  2. इंफोसिस के शेयर की कीमत को ट्रैक करना 

 

इसको करने के लिए और चीजों को अच्छे से समझने के लिए हम जेरोधा के काइट (Kite) प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करेंगे। 

 

9.2 लॉगइन (Login) करने की प्रक्रिया

ट्रेडिंग टर्मिनल में आपके ट्रेडिंग अकाउंट की सारी जानकारी होती है इसलिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण जगह है। इसलिए ब्रोकर आमतौर पर लॉगइन की प्रक्रिया को काफी कड़ा रखते हैं। इस प्रक्रिया के तहत आपको अपना पासवर्ड भरना पड़ता है और दो सीक्रेट या गुप्त सवालों के जवाब देने पड़ते हैं, जिनका जवाब आपके अलावा कोई नहीं जानता। इस प्रक्रिया के दो चित्र हम नीचे दे रहे हैं।  

 

9.3 बाज़ार पर नज़र

जब आप इस प्लेटफॉर्म पर लॉगइन करते हैं, तो आपको अपनी पसंद के शेयरों को एक लिस्ट में डालना होता है, जिसे मार्केट वाच (Market Watch) का नाम दिया गया है। आप यूं मान लिजिए कि आपको खाली स्लेट दी गई है जिसमें आप अपनी पसंद के शेयर लिख सकते हैं। एक बार आपने ये लिस्ट बना ली तो आप उन शेयरों में आसानी से सौदे कर सकते हैं और उनके बारे में जानकारी पा सकते हैं। एक खाली मार्केट वाच कैसा दिखता है, उसका सैंपलया नमूना नीचे दिया गया है ( याद रखें कि लॉगइन करते ही आपको यही स्क्रीन दिखाई देती है)

 

 

अपने पहले काम को ध्यान में रखते हुए हम सबसे पहले मार्केट वाच में ITC का शेयर लोड करेंगे। इसको करने के लिए सर्च बार (Search Bar ) में हमें ITC लिखना होगा और उसके बाद हमें ये शेयर अलग अलग एक्सचेंज- NSE और BSE पर दिखाई देगा। 

 

इसके बाद आप प्लस या जोड़ के चिह्न पर क्लिक करेंगे तो ये शेयर अपने आप मार्केट वाच में जुड़ जाएगा। 

 

मार्केट वाच में शेयर के अंतिम ट्रेड की कीमत और कीमत में प्रतिशत बदलाव दिखाई देगा। 

  • अंतिम ट्रेड में शेयर की कीमत यानी लास्ट ट्रेडेड प्राइस (Last traded price- LTP) – ये हमें बताता है कि इस समय शेयर की कीमत क्या चल रही है। 
  • प्रतिशत बदलाव- ये हमें बताता है कि पिछले दिन बाजार बंद होने पर शेयर की कीमत और अभी की कीमत में कितने प्रतिशत का बदलाव हुआ है। 

 

इस जगह पर हमें कुछ और जानकारी की ज़रूरत पड़ेगी। 

  • पिछले दिन का बंद भाव (Previous day close) – पिछले दिन ये स्टॉक किस कीमत पर बंद हुआ। 
  • OHLC (Open, High, Low, Close)- ये हमें बताता है कि शेयर आज किस दायरे में कारोबार कर रहा है। 
  • वॉल्यूम (Volume)- ये हमें बताता है कि किसी भी समय उस स्टॉक में कितने शेयरों का कारोबार हुआ है। 

आपको ये जानकारी मार्केट डेप्थ टैब ( Market Depth Tab) के अंदर मिल जाएगी। अगर आप शेयर के नाम के ऊपर अपना माउस (mouse) या कर्सर (Cursor) ले जाएंगे तो आपको buy, sell, market depth और stock information के टैब दिखाई देंगे। अगर आप market depth पर क्लिक करेंगे तो आपको ऊपर बताई गई जारी जानकारी मिल जाएगी। साथ ही आपको पांच सबसे अच्छी बिड (Bid) और आस्क (Ask) दिखाई देगी। बिड आपको बताता है कि बाज़ार में किस कीमत पर उस शेयर का खरीदार मौजूद है। सबसे ऊपर वाली बिड का मतलब है कि वो सबसे ऊंची कीमत है जिसपर खरीदार मौजूद है। इसी तरीके से आस्क का मतलब ये है कि ये वो सबसे नीचे कीमत है जिसपर बिकवाल- बेचने वाला – मौजूद है। आप देखेंगे की आस्क में कीमत सबसे ऊपर की कीमत सबसे कम होती है और नीचे की तरफ वो कीमत बढ़ती जाती है। इसी तरह से बिड में आपको दिखेगी कि सबसे ऊपर की कीमत सबसे ज्यादा है और जैसे जैसे आप नीचे जाएंगे, कीमत कम होती जाएगी। 

 

 

जैसा आप देख सकते हैं कि ITC का लास्ट ट्रेडेड प्राइस यानि LTP 262 रुपये 25 पैसे है। ये पिछले दिन के बंद भाव (263.30 रुपये) से 0.40% नीचे है। आज शेयर 265 रुपये 90 पैसे पर खुला और आज की अधिकतम कीमत 265 रुपये 90 पैसे और न्यूनतम कीमत 262 रुपये 15 पैसे है। आज शेयर का वॉल्यूम 27 लाख शेयर है। 

 

9.4 ट्रेडिंग टर्मिनल के ज़रिए शेयर की खरीद

हमें ITC का एक शेयर खरीदना है। ITC हमारे ट्रेडिंग टर्मिनल पर है। हमें लगता है कि ITC हमें 261 रुपये पर खरीदना चाहिए। जो कि लास्ट ट्रेडेड प्राइस से 1 रुपये 25 पैसे कम है। इसलिए ये एक अच्छी खरीद की कीमत हो सकती है। 

इस सौदे को पूरा करने के लिए हमें बाय ऑर्डर फॉर्म (Buy Order Form) भरना होगा। 

  • शेयर के नाम के ऊपर जाइए और बाय के चिह्न- B को दबा दीजिए। 
  • आपकी स्क्रीन पर एक फॉर्म आ जाएगा, जो बाय ऑर्डर फॉर्म (Buy Order Form) है। 

 

ये ऑर्डर फॉर्म पहले से भरी हुई कुछ सूचनाओं के साथ आता है जिसमें कीमत और शेयरों की संख्या भी भरी हो सकती है। हमें अपनी ज़रूरत के हिसाब से बदलाव करना होगा। दिए हुए ड्रॉप डाउन (Drop Down) विकल्पों में से पहला देखिए, उसमें एक्सचेंज के नाम के आगे NSE भरा होगा। दूसरी चीज़ होगी – ऑर्डर टाइप (Order Type)। इस पर क्लिक करने पर आपको 4 विकल्प दिखाई देंगे। 

  • लिमिट
  • मार्केट
  • SL
  • SL मार्केट

 

आइए समझते हैं कि इन विक्लपों का मतलब क्या है। 

 

आप लिमिट ऑर्डर (Limit Order) तब चुनते हैं जब आप निश्चित होते हैं कि मुझे शेयर इसी कीमत पर चाहिए। हमारे अपने उदाहरण के मुताबिक लास्ट ट्रेडेड प्राइस (LTP) 262 रुपये 25 पैसे है और मान लीजिए हम 261 रुपये प्रति शेयर के भाव पर खरीदना चाहते हैं। तो अब हमारी कीमत तय है, तो हम लिमिट ऑर्डर प्राइस डालेंगे। इसमें मुश्किल एक ही है कि अगर शेयर की कीमत गिर कर 261 रुपये पर नहीं आई, तो आपको शेयर नहीं मिलेंगे। 

 

आप मार्केट ऑर्डर (Market Order) भी डाल सकते हैं जब आपके दिमाग में शेयर की कोई कीमत तय नहीं है और आप उसे बाज़ार भाव पर खरीदना चाहते हैं। आप मार्केट ऑर्डर डालते हैं और अगर बाज़ार में कोई शेयर बेचने वाला है तो आपको शेयर तुरंत मिल जाएंगे। इस तरीके से आपको ITC का शेयर अपने लास्ट ट्रेडेड प्राइस (LTP) 262 रुपये 25 पैसे के आस पास मिल जाएगा। लेकिन हो सकता है कि आपके ऑर्डर डालने के साथ शेयर की कीमत बढ़कर 265 रुपये पहुंच चुकी हो, तो ऐसे में आपको ITC का शेयर 265 रुपये पर मिलेगा। इसका मतलब ये है कि जब आप मार्केट ऑर्डर डालते हैं, तो आपको ये पता नहीं होता कि शेयर किस कीमत पर मिलेगा। अगर आप एक्टिव ट्रेडर (Active Trader) हैं तो आपके लिए ये खतरनाक स्थिती हो सकती है। 

 

स्टॉप लॉस ऑर्डर आपको बाज़ार में बुरी परिस्थितियों से बचाता है। मान लीजिए आपने ITC का शेयर 262 रुपये 25 पैसे पर इस उम्मीद के साथ खरीदा कि शेयर 275 रुपये तक जाएगा। लेकिन अगर शेयर की कीमत गिरने लगी तो? हम अपने आपको नुकसान से बचा सकते हैं अगर हम ये तय कर लें कि हम ज्यादा से ज्यादा कितना नुकसान उठाने के लिए तैयार हैं। अपने उदाहरण में मान लीजिए कि आप 255 रुपये की कीमत से ज्यादा नुकसान उठाने के लिए तैयार नहीं है। 

 

इसका मतलब ये हुआ कि आपने 262 रुपये 25 पैसे पर शेयर खरीदा और आप 7 रुपये तक का नुकसान (255 रुपये) लेने को तैयार हैं। अगर शेयर की कीमत 255 रुपये तक गिर जाती है, तो आपका स्टॉप लॉस ऑर्डर एक्टिव हो जाएगा और आप नुकसान के सौदे बाहर निकल जाएंगे। जब तक कीमत 255 नहीं पहुंचती, तब तक आपका स्टॉप लॉस ऑर्डर एक्टिव नहीं होगा। 

 

स्टॉप लॉस ऑर्डर (Stop Loss Order ) एक निष्क्रिया ऑर्डर यानी पैसिव ऑर्डर (Passive Order ) है यानी इस ऑर्डर को सक्रिया यानी एक्टिव (Active) बनाने के लिए हमें एक ट्रिगर प्राइस (Trigger) डालना होता है। ये ट्रिगर प्राइस आपके स्टॉप लॉस कीमत से थोड़ा ऊपर होता है। और यही वो सीमा है जिसको पार करने के बाद स्टॉप लॉस ऑर्डर पैसिव से एक्टिव हो जाता है। 

अपने उदाहरण के मुताबिक हमने 261 रुपये पर शेयर खरीदा। मान लीजिए सौदा खराब हो जाता है,और हम 255 रुपये पर इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। तो हमारी स्टॉप लॉस कीमत हुई 255 रुपये। ट्रिगर प्राइस इसलिए दी जाती है क्योंकि इस कीमत पर हमारा स्टॉप लॉस ऑर्डर एक्टिव हो जाता है। ट्रिगर प्राइस हमेशा स्टॉप लॉस प्राइस से ऊपर या उसके बराबर होता है। इसको हम 255 रुपये या उसके ऊपर रख सकते हैं अगर शेयर की कीमत 255 के नीचे गिरती है, तो ये ऑर्डर एक्टिव हो जाएगा। 

अब हम अपने बाय ऑर्डर फॉर्म (Buy Order Form) पर दोबारा जाते हैं। ऑर्डर टाइप या ऑर्डर की किस्म हमने चुन ली है। अब हमें शेयरों की संख्या या क्वांटिटी चुननी होगी। आपको याद होगी कि हमें ITC का एक शेयर खरीदना है, तो हम क्वांटिटी के बॉक्स या डब्बे में 1 भरेंगे। इस समय हमें ट्रिंगर प्राइस पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। हमने अपनी संख्या लिख दी है, अब हमें प्रोडक्ट टाइप भरना है। 

डिलीवरी वाले सौदों में CNC को चुनना होगा। इसका मतलब है कि आप इस शेयर को खरीद कर कुछ दिनों या महीनों या सालों के लिए रखना चाहते हैं और आपको ये शेयर अपने डीमैट अकाउंट में चाहिए। CNC को चुन कर आप अपने ब्रोकर को अपनी ये इच्छा बताते हैं। 

अगर आप इंट्राडे ट्रेड (Intraday) करना चाहते हैं तो आप NRML या MIS चुनेंगे। MIS एक मार्जिन प्रोडक्ट है जिसके बारे में हम आगे डेरिवेटिव के मॉड्यूल में ज्यादा जानेंगे। 

एक बार ये सारी जानकारी भरने के बाद आपका फॉर्म बाज़ार में जाने के लिए तैयार है। जैसे ही आप Submit यानि जमा करें का बटन दबाएंगे, आपको एक ऑर्डर टिकट नंबर मिल जाएगा जो आपके ऑर्डर की पहचान होगा। 

जब ऑर्डर एक्सचेंज को भेजा जाता है, तो ये तुरंत पूरा नहीं होगा। ये पूरा होता है जब शेयर की कीमत 261 रुपये पर पहुंच जाती है। जैसे ही कीमत 261 रुपये तक पहुंचती है (और कोई 1 शेयर बेचने के लिए मौजूद है) आपका ऑर्डर पूरा हो जाता है और आपको ITC  का एक शेयर मिल जाएगा। 

 

9.5 ऑर्डर बुक (Order Book) और ट्रेड बुक (Trade Book)

ट्रेडिंग टर्मिनल में ऑर्डर बुक और ट्रेड बुक नाम के दो ऑनलाइन रजिस्टर होते हैं। ऑर्डर बुक आपके सभी ऑर्डर, जो आपने एक्सचेंज को भेजे हैं, उनको दिखाता है। ट्रेड बुक उन सौदों को दिखाता है जो उस दिन आपने किए हैं। ऑर्डर बुक में आपके ऑर्डर की सारी जानकारी होती है और आप यहाँ ऑर्डर्स टैब (Orders Tab) पर क्लिक करके पहुंच सकते हैं। 

 

 

ऑर्डर बुक में जाकर आप निम्न चीजें देख सकते हैं…

  • अपने ऑर्डर के सभी डीटेल्स जैसे शेयर की संख्या, कीमत, ऑर्डर टाइप और प्रोडक्ट टाइप। 
  • ऑर्डर में बदलाव या ऑर्डर में फेरबदल- उदाहरण के लिए अगर आप 333 रुपये की जगह 332 रुपये पर ऑर्डर करना चाहते हैं, तो आपको ऑर्डर बुक में ये बदलाव करना होगा। 
  • ऑर्डर के स्थिती की जानकारी- ऑर्डर देने के बाद आप उसकी स्थिती की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अगर ऑर्डर पूरा नहीं हुआ है, या आधा ही पूरा हुआ है तो स्थिती में ओपन (Open) दिखेगा। अगर ऑर्डर पूरा हो गया है तो कंप्लिटेड (Completed) यानी पूरा हुआ दिखेगा, और रिजेक्ट या रद्द होने पर रिजेक्टेड (Rejected) दिखेगा। रिजेक्शन के बारे में ज्यादा जानकारी भी आपको यहीं मिल जाएगी। 

आपको नीचे दिखेगा कि 261 रुपये पर ITC का एक शेयर खरीदने का ओपन ऑर्डर (Open Order) दिख रहा है। आप पेंडिंग ऑर्डर (Pending Order ) के ऊपर जाएंगे तो आपको ऑर्डर को बदलने या कैंसिल करने का विकल्प दिखेगा। 

 

अगर आप मॉडिफाई (Modify) का बटन दबाएंगे, तो आपका ऑर्डर फॉर्म फिर से सामने आ जाएगा जिसमें आप बदलाव कर सकेंगे। एक बार ऑर्डर पूरा हो जाए और ट्रेड हो जाए तो आपके सौदे की जानकारी ट्रेड बुक में दिखाई देगी। ट्रेड बुक, ऑर्डर बुक के ठीक नीचे होता है। 

ट्रेड बुक की एक तस्वीर नीचे देखें।  

 

ट्रेड बुक में दिख रहा है कि आपने ITC  का एक शेयर खरीदने का ऑर्डर 262 रुपये 20 पैसे पर पूरा किया। इसके साथ ही आपको एक्सचेंज की तरफ से दिया गया एक यूनिक एक्सचेंज ऑर्डर नंबर (Unique Exchange Order Number) दिखाई देगा। तो इस तरह से हमारा पहला काम पूरा हुआ। अब आप ITC का एक शेयर आधिकारिक तौर पर प्राप्त कर चुके हैं। ये शेयर तब तक आपके डीमैट अकाउंट में रहेगा, जब तक आप उसे बेच न दें। 

 

हमारा अगला काम था इंफोसिस के शेयर की कीमत को ट्रैक करना। इसके लिए पहला कदम होगा, इंफोसिस को मार्केट वाच () में डालना। आप सर्च बॉक्स में इंफोसिस को खोज कर ये कर सकते हैं। 

 

इंफोसिस का ट्रेडिंग सिंबल है INFY । आप जब INFY पर क्लिक करेंगे और एड (Add ) को दबाएंगे तो ये मार्केट वाच (Market Watch ) में जुड़ जाएगा। 

 

अब हम इंफोसिस के बारे में कुछ लाइव (LIVE) जानकारी ट्रैक कर सकते हैं। लास्ट ट्रेड प्राइस 1014.75 रुपये है, शेयर 0.11 परसेंट नीचे है, इसका पिछले दिन का क्लोजिंग प्राइस 1015.85 रुपये था। इंफोसिस आज 1014.80 रुपये पर खुला । इसने 998.40 रुपये के निचले स्तर और 1028.95 रुपये के ऊंचे स्तर को छुआ। शेयर का वॉल्यूम 36 लाख शेयर है। 

ध्यान दीजिए कि शेयर की ओपन प्राइस यानी खुलने वाली कीमत नहीं बदलती लेकिन सबसे ऊंची और सबसे नीची कीमत बदलती रहती हैं। उदाहरण के तौर पर अगर इंफोसिस का शेयर 1014.20 रुपये की जगह 1050 रुपये हो जाए, तो सबसे ऊंची कीमत 1050 रुपये दिखने लगेगी। 

आप देखेंगे कि इंफोसिस का LTP यानी लास्ट ट्रेड प्राइस  हरा दिख रहा है जबकि ITC का लाल। अगर मौजूदा LTP पिछले LTP से ज्यादा है, तो ये हरा दिखेगा, नहीं तो लाल। इसे फोटो में नीचे देखें। 

 

इंफोसिस की कीमत 1014.20 रुपये से बढ़कर 1020.80 रुपये हो गई है और इसलिए इसका रंग लाल से नीला/ हरा हो गया है। 

(The price of Infosys moved from 1014.20 to 1020.80, and hence the colour changed to red from blue.) NOTE: In the screen shot there is no blue colour. Should it be red to green? 

 

LTP, OHLC और वॉल्यूम जैसी जानकारियों के अलावा आप और गहरी जानकारी भी उस समय के बाज़ार के बारे में प्राप्त कर सकते हैं। इसको देखने के लिए आपको मार्केट डेप्थ (Market Depth ) को खोलना होगा जिसे स्नैप कोट विंडो (Snap Quote Window) भी कहते हैं। आप देख सकते हैं कि स्नैप कोट विंडो में बहुत सारी जानकारी है लेकिन आपको नीले रंग में दिखाई गई बिड कीमत और लाल रंग में दिखाई गई आस्क कीमत पर ध्यान देना चाहिए। 

 

जेरोधा के वेब प्लेटफॉर्म काइट (Kite) को और अच्छे से समझने और इस्तेमाल के लिए आप उसका यूजर मैनुअल देख सकते हैं। 

 

9.6 बिड और आस्क प्राइस या कीमत (The Bid and Ask Price)

अगर आपको को शेयर खरीदना है, तो किसी बेचने वाले से ही खरीदना होगा। बेचने वाला शेयर उस कीमत पर बेचेगा जो उसको सही लगे। जिस कीमत पर वो शेयर बेचना चाहता है यानि शेयर की जो कीमत वो मांग रहा है उसको आस्क प्राइस (Ask Price) कहते हैं। आस्क प्राइस लाल रंग में दिखाई गई है, इसको थोड़ा और गहराई से समझते हैं। 

क्रमांक आस्क प्राइस- बेचने की कीमत/बेचने वाला क्या कीमत मांग रहा है कितने शेयर हैं बेचने के लिए बेचने वालों की संख्या
1 3294.8 2 2
2 3294.85 4 2
3 3295 8 2
4 3296.2 25 1
5 3296.25 5 1

स्नैप कोट विंडो (Snap quote window) में ऊपर की 5 बिड और आस्क कीमतें या प्राइस दिखती हैं। ऊपर दिखाए गए टेबल या सारणी में आप 5 आस्क प्राइस देख सकते हैं। 

पहला आस्क प्राइस है 3294.80 रुपये। इस समय ये इंफोसिस को खरीदने की सबसे अच्छी कीमत है। और इस कीमत पर केवल 2 शेयर मिल रहे हैं और वो भी दो अलग-अलग लोगों के ज़रिए जो एक-एक शेयर बेचना चाहते हैं। इसके बाद की सबसे अच्छी कीमत है 3294.85 रुपये। इस कीमत पर 4 शेयर मिल रहे हैं जो 2 लोग बेच रहे हैं। तीसरी सबसे अच्छी कीमत है 3295 रुपये जिस पर 8 शेयर मिल रहे हैं और यहाँ भी 2 बेचने वाले हैं। इसी तरीके से ये क्रम आगे बढ़ता है। 

आपको दिख रहा होगा कि ऊंची आस्क प्राइस सबसे नीचे दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर, ऊपर की सारणी में पांचवें नंबर पर आस्क प्राइस है 3296.25 रुपये, और इस कीमत पर 5 शेयर मिल रहे हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि स्टॉक एक्सचेंज उन बेचने वालों को प्राथमिकता देते हैं जो अपने शेयर कम से कम कीमत पर बेचने को तैयार हैं। 

 

ये भी याद रखिए कि अगर आप 10 शेयर 3294.8 रुपये पर खरीदना चाहते हैं तो आपको केवर 2 ही शेयर मिलेंगे क्योंकि इस कीमत पर 2 ही शेयर बेचे जाने को तैयार हैं। लेकिन अगर आप कीमत को लेकर अड़े हुए नहीं हैं तो आप मार्केट ऑर्डर (Market Order) डाल सकते हैं। तब क्या होगा कि

  • 2 शेयर 3294.8 रुपये पर खरीदे जाएंगे 
  • 4 शेयर 3294.85 रुपये पर खरीदे जाएंगे
  • 4 शेयर 3295 रुपये पर खरीदे जाएंगे

तो ये 10 शेयर 3 अलग-अलग कीमतों पर खरीदे जाएंगे। इसी दौरान इंफोसिस का LTP 3294.8 से बढ़कर 3295 हो जाएगा। 

अब अगर आप शेयर बेचना चाहते हैं, तो आपको अपने शेयर किसी खरीदार को बेचने होंगे। वो आपको अपनी कीमत बताएगा जिसपर वो शेयर को खरीदना चाहता है। जिस कीमत पर खरीदार शेयर खरीदने को तैयार है उसे बिड प्राइस (Bid Price) कहते हैं। बिड प्राइस नीले रंग में दिखाया गया है। इसे ज़रा विस्तार से समझते हैं। 

क्रमांक बिड प्राइस- खरीदने वाला कितनी कीमत देने को तैयार है बिड क्वांटिटी- कितने शेयरों की मांग है खरीदार की संख्या
1 3294.75 10 5
2 3294.2 6 1
3 3294.15 1 1
4 3293.85 6 1
5 3293.75 125 1

 

स्नैप कोट विंडो (Snap quote window) ऊपर की पांच बिड कीमतें दिखाता है। आप देखेंगे कि सबसे अच्छी कीमत जिस पर कि शेयर बेचे जा सकते हैं वो 3294.75 रुपये है। लेकिन इस कीमत पर आप सिर्फ 10 शेयर बेच सकते हैं और सिर्फ 5 लोग इस कीमत पर शेयर खरीदने को तैयार हैं। अगर आपको इंफोसिस के 20 शेयर बेचने हैं और आप इसे मार्केट ऑर्डर के तौर पर बेचना चाहते हैं तो 

  • 10 शेयर 3294.75 पर बिकेंगे
  • 6 शेयर 3294.20 पर बिकेंगे
  • 1 शेयर 3294.15 पर बिकेगा
  • 3 शेयर 3293.85 पर बिकेंगे 

इसका मतलब है कि बिड और आस्क प्राइस में आपको उन पांच कीमतों के बारे में जानकारी मिलती है जहाँ पर बेचने वाला या खरीदने वाला मौजूद है। अगर आप इंट्राडे ट्रेडर (Intraday trader) हैं तो आपके लिए ये जानकारी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। 

 

9.7 निष्कर्ष 

ट्रेडिंग टर्मिनल बाजार में घुसने का रास्ता है। इसमें कई सुविधाएं होती हैं जो ट्रेडर के काम आती हैं। इन सुविधाओं के बारे में हम आगे भी जानते रहेंगे। अभी आपको मार्केट वाच, शेयर खरीदना और बेचना, ऑर्डर और ट्रेड बुक देखना और मार्केट डेप्थ विंडो को देखना समझ आ गया होगा। 

 


इस अध्याय की खास बातें

  1. ट्रेडिंग टर्मिनल बाजार में घुसने का रास्ता है। अगर आप सक्रिय या एक्टिव ट्रेडर बनना चाहते हैं, तो इसे आपको ध्यान से समझना होगा। 
  2. आप अपनी पसंद के शेयर को मार्केट वाच में डाल कर उससे जुड़ी सभी जानकारी पर नज़र रख सकते हैं। 
  3. मार्केट वाच पर कुछ खास जानकारियाँ मिलती हैं – LTP, OHLC, % बदलाव और वॉल्यूम 
  4. एक शेयर को खरीदने के लिए आपको बाय ऑर्डर फॉर्म भरना पड़ता है जो B Key दबा कर लाया जा सकता है। इसी तरह शेयर बेचने के लिए S Key दबा कर सेल ऑर्डर फॉर्म देखा जा सकता है। 
  5. जब आप एक खास कीमत पर ऑर्डर देना चाहते हैं, तो आप लिमिट ऑर्डर डालते हैं, नहीं तो मार्केट ऑर्डर डालते हैं। 
  6. अगर आप शेयर को खरीद कर रखना चाहते हैं, तो आप प्रोडक्ट टाइप में CNC डालते हैं और अगर इंट्राडे ट्रेड करना चाहते हैं, तो NRML या MIS डालते हैं। 
  7. ऑर्डर बुक में आप अपने ऑर्डर पर नज़र रख सकते हैं। ओपन ऑर्डर को ऑर्डर बुक में मॉडिफाई बटन दबा कर बदल सकते हैं। 
  8. ऑर्डर पूरा होने के बाद सौदे की जानकारी ट्रेड बुक में देख सकते हैं। मार्केट ऑर्डर की स्थिती में आप सौदे से जुड़ी हुई कीमत ट्रेड बुक में ही देख सकते हैं। 
  9. आप F6 बटन दबा कर मार्केट डेप्थ या स्नैप कोट विंडो खोल सकते हैं, जिसमें आप बिड और आस्क प्राइस देख पाएंगे। 
  10. बिड और आस्क प्राइस वो कीमतें हैं जिन पर आप सौदे कर सकते हैं। मार्केट डेप्थ विंडो में आप हर समय सबसे अच्छी 5 बिड और आस्क प्राइस या कीमतें देख सकते हैं। 

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10.1 संक्षिप्त विवरण

वैसे तो क्लियरिंग और सेटलमेंट बहुत ही सैधान्तिक विषय है लेकिन इसके पीछे की प्रक्रिया को समझना महत्वपूर्ण है।  एक ट्रेडर या निवेशक के तौर पर आपको ये चिंता करने की ज़रूरत नहीं होती कि आपका सौदा कैसे क्लियर या सेटल हो रहा है, क्योंकि एक अच्छा इंटरमीडियरी यानी मध्यस्थ ये काम कर रहा होता है और आपको ये पता भी नहीं चलता। 

लेकिन अगर आप इसको नहीं समझेंगे तो आपकी जानकारी अधूरी रहेगी इसलिए हम विषय को समझने की कोशिश करेंगे कि शेयर खरीदने से लेकर आपके डीमैट अकाउंट (DEMAT account) में आने तक क्या होता है। 

10.2 क्या होता है जब आप शेयर खरीदते हैं?

दिवस 1/ पहला दिन-  सौदे का दिन (T Day), सोमवार

मान लीजिए आपने 23 जून 2014 (सोमवार) को रिलायंस इंडस्ट्रीज के 100 शेयर 1000 रुपये के भाव पर खरीदे। आपके सौदे की कुल कीमत हुई 1 लाख रुपये (100*1000)। जिस दिन आप ये सौदा करते हैं उसे ट्रेड डे या टी डे (T Day) कहते हैं। 

दिन के अंत होने तक आपका ब्रोकर एक लाख रुपये और जो भी फीस होगी, वो आपसे ले लेगा। मान लीजिए आपने ये सौदा ज़ेरोधा पर किया, तो आपको निम्नलिखित फीस  या चार्जेज देनी होगी:

 

क्रमांक कितने तरह के चार्जेज कितना चार्ज रकम
1 ब्रोकरेज 0.03% या 20 रुपये- इनमें से जो भी इंट्राडे ट्रेड के लिए कम हो 0
2 सिक्योरिटी ट्रांजैक्शन चार्ज टर्नओवर का 0.1% 100/-
3 ट्रांजैक्शन चार्ज टर्नओवर का 0.00325% 3.25/-
4 GST ब्रोकरेज का 18% + ट्रांजैक्शन चार्ज 0.585/-
5 SEBI चार्ज 10 रुपये प्रति एक करोड़ के ट्रांजैक्शन पर 0.1/-
कुल 103.93/-

 

तो एक लाख रुपये के साथ 103.93 रुपये की फीस आपको देनी पड़ेगी, यानी कुल 100,103.93 रुपये की रकम आपके ट्रेडिंग अकाउंट से निकल जाएगी। याद रखिए कि पैसे निकल गए हैं लेकिन शेयर अभी आपके डीमैट अकाउंट (DEMAT account) में नहीं आए हैं।

उसी दिन ब्रोकर आपके लिए एक कॉन्ट्रैक्ट नोट (Contract Note) तैयार करता है और उसकी कॉपी आपको भेज देता है। ये नोट एक तरह का बिल है, जो आपके सौदौं की पूरी जानकारी देता है। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है और भविष्य में काम आता है। कॉन्ट्रैक्ट नोट में आमतौर पर उस दिन हुए सभी सौदे अपने ट्रेड रेफरेंस नंबर (Trade Reference Number) के साथ दिए गए होते हैं। साथ ही आपसे ली गई सभी फीस की जानकारी उसमें होती है। 

 

दिवस 2/दूसरा दिन- ट्रेड डे + 1 (T+ Day), मंगलवार

जिस दिन आपने सौदा किया उसका अगला दिन टी+1 डे (T+1 Day) कहलाता है। T+1 day को आप अपने शेयर बेच सकते हैं, जो आपने पिछले दिन खरीदे हैं। इस तरह के सौदे को BTST-Buy Today, Sell Tomorrow या ATST- Acquire Today, Sell Tomorrow कहते हैं। याद रखिए कि शेयर अभी भी आपके डीमैट अकाउंट में नहीं आए हैं। इसका मतलब आप ऐसे शेयर बेच रहे हैं, जो अभी तक आपके हुए नहीं है। इसमें एक रिस्क है। वैसे हर BTST सौदे में रिस्क नहीं होता, लेकिन अगर आप बी ग्रुप के शेयर या ऐसे शेयर जिनकी खरीद-बिक्री बहुत कम होती है, उनका सौदा कर रहे हैं, तो आप मुसीबत में फंस भी सकते हैं। अभी इस पूरे मसले को यहीं छोड़ देते हैं। 

अगर आप बाज़ार में नए हैं, तो आपके लिए बेहतर यही होगा कि आप BTST से दूर रहें क्योंकि आप उसके रिस्क को पूरे तरह से नहीं जानते। 

इसके अलावा आपके नजरिए से T+1 day का कोई खास महत्व नहीं है, हालांकि शेयर खरीदने के लिए दिए गए पैसे और सारी फीस सही जगह पहुंच रही होती है। 

 

दिवस 3/तीसरा दिन- ट्रेड डे + 2 (T+2 Day),  बुधवार

तीसरे दिन यानी T+2 day को दिन में करीब 11 बजे जिस आदमी ने आपको शेयर बेचे हैं उसके अकाउंट से शेयर निकल कर आपके ब्रोकर के अकाउंट में आ जाते हैं, और ब्रोकर यही शेयर शाम तक आपके अकाउंट में भेज देता है। इसी तरह जो पैसे आपके अकाउंट से निकले थे, वो उस इंसान के अकाउंट में पहुंच जाता है जिसने शेयर आपको बेचे। 

अब शेयर आपके डीमैट अकाउंट में दिखेंगे। आपके पास अब रिलायंस के 100 शेयर होंगे।

इस तरह T Day को खरीदे गए शेयर आपके अकाउंट में T+2 Day को आएंगे और T+3 Day को उनका सौदा फिर से कर पाएंगे। 

 

10.3 आप जब शेयर बेचते हैं, तब क्या होता है? 

जिस दिन आप शेयर बेचते हैं, वो ट्रेड डे (Trade Day ) कहते हैं, और इसे T Day लिखा जाता है। शेयर बेचते ही उतने शेयर आपके डीमैट अकाउंट में ब्लॉक हो जाते हैं। T+2 Day के पहले ये शेयर एक्सचेंज को दे दिए जाते हैं और T+2 Day को उन शेयरों की बिक्री से मिलने वाले पैसे, फीस और चार्जेज कट कर, आपके अकाउंट में आ जाते हैं। 


इस अध्याय की काम की बातें

  1. जिस दिन आप सौदा करते हैं, उसे ट्रेड डेट (Trade date) कहते हैं, और उसे T Day लिखा जाता है। 
  2. T Day के दिन जितने भी सौदे आप करते हैं, उसके लिए उस दिन के अंत में ब्रोकर आपको एक कॉन्ट्रैक्ट नोट देता है, या जारी करता है। 
  3. जब आप शेयर खरीदते हैं, तो आपके डीमैट अकाउंट में वो T+2 डे (T+2 Day) के अंत में आएगा। 
  4. भारत में सभी इक्विटी/स्टॉक सेटलमेंट T+2 के आधार पर होता है। 
  5. जब आप शेयर बेचते हैं, तो वो शेयर तुरंत ब्लॉक हो जाता है और राशि आपको T+2 डे (T+2 Day) को मिलेगी। 

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कंपनियों के पाँच फैसले और शेयर कीमतों पर उनका असर https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%81%e0%a4%9a-%e0%a4%ab%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a4%b2%e0%a5%87-%e0%a4%94%e0%a4%b0/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a4%82%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%81%e0%a4%9a-%e0%a4%ab%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a4%b2%e0%a5%87-%e0%a4%94%e0%a4%b0/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:57:32 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5688 11.1 -संक्षिप्त विवरण कंपनियों के कई फैसले उसके शेयरों पर असर डालते हैं। इन फैसलों को करीब से देखने पर आपको कंपनी की वित्तीय हालत सहित कई जानकारियां मिलती हैं। इन फैसलों के आधार पर आप कंपनी के शेयर बेचने और खरीदने का निर्णय भी कर सकते हैं।  इस अध्याय में हम कंपनियों के ऐसे […]

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11.1 -संक्षिप्त विवरण

कंपनियों के कई फैसले उसके शेयरों पर असर डालते हैं। इन फैसलों को करीब से देखने पर आपको कंपनी की वित्तीय हालत सहित कई जानकारियां मिलती हैं। इन फैसलों के आधार पर आप कंपनी के शेयर बेचने और खरीदने का निर्णय भी कर सकते हैं। 

इस अध्याय में हम कंपनियों के ऐसे ही पाँच महत्वपूर्ण फैसलों पर नज़र डालेंगे और शेयर कीमतों पर उनके असर को समझेंगे।

इस तरह के फैसले कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स लेते हैं (Board of Directors) और कंपनी के शेयरधारक उनको मंजूरी देते हैं। 

11.2 – डिविडेंड – Dividends

कंपनी को एक साल में जो मुनाफा होता है उसको शेयरधारकों में बाँटा जाता है और इसे ही डिविडेंड कहते हैं। कंपनी अपने शेयरधारकों को डिविडेंड देती हैं। डिविडेंड प्रति शेयर के आधार पर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर 2012-13 में इन्फोसिस ने हर शेयर पर 42 रुपये का डिविडेंड दिया था। डिविडेंड को शेयर के फेस वैल्यू के प्रतिशत के तौर पर भी देखा जाता है। जैसे इन्फोसिस के उदाहरण में शेयर की फेस वैल्यू 5 रुपये थी और डिविडेंड 42 रुपये, यानी कंपनी ने 840% का डिविडेंड दिया (42/5) । 

हर साल डिविडेंड देना कंपनी के लिए ज़रूरी नहीं होता। अगर कंपनी को लगता है कि साल का मुनाफा डिविडेंड के रूप में बाँटने की जगह उस पैसे का इस्तेमाल नए प्रॉजेक्ट और बेहतर भविष्य के लिए करना चाहिए तो कंपनी ऐसा कर सकती है।

डिविडेंड हमेशा मुनाफे में से ही नहीं दिया जाता। कई बार कंपनी को मुनाफा नहीं होता लेकिन उसके पास काफी नकद पड़ा होता है। ऐसी स्थिति में कंपनी उस नकद में से भी डिविडेंड दे सकती है। 

कभी कभी डिविडेंड देना कंपनी के लिए सबसे सही कदम होता है। जब कंपनी के पास कारोबार के विस्तार का कोई सही रास्ता नहीं होता और कंपनी के पास नकदी रकम पड़ी होती है, ऐसे में डिविडेंड दे कर शेयरधारकों को पुरस्कृत करना अच्छा होता है। इससे शेयरधारकों में कंपनी पर भरोसा बढ़ता है। 

 

डिविडेंड देने का फैसला ऐनुअल जनरल मीटिंग यानी AGM में लिया जाता है, जहाँ कंपनी के डायरेक्टर मिलते हैं। डिविडेंड देने की घोषणा होने के साथ ही डिविडेंड नहीं दिया जाता क्योंकि शेयर की खरीद बिक्री एक्सचेंज पर लगातार चल रही होती है और ऐसे में ये पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि डिविडेंड किसे दिया जाए और किसे नहीं। डिविडेंड की प्रक्रिया समझने के लिए इस चार्ट को देखिए

डिविडेंड डेक्लरेशन डेट (Dividend Declaration Date):  ये वो दिन है जब AGM की बैठक होती है और बोर्ड डिविडेंड को मंजूरी देता है।

रिकॉर्ड डेट (Record Date): ये वो दिन होता है जिस दिन कंपनी अपने रिकॉर्ड को देखती है और उसमें जिन शेयरधारकों के नाम होते हैं उन्हें डिविडेंड देने का फैसला करती है। आमतौर पर डिविडेंड की घोषणा और रिकॉर्ड डेट के बीच कम से कम 30 दिनों का फासला होता है।

एक्स डिविडेंड डेट (Ex Date/ Ex Dividend Date): ये आमतौर पर रिकॉर्ड डेट से दो कारोबारी दिन पहले का होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भारत में T+2 के आधार पर यानी सौदे के दो दिन बाद सेटेलमेंट होता है। तो अगर आपको डिविडेंड चाहिए तो आपको शेयर एक्स डिविडेंड डेट के पहले खरीदना होता है।

डिविडेंड पे आउट डे (Dividend Payout Date): इस दिन शेयरधारकों को डिविडेंड का भुगतान किया जाता है। 

कम डिविडेंड (Cum Dividend): एक्स डिविडेंड डेट तक शेयरों को कम डिविडेंड (Cum Dividend) कहा जाता है।

जब शेयर एक्स डिविडेंड हो जाता है तो उसकी कीमत में आमतौर पर डिविडेंड की राशि के बराबर की गिरावट आ जाती है। उदाहरण के तौर पर अगर ITC का शेयर 335 रुपये पर है और कंपनी ने 5 रुपये का डिविडेंड देने का ऐलान किया है तो एक्स डिविडेंड डेट पर शेयर की कीमत 330 रुपये तक गिर सकती है क्योंकि अब कंपनी के पास ये 5 रुपये नहीं हैं। 

डिविडेंड वित्त वर्ष के दौरान कभी भी दिया जा सकता है। अगर डिविडेंड साल के बीच में दिया गया तो उसे अंतरिम डिविडेंड और अगर साल के अंत में दिया गया तो फाइनल डिविडेंड कहा जाता है। 

11.3 -बोनस इश्यू

बोनस इश्यू एक तरह का स्टॉक डिविडेंड है जो कंपनी अपने शेयरधारकों को पुरस्कृत करने के लिए देती है। इसमें कंपनी डिविडेंड की तरह पैसे नहीं बल्कि शेयर देती है। ये शेयर कंपनी अपने रिजर्व से जारी करती है। बोनस शेयर मुफ्त में दिए जाते हैं और ये शेयरधारकों को इस आधार पर दिए जाते हैं कि उनके पास कंपनी के कितने शेयर मौजूद हैं। बोनस शेयर आमतौर पर एक खास अनुपात में जारी किए जाते हैं जैसे 1:1, 2:1, 3:1 आदि। 

अगर अनुपात 2:1   है तो शेयरधारक को हर एक शेयर के बदले में दो और शेयर मिलते हैं। मतलब कि अगर शेयरधारक के पास 100 शेयर हैं तो उसे 200 शेयर और मिलेंगे और उसके पास कुल 300 शेयर हो जाएंगे। इससे उसके पास शेयर तो बढ़ जाते हैं लेकिन उसकी निवेश की कीमत नहीं बढ़ती। 

इसे ठीक से समझने के लिए नीचे के चार्ट पर नजर डालिए। 

बोनस इश्यू बोनस के पहले शेयर संख्या बोनस के पहले शेयर कीमत निवेश की कीमत बोनस के बाद शेयर संख्या बोनस के बाद शेयर कीमत निवेश की कीमत
1:1 100 75 7500 200 37.5 7500
3:1 30 550 16500 120 137.5 16,500
5:1 2000 15 30000 12000 2.5 30000

डिविडेंड की ही तरह बोनस में भी अनाउंसमेंट डेट (Announcement Date) , एक्स बोनस डेट और रिकॉर्ड डेट होती है। 

कंपनियां शेयर में रिटेल निवेशक की भागीदारी बढाने के लिए भी बोनस इश्यू लाती हैं खासकर तब जब कि शेयर की कीमत काफी उपर पहुंच गई हो और छोटे निवेशक के लिए शेयर खरीदना मुश्किल हो रहा हो। बोनस इश्यू आने पर बाजार में शेयरों की संख्या बढ जाती है लेकिन उसकी कीमत गिर जाती है हालांकि शेयर का फेस वैल्यू नहीं बदलता।

11.4 स्टॉक स्प्लिट (Stock Split)

शेयर स्प्लिट यानी शेयर का हिस्सों में बंटना बाजार की एक आम घटना है। इसमें एक शेयर कुछ शेयरों में बदल जाता है। 

इसमें भी बोनस की तरह शेयरों की संख्या बढ़ जाती है लेकिन निवेश की कीमत और मार्केट कैपिटलाइजेशन नहीं बदलता। स्टॉक स्प्लिट शेयर के फेस वैल्यू से जुड़ी होती है। जैसे मान लीजिए शेयर की फेस वैल्यू 10 रुपये है और 1:2 के अनुपात में शेयर स्प्लिट होता है तो शेयर की फेस वैल्यू 5 रुपये हो जाएगी और अगर आपके पास एक शेयर था तो अब आपके पास दो शेयर हो जाएंगे। इस सारणी से आपको ये बात और साफ हो जाएगी। 

स्प्लिट अनुपात पुराना फेस वैल्यू स्प्लिट के पहले शेयर संख्या स्प्लिट के पहले शेयर कीमत निवेश की कीमत नया फेस वैल्यू स्प्लिट के बाद शेयर संख्या स्प्लिट के बाद शेयर कीमत स्प्लिट के बाद निवेश की कीमत
1:2 10 100 900 90,000 5 200 450 90,000
1:5 10 100 900 90,000 2 500 180 90,000

बोनस इश्यू की तरह ही स्टॉक स्प्लिट का इस्तेमाल भी और निवेशकों की भागीदारी बढ़ाने के लिए होता है।

11.5- राइट्स इश्यू

कंपनियां राइट्स इश्यू का इस्तेमाल पूंजी जुटाने के लिए करती हैं। अंतर बस इतना है कि जहाँ पब्लिक इश्यू नए निवेशक लाता है वहीं राइट्स इश्यू में मौजूदा शेयरधारकों से ही पैसा जुटाया जाता है। एक तरह से आप इसे कुछ खास लोगों (शेयरधारकों) के लिए लाया गया पब्लिक इश्यू मान सकते हैं। राइट्स इश्यू का मतलब होता है कि कंपनी कुछ नया काम करने जा रही है। पुराने शेयरधारक अपने पास मौजूद शेयरों के अनुपात में राइट्स इश्यू से शेयर खरीद सकते हैं। उदाहरण के तौर पर 1:4 के राइट्स इश्यू का मतलब होता है कि अगर आपके पास 4 शेयर हैं तो आप एक और शेयर खरीद सकतें हैं। एक खास बात ये कि राइट्स इश्यू में शेयर बाजार भाव से नीचे मिलते हैं। 

वैसे निवेशकों को केवल शेयर की कीमत पर मिल रही छूट नहीं देखनी चाहिए। ये बोनस शेयर नहीं है यहाँ आप शेयर के लिए पैसे दे रहे हैं और इसीलिए आपको पैसे तभी लगाने चाहिए जब आप कंपनी के भविष्य को ले कर संतुष्ट हों। 

एक और बात, अगर राइट्स इश्यू के पहले बाजार में शेयर की कीमत गिर जाती है और राइट्स इश्यू की इश्यू कीमत से नीचे चली जाए तो शेयर को बाजार से खरीदना ज्यादा ठीक रहेगा।

11.6- शेयर बाय बैक (Buyback of Shares)

बाय बैक में कंपनी अपने शेयर बाजार से खुद खरीदती है। इसे कंपनी के खुद में निवेश के तौर पर देखा जा सकता है। बाय बैक से बाजार में कंपनी के शेयरों की संख्या कम हो जाती है। इसे कारपोरेट फेरबदल का भी एक तरीका माना जाता है। बाय बैक की और भी बहुत सारी वजहें हो सकती हैं..

 

  1. प्रति शेयर मुनाफा ज्यादा बढ़ाना 
  2. कंपनी में प्रमोटर का हिस्सा बढ़ाना
  3. किसी और के टेक ओवर यानी कब्जा करने से बचना
  4. कंपनी को ले कर प्रमोटर के आत्मविश्वास को दिखाना
  5. शेयर कीमत में आ रही गिरावट को रोकना

बायबैक कंपनी के आत्मविश्वास को दिखाता है इसलिए इसकी घोषणा से शेयर की कीमत ऊपर जाती है।


इस अध्याय की खास बातें

  1. कंपनियों के फैसले शेयर कीमत पर असर डालते हैं
  2. डिविडेंड के जरिए शेयरधारकों को पुरस्कृत किया जाता है, डिविडेंड को फेस वैल्यू के प्रतिशत में दिया जाता है।
  3. किसी कंपनी से डिविडेंड पाने के लिए आपके पास कंपनी का शेयर एक्स डिविडेंड डेट के पहले होना चाहिए।
  4. बोनस शेयर एक तरह से स्टॉक डिविडेंड है। कंपनी बोनस शेयर के तौर पर और शेयर दे कर अपने शेयरधारकों को पुरस्कार देती है।
  5. स्टॉक स्प्लिट में शेयर की फेस वैल्यू बदल जाती है, इसी के अनुपात में शेयर की कीमत भी बदल जाती है।
  6. कंपनी राइट्स इश्यू ला कर अतिरिक्त पूंजी जुटाती है। इसमें कंपनी के मौजूदा शेययधारक पैसा लगाते हैं। आपको राइट्स इश्यू में तभी पैसा लगाना चाहिए जब आप कंपनी के भविष्य को ले कर आश्वस्त हों।
  7. बाय बैक कंपनी के आत्मविश्वास को दिखाता है और कंपनी के प्रमोटर का भरोसा भी।

 

 

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कुछ आर्थिक घटनाएं और बाजार पर उनका असर https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%9b-%e0%a4%86%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%98%e0%a4%9f%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%8f%e0%a4%82-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%be/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%95%e0%a5%81%e0%a4%9b-%e0%a4%86%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%98%e0%a4%9f%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%8f%e0%a4%82-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%be/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:56:41 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5690   12.1- संक्षिप्त विवरण शेयर बाजार में सफल होने के लिए आपको सिर्फ कंपनी के नतीजों को ही नहीं देखना होता, आपको उन घटनाओं पर भी नजर रखना होता है जो बाजार पर असर डालती हैं। बहुत सारी वित्तीय और गैर वित्तीय घटनाएं ऐसी हैं जिन का असर बाजार पर पड़ता है। इस अध्याय में […]

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12.1- संक्षिप्त विवरण

शेयर बाजार में सफल होने के लिए आपको सिर्फ कंपनी के नतीजों को ही नहीं देखना होता, आपको उन घटनाओं पर भी नजर रखना होता है जो बाजार पर असर डालती हैं। बहुत सारी वित्तीय और गैर वित्तीय घटनाएं ऐसी हैं जिन का असर बाजार पर पड़ता है। इस अध्याय में हम ऐसी कुछ घटनाओं पर नजर डालेंगे।

 

12. 2- मौद्रिक नीति यानी मॉनिटरी पॉलिसी (Monetary Policy)

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई (RBI ) मॉनिटरी पॉलिसी लाकर बाजार में पैसे की सप्लाई को नियंत्रित करता है और इस के लिए वह ब्याज दरों का इस्तेमाल करता है। आरबीआई ब्याज दरों में फेरबदल करता है जिससे नकदी की सप्लाई बढ़ या घट जाती है। आरबीआई भारत का का सेंट्रल बैंक है, दुनिया के हर देश में वहाँ का सेंट्रल बैंक ब्याज दरों को निर्धारित करता है।

ब्याज दरों को तय करते हुए आरबीआई को यह भी देखना होता है कि विकास में और मुद्रास्फीति में संतुलन बना रहे।  

ब्याज दरें ऊपर रहेंगी तो कंपनियों के लिए कर्ज लेना मुश्किल हो जाएगा और कर्ज नहीं मिलेगा तो कंपनियों का विस्तार नहीं होगा। इस तरह की तरफ से अर्थव्यवस्था धीमी पड़ जाएगी।

दूसरी तरफ, अगर ब्याज दरें कम रहेंगी तो कर्ज मिलना आसान हो जाएगा इसका मतलब है कि कंपनियों के हाथ में और ग्राहकों के हाथ में भी ज्यादा नकद रहेगा। जब लोगों के हाथ में ज्यादा पैसे होंगे तो वह ज्यादा खर्च करेंगे। इसका फायदा उठाने के लिए माल बेचने वाले अपनी कीमत बढ़ा देते हैं। कीमत में बढ़ोत्तरी से बाजार में मुद्रास्फीति की स्थिति आ सकती है।

विकास और मुद्रास्फीति के इसी संतुलन को बनाए रखने के लिए आरबीआई बहुत सारी चीजों पर विचार करके ही ब्याज दरें तय करती है। अगर ये दरें संतुलित नहीं रही तो अर्थव्यवस्था में गड़बड़ी आ सकती है। आरबीआई की जिन दरों पर आपको नजर रखनी चाहिए वो हैं:

रेपो रेट (Repo Rate)- बैंकों को जब कर्ज चाहिए होता है तो वह आरबीआई से कर्ज लेते हैं। आरबीआई जिस दर पर बैंकों को कर्ज देता है उस दर को रेपो रेट कहा जाता है। अगर रेपो रेट ऊँचा है तो कर्ज लेना महंगा होगा और कम कर्ज लिया जाएगा। इससे विकास की रफ्तार धीमी पड़ सकती है। अभी भारत में रेपो रेट 8% है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई द्वारा रेपो रेट बढ़ाया जाना बैंकों को पसंद नहीं आता है।

रिवर्स रेपो रेट (Reverse Repo Rate)- रिवर्स रेपो रेट वह ब्याज दर है जिस दर पर आरबीआई बैंकों से कर्ज लेता है। जब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया बैंकों से कर्ज लेता है तो बैंक खुशी-खुशी से कर्ज दे देते हैं क्योंकि उनको पता है कि आरबीआई डिफॉल्ट नहीं करेगा यानी ऐसा नहीं होगा कि आरबीआई कर्ज का भुगतान न करे, जबकि कंपनियों या कॉरपोरेट को कर्ज देने के समय डिफॉल्ट का खतरा बना रहता है। लेकिन जब बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को कर्ज दे देते हैं तो बाजार में नकदी की सप्लाई कम हो जाती है। इससे कंपनियों को कर्ज मिलने में मुश्किल होने लगती है। रिवर्स रेपो रेट की दर का ऊंचा होना अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं माना जाता है क्योंकि इससे कंपनियों को कर्ज मिलने में मुश्किल होती है। अभी भारत में रिवर्स रेपो रेट की दर 7 परसेंट है।

कैश रिजर्व रेश्यो ( Cash Reserve Ratio- CRR)- हर बैंक को आरबीआई के पास कुछ नकदी रखनी होती है यह रकम कितनी होगी, यह इस बात पर निर्भर करती है कि सीआरआर – CRR यानी कैश रिजर्व रेश्यो कितना है अगर कैश रिजर्व रेश्यो ज्यादा होता है तो ज्यादा नकदी बाजार से निकलकर आरबीआई के पास चली जाती है। ऐसा होना अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं माना जाता है।

आरबीआई हर 2 महीने पर इन दरों में बदलाव पर विचार करता है। शेयर बाजार इस बैठक और इसके फैसलों पर नजर रखता है। रेट सेंसिटिव यानी ब्याज दरों से प्रभावित होने वाले शेयर आरबीआई के इस फैसले से प्रभावित होते हैं, इनमें बैंकिंग सेक्टर, ऑटोमोबाइल सेक्टर, हाउसिंग फाइनेंस और रियल एस्टेट जैसे सेक्टर शामिल हैं।

12.3 मुद्रास्फीति (Inflation) 

वस्तुओं और सेवाओं की कीमत में होने वाली लगातार बढ़ोतरी को मुद्रास्फीति (Inflation) कहते हैं। मुद्रास्फीति ऊपर होने पर रुपये की खरीदने की ताकत कम हो जाती है यानी हर एक रुपये से कम सामान या सेवाएं खरीदी जा सकती हैं। अगर देश में और कुछ नहीं बदला है और प्याज की कीमतें 15 रुपये से बढ़कर 20 रुपये हो गई हैं तो मुद्रास्फीति को इस की वजह माना जाता है। मुद्रास्फीति एक आम घटना है लेकिन ऊंची मुद्रास्फीति की दर को अच्छा नहीं माना जाता है। इसकी वजह से अर्थव्यवस्था में दबाव आ जाता है। सरकार हमेशा कोशिश करती है कि मुद्रास्फीति की दर एक निश्चित सीमा से ऊपर ना हो पाए। मुद्रास्फीति को नापने के लिए एक इंडेक्स का इस्तेमाल किया जाता है उस इंडेक्स में कितने प्रतिशत की बढ़ोतरी या कमी हुई है उसी के आधार पर मुद्रास्फीति को ऊपर या नीचे जाता हुआ बताया जाता है।

मुद्रास्फीति को नापने वाले इंडेक्स 2 तरीके के होते हैं – होलसेल प्राइस इंडेक्स यानी डब्लू पी आई (WPI) और कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स यानी सी पी आई (CPI).

होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI)- होलसेल प्राइस इंडेक्स कीमत में होलसेल यानी थोक स्तर पर होने वाले बदलाव को बताता है। यह उस कीमत को ट्रैक करता है जिस कीमत पर एक संस्था या कंपनी दूसरी संस्था या कंपनी को सामान बेचती है। यह इंडेक्स ग्राहक यानी कंज्यूमर को मिलने वाली कीमत को ट्रैक नहीं करता। होलसेल यानी थोक बाजार में इन्फ्लेशन यानी महंगाई नापने के लिए होलसेल प्राइस इंडेक्स यानी डब्ल्यू पी आई (WPI) एक आसान तरीका है। लेकिन इससे उस इन्फ्लेशन का पता नहीं चलता जो कंज्यूमर यानी ग्राहक के लिए है।

इस अध्याय को लिखते वक्त मई 2014 के लिए डब्लू पी आई 6.01% था।

कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सी पी आई/ CPI)-  कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स या सी पी आई रिटेल यानी खुदरा बाजार में कीमत के बदलाव को ट्रैक करता है। एक ग्राहक के लिए या आम आदमी के लिए सीपीआई या कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स ही महत्वपूर्ण होता है। कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स को नापने के लिए बहुत सारी गणनाएं करनी पड़ती है क्योंकि इसमें उपभोग को ग्रामीण और शहरी तथा इस तरह की और बहुत सारे वर्गों में बांटा जाता है। इस तरह के हर वर्ग का अपना एक इंडेक्स होता है और इन सारे इंडेक्स को मिलाकर एक कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स यानी सीपीआई तैयार किया जाता है।

कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स में बहुत सारी जानकारियां होती हैं। अर्थव्यवस्था का हाल जानने के लिए यह एक बहुत महत्वपूर्ण सूचकांक है। राष्ट्रीय स्तर पर सांख्यिकी और प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन मंत्रालय हर महीने के दूसरे सप्ताह में सीपीआई(CPI) के नंबर जारी करता है।

2014 के मई महीने का कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स 8.28% था। इसके पिछले एक साल की मुद्रास्फीति इस सारणी में दी गई है।

जैसा कि आप देख सकते हैं कि नवंबर 2013 के अपने 11.16% ऊंचाई से सीपीआई इन्फ्लेशन नीचे आ गया है। आरबीआई यानी रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि मुद्रास्फीति यानी इंफ्लेशन और ब्याज दरों के बीच में कैसे संतुलन बनाया जाए। कम ब्याज दर मुद्रास्फीति को बढ़ाती हैं और ऊंची ब्याज दरें मुद्रास्फीति को बढ़ने से रोकती हैं।

12.4 – औद्योगिक उत्पादन दर  (Index of Industrial Production-IIP)

औद्योगिक उत्पादन दर यानी आईआईपी यह बताता है कि छोटी अवधि यानी शॉर्ट टर्म में देश का औद्योगिक क्षेत्र कैसा काम कर रहा है। आईआईपी के आंकड़े भी हर महीने मुद्रास्फीति के आंकड़ों के साथ ही जारी किए जाते हैं। यह आंकड़े भी सांख्यिकी और प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन मंत्रालय जारी करता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है आईआईपी देश में उद्योग क्षेत्र के उत्पादन को बताता है। आईआईपी में उत्पादन को एक निश्चित पैमाने के आधार पर नापा जाता है। अभी भारत में 200405 के उत्पादन को पैमाना माना जाता है। इस पैमाने को बेस ईयर (Base Year) कहते हैं।

करीब 15 तरीके के उद्योग, मंत्रालय को अपने उत्पादन का डाटा देते हैं। मंत्रालय इन आंकड़ों को इकट्ठा करके आईआईपी इंडेक्स बनाता है और उसे जारी करता है। अगर आईआईपी बढ़ता है तो यह माना जाता है कि देश में उद्योग के लिए अच्छा वातावरण है क्योंकि उत्पादन बढ़ा है। बाजार और अर्थव्यवस्था दोनों इसे अच्छा मानते हैं। आईआईपी के घटने को अच्छा नहीं माना जाता है। इसे इस बात का संकेत माना जाता है कि देश में उत्पादन के लिए अच्छा माहौल नहीं है और इसे अर्थव्यवस्था और बाजार दोनों के लिए खराब माना जाता है।

कुल मिलाकर आईआईपी में बढ़ोतरी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है और इसमें गिरावट एक बुरा संकेत माना जाता है। भारत में जैसे-जैसे औद्योगिकीकरण बढ़ रहा है वैसे वैसे आईआईपी का महत्व भी बढ़ता जा रहा है।

 आईआईपी का कम होना आरबीआई यानी रिजर्व बैंक पर यह दबाव बनाता है कि वो ब्याज दरें कम करे।

 नीचे का ग्राफ पिछले 1 साल में आईआईपी में हुए बदलाव को दिखाता है।

12.5- परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (Purchasing Manager Index/ PMI)

परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स यानी PMI एक ऐसा सूचकांक है जो उत्पादन और सर्विस सेक्टर में होने वाली कारोबारी गतिविधियों को बताता है। यह सूचकांक एक सर्वे के आधार पर बनाया जाता है। इसमें उन लोगों से राय ली जाती है जो आमतौर पर कंपनियों के लिए माल खरीदते हैं। यह लोग, पिछले महीने के मुकाबले इस महीने में क्या बदलाव आया है उस पर अपना आकलन देते हैं। उत्पादन सेक्टर के लिए अलग से सर्वे किया जाता है और सर्विस सेक्टर के लिए अलग सर्वे किया जाता है। बाद में दोनों सेक्टर के सर्वे को मिलाकर एक इंडेक्स तैयार किया जाता है। इस सर्वे में आमतौर पर नए ऑर्डर, उत्पादन, कारोबार से जुड़ी उम्मीदें और रोजगार के बारे में पूछताछ की जाती है।

PMI का आंकड़ा आमतौर पर 50 के आस-पास होता है 50 के ऊपर होने पर यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था बढ़ रही है 50 के नीचे आंकड़ा होने पर यह माना जाता है अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है। 50 के आंकड़े का मतलब है कि अर्थव्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

12.6- बजट (Budget)

बजट एक ऐसी घटना है जिसमें वित्त मंत्रालय देश की आर्थिक हालत पर विस्तार से चर्चा करता है। वित्त मंत्रालय की तरफ से वित्त मंत्री देश के सामने बजट रखते हैं। बजट भाषण में कई तरीके के नीतिगत फैसले और आर्थिक सुधारों का एलान किया जाता है जिसका उद्योगों पर और बाजार का सीधा सीधा असर पड़ता है। इसीलिए बजट अर्थव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है।

इसको थोड़ा और अच्छे से समझने की कोशिश करते हैं। 2014 के बजट में यह उम्मीद की जा रही थी कि सिगरेट पर ड्यूटी और बढ़ेगी। जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ और वित्त मंत्री ने सिगरेट पर ड्यूटी बढ़ाने का ऐलान कर दिया। इसकी वजह से सिगरेट की कीमतें बढ़ गईं। सिगरेट की कीमतें बढ़ने का असर होगा कि 

  1. सिगरेट की कीमतें बढ़ने की वजह से कुछ लोग सिगरेट पीना बंद कर देंगे (हालांकि इस बात पर बहस हो सकती है कि यह सच है या नहीं) । इसकी वजह से सिगरेट बनाने वाली कंपनी जैसे ITC का मुनाफा कम हो जाएगा। कंपनी का मुनाफा घट जाने की हालत में लोग ITC (आईटीसी) के शेयर बेचेंगे। 
  2. अगर लोगों ने ITC का शेयर बेचा तो बाजार नीचे आएगा क्योंकि ITC  का बाजार के इंडेक्स में काफी ज्यादा वेटेज (वजन) है।

वास्तव में बजट में ड्यूटी बढ़ने के ऐलान के बाद ITC  का शेयर 3.5% नीचे आ गया।

बजट एक वार्षिक घटना है। इसे फरवरी के महीने में पेश किया जाता है। कभी कभी नई सरकार बनने से इसमें कुछ देरी भी हो सकती है।

12.7-   कंपनियों के वित्तीय नतीजों का ऐलान (Corporate Earnings Announcement)

कंपनी के कारोबारी नतीजों का ऐलान शायद वह सबसे बड़ी घटना होती है जिस पर शेयर बाजार तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देता है। शेयर बाजार में लिस्टेड हर कंपनी को हर तीसरे महीने यानी हर क्वार्टर में अपने कारोबारी नतीजे पेश करने पड़ते हैं। इन तिमाही नतीजों के दौरान कंपनियां अपने कारोबार से जुड़ी तमाम जानकारियां विस्तार से देती हैं जैसे…

  1. कंपनी को कितनी आमदनी हुई?
  2. कंपनी ने अपने खर्चों को किस तरीके से चलाया?
  3. कंपनी ने टैक्स और ब्याज दरों के तौर पर कितना पैसा अदा किया?
  4. कंपनी ने क्वार्टर यानी तिमाही में कितना मुनाफा कमाया?

इसके अलावा कुछ कंपनियां यह भी बताती हैं कि आने वाले कुछ तिमाही में उनका कारोबार कैसा रहने की उम्मीद है, इसे कॉरपोरेट गाइडेंस भी कहते हैं।

हर तिमाही में सबसे पहले नतीजे पेश करने वाली ब्लू चिप कंपनी इंफोसिस लिमिटेड होती है। इंफोसिस हमेशा कॉरपोरेट गाइडेंस भी देती है। बाजार के सभी खिलाड़ी इंफोसिस के नतीजों और उसके गाइडेंस को बहुत ही ज्यादा ध्यान से सुनते हैं क्योंकि इसका पूरे बाजार पर काफी असर पड़ता है।

नीचे की सारणी में तिमाही कारोबारी नतीजे को दिखाया गया है:

क्रम सं महीने तिमाही नतीजों का ऐलान
1 अप्रैल से जून पहली(Q1) जुलाई का पहलासप्ताह
2 जुलाई से सेप्टेंबर दूसरी(Q2) अक्टूबर का पहलासप्ताह
3 अक्टूबर से दिसंबर तीसरी(Q3) जनवरी का पहलासप्ताह
4 जनवरी से मार्च चौथी4 (Q4) अप्रैल का पहलासप्ताह

हर तिमाही में जब कंपनी अपने नतीजों का ऐलान करती है तो बाजार के कारोबारी उन नतीजों को अपने अनुमान से मिलाते हैं। बाजार के इन अनुमानों को बाजार का अनुमान या मार्केट एक्सपेक्टेशन (Market Expectation) कहते हैं।

 अगर कंपनी के नतीजे बाजार के अनुमान से अच्छे होते हैं तो कंपनी का शेयर चढ़ता है। इसी तरीके से अगर कंपनी के नतीजे बाजार के अनुमान से कम होते हैं तो शेयर गिरता है।

 अगर नतीजे बाजार के अनुमान के आसपास ही रहते हैं तो शेयर की कीमत में ज्यादा बदलाव नहीं होता क्योंकि बाजार के खिलाड़ियों को लगता है कि कंपनी ने  कोई ऐसी खबर नहीं दी जिससे निवेशकों का उत्साह बढ़े।

इस अध्याय की खास बातें

  1. बाजार और शेयर दोनों ही आर्थिक घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते हैं। बाजार से जुड़े लोगों को इन घटनाओं और उनके परिणामों को समझना आना चाहिए। 
  2.  मॉनिटरी पॉलिसी अर्थव्यवस्था से जुड़ी एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है। इस पॉलिसी में रेपो, रिवर्स रेपो, CRR आदि के रेट की समीक्षा की जाती है। जरूरत पड़ने पर नए रेट का ऐलान भी किया जाता है।
  3.  ब्याज दरें और मुद्रास्फीति एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अगर ब्याज दरें बढ़ती हैं तो मुद्रास्फीति कम होती है और ब्याज दरें कम होने पर मुद्रास्फीति बढ़ सकती है।
  4.  मुद्रास्फीति का आंकड़ा हर महीने सांख्यिकी और प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन मंत्रालय जारी करता है। एक ग्राहक के तौर पर आपको CPI पर ध्यान देना चाहिए।
  5. आईआईपी (IIP) औद्योगिक उत्पादन को नापता है आईआईपी ऊपर जाने से बाजार खुश होता है और आईआईपी (IIP) के गिरने से बाजार में निराशा फैलती है
  6.  पीएमआई (PMI) सर्वे के आधार पर कारोबार का मूड या मनोदशा नापता है। पीएमआई (PMI) का नंबर 50 से ऊपर होना अच्छा माना जाता है और पीएमआई (PMI) का नंबर 50 से नीचे होना बुरा माना जाता है।
  7. बजट एक महत्वपूर्ण घटना है जिसमें नीतिगत फैसले और आर्थिक सुधारों के बारे में ऐलान किया जाता है। बाजार और शेयर दोनों ही बजट घोषणाओं पर तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं।
  8. कॉरपोरेट यानी कंपनियों के नतीजे हर तिमाही पेश किए जाते हैं। कंपनी के नतीजे और बाजार की उम्मीद एक जैसे ना होने पर शेयर में उतार चढ़ाव आता है।

 

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IPO, OFS और FPO- क्या है अंतर?

आईपीओ  (IPO)

आईपीओ (IPO) के जरिए कंपनी पहली बार शेयर बाजार में लिस्ट होने के लिए आती है शेयर बाजार में लिस्ट होने के बाद शेयरों में हर दिन खरीद बिक्री हो सकती है। IPO में कंपनी के प्रमोटर कंपनी के कुछ प्रतिशत शेयर आम जनता को बेचते हैं। IPO लाने की वजहों के बारे में हम अध्याय 4 और 5 में विस्तार से बात कर चुके हैं।

IPO लाने की मुख्य वजह कंपनी के लिए पूंजी जुटाना होता है। इससे कंपनी अपना विस्तार कर सकती है। IPO के जरिए कंपनी के पुराने निवेशकों को अपना निवेश निकालने का एक रास्ता भी मिलता है।  IPO आने के बाद और सेकेंडरी बाजार में कंपनी के शेयरों की खरीद बिक्री शुरू होने के बाद भी प्रमोटर को और पूंजी की जरूरत पड़ सकती है। जिसके लिए उसके सामने तीन रास्ते होते हैं राइट्स इश्यू,  ऑफर फॉर सेल (Offer for Sale-OFS),  और फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर (Follow-on Public Offer-FPO).

राइट्स इश्यू (Rights Issue)

प्रमोटर अपने मौजूदा शेयरधारकों को और नए शेयर देकर और पूंजी जुटा सकता है। राइट्स इश्यू में यह नए शेयर बाजार के मौजूदा कीमत से कम दाम पर दिए जाते हैं। पुराने शेयर धारकों को नए शेयर उनके पास अभी मौजूद शेयरों की संख्या के अनुपात में दिए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर 4:1 के राइट इश्यू में हर चार शेयरों के बदले में उन को एक अतिरिक्त शेयर दिया जाएगा। देखने में पूंजी जुटाने का यह एक अच्छा तरीका लगता है लेकिन इसमें कंपनी के पास बहुत कम लोगों से ही पैसे जुटाने का रास्ता होता है। यह भी हो सकता है कि पुराने शेयर धारक और पैसा ना लगाना चाहें। राइट इश्यू के आने से पुराने शेयरधारकों के लिए उनके पहले के शेयरों की कीमत कम हो जाती है।

राइट्स इश्यू का एक उदाहरण है साउथ इंडियन बैंक का जिसने 1:3 का इश्यू किया। इसमें मौजूदा शेयरधारकों 14 रुपये के कीमत पर शेयर दिए गए जो कि बाजार की कीमत( रिकार्ड डेट 17 फरवरी 2014 की बाजार कीमत 20 रुपये) से 30% नीचे थी।  बैंक ने 45.07 लाख शेयर अपने मौजूदा शेयर धारकों को दिए।

राइट इश्यू पर विस्तार से अध्याय 11 में बताया गया है।

ऑफर फॉर सेल (Offer for Sale-OFS)

राइट इश्यू के विपरीत, प्रमोटर पूरे बाजार के लिए शेयर का सेकेंडरी इश्यू ला सकता है। इसमें मौजूदा शेयरधारक वाला बंधन नहीं होता। एक्सचेंज OFS के लिए ब्रोकर के जरिए बिक्री की सुविधा देते हैं। एक्सचेंज इस ऑफर की अनुमति तभी देते हैं जब प्रमोटर अपने शेयर बेचना चाहते हों और साथ ही पब्लिक शेयर होल्डिंग की कम से कम सीमा का उल्लंघन भी ना करें।  उदाहरण के तौर पर सरकारी कंपनियों यानी पीएसयू (PSU) में पब्लिक शेयर होल्डिंग की सीमा 25% है। 

OFS में एक फ्लोर प्राइस होता है जो कंपनी तय करती है। इस प्राइस के ऊपर रिटेल और नॉन रिटेल दोनों ही तरह के निवेशक बिड (bid) डाल सकते हैं। कट ऑफ प्राइस के ऊपर के सभी बिड में शेयर अलॉट किए जाते हैं। एक्सचेंज T+1 डे में ये शेयर डीमैट अकाउंट में सेटल कर देता है।

OFS का एक उदाहरण एनटीपीसी लिमिटेड (NTPC Limited) का है जिसने 46.35 मिलियन (4.635 करोड़) शेयर 168 रुपये के फ्लोर प्राइस पर ऑफर किए थे। यह इश्यू 2 दिन में पूरा सब्सक्राइब हो गया था। यह ऑफर फॉर सेल 29 अगस्त 2017 को रिटेल इन्वेस्टर के लिए और 30 अगस्त 2017 को नॉन रिटेल इन्वेस्टर के लिए खुला था।

फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर (Follow-on Public Offer-FPO)

एफपीओ (FPO) का भी मुख्य उद्देश्य अतिरिक्त पूंजी जुटाना होता है। यह भी शेयर के लिस्ट होने के बाद पूंजी जुटाने का एक तरीका है लेकिन इसमें एप्लीकेशन और अलॉटमेंट के लिए एक अलग प्रक्रिया अपनाई जाती है। FPO में शेयर को डाइल्यूट (Dilute) किया जा सकता है और नए शेयर भी जारी किए जा सकते हैं जिन्हें निवेशकों को एलॉट किया जा सकता है। IPO की तरह FPO में भी मर्चेंट बैंकर की जरूरत पड़ती है जो रेड हेयरिंग प्रोस्पेक्टस बनाकर सेबी को देता है और सेबी की मंजूरी के बाद बिडिंग शुरू की जा सकती है। बिडिंग के लिए 3-5 दिन का समय होता है। इन्वेस्टर ASBA  (Application Supported by Blocked Amount) के रास्ते अपनी बिड डाल सकते हैं। बुक बिल्डिंग के बाद जब कट ऑफ प्राइस तय हो जाती है तो फिर शेयर एलॉट कर दिए जाते हैं। 2012 में OFS का रास्ता खुल जाने के बाद से पूंजी जुटाने के लिए FPO का इस्तेमाल शायद ही कभी होता है क्योंकि इसकी प्रक्रिया थोड़ी लंबी है।

कंपनी एक प्राइस बैंड तय करती है और FPO का विज्ञापन किया जाता है। जो निवेशक इस में पैसा लगाना चाहते हैं वो ASBA  के रास्ते या फिर किसी बैंक ब्रांच के जरिए इसमें पैसा लगा सकते हैं। बोली लगाने की प्रक्रिया खत्म होने पर कट ऑफ प्राइस तय किया जाता है। कट ऑफ प्राइस शेयरों की माँग के आधार पर तय होता है। फिर शेयर एलॉट होते हैं और उन्हें शेयर बाजार पर लिस्ट कर दिया जाता है। 

FPO का एक उदाहरण है इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड। कंपनी फरवरी 2014 में इश्यू ले कर आई थी। इश्यू में प्राइस बैंड था 145 से 150 रुपये। इश्यू 3 गुना सब्सक्राइब हुआ था और ट्रेडिंग के पहले दिन शेयर ₹151.10 पर बिक रहा था। इसका मतलब इश्यू का लोअर प्राइस बैंड बाजार कीमत से 4.2% नीचे था।

OFS और FPO का अंतर

  • OFS का इस्तेमाल प्रमोटर की शेयर होल्डिंग कम करने के लिए किया जाता है जबकि FPO का इस्तेमाल नए प्रोजेक्ट के लिए पूंजी जुटाने के लिए किया जाता है।
  •  FPO में चूंकि शेयरों की संख्या बढ़ती है इसलिए शेयर होल्डिंग पैटर्न बदल जाता है। जबकि OFS में ऑथराइज्ड शेयर की संख्या नहीं बदलती है।
  • मार्केट कैपिटलाइजेशन के हिसाब से ऊपर की सिर्फ 200 कंपनियों को OFS से पैसे जुटाने की सुविधा मिलती है जबकि FPO के रास्ते से सभी कंपनियां पैसे जुटा सकती हैं।
  •  जब से OFS का रास्ता सेबी ने खोला है FPO आने कम हो गए हैं और कंपनियां OFS के रास्ते पैसे जुटाना ज्यादा पसंद करती हैं

 

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शुरू कैसे करें! https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%82-%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%82-%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82/#comments Fri, 13 Sep 2019 18:56:09 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5692 आपने अब तक 12 अध्याय पढ़ लिए, बहुत कुछ समझ लिया, अब आप आगे का सफर शुरू करने के लिए तैयार हैं।  पूरे पहले मॉड्यूल में आपको स्टॉक मार्केट या शेयर बाज़ार से परिचित करवा दिया गया है। हमारी कोशिश रही है कि वो सारे विषय आप समझ जाएं जिनको जानना आपके लिए, एक निवेशक […]

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आपने अब तक 12 अध्याय पढ़ लिए, बहुत कुछ समझ लिया, अब आप आगे का सफर शुरू करने के लिए तैयार हैं। 

पूरे पहले मॉड्यूल में आपको स्टॉक मार्केट या शेयर बाज़ार से परिचित करवा दिया गया है। हमारी कोशिश रही है कि वो सारे विषय आप समझ जाएं जिनको जानना आपके लिए, एक निवेशक के तौर पर ज़रूरी है, खासकर तब जब आप बाज़ार के लिए एकदम नए हैं। अब भी अगर आपके दिमाग में सवाल बचे हैं, तो अच्छी बात है, क्योंकि आगे आने वाले मॉड्यूल में हम उनके जवाब देंगे। 

यहाँ हम ये बताना भी ज़रूरी समझते हैं कि हमने इतने मॉड्यूल क्यों बनाए हैं, और वो आपस में कैसे जुड़े हुए हैं। एक बार फिर से नज़र डाल लीजिए कि कौन से मॉड्यूल हमने बनाएं हैं।

  1. स्टॉक मार्केट का परिचय
  2. टेक्निकल एनालिसिस
  3. फंडामेंटल एनालिसिस 
  4. फ्यूचर ट्रेडिंग 
  5. ऑप्शन थ्योरी 
  6. ऑप्शन स्ट्रैटेजीज
  7. क्वांटिटेटिव कॉन्सेप्ट्स 
  8. कमोडिटी बाज़ार 
  9. रिस्क मैनेजमेंट और ट्रेडिंग फिलॉसफी 
  10. ट्रेडिंग स्ट्रैटेजीज और सिस्टम्स 
  11. फाइनेंशियल मॉडलिंग फॉर इंवेस्टमेंट प्रैक्टिस 

13.1 इतने सारे मॉड्यूल – आपस में कैसे जुड़े हैं? 

जेरोधा- वारिसटी (Zerodha- Varsity) में हमारी कोशिश है कि बाज़ार से जुड़े अच्छे शैक्षिक विषयों को आपतक पहुंचा सके। इसमें शामिल विषय हैं फंडामेंटल एनालिसिस, टेक्निकल एनालिसिस, डेरिवेटिव्स, ट्रेडिंग स्ट्रैटेजीज, रिस्क मैनेजमेंट आदि। हर मुख्य विषय पर एक मॉड्यूल है। लेकिन अगर आप बाज़ार में नए हैं या कहें कि नए निवेशक हैं तो आपको ये लग सकता है कि ये सारे विषय आपस में जुड़े हुए कैसे हैं? 

 

इस सवाल के जवाब में आपसे एक सवाल करना ज़रूरी है। आपको क्या लगता है कि बाज़ार में सफल होने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है? बाज़ार में सफलता का मतलब है कि आप खूब सारे पैसे बनाएं और अगर आप पैसा नहीं बना रहे हैं, तो आप असफल हैं। तो मेरे सवाल के जवाब में, आपके दिमाग में बहुत सारी बातें आएंगी, जैसे- रिस्क मैनेजमेंट, अनुशासन, टाइमिंग (timing) यानी सही वक्त पर सही फैसला, बाज़ार से जुड़ी जानकारी इत्यादि। 

इन चीजों के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन ज्यादा ज़रूरी और प्राथमिक है एक दृष्टिकोण या नज़रिया (Point of view) बनाना । 

दृष्टिकोण या नज़रिया वो चीज है जो आपको बताती है कि बाज़ार किस दिशा में जाएगा। अगर आपको लगता है कि बाज़ार ऊपर जाएगा, तो आपका नज़रिया तेज़ी का है, और आप शेयर खरीदेंगे। इसी तरीके से अगर आपका नज़रिया मंदी का है, तो आप बाज़ार में शेयर बेचेंगे।

लेकिन ये नज़रिया आप कैसे बना सकते हैं? आप कैसे तय करेंगे कि बाज़ार ऊपर जाएगा कि नीचे? 

नज़रिया या दृष्टिकोण बनाने के लिए एक सही कार्य प्रणाली से बाज़ार का परीक्षण (Analysis) करना होगा। कुछ तरीके हैं जिनका इस्तेमाल कर आप ये परीक्षण कर सकते हैं। 

  1. फंडामेंटल एनालिसिस
  2.  टेक्निकल एनालिसिस 
  3. क्वांटिटेटिव एनालिसिस
  4. बाहर का नज़रिया (Outside views) 

आपको समझाने के लिए हम एक उदाहरण देते हैं कि एक ट्रेडर के दिमाग में क्या चल रहा होता है, जब वो अपना नज़रिया बना रहा होता है। 

फंडामेंटल एनालिसिस पर आधारित दृष्टिकोण – कंपनी के तिमाही नतीजे अच्छे दिख रहे हैं, कंपनी ने बिक्री में 25% और मुनाफे में 15%  वृद्धि दिखाई है। कंपनी ने आगे का भविष्य यानी गाइडेंस (Guidance) भी अच्छा बताया है। तो ये सारे फंडामेंटल संकेत शेयर में तेज़ी दिखाते हैं और इसलिए ये शेयर खरीदने की श्रेणी में है। 

टेक्निकल एनालिसिस पर आधारित दृष्टिकोण – MACD इंडिकेटर तेज़ी दिखा रहा है और ये बुलिश कैंडलस्टिक पैटर्न (Bullish Candlestick Pattern) के साथ है। इसको देखने पर शेयर छोटी अवधि के लिए (Short Term) तेज़ी में दिखता है और इसे खरीदा जा सकता है। 

क्वांटिटेटिव एनालिसिस पर आधारित दृष्टिकोण – पिछले दिनों की तेज़ी के बाद शेयर के PE ने तीसरे स्टैंडर्ड डेविएशन ( 3rd Standard Deviation) को छू लिया है। PE के तीसरे स्टैंडर्ड डेविएशन को तोड़ने की उम्मीद 1% ही है। इसलिए ये मानना बेहतर होगा कि शेयर की चाल बदल रही है और ये बेचे जाने के लिए तैयार है। 

बाहर का नज़रिया (Outside views)- टेलिविजन पर आ रहे एनालिस्ट शेयर में खरीदारी की सलाह दे रहे हैं इसलिए शेयर खरीदा जा सकता है।

 

आपका नज़रिया आपकी अपनी एनालिसिस पर आधारित होना चाहिए ना कि किसी और के कहने से, क्योंकि बाद में आप किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। 

अपना नज़रिया बनाने के बाद आप आमतौर पर क्या करेंगे? क्या सीधे बाज़ार में जाएंगे और सौदे करने लगेंगे? वास्तव में बाज़ार की पेचीदगियां यहीं से शुरू होती हैं। 

अगर आपका नज़रिया तेज़ी का है तो आप…

  1. स्पॉट मार्केट में शेयर खरीद सकते हैं।
  2. डेरिवेटिव बाज़ार में शेयर खरीद सकते हैं।
      1. डेरिवेटिव में आप शेयर का फ्यूचर खरीद सकते हैं।
      2. या आप ऑप्शन में सौदे कर सकते हैं। 
        1. ऑप्शन में कॉल ऑप्शन (Call Option) भी है और पुट ऑप्शन (Put Option) भी है।
        2. आप कॉल और पुट ऑप्शन का एक मिश्रण ले कर सिंथेटिक बुलिश ट्रेड (Synthetic Bullish Trade) भी कर सकते हैं। 

तो अपना नज़रिया बनाने के बाद आप क्या करेंगे यह एक अलग ही खेल है। सही इंस्ट्रूमेंट को चुनना ही आपके नज़रिए को ट्रेडिंग में सफल या असफल बनाता है। 

उदाहरण के लिए, अगर मैं एक शेयर को लेकर एक साल के लिए तेज़ी में हूं तो मेरे लिए अच्छा ये होगा कि मैं उस शेयर को डिलीवरी ट्रेडिंग में लेकर रख लूं। लेकिन अगर मैं कम समय के लिए तेज़ी का नज़रिया रखता हूं, जैसे कि 1 हफ्ता, तो फ्यूचर का कोई इंस्ट्रूमेंट मेरे सौदे के लिए बेहतर होगा। 

अगर मैं तेज़ी में हूं लेकिन उस नज़रिए में कुछ शर्तें जुड़ी हुई हैं, जैसे- मुझे लगता है कि बाज़ार बजट भाषण के बाद उछलेगा, लेकिन मैं बहुत रिस्क या जोखिम लेने को तैयार नहीं हूं तो मेरे लिए ऑप्शन इंस्ट्रूमेंट बेहतर होंगे। 

तो कुल मिलाकर बाज़ार के हर खिलाड़ी को अपना नज़रिया बनाना चाहिए और उसके लिए सही ट्रेडिंग इंस्ट्रूमेंट चुनना चाहिए, तभी आप बाज़ार में सफल हो सकते हैं। 

उम्मीद है कि अब तक आपको समझ आ गया होगा कि अलग-अलग मॉड्यूल कैसे बाज़ार की एक पूरी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। 

 

 

फ्लो चार्ट के शब्द 

  • Fundamental Analysis – फंडामेंटल एनालिसिस
  • Technical Analysis – टेक्निकल एनालिसिस
  • Quantitative Analysis – क्वांटिटेटिव एनालिसिस
  • Outside view – बाहरी नज़रिया
  • Point of view- नज़रिया या दृष्टिकोण 
  • Trading terminal – ट्रेडिंग टर्मिनल 
  • Spot market transaction – स्पॉट मार्केट सौदे
  • Derivative market transaction – डेरिवेटिव्स मार्केट सौदे
  • Futures – फ्यूचर्स 
  • Options – ऑप्शंस 
  • Call option – कॉल ऑप्शन
  • Put option – पुट ऑप्शन 
  • Over 400 strategies can be built using the combination of call and put options – इनसे मिलाकर करीब 400 तरीके की स्ट्रैटेजी या रणनीति बनाई जा सकती है।

इसको ध्यान में रखते हुए जेरोधा वारसिटी (Zerodha Varsity) के अध्यायों को पढ़ेंगे तो आपको फायदा होगा।

अगले 2 मॉड्यूल में टेक्निकल और फंडामेंटल एनालिसिस पर आधारित नज़रिया (PoV – Point of View) बनाना सीखेंगे। 

इन 2 मॉड्यूल के बाद जब आपको नज़रिया बनाना आ जाएगा तब आगे के मॉड्यूल में अलग अलग ट्रेडिंग इंस्ट्रूमेंट की जानकारी दी जाएगी, ताकि आप आपने नज़रिए पर आधारित इंस्ट्रूमेंट चुन सकें। साथ ही आगे बढ़ने पर सौदों को बेहतर बनाने के लिए सफल रिस्क मैनेजमेंट तकनीक बताएंगे। 

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निवेश की ज़रूरत https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%b0%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a4%a4/ https://zerodha.com/varsity/chapter/%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a5%87%e0%a4%b6-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%b0%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a4%a4/#comments Wed, 04 Sep 2019 12:42:51 +0000 https://zerodha.com/varsity/?post_type=chapter&p=5615 1.1 कोई निवेश क्यों करे? इस सवाल का जवाब देने से पहले ये समझते हैं कि अगर निवेश नहीं करेंगे तो क्या हो सकता है। मान लीजिए कि आप 50,000 रुपये हर महीने कमाते हैं, और 30,000 रुपये आपका महीने का खर्च है। आपकी मासिक बचत 20,000 रुपये रहती है। इस उदाहरण को आसान रखने […]

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महंगाई दर से निपटने के लिए निवेश करना ज़रूरी है।

1.1 कोई निवेश क्यों करे?

इस सवाल का जवाब देने से पहले ये समझते हैं कि अगर निवेश नहीं करेंगे तो क्या हो सकता है। मान लीजिए कि आप 50,000 रुपये हर महीने कमाते हैं, और 30,000 रुपये आपका महीने का खर्च है। आपकी मासिक बचत 20,000 रुपये रहती है। इस उदाहरण को आसान रखने के लिए अभी इसमें इनकम टैक्स को नहीं जोड़ेंगे। अब ये मान लीजिए कि-

  • आपकी कंपनी कर्मचारियों का बहुत ख्य़ाल रखती है और हर साल तनख्वाह 10 परसेंट बढ़ाती है
  • जीवन यापन खर्च – कॉस्ट ऑफ लिविंग (cost of living)  हर साल 8 परसेंट से बढ़ता है
  • आप 30 साल के हैं और 50 पर रिटायर होना चाहते हैं, तो कमाने के लिए आपके पास 20 साल है
  • रिटायरमेंट के बाद आप किसी भी तरह का काम नहीं करेंगे 
  • आपके खर्चे नहीं बदलेंगे 
  • हर महीने जो 20,000 बचते हैं, वो कैश या नकद के रूप में आपके पास रहता है
वर्ष सालाना आय सालाना व्यय नकदी बचत
1 600000 360000 240000
2 660000 388800 271200
3 726000 419904 306096
4 798600 453496 345104
5 878460 489776 388684
6 966306 528958 437348
7 1062937 571275 491662
8 1169230 616977 552254
9 1286153 666335 619818
10 1414769 719642 695127
11 1556245 777213 779032
12 1711870 839390 872480
13 1883057 906541 976516
14 2071363 979065 1092298
15 2278499 1057390 1221109
16 2506349 1141981 1364368
17 2756984 1233339 1523644
18 3032682 1332006 1700676
19 3335950 1438567 1897383
20 3669545 1553652 2115893
सम्पूर्ण बचत 17890693

आप अगर ऊपर दिए गए नंबर को देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि 20 साल के बाद हालात डरावने हो सकते हैं। 

  1. 20 साल की मेहनत से आप सिर्फ 1 करोड़ 70 लाख ही जोड़ पाए
  2. क्योंकि आपके खर्चे फिक्स थे, तो आपने अपना रहने का तौर-तरीका भी नहीं बदला। शायद आपने कई अकांक्षाओं जैसे बड़ी गाड़ी, बड़ा घऱ ,घूमना फिरना को दबा दिया
  3. रिटायरमेंट के बाद अगर खर्चे 8 परसेंट की दर से बढ़ेंगे, तो 1.7 करोड़ से आपके मोटे तौर पर 8 साल निकल जाएँगे, और उसके बाद क्या करेंगे, ये आप सोच लें। 

क्या करेंगे आप 8 साल के बाद, जब पूरी सेविंग निकल जाएगी। ज़िदगी की गाड़ी कैसे चलेगी? क्या कोई तरीका है जिससे 20 साल में 1.7 करोड़ से कहीं ज्यादा रकम जोड़ी जा सके? 

उदाहरण स्थिती को थोड़े बदलाव के साथ देखते हैं। मान लीजिए कि आपने 20 हजार नकद के रूप में नहीं रखा बल्कि इसे निवेश किया एक ऐसे विकल्प में जो 12 परसेंट हर साल रिटर्न देता है। उदाहरण के तौर पर- पहले साल में आपने बचाए 2,40,000, जिसे आपनें 12 परसेंट की दर पर निवेश किया 20 साल के लिए, और ये रुपये 20 साल में हो जाएँगे 20,67,063

साल सालाना आय सालाना खर्च जमा नकद 12% की दर पर विकल्प में निवेश
1 600000 360000 240000 2067063
2 660000 388800 271200 2085519
3 726000 419904 306096 2101668
4 798600 453496 345104 2115621
5 878460 489776 388684 2127487
6 966306 528958 437348 2137368
7 1062937 571275 491662 2145363
8 1169230 616977 552254 2151566
9 1286153 666335 619818 2156069
10 1414769 719642 695127 2158959
11 1556245 777213 779032 2160318
12 1711870 839390 872480 2160228
13 1883057 906541 976516 2158765
14 2071363 979065 1092298 2156003
15 2278499 1057390 1221109 2152012
16 2506349 1141981 1364368 2146859
17 2756984 1233339 1523644 2140611
18 3032682 1332006 1700676 2133328
19 3335950 1438567 1897383 2125069
20 3669545 1553652 2115893 2115893
20 साल के बाद निवेश राशि 42695771

जो पैसे हर महीने बचते हैं, उसे निवेश करने से आपके पैसे तेज़ रफ्तार से बढ़ते हैं, और नतीजा दिखता है- अच्छी खासी रकम के रूप में। चार्ट में देखिए 20 साल के बाद आपके पास पहले की तुलना में 1.76 करोड़ के बजाए 4.26 करोड़ रुपये जुड़ जाएंगे जो 2.4 गुणा बढ़त है। और इस बढ़त का साफ मतलब है कि रिटायरमेंट के बाद आपकी ज़िंदगी ज्यादा सुकून से कटेगी। 

अब आते हैं, उस सवाल पर जो इस अध्याय का शीर्षक है- निवेश क्यों करना चाहिए। कुछ बहुत ज़रूरी वजहे हैं-

  1. महंगाई दर से निपटने के लिए- बढ़ती मंहगाई हमारे पैसे की वैल्यू कम करती है। निवेश करने से इस समस्या से निपटा जा सकता है। 
  2. बड़ी पूँजी जोड़ने के लिए- ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, उससे एकदम साफ है कि कैसे निवेश करने से रिटायरमेंट तक आपके पास एक बहुत बड़ी रकम जमा हो सकती है, लेकिन सिर्फ रिटायरमेंट के लिए ही नहीं, निवेश करने से और भी बड़े महत्वपूर्ण काम जैसे बच्चे की पढ़ाई, शादी, घऱ खरीदना, इस तरह के काम के लिए भी पैसे आसानी से जोड़े जा सकते हैं।
  3. आपकी वित्तीय अकांक्षाओं, ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए

1.2 कहाँ निवेश करें? 

अब हमें ये पता चल गया है कि निवेश करना क्यों ज़रूरी है। अगला सवाल हमारे मन में आता है कि निवेश कहाँ करना चाहिए, और किस तरह के रिटर्न की उम्मीद करनी चाहिए। निवेश करने में सबसे पहले आपको चुनना होता है – एसेट क्लास, जो आपके रिस्क लेने की क्षमता से मेल खाता हो। रिटर्न और रिस्क के हिसाब से निवेश को अलग अलग कैटेगरी या श्रेणी में बाँटा जाता है। इन श्रेणियों को अंग्रेजी में एसेट क्लास कहते हैं। कुछ जाने माने एसेट क्लास के नाम नीचे दिए गए हैं-

  1. फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रूमेंट्स 
  2. इक्विटी
  3. रियल एस्टेट 
  4. कमोडिटी ( प्रेशियस मेटल – बहुमूल्य धातु)

फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रूमेंट्स

निवेश के इस विकल्प में जो मूलधन ( प्रिंसिपल अमाउंट) होता है, वो सुरक्षित रहता है। इस निवेश पर रिटर्न आपको ब्याज के तौर पर मिलता है। ब्याज आपको सालाना, छह महीने या तीन महीने पर मिल सकता है। निवेश की मियाद खत्म होने पर, जिसे निवेश का मैच्योरिटी पीरियड भी कहते हैं, पूँजी ( कैपिटल) आपको वापस दे दी जाती है। 

 

फिक्सड इनकम निवेश के विकल्प

  1. बैंक फिक्स्ड डिपॉजिट
  2. सरकारी बॉन्ड (जो सरकार जारी करती है)
  3. सरकारी कंपनियों के बॉन्ड
  4. कॉरपोरेट बॉन्ड

जून 2014 के हिसाब से फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रूमेंट्स का रिटर्न 8 से 11 परसेंट के बीच में होता है। 

इक्विटी

इक्विटी में निवेश का मतलब है शेयर बाज़ार में लिस्ट हुई कंपनियों के शेयर खरीदना। शेयर की ट्रेडिंग या खरीद-बिक्री दोनों स्टॉक एक्सचेंज – बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (Bombay Stock Exchange- BSE) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (National Stock Exchange- NSE) पर होती है।

जब आप इक्विटी में निवेश करते हैं, तो पूँजी या कैपिटल की गारंटी तो नहीं होती लेकिन इक्विटी में जो रिटर्न मिलता है, वो काफी आकर्षक हो सकता है। भारतीय शेयर बाज़ार का रिटर्न पिछले 15 साल में 14-15 परसेंट CAGR ( Compound Annual Growth Rate) के आस पास रहा है। 

 

कई जानी-मानी भरोसेमंद कंपनियों ने लंबे वक्त में 20 परसेंट CAGR तक की कमाई करवाई है।  लेकिन ऐसी कंपनियों के ढ़ूँढने के लिए कुशलता, मेहनत और सब्र की सख्त ज़रूरत होती है। 

अगर आप इक्विटी में निवेश 1 साल से ज्यादा अवधि के लिए करते हैं तो निवेश से निकलने पर 1 लाख रुपये तक का मुनाफा टैक्स फ्री रहता है। 1 लाख के ऊपर की कमाई पर 10 परसेंट टैक्स लगता है। 1 अप्रैल 2018 से पहले ये कमाई पूरी तरह से टैक्स फ्री थी। लेकिन अभी भी ये टैक्स रेट बाकी एसेट क्लास के मुकाबले कम है। 

 

रियल एस्टेट

रियल एस्टेट के तहत आप निवेश मकान, दुकान या ज़मीन में करते हैं। इस निवेश से दो तरह की कमाई हो सकती है। एक कमाई रेंट या किराए के रूप में हो सकती है, दूसरी कमाई प्रॉपर्टी की कीमत में बढ़ोतरी से होती है। लेकिन इस निवेश में बहुत पेचीदगी और उलझन होती है। वक्त बहुत लग सकता है और साथ ही निवेश के लिए काफी बड़ी रकम की ज़रूरत होती है। रियल एस्टेट का रिटर्न नापने का कोई आधिकारिक फॉर्मूला नहीं है इसलिए इस पर टिप्पणी करना मुश्किल है। 

 

कमोडिटी- बुलियन

सोना और चांदी निवेश का जाना-माना विकल्प है। लंबे वक्त में सोना और चांदी, दोनों की कीमत में इज़ाफा होता है। इन दोनों में 20 साल तक के निवेश से लगभग 8 परसेंट CAGR तक का रिटर्न मिला है। इनमें निवेश गहने खरीद कर किया जा सकता है या फिर एक्सचेंज ट्रेडेड फंड ( Exchange Traded Fund- ETF )  के ज़रिए।

 

हमने जो शुरूआत में उदाहरण दिया था, अब उसी को ध्यान में रखते हुए ये पता करने की कोशिश करते हैं कि अगर 20 साल के लिए कोई फिक्स्ड इनकम, इक्विटी और बुलियन में निवेश करता है, तो कितनी रकम जुड़ेगी। 

  1. अगर फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रुमेंट में निवेश किया और रिटर्न औसतन 9 परसेंट सालाना मिला तो 3.3 करोड़ रुपये मिलेंगे
  2. इक्विटी में अगर 20 साल के लिए निवेश किया और रिटर्न औसतन 15 परसेंट सालाना हुआ तो 5.4 करोड़ रुपये
  3. बुलियन यानि सोने-चांदी में निवेश में रिटर्न 8 परसेंट सालाना का मान कर चलें तो 3.09 करोड़ रुपये

तो साफ है कि इक्विटी में निवेश सबसे बढ़िया रिटर्न देता है, खासकर तब जब आप लंबे वक्त के लिए निवेश करते हैं। 

 

निवेश से जुड़ी ज़रूरी बातें-

जब निवेश करते हैं तो ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि सारा निवेश एक ही एसेट क्लास में न हो। निवेश को अलग अलग एसेट क्लास में बाँटना बहुत ज़रूरी है, और इस प्रक्रिया को एसेट एलोकेशन कहते हैं। 

उदाहरण के लिए, 23-25 साल की उम्र वाले युवा प्रोफेशनल ज्यादा रिस्क ले सकते हैं क्योंकि उनकी उम्र कम है और निवेश के लिए वक्त ज्यादा है। ऐसे में उन्हें कुल निवेश का लगभग 70 परसेंट इक्विटी में लगाना चाहिए, 20 परसेंट बुलियन में और बाकी फिक्स्ड इनकम निवेश में। 

इसी तरह जो निवेशक रिटायर हो चुका है, कायदे से उसके कुल निवेश का 80 परसेंट फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रुमेंट में, 10 परसेंट इक्विटी में और 10 परसेंट बुलियन में होना चाहिए। ये जो रेश्यो है कि किस एसेट क्लास में कितना परसेंट निवेश होना चाहिए, वो निवेशक के रिस्क लेने की क्षमता पर निर्भर करता है। 

 

1.3 निवेश शुरू करने के पहले किन बातों की जानकारी होनी चाहिए? 

निवेश करना ज़रूरी है लेकिन निवेश शुरू करने के पहले ये बातें जान और समझ लें – 

  1. रिस्क या ज़ोखिम और रिटर्न जुड़े हुए हैं। ज्यादा रिस्क होगा, तो ज्यादा रिटर्न होने की संभावना है। कम रिस्क होगा, तो रिटर्न भी कम होगा।
  2. अगर चाहते हैं कि निवेश किया गया मूलधन सुरक्षित रहे, तो फिक्सड इनकम वाले निवेश के विकल्प बेहतर होगें। इनमें रिस्क कम होता है। लेकिन ध्यान रखें कि लंबे वक्त में महंगाई दर की वजह से जो भी रकम आपके हाथ में आएगी, उसकी वैल्यू कम होगी। उदहारण के तौर पर – बैंक फिक्स्ड डिपॉजिट आपको 9 परसेंट रिटर्न देता है, और महंगाई दर अगर 10 परसेंट है , तो आपको 1 परसेंट का नुकसान हो रहा है। फिक्स्ड इनकम वाले विकल्प उनके लिए हैं, जिनकी रिस्क लेने की क्षमता बहुत कम होती है। 
  3. महंगाई से निपटने में आपकी मदद करेगा इक्विटी।  अगर पुराना डेटा निकाल कर देखें तो ये पता चलता है कि लंबे वक्त तक इक्विटी में निवेश करने पर 14-15 परसेंट तक का रिटर्न मिलता है। लेकिन ध्यान रखें कि इक्विटी में निवेश के साथ जोखिम भी जुड़ा है। 
  4. ज़मीन जायदाद या फिर रियल एस्टेट में निवेश करने के लिए एक साथ बड़ी रकम की ज़रूरत पड़ती है, और इस तरह के निवेश से निकलने में काफी वक्त लगता है। ज़मीन-जायदाद आप कभी भी खरीद या बेच नहीं सकते हैं। आपको खरीदने और बेचने के लिए सही वक्त पर सही खरीददार और बेचने वाला चाहिए होगा। 
  5. सोना- चांदी निवेश के सुरक्षित विकल्प माने जाते हैं, लेकिन इनका रिटर्न बहुत ज्यादा आकर्षक नहीं है।

इस अध्याय की ज़रूरी बातें

  1. अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए निवेश करें।
  2. जो रकम आप अपने लक्ष्य के लिए जोड़ना चाहते हैं वो निवेश के विकल्प के रिटर्न पर निर्भर करती है। दो विकल्पों के रिटर्न के बीच में थोड़ा सा भी अंतर रकम पर काफी असर डाल सकता है। 
  3. ऐसा विकल्प चुनें जो आपके रिस्क या जोखिम लेने की क्षमता के मुताबिक हो।
  4. अगर आप महंगाई दर के असर से सुरक्षित रहना चाहते हैं, तो आपके पूरे निवेश का कुछ हिस्सा इक्विटी में होना ज़रूरी है। 

 

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